दक्षिणी राजस्थान के एक हिस्से में पिछले दिनों किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि वहां की कुल आबादी लगभग सात लाख में से लगभग दो लाख लोग ‘नारू’ नामक एक भयानक बीमारी से पीड़ित हैं। वहां लोगों को यह बीमारी प्रदूषित जल पीने से हुई है।
उसी तरह कुछ दिनों पहले ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ के वैज्ञानिकों ने एक बार फिर यह चेतावनी दी है कि वाराणसी में गंगा में स्नान करने वाले गंगाजल ना पीएं, क्योंकि इससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ सकता है। जाहिर है कि ‘हिंदू विश्वविद्यालय’ के वैज्ञानिकों को यह चेतावनी इसलिए देनी पड़ी है कि बनारस में शहर भर की गंदगी के गंगा में मिलने के कारण वहां गंगा का पानी बेहद प्रदूषित हो चुका है और इसके इस्तेमाल का मतलब है, बीमारी को निमंत्रण देना।
पर इन से भी ज्यादा चौंकाने वाली रिपोर्ट तो मुंबई की है। उत्तर-पूर्व मुंबई से गुजरकर अरब सागर में मिलने वाली काली-नदी का पानी इतना ज्यादा प्रदूषित हो चुका है कि इस नदी में मछलियां तो खैर जीवित नहीं ही बची हैं, अलबत्ता इसके पानी के इस्तेमाल से हजारों की संख्या में लोग पक्षाघात तथा दूसरी बीमारियों से पीड़ित हैं। मवेशी बीमार हो रहे हैं और मर रहे हैं और बहुत बड़े इलाके में खेती चौपट हो गई है।
इन तथ्यों का पता तब चला जब इंस्टीट्यूट आफ साइंसेज के वैज्ञानिकों ने मुंबई में अंबिवली से लेकर टिटवाला तक के 10 किलोमीटर लंबे भाग में जगह-जगह से काली नदी के पानी का नमूना लेकर उसकी जांच की तथा वहां रहने वाली आबादी पर इसके प्रभाव का सर्वेक्षण किया। और तो और, राजधानी दिल्ली के चिकित्सा विशेषज्ञों का मत है कि यमुना-पार क्षेत्र के कुल 16 लाख आबादी का 10 फीसद लगभग डेढ़ लाख लोग प्रदूषित जल को इस्तेमाल करने के कारण छह रोग के मरीज हो चुके हैं।
यह तो खैर कुछ खबरें हैं, जो कि हाल में अखबारों की सुर्खियों में थीं। पर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश का कोई ऐसा शहर या गांव नहीं है जहां प्रदूषित जल की समस्या ना हो। सच पूछा जाए तो प्रदूषित जल आज देश में स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती हो चुका है।
देश में जल-प्रदूषण इसलिए भी है क्योंकि यहां की 90 फीसद नदियां तथा सहायक नदियों से ही पेयजल की प्राप्ति होती है। जो प्रदूषण की गिरफ्त में हैं। अन्य विकासशील देशों की भांति अपने देश में भी जल प्रदूषण के खतरे से मुक्ति के लिए कोई कारगर तथा ठोस विकल्प नहीं खोजा जा सका है।
यद्यपि देश में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को पूर्णतः नहीं अपनाया गया है। तथापि जल प्रदूषण का संकट यहां ऐसे खतरनाक धरातल पर पहुंच गया है कि कभी भी देश में ‘मिनीमाता’ जैसा प्रकोप फैल सकता है।
हमारी प्राचीन मान्यताएं हमें नदियों में सागर के प्रति श्रद्धा करना सिखाती हैं। पर वास्तविकता है कि हम सभी प्रकार की गंदगी और अवशेष इन्हीं पूज्य नदियों में डालकर मुक्त हो जाते हैं। अजीब स्थिति तो यह है कि सरकार भी इससे चिंतित नहीं है।
देश की 15 बड़ी नदियों के किनारे 80 फीसद आबादी निवास करती है। पर इन नदियों में प्रतिदिन हजारों जली-अधजली लाशों तथा पशुओं के शव प्रवाहित किए जाते हैं। इनके तटों पर अवस्थित हजारों औद्योगिक प्रतिष्ठान अपनी गंदगी और विषैले अवशेषों को नदी में प्रवाहित करते हुए न सिर्फ सौंदर्य नष्ट कर रहे हैं, बल्कि एक ऐसी स्थिति पैदा कर रहे हैं। जिसकी भविष्य में हमें भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
पर देश के ग्रामीण अंचलों में तो स्थिति और भी खराब है, वहां पर प्रायः कुएं, तालाब, नाले का पानी उपयोग में लाया जाता है। गांव में बसने वाली भारत के तीन चौथाई आबादी में से मात्र 22 फीसद के लिए ही अभी तक पेयजल की व्यवस्था की जा सकी है।
गांव में अधिकतर कुओं के ऊपर जगत नहीं है। तथा वे कच्चे हैं। बरसात में वे कुएं भर जाते हैं। जिससे तमाम रोगों की किटाणु उनमें आसानी से प्रविष्ट कर जाते हैं। कुओं में समुचित दवा का भी गांव में प्रबंधन नहीं है। दूसरी ओर ताल-पोखरों में आदमी तथा जानवर नहाते हैं। मैले कपड़े धोए जाते हैं तथा कृषि अवशेषों को साफ किया जाता है। फलतः व्यापक स्तर पर प्रदूषित होते हैं। प्रदूषित जल के कारण जनस्वास्थ्य को गंभीर खतरा पैदा हो चुका है।
यह एक चिंताजनक तथ्य है कि देश के प्रथम श्रेणी के 142 नगरों में से मात्र 9 नगर ही ऐसे हैं। जहां पर समुचित जल शोधन तथा निकासी का प्रबंधन है यानी दस लाख तक की आबादी वाले 133 नगर अपना प्रदूषित जल गंगा, कावेरी, गोदावरी, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, ताप्ती, घाघरा, यमुना आदि नदियों में प्रवाहित करते हैं। इन नदी तटों पर स्थित शहरों में देश के सात करोड़ लोग निवास करते हैं। लेकिन अब तक मात्र 300 करोड़ लीटर जल शोधन का ही प्रबंध किया जा सका है। हकीकत तो यह है कि देश की नगर पालिकाओं तथा महापालिकाओं द्वारा निर्मित नालियों के माध्यम से नगरों की 55 फीसद गंदगी नदी में प्रवाहित होती है। मेले-त्यौहारों तथा अन्य धार्मिक उत्सवों में तो प्रदूषण और भी अधिक बढ़ जाता है। उद्योगों का विषैला प्रदूषण नदी में जाकर भूमिगत जल को भी प्रभावित कर रहा है। छोटे नगरों की छोटी नदियां बड़ी मात्रा में प्रदूषित पानी बड़ी नदियों में मिला देती हैं।
चीनी उद्योग से निकलने वाले विषैले अवशेषों के परिणामस्वरूप लखनऊ तथा लखीमपुर खीरी जनपद का पानी विषाक्त होता जा रहा है। आगरा तथा मथुरा में यमुना का पानी पीने योग्य नहीं रहा है। भारतीय पर्यावरण सोसाइटी के वैज्ञानिकों ने दिल्ली के यमुना जल के परीक्षण के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि रासायनिक पदार्थों तथा गंदे तत्वों को विसर्जित किए जाने से यमुना-जल विषाक्त तथा काला पड़ता जा रहा है। दिल्ली के गंदे नालों तथा 4000 औद्योगिक इकाइयों के विषैले अवशेषों को समेटते हुई, यमुना नदी फरीदाबाद की औद्योगिक गंदगी तथा मथुरा के कारखानों की रासायनिक अवशेषों को निगलती हुई एक जहरीली नदी के रूप में आगरा में घुसती है।
यमुना दिल्ली के 48 किलोमीटर लंबी सीमा से होकर गुजरती है। दिल्ली जलापूर्ति का दो-तिहाई हिस्सा यमुना से ही आता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार यमुना से प्रतिदिन 120 करोड़ लीटर पानी काम में लिया जाता है। जिसमें से लगभग 80 फीसद यानी 96 करोड़ लीटर गंदा पानी नदी से वापस लौट जाता है। दिल्ली के गंदे पानी को निथारने के लिए लगे संयंत्र की क्षमता बहुत अपर्याप्त है। केवल 46.6 फीसदी गंदा पानी ही कुछ पूरा और कुछ अधूरा निथारा जा रहा है। बाकी 51.5 करोड़ लीटर गंदा पानी शहर के 17 खुले नालों से सीधा यमुना में जा गिरता है।
सर्वाधिक पवित्र मानी जाने वाली नदी गंगा आज व्यापक स्तर पर प्रदूषण का शिकार बन चुकी है। केंद्रीय जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार आठ लाख की आबादी वाले महानगर इलाहाबाद की गंदगी तथा क्षत-विक्षत लाशों की लगातार गंगा में प्रवाहित किए जाने का परिणाम यह है कि इलाहाबाद से कानपुर तक गंगा जल भयावह स्तर पर प्रदूषण का शिकार हो चुका है।
कुंभ मेले में भयंकर भीड़ के दौरान तो गंगाजल का प्रदूषण और बढ़ जाता है। ‘पश्चिमी बंगाल राज्य प्रदूषण बोर्ड’ के अनुसार वहां गंगाजल इतना प्रदूषित है कि कोलकाता के निकटवर्ती 24-परगना जिले में यह सिंचाई कार्य में भी प्रयुक्त होने लायक भी नहीं रह जाता है।
यहीं प्रसंगवश उल्लेख अन्यथा नहीं होगा कि कोलकाता जैसे महानगर तथा लखनऊ, भुवनेश्वर, जयपुर, त्रिवेंद्रम आदि प्रांतीय राजधानियों में आज भी जल निकासी एवं शोधन की आंशिक व्यवस्था ही हो पाई है। जल प्रदूषण के भयावह खतरे से ने न सिर्फ भारत सरीखे विकासशील देशों के लिए ही नहीं, बल्कि विकसित राष्ट्रों के सामने भी चुनौती खड़ी की है।
विकसित देश जल प्रदूषण समस्या से मुक्ति के लिए नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकों पर अरबों डालर खर्च कर रहे हैं। दुनिया के सामने जल प्रदूषण का कितना बड़ा खतरा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता कि प्रतिदिन 25 हजार व्यक्ति प्रदूषित जल के इस्तेमाल अथवा जल की कमी से मरते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष दुनिया में 50 करोड़ लोग दूषित जल से भयानक रोगों की चपेट में आते हैं। प्रदूषित जल में हैजा, पेचिश, पीलिया, अतिसार आदि संक्रामक रोगों के कीटाणु बसते हैं। प्रदूषित जल की वजह से विकासशील देशों में हर पांच में से चार दुधमुंहे बच्चे बीमारी का शिकार हो जाते हैं। भारत में 80 फीसद बीमारी प्रदूषित जल के कारण होती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि यदि प्रदूषण की वर्तमान स्थिति पर रोक नहीं लगाई गई तो सन 2000 तक देश के अधिकांश नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। और 21वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में उनका जल इतना प्रदूषित हो जाएगा कि उससे दुर्गंध फैलेगी।
दरअसल नदियों का गंदाजल समुद्र में मिलकर प्रदूषण को ज्यादा फैला रहा है। हिंद महासागर में इस समय इतनी भयंकर स्तर पर प्रदूषण जारी है कि अगर यही क्रम रहा तो शीघ्र ही वह विश्व के सबसे प्रदूषित महानगरों की कोटि में आ जाएगा।
समुद्रों में विसर्जित होने वाली गंदगी औद्योगिक अवशेष और आणविक परीक्षण व्यापक स्तर पर सागरों को प्रदूषित कर रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि सामुद्रिक खाद्य (सीफूड) के उत्पादन में 30 फीसद से अधिक की गिरावट आई है। आणविक अस्त्रों के परीक्षण से जल में रेडियोधर्मिता का प्रसार हो रहा है। और समुद्र की सतह पर तेल की जमा हो रही परतों से वर्षा प्रभावित हो रही है।
6100 किलोमीटर लंबी भारतीय समुद्र तट रेखा पर अवस्थित भारत के नगर प्रदूषित जल संकट की भयंकर गिरफ्त में हैं। ‘भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र’ द्वारा किए गए एक परीक्षण के अनुसार समुद्र में गिरने वाले दूषित जल के कारण पानी विषाक्त होता जा रहा है। और इससे मछलियों सहित अन्य समुद्री जीवो में पारे की मात्रा काफी बढ़ गई है। प्रतिदिन समुद्र तटों पर 4.2 बिलियन गैलन गंदगी विसर्जित होती है। कीटनाशक तथा अन्य रसायन और डीडीटी आदि बड़ी मात्रा में नदियों के द्वारा सागर में मिल जाते हैं।
नवीनतम वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार डीडीटी से कैंसर, ट्यूमर होता है। इसलिए पश्चिमी देशों में इसका उपयोग पूर्णतः प्रतिबंधित कर दिया गया है। मगर भारत समेत अनेक विकासशील देशों में मलेरिया उन्मूलन हेतु अभी भी भारी मात्रा में इसका उपयोग किया जाता है।
परिवहन व्यय से बचने के लिए अनेक उद्योग सागर तटों पर लगाए जा रहे हैं। पर उनके अवशेषों को अलग कहीं फेंकने के बजाय सागर में ही बहाया आ रहा है। औद्योगिक इकाइयों से होने वाले प्रदूषण का ही परिणाम है कि बंगाल की खाड़ी में पानी में पारा तथा अन्य विषैले पदार्थों की मात्रा में तीव्रता से बढ़ोतरी हो रही है। परीक्षणों में यह पाया गया है कि हिंद महासागर के समुद्री जीवों में जिंक, निकल, कोबाल्ट, मैग्नीज ऐसे तत्वों की मात्रा बढ़ गई है।
पर प्रदूषण के इस खतरे का हमारे पास क्या विकल्प है? ‘केंद्रीय जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण बोर्ड’ ने बहुत पहले जल प्रदूषण से संभावित खतरों की चेतावनी दे दी थी। बावजूद इसके आज तक इस दिशा में कोई ठोस तथा प्रभावी कार्यवाही नहीं की जा सकी है। जल प्रदूषण को रोकने के लिए एक कानून ‘जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण अधिनियम 1974’ लागू किया गया है। पर यह अधूरा कानून है, तथा इसके द्वारा किसी भी अपराधी को दंडित नहीं किया जा सकता। इसमें व्यावहारिक पहलुओं का समावेश तथा प्रभावी क्रियान्वयन जरूरी है।
‘केंद्रीय जल आयोग’ द्वारा जल प्रदूषण के संकट से निपटने के लिए कुछ कारगर तथाव्यावहारिक सुझाव जरूर दिए गए हैं। जिनमें ग्रामीण क्षेत्रों में पक्के कुओं तथा शौचालय तथा कूड़ा घरों का निर्माण एवं शहरी क्षेत्रों में जल की बर्बादी रोकने के लिए गंदे जल को शोधित करने का सुझाव है। पर इन पर गंभीरता से अमल करना अभी बाकी है। जल प्रदूषण पर रोकथाम के लिए काफी धनराशि की जरूरत होगी और उसका प्रभाव निश्चित रूप से हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। देश के 142 प्रथम श्रेणी के नगरों में जल शोधन के बाद पानी नदी में प्रवाहित किए जाने की व्यवस्था पर कर्च 1180 करोड़ पर आ गया है। साथ ही खतरे से जूझने के लिए नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकों की भी जरूरत है। उत्तर प्रदेश समेत विभिन्न राज्यों में जल प्रदूषण अधिनियम लागू करके उसके क्रियान्वयन हेतु केंद्र सरकार द्वारा नए विभागों का खोला जाना, इस दिशा में सार्थक कदम माना जा सकता है।
‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ द्वारा निर्मित 15 वर्षीय योजना का पिछले वर्ष सूत्रपात किया गया है, जो तीन चरणों में पूरी होगी। शहरों में भूमिगत नालियों के निर्माण होती योजना आयोग ने अट्ठारह सौ पचास करोड़ का प्रावधान छठीं पंचवर्षीय योजना में किया है, जो कि उचित निर्णय है।
लेकिन यह उम्मीद करना बेकार है कि सिर्फ सरकारी स्तर पर प्रयास करके ही प्रदूषण को रोका जा सकता है। इसके लिए गैर सरकारी संस्थाओं और आम जनता को आगे आना होगा। इस संदर्भ में बनारस और होशंगाबाद का उदाहरण काफी प्रेरणादायक है।
बनारस में नगरपालिका के एक दर्जन भूतपूर्व सभासदों ने भूतपूर्व विधायक शंकर प्रसाद जायसवाल के नेतृत्व में एक आंदोलन चला रखा है। जिसके परिणाम स्वरुप बनारस नगर महापालिका को गंगा में मिलने वाले नालों का पानी उस पार ले जाने की व्यवस्था करनी पड़ रही है। जायसवाल के नेतृत्व में चलाए जा रहे इस आंदोलन के कारण लोगों में काफी चेतना आई है और अचरज नहीं होगा कि यदि निकट भविष्य में कम से कम बनारस में गंगा में मिलने वाली गंदगी पूरी तरह से बंद हो जाए।
बनारस की भांति ही मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर के जागरूक नागरिक नागरिकों ने ‘नर्मदा बचाओ अभियान’ शुरू किया है और वहां पर यह अभियान 1979 से जारी है और इसमें भारी जनसमर्थन के कारण स्थानीय निकाय को नर्मदा में मिलने वाली शहरी गंदगी को रोकने के लिए कार्रवाई करनी पड़ी है। क्या अन्य शहरों के लोग भी इस उदाहरण से इन उदाहरणों से प्रेरणा लेंगे।
अरविंद कुमार सिंह