जलवायु परिवर्तन और अमेरिका समेत दुनियाभर में आगजनी की बढ़ती घटनाओं की मार से जूझ रही धरती के लिए एक और बुरी खबर है। दुनिया की प्रतिष्ठित संस्था इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (प्च्ब्ब्) ने सोमवार को चेतावनी दी कि अगर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम नहीं किया गया तो वर्ष 2100 तक धरती का तापमान दो डिग्री तक बढ़ सकता है। इससे भारत में चमोली जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं।
धरती की सम्पूर्ण जलवायु प्रणाली के हर क्षेत्र में पर्यावरण में हो रहे बदलावों को दुनिया भर के वैज्ञानिक देख रहे हैं। जलवायु में हो रहे अनेक परिवर्तन तो अप्रत्याशित हैं जो सैकड़ों-हजारों सालों में भी नहीं देखे गये। कुछ बदलाव तो पहले ही अपना असर दिखाना शुरू कर चुके हैं, जैसे कि समुद्र के जलस्तर में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी। इन बदलावों का असर हजारों सालों तक खत्म नहीं किया जा सकता। इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की आज जारी हुई रिपोर्ट में इन बातों के लिये आगाह किया गया है।
वैश्विक तापमान को स्थिर होने में 20 से 30 साल लग सकते हैं
आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप वन की रिपोर्ट ‘क्लाइमेट चेंज 2021 : द फिजिकल साइंस बेसिस’ के मुताबिक हालांकि कार्बन डाइआक्साइड तथा अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में मजबूत और सतत कटौती किए जाने से जलवायु परिवर्तन सीमित हो जाएगा। जहां हवा की गुणवत्ता के फायदे तेजी से सामने आएंगे, वहीं वैश्विक तापमान को स्थिर होने में 20 से 30 साल लग सकते हैं। इस रिपोर्ट को आईपीसीसी में शामिल 195 सदस्य देशों की सरकारों ने पिछली 26 जुलाई को शुरू हुए दो हफ्तों के वर्चुअल अप्रूवल सेशन के दौरान शुक्रवार को मंजूरी दी है। वर्किंग ग्रुप 1 की रिपोर्ट आईपीसीसी की छठी असेसमेंट रिपोर्ट (एआर6) की पहली किस्त है।
यूरोपियन क्लाइमेट फाउंडेशन के ब्म्व् लारेंस टुबियाना कहते हैं, ‘विश्व के नेताओं को जलवायु परिवर्तन के बारे में गंभीर होने की जरूरत है। पेरिस समझौते ने सरकारों द्वारा कार्रवाई में तेज़ी लाने के लिए एक स्पष्ट रूपरेखा तैयार की है। अफसोस की बात है कि कई बड़े प्रदूषक देश उस समझौते को अनदेखी कर रहे हैं जिसे उन्होंने प्रदान करने में मदद की, और 2015 में किए गए अपने वादों को तोड़ रहे हैं। हम अभी भी 1.5 डिग्री से नीचे रह सकते हैं, लेकिन इसे विलंबित और इंक्रीमेंटल उपायों से हासिल नहीं किया जा सकता। सरकारों को संयुक्त राष्ट्र महासभा में कड़ी कार्रवाई करने, गरीब देशों के लिए समर्थन की पेशकश करने और उनकी जलवायु योजनाओं को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए।’
भारत से संबंधित कुछ प्रमुख निष्कर्ष
आईपीसीसी की इस हालिया रिपोर्ट से साफ़ ज़ाहिर होता है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने का वक़्त हाथ से फिसल चुका है और ऐसे में भारत चाहे वह चमोली में आई आपदा हो, सुपर साइक्लोन ताउते और यास हों और देश के कुछ हिस्सों में हो रही जबरदस्त बारिश हो, भारत जलवायु से संबंधित जोखिमों का सामना कर रहा है। ब्व्च्26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा कहते हैं, ‘विज्ञान स्पष्ट है, जलवायु संकट के प्रभावों को दुनिया भर में देखा जा सकता है और अगर हम अभी कार्रवाई नहीं करते हैं, तो हम जीवन, आजीविका और प्राकृतिक आवासों पर सबसे ख़राब प्रभाव देखना जारी रखेंगे। हर देश, सरकार, व्यवसाय और समाज के हिस्से के लिए हमारा संदेश सरल है। अगला दशक निर्णायक है, विज्ञान का अनुसरण करें और 1.50ब् के लक्ष्य को जीवित रखने के लिए अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार करें।’
शर्मा ने कहा, ‘महत्वाकांक्षी 2030 एमिशन रिडक्शन टार्गेट्स और सदी के मध्य तक नेट ज़ीरो के मार्ग के साथ दीर्घकालिक रणनीतियों के साथ आगे बढ़कर, और कोयला बिजली को समाप्त करने के लिए अभी कार्रवाई कर के, इलेक्ट्रिक वाहनों के रोल आउट में तेज़ी ला कर, वनों की कटाई से निपटने और मीथेन उत्सर्जन को कम करते हुए, हम यह एक साथ कर सकते हैं।’
विशेषज्ञों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस तक जाने पर भारत के मैदानी इलाकों में तपिश, अत्यधिक गर्मी और जानलेवा आसमान से बरसती आग जैसी मौसम की मार वाली घटनाएं में इज़ाफा होना तय है। अगले दस सालों में जानलेवा गर्मी की घटनाओं में बढ़ोत्तरी से निपटने के लिए भारतवासियों को कमर कस लेनी चाहिए। इनमें दस वर्ष में 5 गुना तक इजाफा मुमकिन है। अगर ग्लोबल वार्मिंग 2 डिग्री सेल्सियस तक होती है तो अपने अधिकांश मैदानी हिस्सों में तपती गर्मी के चलते जीना दूभर हो जायेगा ।
भारी बारिश से दक्षिण भारत में आएगी तबाही
वार्षिक औसत वर्षा में वृद्धि का अनुमान है। वर्षा में वृद्धि भारत के दक्षिणी भागों में अधिक गंभीर होगी। दक्षिण-पश्चिमी तट पर, 1850-1900 के सापेक्ष वर्षा में लगभग 20ः की वृद्धि हो सकती है। यदि हम अपने ग्रह को 4 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करते हैं, तो भारत में सालाना वर्षा में लगभग 40ः की वृद्धि देखी जा सकती है। ऐसे में अत्यधिक वर्षा जल और बाढ़ से बचने का बंदोबस्त हमारे सामने एक बड़ी चुनौती होगी। 7,517 किमी समुद्र तट के साथ, भारत को बढ़ते समुद्री जलस्तर का सामना करना पड़ेगा।
एक अध्ययन के अनुसार,ग्लोबल वार्मिंग के चलते अगर समुद्र का स्तर 50 सेंटीमीटर बढ़ जाता है तो छह भारतीय बंदरगाह शहरों – चेन्नई, कोच्चि, कोलकाता, मुंबई, सूरत और विशाखापत्तनम में – 28.6 मिलियन लोग तटीय बाढ़ की चपेट में आ जाएंगे। बाढ़ के संपर्क में आने वाली संपत्ति लगभग 4 ट्रिलियन अमेरिकी डालर की होगी। भारत के वे क्षेत्र जो समुद्र के स्तर से नीचे होंगे और समुद्र के स्तर में 1 मीटर की वृद्धि होगी।
छह सबसे प्रदूषित शहरों का घर है भारत
आईपीसीसी ने कहा कि भारत दुनिया के दस में से छह सबसे प्रदूषित शहरों का घर है और लगातार वायु प्रदूषण से जूझ रहा है – 2019 में वायु प्रदूषण के चलते देश में 1.67 मिलियन लोगों का जीवन दांव पर लगा है। सबसे ज्यादा इसकी चपेट में गरीब और मेहनतकश शहरों में कम करके रोटी रोजी कमाने वाले लोग हैं। वहीं दूसरी तरफ यह ग्लोबल स्तर पर दुनिया का तीसरा सबसे अधिक मीथेन उत्सर्जित करने वाला देश है। इन दोनों प्रदूषकों पर लगाम कसने की चुनौती हमारे सामने खड़ी है ।
भारत में, हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर क्षेत्र में रहने वाले 240 मिलियन लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण जल आपूर्ति है, जिसमें 86 मिलियन भारतीय शामिल हैं, जो संयुक्त रूप से देश के पांच सबसे बड़े शहरों के बराबर है। पश्चिमी हिमालय के लाहौल-स्पीति क्षेत्र में ग्लेशियर 21वीं सदी की शुरुआत से बड़े पैमाने पर खो रहे हैं, और अगर उत्सर्जन में गिरावट नहीं होती है, तो हिंदू कुश हिमालय में ग्लेशियरों में दो-तिहाई की गिरावट आएगी।
घटेंगी विनाशकारी घटनाएं
जलवायु परिवर्तन पर प्च्ब्ब् की नयी रिपोर्ट में सोमवार को कहा गया कि समुद्र के स्तर की चरम घटनाएं जो पहले 100 वर्षों में एक बार होती थीं, इस सदी के अंत तक हर साल हो सकती हैं। वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि समुद्र के स्तर में वृद्धि के साथ बाढ़, भारी वर्षा और ग्लेशियर का पिघलना जैसी चरम प्राकृतिक घटनाएं बढ़ने की आशंका हैं। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (प्च्ब्ब्) की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (।त्6) ‘क्लाइमेट चेंज 2021ः द फिजिकल साइंस बेसिस’ में कहा गया है कि मानवीय हस्तक्षेप के कारण दुनिया के हर क्षेत्र में पर्यावरण में बदलाव आ रहा है।
100 साल की जगह हर साल तबाही
प्च्ब्ब् कार्यकारी समूह एक की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘तटीय क्षेत्रों में 21वीं सदी के दौरान समुद्र के स्तर में निरंतर वृद्धि देखी जाएगी। निचले इलाकों में बाढ़ के साथ भूमि क्षरण की जो चरम घटनाएं पहले 100 वर्षों में एक बार होती थीं, इस सदी के अंत तक हर साल होने लगेंगी।’ ।त्6 की पूरी रिपोर्ट 2022 में तैयार होगी, और यह उसका पहला भाग है।
उबालेगी प्रचंड गर्मी
प्च्ब्ब् के 195 सदस्य राष्ट्रों द्वारा 26 जुलाई से दो सप्ताह के लिए डिजिटल तरीके से बैठक में मंजूर रिपोर्ट में अनुमान जताया गया है कि आने वाले दशकों में सभी क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन में वृद्धि होगी। इसमें कहा गया है कि वैश्विक स्तर पर 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से गर्म हवा की लहर, गर्मी के मौसम में वृद्धि होगी और ठंड की अवधि घट जाएगी। वहीं, दो डिग्री तापमान वृद्धि होने पर प्रचंड गर्मी के साथ कृषि क्षेत्र और स्वास्थ्य पर भी इसका गंभीर असर पड़ेगा।
बढ़ने लगेगी बारिश
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘जलवायु परिवर्तन से केवल तापमान ही नहीं बढ़ेगा, बल्कि अलग-अलग क्षेत्रों में भी व्यापक बदलाव होंगे। नमी के स्तर, शुष्कता में बढ़ोतरी होगी, हवा के रूख, तटीय इलाकों और समुद्र पर भी असर पड़ेगा।’ इसमें कहा गया है, ‘उदाहरणस्वरूप, जलवायु परिवर्तन से बारिश का रुख भी बदलता है। उच्च अक्षांश वाले क्षेत्रों में वर्षा में वृद्धि होने की आशंका है, जबकि उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के ज्यादातर हिस्सों में इसके कम होने का अनुमान है। मानसून की वर्षा में परिवर्तन अपेक्षित है, जो क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग होगा।’ कहीं सूखा, कहीं बाढ़, चक्रवात और लू…तबाही से बचने का अब रास्ता नहीं? जानें, क्या कहती है प्च्ब्ब्रिपोर्ट।
शून्य कार्बन उत्सर्जन ही इलाज
बहरहाल, रिपोर्ट में उम्मीद जतायी गयी है कि विज्ञान के दृष्टिकोण से तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने से इन परिवर्तनों की रफ्तार, चरम प्राकृतिक घटनाएं कम की जा सकती हैं। प्च्ब्ब् रिपोर्ट के लेखकों में शामिल और आक्सफर्ड विश्वविद्यालय में ‘एन्वायरमेंटल चेंज इंस्टिट्यूट’ के असोसिएट निदेशक डॉ. फ्रेडरिक ओटो ने कहा, ‘अगर हम 2040 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन के स्तर पर पहुंच जाएं तो 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य तक पहुंचने की दो-तिहाई संभावना है और अगर सदी के मध्य तक शून्य कार्बन उत्सर्जन के स्तर पर पहुंच जाएं तो इस लक्ष्य को हासिल करने के एक तिहाई आसार हैं।’
ओटो ने कहा, ‘तापमान में वृद्धि को रोकने के लिए कार्बन डाइआक्साइड, मिथेन और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली अन्य गैसों का उत्सर्जन तेजी से और लगातार घटाना जरूरी है। इसके साथ ही हवा की गुणवत्ता में सुधार करने के प्रयास भी करने होंगे।’
लग जाएंगे 20-30 साल
रिपोर्ट में कहा गया है कि हवा की गुणवत्ता में सुधार के असर तेजी से दिखेंगे, लेकिन वैश्विक तापमान के स्थिर होने में 20-30 साल लग जाएंगे। धरती के गर्म होने से बर्फ का दायरा भी घटेगा, हिमनद पिघलते जाएंगे और ग्रीष्मकालीन आर्कटिक समुद्री बर्फ भी पिघल जाएंगी।
रिपोर्ट के अनुसार, ‘समुद्र में भी असर दिखेगा। पानी और अम्लीय होगा और आक्सीजन का स्तर घट जाएगा जो कि प्रत्यक्ष तौर पर इंसानी दखल से जुड़ा हुआ है। इन बदलावों से समुद्र की पारिस्थितिकी और इस पर आश्रित लोग भी प्रभावित होंगे।’
बताए समाधान भी
रिपोर्ट में कहा गया है कि शहरों में जलवायु परिवर्तन के कुछ पहलुओं का असर तेजी से दिख सकता है। गर्मी बढ़ेगी (शहरी क्षेत्र आमतौर पर अपने परिवेश से अधिक गर्म होते हैं), भारी वर्षा की घटनाओं से बाढ़ की आशंका और तटीय इलाकों में स्थित शहरों में भी समुद्र के बढ़ते जल स्तर से असर पड़ेगा। पहली बार, छठी मूल्यांकन रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन का अधिक विस्तृत क्षेत्रीय मूल्यांकन प्रदान करती है। इसमें उन उपयोगी सूचनाओं का भी जिक्र किया गया है कि कैसे खतरे का आकलन कर सकते हैं, हालात के मुताबिक कदम उठा सकते हैं।
रिपोर्ट में बताया गया है कि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करके और अन्य प्रदूषणकारी कारकों को घटाकर इंसानों के पास अब भी इसकी शक्ति है कि वह अपने कदमों से जलवायु के भविष्य का निर्धारण कर सकता है।
उत्तम सिंह गहरवार