केरल में अक्टूबर महीने में बाढ़ से कम से कम 42 लोगों की मौत हुई। अक्टूबर में ही उत्तराखंड में बाढ़, बारिश और भूस्खलन से 100 से ज्यादा लोगों की मौत। अक्टूबर महीने में गंगा का उफान पर होना। ये सामान्य घटनाएं नहीं हैं। ये क्लाइमेट चेंज की समस्या की गंभीरता को बयां करती हैं। यह तो विनाश का शुरूआती प्रतिबिंब है, अगर इसे गंभीरता से नहीं लिया गया तो दुनियाभर के तमाम तटीय शहर एक दिन समंदर का निवाला बन जाएंगे और मानव सभ्यता का वजूद भी मिट सकता है।
पूरी दुनिया इस चुनौती से निपटने की रणनीति बनाने में जुटी है। 01 नवम्बर से ब्रिटेन के ग्लासगो में 26वां यूएन क्लाइमेट चेंज कान्फ्रेंस (ब्व्च्26) शुरू होने जा रहा है। 31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक चलने वाले इस कान्फ्रेंस पर पूरी दुनिया की नजरें होंगी। ब्व्च्26 का मुख्य अजेंडा यह है कि ‘नेट जीरो’ उत्सर्जन का लक्ष्य कैसे हासिल किया जाए। भारत ऐसे टारगेट से खुद को दूर रखेगा, जिसके लिए उसकी अपनी दलीलें हैं। आइए समझते हैं कि क्या है ‘नेट जीरो’ उत्सर्जन और क्यों भारत क्लाइमेट जस्टिस की बात करते हुए विकसित देशों को उनकी जिम्मेदारी याद दिला रहा है।
क्या है ‘नेट जीरो’ उत्सर्जन
क्लाइमेट चेंज के लिए क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जिम्मेदार है। ‘नेट जीरो’ जिसे कार्बन न्यूट्रैलिटी भी कहा जाता है, इसका मतलब यह नहीं है कि कोई देश ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बिल्कुल ही न करे यानी एकदम शून्य कर दे। इसका मतलब यह है कि कोई देश वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का जितना उत्सर्जन कर रहा है, उतना ही उसे सोख और हटा भी रहा है या नहीं। यानी वातावरण में वह देश ग्रीन हाउस गैसों को न बढ़ा रहा हो। उदाहरण के तौर पर जंगलों और ग्रीन कवर को बढ़ाकर इन गैसों को सोखा जा सकता है और फ्यूचरिस्टिक टेक्नोलाजीज के जरिए इन गैसों को वातावरण से हटाया जा सकता है। इलेक्ट्रिक वीइकल, ग्रीन फ्यूल के इस्तेमाल, सोलर एनर्जी, इको-फ्रेंडली टेक्नोलाजीज के जरिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जा सकता है।
इस तरह यह भी संभव है कि किसी देश का उत्सर्जन जीरो से कम हो यानी वह जितना ग्रीन हाउस गैस वातावरण में छोड़ रहा है, उससे ज्यादा वह सोख और हटा रहा है। दुनिया में भूटान और सूरीनाम दो ऐसे देश हैं जिन्होंने ‘नेट जीरो’ उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल कर लिया है। भूटान को तो अक्सर कार्बन-नेगेटिव देश कहा जाता है, क्योंकि वह ग्रीनहाउस गैसों का जितना उत्सर्जन करता है, उससे ज्यादा को वह सोख लेता है।
‘नेट जीरो’ उत्सर्जन के लक्ष्य और भारत
अबतक 132 देशों ने 2050 से पहले तक ‘नेट जीरो’ उत्सर्जन तक पहुंचने का लक्ष्य रखा है। कुल वैश्विक उत्सर्जन में करीब 30 प्रतिशत हिस्सेदारी वाले चीन ने भी इसके लिए 2060 का लक्ष्य रखा है, हालांकि अभी उसका रोडमैप ही स्पष्ट नहीं है। दूसरी तरफ तमाम दबावों को दरकिनार कर भारत नेट जीरो उत्सर्जन के लिए किसी भी तरह के कमिटमेंट से इनकार कर रहा है।
भारत दुनिया के लिए पेश कर रहा नजीर
कई अध्ययन बताते हैं कि जी-20 देशों में भारत इकलौता ऐसा देश है, जो तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के पेरिस अग्रीमेंट के लक्ष्य को हासिल करने के लिए जरूरी कदम उठा रहा है। यहां तक कि अमेरिका और यूरोपीय देशों के ऐक्शन ‘अपर्याप्त’ हैं। साफ है कि भारत क्लाइमेट चेंज के मोर्चे पर तमाम दूसरे देशों की मुकाबले पहले से ही ज्यादा कर रहा है।
अमेरिका और चीन के बाद भारत ग्रीन हाउस गैसों का दुनिया का तीसरा बड़ा उत्सर्जक देश है। लेकिन पर्यावरण सुरक्षा की मुहिम में भारत नेतृत्व की भूमिका निभा रहा है। ग्रीन एनर्जी के लिए इंटरनैशनल सोलर अलायंस जैसी पहल हो या देश के सबसे बड़े एम्प्लायर भारतीय रेलवे को 2030 तक नेट-जीरो उत्सर्जक बनाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य, ये भारत की गंभीरता को बताते हैं।
फिर नेट-जीरो टारगेट पर भारत को आपत्ति क्यों
क्लाइमेट चेंज की समस्या को दूर करना एक तरह से दुनिया को बचाने जैसा है। किसी को भी लग सकता है कि अगर इसके लिए सभी देशों को ‘नेट जीरो’ उत्सर्जन के लक्ष्य से बांधने की कवायद हो रही है, तो इसमें गलत क्या है। लेकिन बात इतनी सीधी भी नहीं है। भारत इस टारगेट का इसलिए विरोध कर रहा है कि वही इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहा है।
भारत फिलहाल आर्थिक विकास की राह पर तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है। वह दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। करोड़ों लोगों को गरीबी से निकालने के लिए यह जरूरी है कि भारत अगले कई सालों तक लगातार तेजी से आर्थिक विकास की राह पर बढ़े। ऐसे में अगले दो-तीन दशकों तक भारत का कार्बन उत्सर्जन तेजी से बढ़ने की संभावना है।
यही वजह है कि भारत क्लाइमेट जस्टिस की बात कर रहा है। औद्योगीकरण की शुरुआत के बाद से ही अमीर और विकसित देशों ने प्रकृति का अंधाधुंध दोहन किया। इस तरह जमकर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन किया। क्लाइमेट चेंज की विकराल समस्या के लिए बहुत हद तक ये अमीर और विकसित देश ही जिम्मेदार हैं, लेकिन खामियाजा गरीब और विकासशील देशों को उठाना पड़ा है।
अब जब विकासशील देश अपने यहां गरीबी मिटाने, जीवन स्तर को सुधारने की दिशा में बढ़ रहे हैं, तो उनके पैरों में जीरो नेट उत्सर्जन की बेड़ियां डाल दी जाएं, जबकि उत्सर्जन में उनकी हिस्सेदारी बहुत कम रही है। वातावरण से उत्सर्जन हटाने की फ्यूचरिस्टिक टेक्नोलजी अपनाना भी विकासशील देशों के लिए संभव नहीं है, क्योंकि एक तो यह बहुत महंगी है और पूरी तरह विश्वसनीय भी नहीं। नेट-जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य गरीब देशों पर भारी पड़ेगा और इसकी भी सबसे ज्यादा मार गरीबों पर पड़ेगी।
क्यों जरूरी है क्लाइमेट जस्टिस
आक्सफैम और स्टाकहोम एन्वायरमेंट इंस्टिट्यूट की एक हालिया स्टडी पर गौर फरमाते हैं। इसके मुताबिक, 1990 से 2015 के बीच दुनिया की महज 1 प्रतिशत सबसे अमीर आबादी वैश्विक उत्सर्जन के 15 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है। दूसरी तरफ, 50 प्रतिशत सबसे गरीब आबादी महज 7 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है।
‘नेटजीरो’ उत्सर्जन का जिक्र नहीं
2015 में हुए पेरिस अग्रीमेंट में नेट-जीरो लक्ष्य का कोई जिक्र नहीं है। भारत का कहना है कि पेरिस अग्रीमेंट के फ्रेमवर्क से बाहर नेट-जीरो लक्ष्य पर चर्चा से बेहतर है कि सभी देश पहले से किए गए अपने वादों को पूरा करने पर फोकस करें। विकसित देशों के ट्रैक रिकार्ड को देखते हुए उनकी प्रतिबद्धता भी सवालों के घेरे में हैं। नेट-जीरो उत्सर्जन के लक्ष्य का हश्र क्योटो प्रोटोकाल जैसा नहीं होगा, इसकी क्या गारंटी है?
दिसंबर 1997 में दुनिया के तमाम देशों ने पर्यावरण सुरक्षा के लिए क्योटो प्रोटोकाल पर दस्तखत किए थे। अमीर देश उसमें 2020 तक के लिए तय लक्ष्यों को हासिल करना तो दूर, उसके आस-पास तक नहीं पहुंच पाए। कुछ देश तो खुद को क्योटो प्रोटोकाल से अलग कर लिए।
तब अमीर देशों ने वादा किया था कि क्लाइमेट चेंज से निपटने के लिए वे विकासशील और गरीब देशों की मदद करेंगे। उन्हें तकनीक और पैसा मुहैया कराएंगे। विकसित देशों ने वादा किया था कि वह विकासशील और गरीब देशों को 2020 तक हर साल 100 अरब डालर का क्लाइमेट फाइनैंस मुहैया कराएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भारत का तर्क है कि नेट जीरो टारगेट का हश्र भी क्योटो प्रोटोकाल जैसा हो सकता है।