अगर हम वास्तव में पर्यावरण की सुरक्षा चाहते हैं तो फिर हमें आकाश, वायु, जल, अग्नि/सूर्य, पृथ्वी इन सब तथा इनसे उत्पन्न अन्य समस्त पेड़, पौधों, वनस्पतियों, खनिज पदार्थों, अन्नों, फलफूलों, रसायनों, जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों, जानवरों आदि की रक्षा करनी होगी, क्योंकि ये सब एक दूसरे पर आश्रित हैं। प्रकृति के सब तत्व जितना अपने जीवन के लिए जरूरी है, उतना ही दूसरे से लेते देते रहें तो पर्यावरण का संकट खड़ा नहीं होता। इसीलिए भारतीय दर्शन में त्यागपूर्वक भोग का जीवन सिद्धांत माना गया है।
‘ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किंच जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।
यानि अखिल ब्रहमाण्ड में जो भी चीजें हैं सब ईश्वर का ही रूप हैं। इनका परिग्रह नहीं वरन् त्यागपूर्वक उतना ही भोग करो, जितना कर्तव्य पालन के लिए जरूरी है।
इसके विपरीत आज हम पृथ्वी और समुद्र के गर्भ में छिपे समस्त खनिज पदार्थों, रसायनों, पेड, पौधों, वनस्पतियों, अन्नों का अधिकाधिक दोहन करके उनका भंडारण और एकाधिकार प्राप्त करके उनके माध्यम से दूसरों का शोषण करके अधिकाधिक धन और सत्ता बटोरना चाहते हैं। शोषण की इस प्रकिया के मूल में है हिंसा और शोषण पर आधारित सामाजिक ढांचा।
मनुष्य आज न केवल प्राकृतिक संसाधनों का असंतुलित और अविवेकपूर्ण शोषण कर रहा है, बल्कि एक राज्य के भीतर मनुष्य और मनुष्य का भयंकर शोषण तथा दोहन चल रहा है और एक देश द्वारा दूसरे देश अथवा एक समाज द्वारा दूसरे समाज के दोहन और शोषण का संगठित अभियान चल रहा है। इस अभियान का ही एक रूप आज का औद्योगिक और तकनीकी विकास है। आज के औद्योगिक तथा तकनीकी विकास का उद्देश्य मनुष्य के जीवन को सरल, सुखकर, आनंद तथा शांतिदायक बनाना न होकर अधिकाधिक दौलत और सत्ता बटोरना है। सत्ता और दौलत की अंधी दौड़ में ही प्रकृति एवं समाज को संचालित करने वाले शाश्वत नियमों का उल्लंघन करके अधर्म का आचरण शासक वर्ग और उद्योग तथा व्यापार करने वालों के द्वारा होता है। यह प्रज्ञापराध जब तक बंद न होगा पर्यावरण संरक्षण के सभी कार्य मात्र ढोंग और पाखंड रहेंगे।
यह एक ऐसा प्रश्न है कि जिसका उत्तर समाज को ढूंढना है। शासक, सरकारी, कर्मचारी और उद्योगपति या व्यापारी इस त्रिगुट से इस प्रश्न के समाधान की आशा करना एक मरुस्थल में मृगमरीचिका जैसा है।
सरकार तो समाज के शीर्ष पर बैठकर अपनी खुराक और शक्ति समाज से ही ग्रहण करती है। जिस समाज के लोग लोभ, मोह और अज्ञान में फंसकर प्रकृति का अथवा परस्पर मनुष्यों के शोषण का विचार मन में रखेंगे उनके शीर्ष पर बैठा राज और अर्थतन्त्र निश्चय ही इस शोषण को बढावा देने वाली व्यवस्था और तकनीकी का विकास करेगा। ऐसा राजतंत्र और अर्थतंत्र सबसे पहले समाज की संचार व्यवस्था अर्थात भाषा और शिक्षा नष्ट करता है।
जैसाकि अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य के समस्त देशों में किया। अंग्रेजों ने भारतीय समाज की भाषा और शिक्षा व्यवस्था को नष्ट करके भारतीय समाज को ज्ञान की प्राचीन धारा से काट दिया और हम आज तक हीनभावना ग्रस्त होकर कटे हुए हैं। सारा पढ़ा-लिखा समाज चाहे वह डाक्टर हो, इंजीनियर हो, वैज्ञानिक हो एक ऐसा ढांचा हो रहा है जो विदेशी साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पूंजी और दौलत बढ़ाता है और जो अमेरिका, रूस, जापान, फ्रांस जैसे तकनीकी रूप से विकसित देशों की दौलत बढ़ाता है।
इसलिए अगर किसी समाज को अपने को प्रदूषण मुक्त करके पर्यावरण संकट से उबारना है तो सबसे पहले उसे अपना वैचारिक प्रदूषण दूर करना होगा। दुर्भाग्य से जब हम पर्यावरण संकट का समाधान खोजते हैं तो हमारा ध्यान इस मूल प्रश्न की ओर नहीं जाता। आज सारा का सारा संचार तंत्र हमारे अंदर खुल्लम-खुल्ला अज्ञान भरने में लगा हुआ है।
टेलीविजन, रेडियो, समाचार पत्र और शिक्षा पद्धति सब समाज को अज्ञान और धोखे में रखकर इस शोषण परक ढांचे को ही बनाये रखना चाहते हैं जो पर्यावरण के संकट का मूल है।
इसलिए यदि हम पर्यावरण संकट का हल वास्तव में करना चाहते हैं तो सर्वप्रथम हमें उपनिवेशवादी भाषा, संस्कृति, शिक्षा, प्रशासन और अर्थ तंत्र बदलना होगा। इनको बदले बिना हम विज्ञान और तकनीकी की दिशा नहीं मोड़ सकते। और अगर हम अपना वैचारिक प्रदूषण दूर करके अपनी सामाजिक आकांक्षाएं स्पष्ट नहीं करते हैं और मौजूदा व्यवस्था को कायम रखकर ही पर्यावरण संकट का समाधान चाहते हैं तो ऐसा कोई आसान रास्ता है नहीं।
आज हमने प्रकृति और पुरुष के शोषण पर आधारित जो हिंसामूलक ढांचा बना रखा है उसके चलते ढाई सौ करोड़ तो क्या अगर भारत सरकार का पूरा बजट गंगा प्रदूषण मुक्ति पर ही खर्च कर दे तो भी गंगा शुद्ध होने वाली नहीं। इसी तरह अगर हम कारखाने और हर शहर में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा दें तो भी पर्यावरण संकट हल नहीं होगा। क्योंकि अव्वल तो इतने साधन नहीं है कि सब जगह ये ट्रीटमेंट प्लांट लग सकें। दूसरे ये ट्रीटमेंट प्लांट अगर उत्प्रवाह का कुछ जहर पानी में जाने से रोकते हैं तो उसे वायु और आकाश में विसर्जित कर और भी भयानक खतरा पैदा करते हैं।
जब हम पर्यावरण संकट के इस स्थायी समाधान की ओर मुड़ेंगे तो हमें अपनी भाषा, शिक्षा, उद्योग, कृषि, वन, आवास, आबकारी, संचार, जनसंख्या आदि समस्त नीतियों को बदलना होगा। एक तरह से पर्यावरण सुधार का प्रश्न समाज सुधार या नयी सामाजिक व्यवस्था का प्रश्न है। और यह प्रश्न खड़ा होते ही एक बार फिर गांधी प्रासंगिक हो जाते हैं।
सत्य और अहिंसा के शाश्वत नियम पर आधारित व्यवस्था ही पर्यावरण संकट का स्थायी समाधान है, वही गरीबी, बेकारी, भुखमरी और असमानता का हल है। एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय। इसलिए आज औद्योगिक कचड़े के ट्रीटमेट की जरूरत नहीं बल्कि समाज के सोच के शुद्धिकरण की आवश्यकता है। जब तक समाज में दूषित विचारों की प्रधानता रहेगी, सरकार से पर्यावरण रक्षा की आशा करना व्यर्थ है।
विकेन्द्रित राजतंत्र और विकेन्द्रित अर्थतंत्र। सादा जीवन और उच्च विचार। यही पर्यावरण की सुरक्षा का मूलमंत्र हो सकते हैं। इन मूल मंत्रों को आधार मानकर जब हम अपना सामाजिक, प्रशासनिक, आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, ढांचा खड़ा करेंगे, कृषि उद्योग, सिंचाई, वन, आवास और आबकारी नीतियां बनायेंगे तो फिर पर्यावरण संकट खड़ा होने का प्रश्न ही नहीं रहेगा। भारत को अपनी जकड़ में ले रही विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल से मुक्ति का भी यही एक उपाय है। अन्यथा जीवन को जटिल बनाने वाली तथाकथित उच्च एवं विकसित तकनीकी दौड़ में हम एक बार फिर अपनी भावी पीढ़ी को उपनिवेशवादी गुलामी की जंजीरों में जकड़ देंगे।
स रामदत्त त्रिपाठी