दुनिया भर में हमारे पूर्वजों ने, वे चाहे किसी भी सम्प्रदाय या धर्म के हों, वन्य-जीवन को बचाने हेतु एक दीर्घकालीन व्यवस्था प्रारंभ कर स्थापित की थी। यह व्यवस्था देवी-देवताओं के पूजन, उनकी नाराजगी एवं प्रेतात्माओं के भय से जुड़ी थी।
वन्य-जीवन के संरक्षण का महाभारत में उल्लेख है एवं कालिदास ने भी अपने साहित्य में इसका वर्णन किया है। इस व्यवस्था के तहत जंगल का कोई चुना हुआ हिस्सा मानव हस्तक्षेप से दूर संरक्षित किया जाता था।
इन वन-क्षेत्रों को अंग्रेजी में ‘सेक्रेड ग्रोव्स’ कहा गया है, परंतु हिन्दी में इनके प्रचलित नाम ‘पवित्र-वन,’ ‘देव-वन’ एवं ‘तपोवन’ बताये गये हैं। इनमें पारम्परिक ग्राम-देवता या कुल-देवता की प्रतिमा स्थापित की जाती थी और पहचान के चिन्ह लगाकर मंदिर निर्माण भी किया जाता था। स्थानीय लोगों का विष्वास था कि ‘पवित्र-वन’ की सारी वनस्पतियां तथा जीव-जंतु किसी वन-देवता की पनाह में होते हैं और इस कारण वहां न तो पेड़ काटे जा सकते और न ही षिकार किया जा सकता। सूखी पत्तियों, आपरूप गिरे फल तथा चारा आदि एकत्र करने की कहीं पाबंदी थी, तो कहीं छूट।
प्रतिबंध एवं पाबंदियां तोड़ने पर वहां के देवता के नाराज हो जाने से इसका परिणाम बाढ़, सूखा, बीमारियां एवं फसल खराब होने के रूप में प्रकट होता था। पवित्र वनों में देवी-देवताओं को उपस्थिति तथा उनके गुस्से से पैदा डर ने इन्हें लम्बे समय तक अक्षुण्ण बनाये रखा।
अंटार्कटिका को छोड़कर, ‘पवित्र-वन’ अन्य सभी महाद्वीपों के देषों में पाये गये हैं। इन वनों में वनस्पतियों तथा जीव-जंतुओं की स्थानीय तथा कुछ दुर्लभ प्रजातियां संरक्षित रहकर फलती-फूलती रही हैं।
हमारे देष में भी ‘पवित्र-वन’ बहुतायत से देखे जा सकते हैं। हमारे यहां लगभग 400 संस्कृतियां, 550 आदिवासी समाज एवं 226 मानव जाति समूहों के साथ-साथ असंख्य भाषाएं भी बोली जाती हैं। इन सभी लोगों से जुड़े विभिन्न समाजों ने अपनी-अपनी परम्पराओं के अनुसार ‘पवित्र-वन’ स्थापित कर वन्य-जीवन को संरक्षण प्रदान किया है। फिलहाल देष के 20 प्रदेषों में 14,000 ‘पवित्र-वन’ होने की जानकारी है, परंतु यह संख्या एक लाख तक बढ़ सकती है।
देष के कई लोग इनकी खोज एवं जानकारियां एकत्र करने में जुटे हैं। ‘पवित्र-वनों’ को देष के राज्यों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। अरूणाचल, उत्तराखंड तथा मध्यप्रदेष के कुछ इलाकों में इन्हें क्रमषः ‘देव-स्थली,’ ‘देव-भूमि’ तथा ‘देव-कोट’ कहा जाता है। झारखंड तथा छत्तीसगढ़ में कहीं-कहीं ये ‘षरण’ नाम से जाने जाते हैं, तो राजस्थान में ‘ओरांस।’
जिन राज्यों में संस्कृतियों की बहुलता तथा आदिवासियों व जन-जातियों की अधिकता है वहां इनकी संख्या भी ज्यादा है। महाराष्ट्र में 250 से अधिक ‘पवित्र-वन’ हैं जो 3570 हेक्टर में फैले हैं। अरूणाचल के तवांग जिले में 11 ‘पवित्र-वन’ हैं।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल सरगुजा जिले के प्रत्येक गांव में एक-एक ‘पवित्र-वन’ है। मेघालय में भी लगभग 1000 वर्ग कि.मी. का क्षेत्र ‘पवित्र-वनों’ का है। आंध्रप्रदेष के 23 जिलों में 800 ‘पवित्र-वन’ देखे गये हैं। केरल के ‘पवित्र-वन’ वहां की लोक-गीतों की संस्कृति व कलाओं से ज्यादा जुड़े पाये गये हैं।
‘पवित्र-वनों’ के नामकरण के कई आधार हैं एवं इनके क्षेत्रफल भी एक समान नहीं हैं। उत्तराखंड में चमौली के पास ‘हरियाली,’ हिमाचल प्रदेष में षिमला के पास ‘देवदार’ एवं कर्नाटक में ‘कोडागू’ नाम के ‘पवित्र-वन’ काफी बड़े हैं। उत्तराखंड का ‘कारीकरन,’ कुर्ग (कर्नाटक) का ‘तालका देवी’ एवं केरल का ‘भगवती’ तथा ‘सबरीवाल मंदिर’ ‘पवित्र-वनों’ में ही स्थापित हैं। राजस्थान के अलवर का ‘रैतगिरी’ व पाहल गांव के ‘षीतलदास’ व ‘गोपालदास देववाणी’ नामक ‘पवित्र-वनों’ में 75 प्रजातियों के पेड़- पौधे हैं। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के तिवरी गांव में स्थित ‘पवित्र-वन’ में 25 वृक्षों की प्रजातियां संरक्षित हैं जो जिले में अन्य कहीं भी नहीं पायी जातीं। ‘पवित्र-वनों’ में स्थानीय पेड़ों के साथ पीपल एवं बरगद का संरक्षण ज्यादा पाया गया है।
मालपुर देवता व विंध्याचल में क्रमषः शीषम, खजूर व पलाष के पेड़ों की अधिकता है। देष के प्रसिद्ध वनस्पतिषास्त्री प्रोफेसर जेडी वार्टक के अनुसार ‘पवित्र-वन’ पेड़ों का प्राकृतिक संग्रहालय, विरल एवं क्षेत्रीय प्रजातियों के साथ संकटग्रस्त प्रजातियों का खजाना एवं औषधीय पौधों का भंडार होते हैं। वनस्पतिषास्त्र के लोगों तथा पर्यावरणविदों के लिए ये विराट प्रयोगषाला होते हैं।
पूर्वजों की धार्मिक आस्थाओं तथा स्थानीय परम्परागत मान्यताओं के आधार पर स्थापित ये ‘पवित्र-वन’ पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के धरातल पर भी खरे पाये गये हैं। इस लिहाज से प्रत्येक ‘पवित्र-वन’ एक पारितंत्र (इकोसिस्टम) है जहां वन्य-जीव एक-दूसरे का सहयोग कर, एक-दूसरे को प्रभावित कर अपने पर्यावरण के साथ संतुलन बनाये रखते हैं।
‘पवित्र-वन’ जैव-विविधता संरक्षण के भी प्रमुख-स्थल (हाट-स्पाट) हैं। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ.एमएस स्वामीनाथन का कहना है कि ‘पवित्र-वन’ स्थानीय स्तर पर जैव-विविधता बचाने की भारतीय परम्पराओं का विषिष्ट उदाहरण हैं। ‘पवित्र-वन’ कई जीवों को आश्रय व संरक्षण प्रदान करने के साथ-साथ रेगिस्तान के फैलाव की रोकथाम, तापमान नियंत्रण एवं जल-संरक्षण में अहम भूमिका निभाते हैं और क्षेत्र-विषेष के जीवों का इतिहास तलाषने में भी सहायक होते हैं।
यह दुखद है कि दुनियाभर में ‘पवित्र-वनों’ की संख्या तेजी से घटती जा रही है। निर्माण कार्य (सड़क, रेल, नहर, बांध आदि), जंगलों का अतिदोहन, षिकार, अतिक्रमण, आग, खरपतवारों (गाजर घास आदि) व विदेषी पेड़ों (सूबबूल आदि) ‘पवित्र-वनों’ पर खतरा बन रहे हैं।
नई पीढ़ियों में धार्मिक आस्थाओं का कम होना एवं पारम्परिक मान्यताओं को नकारना आदि भी ‘पवित्र-वनों’ का महत्व घटा रहे हैं। इस दुखद स्थिति के साथ एक सुखद बात यह भी है कि वैष्विक संस्था ‘इंटरनेषनल यूनियन फार कंजर्वेषन आफ नेचर’ (आययूसीएन) ने ‘पवित्र-वनों’ की हमारी प्रकृति संरक्षण की प्राचीन व्यवस्था को स्वीकार कर सराहना की है।
इस संस्था का कहना है कि ये ‘पवित्र-वन’ जैव-विविधता संरक्षण के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के छोटे-छोटे परंतु बिखरे हुए हथियार हैं। ‘द यूनाइटेड नेषन्स एजुकेषनल, साइंटिफिक एण्ड कल्चरल आर्गेनाइजेषन’ (यूनेस्को) भी ‘पवित्र-वनों’ के महत्व को समझकर उन्हें ‘विष्व धरोहर’ की सूची में शामिल करने हेतु प्रयासरत है। नेपाल का ‘लुम्बिनी’ ‘विष्व धरोहर’ सूची में शामिल भी किया गया है एवं प्राथमिक तौर पर दुनियाभर के करीब 15,000 ‘पवित्र-वन’ इस सूची में शामिल करने हेतु पहचाने गये हैं। हमारे देष में भी वन नीति व कानून में इस प्रकार बदलाव किया जाना चाहिये ताकि ‘पवित्र-वन’ सुरक्षित रहे एवं स्थानीय समाज का इनसे जुड़ाव बढ़े।
डॉ. ओ.पी. जोशी
जलवायु परिवर्तन : दुनिया के तीन अरब लोगों के लिए खतरे की घंटी
एक नई स्टडी के अनुसार साल 2070 तक तीन अरब से भी ज्यादा लोग वैसी जगहों पर रह रहे होंगे जहां टेम्प्रेचर सहने लायक नहीं होगा। जब तक कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी नहीं आएगी, बड़ी संख्या में लोग ये महसूस करेंगे कि औसत तापमान 29 डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा हो गया है।
पर्यावरण की ये स्थिति उस कम्फर्ट जोन से बाहर होगी जिस माहौल में पिछले छह हजार सालों से इंसान फलफूल रहे हैं। इस स्टडी के सहलेखक टिम लेंटन ने बीबीसी को बताया, ये रिसर्च उम्मीद है कि जलवायु परिवर्तन को ज्यादा मानवीय संदर्भों में देखता है। शोधकर्ताओं ने अपनी स्टडी के लिए संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या और वैश्विक तापमान में वृद्धि संबंधी आंकड़ों का इस्तेमाल किया है।
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक भले ही पैरिस जलवायु समझौते पर अमल की कोशिशें की जा रही हैं लेकिन दुनिया तीन डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की तरफ बढ़ रही है। स्टडी के अनुसार इंसानी आबादी छोटे-छोटे जलवायु क्षेत्रों में सघन रूप से बस गई है। ज्यादातर लोग वैसी जगहों पर रह रहे हैं जहां औसत तापमान 11 से 15 डिग्री के बीच है।
आबादी का एक छोटा हिस्सा उन इलाकों में रह रहा है जहां औसत तापमान 20 से 25 सेल्सियस के बीच है। इन जलवायु परिस्थितियों में लोग हजारों सालों से रह रहे हैं। हालांकि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से अगर दुनिया का औसत तापमान तीन डिग्री बढ़ गया तो एक बड़ी आबादी को इतनी गर्मी में रहना होगा कि वे जलवायु की सहज स्थिति के बाहर हो जाएंगे। यूनिवर्सिटी आफ एक्सटेर में ग्लोबल सिस्टम इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर और जलवायु विशेषज्ञ टिम लेंटन की इस स्टडी में चीन, अमरीका और यूरोप के वैज्ञानिकों ने भाग लिया था।
गर्म जगहों पर सघन आबादी
टिम लेंटन कहते हैं, समंदर की तुलना में जमीन ज्यादा तेजी से गर्म होगी। इसलिए जमीन का तापमान तीन डिग्री ज्यादा रहेगा। पहले से गर्म जगहों पर आबादी के बढ़ने की भी संभावना है। इनमें सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में पड़ने वाले अफ्रीका महादेश के ज्यादातर इलाके होंगे। एक व्यक्ति को ज्यादा गर्म माहौल में रहना होगा। गर्म जगहों पर ज्यादा सघन आबादी देखने को मिल रही है। उन गर्म जगहों पर गर्मी और बढ़ रही है। इसी वजह से हम देखते हैं कि तीन डिग्री ज्यादा गर्म दुनिया में औसत आदमी को सात डिग्री अधिक गर्म परिस्थितियों में जीना पड़ रहा है। जिन इलाकों के इस बदलाव से प्रभावित होने की संभावना जाहिर की गई है, उसमें आस्ट्रेलिया, भारत, अफ्रीका, दक्षिण अमरीका और मध्य पूर्व के कुछ हिस्से शामिल हैं। स्टडी में इस बात को लेकर भी चिंता जताई गई है कि गरीब इलाकों में रहने वाले लोग इतनी तेज गर्मी से खुद का बचाव करने में सक्षम नहीं होंगे।
पर्यावरण का कंफर्ट जोन
टिम लेंटन कहते हैं, मेरे लिए ये स्टडी उन अमीरों के बारे में नहीं है जो एयर कंडीशंड इमारतों में किसी भी चीज से खुद को बचा लेंगे। हमें उनकी चिंता करनी है जिनके पास जलवायु परिवर्तन और मौसम से खुद को बचाने के लिए संसाधन नहीं हैं।
टीम की रिसर्च के मुख्य संदेश पर टिम का कहना है कि जलवायु परिवर्तन को अगर नियंत्रित किया जा सके तो इसके बड़े फायदे होंगे, पर्यावरण के कंफर्ट जोन से बाहर रह जाने वाले लोगों की संख्या इससे कम की जा सकेगी। आज जो तापमान है, उसमें होने वाली एक डिग्री की वृद्धि से भी करीब एक अरब लोग प्रभावित होते हैं। इसलिए तापमान में होने वाली वृद्धि की हरेक डिग्री से हम लोगों की रोजी-रोटी में होने वाले बदलाव को काफी हद तक बचा सकते हैं।
विकास ठाकुर
पुराने तरीके नई चुनौतियां : मिलिए असली ईको वारियर्स से
जलवायु परिवर्तन के बारे में उनका ज्ञान भले की सीमित हो लेकिन हजारों सालों से भूमि प्रबंधन, स्थिरता, जलवायु अनुकूलन के आधार पर ज्ञान प्रणालियों का निर्माण करते रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सचिवालय की डॉ. कोको वार्नर का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने में उनकी भागीदारी महत्वपूर्ण है। वो कहती हैं, मैं वाकई भविष्य में ऐसे परिदृश्य की उम्मीद कर रही हूं, जहां हमारे वैल्यू सिस्टम को एक साथ मिलाकर और बढ़ाकर, मनुष्य नई प्रथाओं का विकास करेगा जो प्रकृति में एक सकारात्मक शक्ति हो सकती है।
सहेल : सूखी धरती पर हरियाली की मुहिम
अफ्रीका के सहेल में खेती के पुराने तौर तरीके अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में दोबारा जिंदगी लौटा रहे हैं। 1980 के दशक में बुर्किना फासो में जाई की पारंपरिक प्रथा को पुनर्जीवित किया गया था। बारिश का मौसम शुरू होने से पहले जमीन पर छोटे गड्ढे खोदकर उनमें कंपोस्ट, दूसरे खाद और बीज डाले जाते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से यहां बारिश लगातार कम हो रही है इसलिए यह तरकीब पानी रोकती है और साथ ही मिट्टी की उत्पादन क्षमता को बढ़ाती है और खाने की असुरक्षा दूर करने में थोड़ी राहत देती है। निगेर, माली, सेनेगल और चाड में यह पारंपरिक तरीका अपनाया जाता है।
चाड में रहने वाली म्बोरो ग्रामीण समुदाय की एक स्थानीय महिला हिंडौ ओमरौ इब्राहिम कहती हैं कि जाई को स्थानीय रूप से कराल या बुरिए कहा जाता है। ग्रामीणों ने खेती के लिए कुछ ऐतिहासिक तरीके विकसित किए हैं जिनमें इलाके का इतिहास, लोकेशन, स्थिति समेत सात कारण शामिल हैं। मूंगफली, भिंडी, सेम, मक्का और हाल ही में तरबूज जैसी फसलों के रोपण के समय में खगोलीय और मौसम संबंधी जानकारियां एक बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। इब्राहिम कहती हैं, हमारे लोग सदियों से जीवित हैं। हम पहले से ही एक प्रमाण हैं कि यह तरकीब काम करती है।
आस्ट्रेलिया : आग से आग का मुकाबला
आस्ट्रेलिया में सैकड़ों सालों से आदिवासी लोग जमीन को स्वस्थ रखने, जैव विविधता में सुधार लाने, भोजन पैदा करने और वन्यजीवों के प्रसार को रोकने के लिए जमीन पर आग लगाते रहे हैं। स्वदेशी फायर प्रैक्टिशनर विक्टर स्टीफेंसन बीते दो दशकों से लोगों को कल्चरल बर्निंग सिखा रहे हैं।
उन्होंने साल 2018 में ही इस बात का अनुमान लगा लिया था कि देश में जंगलों में भीषण आग लगेगी। उन्होंने कहा, यह बड़ी जागरूकता की चेतावनी थी। जलवायु परिवर्तन की वजह से जमीन का सही ढंग से प्रबंधन नहीं हो रहा था। इस प्रबंधन में आग बड़ी भूमिका निभाती है। आस्ट्रेलिया के जंगलों में बीते साल लगी आग में करीब 44 लोगों की मौत हुई, करीब एक अरब जानवर खत्म हो गए और कम से कम 3000 घर तबाह हुए।
आग जलाने के स्वदेशी तरीके आस्ट्रेलिया ईकोसिस्टम से अलग हैं। यह एक नाजुक और गिनती की गई प्रक्रिया है। जब वातावरण, मौसम और मौसम के साथ स्थिति सही हो, तो आग को वक्त पर नियंत्रित किया जाता है।
आग जलाने के आकार और तीव्रता में कम रखा जाता है ताकि जानवरों को भागने और जंगली ठिकानों को बचाने के लिए समय मिल सके। यह प्रक्रिया जमीनी सतह की कूड़े की परत और झाड़ियों को भी साफ करती है ताकि प्राकृतिक आग को रोकने में मदद मिल सके।
वो कहते हैं, यह एक ऐसा विज्ञान है जो हजारों वर्षों में विकसित की गई जानकारी पर आधारित है। आस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग के बाद से, स्वदेशी तकनीकों को शामिल करने के लिए पश्चिमी एजेंसियां दिलचस्पी ले रही हैं। स्टीफेंसन इस प्रतिक्रिया का स्वागत करते हैं लेकिन वो अधिक से अधिक सहयोग की बाद भी कहते हैं। उन्होंने कहा, यह एक निर्णायक प्रक्रिया होनी चाहिए जहां एजेंसियां स्वदेशी समुदायों का शोषण न करें।
एंडीज : दीवारों पर खेती
पेरू में माचू पिचू का पुरातात्विक स्थल, छत की खेती का एक बेहतरीन उदाहरण है। वहां, राजघराने के सदस्य (इंकास) ने पत्थरों की उन दीवारों के बीच फसलों को उगाया जो कि एंडीज पहाड़ों की ठंडी और ऊंची धरती पर थी।
पुरानी तकनीक के जरिए विपरीत परिस्थितियों में ढलान पर खाद्यान्न का उत्पादन किया गया। इसमें उर्वरक के रूप में लामा और ऊंट के गोबर का इस्तेमाल कर फल, मेवे, सब्जियां और मसालों की किस्मों की पैदावार की गई।
पेरुवियन एंडीज में एक लाख हेक्टेयर में फैले हुए ऐसे कई क्षेत्र अब भी मौजूद हैं लेकिन उनकी स्थिति खराब है। स्वदेशी क्वेशुआ समुदाय के 28 वर्षीय किसान विल्सन कासा कहते हैं, हमने उनकी उपेक्षा की। कासा, पाल्का के दक्षिणी ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं। उन्होंने पिछले साल अपने इलाके में कुछ परित्यक्त इलाकों को बहाल करने के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास किया।
जलवायु परिवर्तन की वजह से भू-स्खलन से ऐसी जमीन बढ़ी है और यहां पानी का इस्तेमाल कम हो जाता है और इसके जरिए मिट्टी के कटाव को भी रोका जा सकता है। पत्थर की दीवारें दिन के दौरान सूरज की गर्मी को अवशोषित करती हैं और रात में जब तापमान गिरता है तो मिट्टी में छोड़ती हैं।
अमेजन : बेहतरीन ग्रीन गार्डन
अमेजन के गहरे वैज्ञानिक अध्ययन के मुताबिक वर्षावन में समृद्ध पारिस्थितिकी (ईकोलाजी) बड़े पैमाने पर स्वदेशी कृषि की सदियों से चली आ रही रीति की देन है। यहां लगभग 400 जातीय समूहों के साथ-साथ स्वदेशी लोगों में विविधता-उतनी ही समृद्ध है, जितने वे खाद्य पदार्थ पैदा करते हैं। यहां एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बगीचे अलग होते हैं। यहां सैकड़ों खाद्य प्रजातियां उगती हैं।
जब ये बागान परिपक्व होते हैं तो उन्हें फिर से जंगल के रूप में तब्दील होने के लिए छोड़ दिया जाता है। ब्राजील के पूर्वी अमेजन में कायापो समुदाय के एक नेता बेडजाई टक्सुकर्माए निश्चित रूप से हरियाली के दूत की तरह हैं।
वो कहते हैं, अपना खुद का खाना उगाना शहर में इसे खरीदने से कहीं बेहतर है। यही कारण है कि मेरा स्वास्थ्य इतना अच्छा है और मैं बूढ़ा होने के बावजूद इतना मजबूत महसूस करता हूं। उनका समुदाय 56 प्रकार के शकरकंद, 46 प्रकार के कसावा, 40 प्रकार के यम और 13 प्रकार के मक्का उगाता है।
फसलों की इतनी किस्में कई सदियों की मेहनत और खेती का परिणाम हैं। वे लोग अपने जीन बैंक में सुधार के लिए दूसरे गांवों के साथ बीजों की अदला-बदली करते हैं। कयापो ने पर्यावरण को तबाही से बचाने के लिए आधुनिक वैज्ञानिकों के बीज बैंक बनाने के सुझाव से बहुत पहले इन प्रथाओं का विकास किया है।
बेडजाई टक्सुकर्माए का मानना है कि अगर उनके क्षेत्र में मौसम गर्म और सूखा होता है, जैसा कि वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी की है तब भी उनकी फसलों की कई किस्में जीवित रहेंगी और कुछ को वाकई काफी लाभ होगा।
आर्कटिक जलवायु में परिवर्तन
आर्कटिक जलवायु परिवर्तन के लिए बेहद कमजोर है क्योंकि धरती के अधिकांश हिस्सों की तुलना में यहां तापमान तेजी से बढ़ रहा है। इस वजह से अमरीका, कनाडा, रूस, फिनलैंड, नार्वे, स्वीडन और ग्रीनलैंड में रहने वाले 40 से अधिक स्वदेशी समूहों की संस्कृति और आजीविका प्रभावित हो रही है।
डॉ. टेरो मस्टोनन एक जलवायु वैज्ञानिक और नान प्राफिट आर्गेनाइजेशन स्नोवेकेंज के निदेशक हैं, जो पश्चिमी तरीकों को स्वदेशी तरीकों के साथ मिलाकर जलवायु अनुकूलन परियोजनाओं पर काम करते हैं। स्नोकचेंज ने हाल ही में एक व्यापक बहाली परियोजना का समर्थन किया, जिसका नेतृत्व स्काल्ट सामी पालिना फोडोराफ ने नातामो वाटरशेड फिनलैंड में किया।
एक दशक से अधिक समय से उनके स्वदेशी समुदाय ने पानी में लगातार बढ़ रही गरमाहट को महसूस किया है जिसके कारण मछलियों की आबादी में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। और जलवायु परिवर्तन ने पानी की दिशा को भी बदल दिया था।
दो स्थानीय सामी बुजुर्गों को उनकी याददाश्त और तजुर्बे के आधार वायनोसयोकी नदी के असल फैलाव और आकार को चिन्हित करने का काम दिया गया था। उनकी जानकारी के आधार पर ही एक विस्तृत मानचित्र बनाया गया और पुरानी चट्टानों और पत्थरों को वापस उनकी जगह पर लाया गया।
पालिना फोडोराफ बताती हैं कि मछली पालने वाले दोबारा उन्हीं जगहों पर आ गए हैं जहाँ वो हुआ करते थे। पत्थरों को उनकी पुरानी जगहों पर लाने से यह फायदा हुआ है कि इनकी पुरानी खोयी नर्सरियाँ फिर से चालू हो गई हैं।
इस समुदाय ने देखा है कि स्थितियाँ पहले जैसी होते ही ट्राउट और ग्रेलिंग जैसी ठंडे पानी में होने वाली मछलियाँ दोबारा इन जगहों पर लौटने लगी हैं। डाक्टर टेरो मुस्तोनेन कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से लड़ने और उसे कम करने के लिए हमें स्थानीय समुदायों की जानकारियों से सबक लेते रहने की जरूरत है। हम उन्हें अनसुना नहीं कर सकते।
उत्तम सिंह गहरवार