सस्ती और टिकाऊ अक्षय ऊर्जा के लिए कोयले को हटाया जा रहा है। ऐसे में इस जीवाश्म ईंधन का भविष्य धुंधला नजर आता है। कोयला वापस अपनी जगह बना रहा है, क्योंकि महामारी के बाद आर्थिक बहालियों को उससे ऊर्जा मिल रही है।
दुनिया भर में ऊर्जा संकट के बीच, वैश्विक कोयला ऊर्जा से उत्सर्जन, महामारी पूर्व के दिनों की ऊंचाईयों पर पहुॅंच गए हैं, खासकर चीन और भारत में। तेल और गैस की बढ़ती कीमतों और सर्दी की आमद के बीच कोविड पश्चात अर्थव्यवस्थाओं में नई जान फूंकने और उन्हें पटरी पर लाने की कवायद ने कोयले की मांग एक लम्बे इंकार के बाद फिर बढ़ा दी है। सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन वाले जीवाश्म ईंधन की बहाली को ग्लासगो के उस संशोधित जलवायु समझौते से और बल मिला, जिसमें कोयले को हटाने की प्रतिबद्धता के बदले उसे कम करने की बात जोड़ी गई थी।
कॉप-26 शुरू होने से पहले सम्मेलन के अध्यक्ष आलोक शर्मा ने उम्मीद जताई थी कि वैश्विक तापमान को डेढ़ डिग्री सेल्सियस के करीब रखने के लिए ये सम्मेलन कोयले को इतिहास में डालने में सफल होगा। ऐसा हो नहीं पाया। उस दौरान कोयला छोड़ने की योजना में आखिरी मिनट के रद्दोबदल पर प्रतिक्रिया देते हुए आस्ट्रेलिया के पूर्व संसाधन मंत्री मैट कैनावान ने कहा था कि उससे और अधिक कोयला उत्पादन के लिए हरी झंडी मिल गई है। एक टीवी इंटरव्यू में उन्होंने कहा, भारत, चीन और दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश, हमारे इलाके के ये सभी देश अपने उद्योगों को विकसित कर रहे हैं और कोयले की उनकी मांग की कमोबेश कोई सीमा नहीं है।
जानकार इस बात को मानते हैं कि ग्लासगो समझौते की कमजोर कर दी गई भाषा की वजह से 2030 या 2040 तक कोयले को हटाने की गति में शिथिलता आ सकती है। लेकिन कार्बन ट्रैकर नाम के जलवायु थिंक टैंक में शोध की प्रमुख कैथरीना हिलेनब्रांड फान डेरनेयन मानती हैं कि कोयले की मांग में मौजूदा तेजी थोड़े समय की बात है। वह कहती हैं, मैं उस नजरिए के पूरी तरह खिलाफ हूॅं कि जो इसे कोयले को मिला नया जीवन बताता है।
कोयले की मांग लम्बी नहीं टिकेगी
नेयन को उम्मीद है कि कोविड पूर्व समय में सस्ते अक्षय ऊर्जा स्रोतों की बदौलत कोयले की मांग में आई गिरावट फिर से देखने लगेगी। ऐसा चीन में भी होगा, जिसने 2020 में दुनिया की कोयला चालित बिजली का आधा हिस्सा अकेले ही फूंक डाला था। वह कहती हैं, ‘‘संरचनात्मक रूझान तो तेजी से कम होते लोड का है।’’ मतलब यह कि अक्षय ऊर्जा स्रोतों से मिल रही टक्कर से कोयला संयंत्र पूरी क्षमता के साथ नहीं चल रहे हैं और इस वजह से अलाभकारी बन गए हैं। नये कोयला बिजली संयंत्र बनाए तो जा रहे हैं, लेकिन वे ओवर सप्लाई में योगदान दे रहे हैं, जिसकी बदौलत समस्या और उग्र ही हो रही है।
कार्बन ट्रैकर के मुताबिक, नतीजतन दुनिया के कोयला भंडार का 27 प्रतिशत हिस्सा अलाभकारी रह गया है। नायन कहती हैं कि, ‘‘अगर मैं सारे अंडे फिर से कोयले की टोकरी में डाल सकूं तो आप पाएंगे कि वे तेजी से फर्श पर गिर रहे होंगे।’’ बर्लिन स्थित थिंग टैंक क्लाईमेट एनालिटिक्स में शोधकर्ता गौरव गांती इस बात से सहमत हैं, ‘‘ये कम अवधि का पुनर्जागरण टिके रहने वाला नहीं हैं, क्योंकि कम कीमत वाले अक्षय ऊर्जा स्रोत तेजी से अपनी जगह बनाते जा रहे हैं।’’
जलवायु परिवर्तन पर काम कर रही संस्था ई3जी के मुताबिक भले ही चीन और भारत अपनी कोविड रिकवरी में कोयले की मदद ले रहे हैं, लेकिन यह सच्चाई है कि नए कोयला संयंत्रों की संख्या में, पेरिस समझौते के बाद से यानी 2015 से 76 फीसदी गिरावट आई है। यह चीन की कुल कोयला क्षमता के बराबर है।
लापरवाही बरतने की गंजाइश नहीं
2020 में चीन ने 75 फीसदी वैश्विक कोयला निवेश मुहैया कराया है। लेकिन एक हद के बाद कोयला परियोजनाओं को फंडिंग खत्म करने का सितम्बर में उसने फैसला कर लिया था। इसी तरह 2060 की अपनी नेट जीरो उत्सर्जन योजनाओं के तहत 2025 तक कोयले का खुद का इस्तेमाल अधिकतम करने का भी फैसला चीन कर चुका है।
गांती कहते हैं कि ये फैसले इस बात के पुख्ता संकेत हैं कि कोयला का पतन अवश्यंभावी है। लेकिन वह कहते हैं कि लापरवाही नहीं बरती जा सकती है। भले ही कॉप-26 में 47 देशों ने एक बयान के जरिए कोयले को हटाने का वृहद संकल्प लिया है। इस बयान में कहा गया है, ‘‘हमारा काम ये दिखाता है कि पेरिस समझौते के तहत वार्मिंग की सीमा डेढत्र डिग्री सेल्सियस रखने के लिए 2030 तक विकसित देशों में और 2040 तक अन्य जगहों से कोयले को हटाना होगा। विकासशील देशों को इस काम में ठोस और पर्याप्त अंतर्राष्ट्रीय मदद की दरकार होगी।
भले ही ग्लासगो सम्मेलन कोयले के खात्मे पर एक दृढ़ भाषा देने से चूक गया, अपने-अपने स्तर पर सभी देश कोयला हटाने की अपनी-अपनी डेडलाइन के साथ सामने आए हैं। जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक (एसडीपी), ग्रीन्स और फ्री डेमोक्रेटिक (एफडीपी) दलों की नई गठबंधन सरकार ने कोयले से निजात का 2030 का लक्ष्य रखा है, जबकि पूर्व निर्धारित तारीख आज से आठ साल बाद की थी।
जर्मनी यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उपभोक्ता और उत्पादक देश है। एटमी ऊर्जा को हटाने के दरमियान भी वो 2010 और 2020 के बीच कोयला ऊर्जा खपत को आधा करने में पहले ही कामयाब हो चुका है। यह सच है कि जर्मनी में भी 2021 में कोयले की मांग बढ़ गई थी, लेकिन इसकी एक वजह यह थी कि पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा के लिए असामान्य रूप से खराब मौसमी स्थितियां आ गई थीं।
कोयला हटाओ मुहिम को वित्तीय मदद
यूरोपीय संघ के अन्य देशों और अमेरिका के साथ मिलकर जर्मनी दक्षिण अफ्रीका में कोयले के फेजआउट में वित्तीय मदद कर रहा है। दक्षिण अफ्रीका कोयले से अपनी 90 फीसदी बिजली हासिल करता है। कोयले से ग्रीन हाउस गैसों का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाला अफ्रीकी देश वही है। जर्मनी के पूर्व पर्यावरण मंत्री का कहना है कि कोयले से साफ ऊर्जा की ओर बदलाव की वित्तीय मदद के लिए ग्लासगो सम्मेलन में आधा अरब डालर की धनराशि पर बनी सहमति दूसरे इलाकों के लिए एक संभावित ब्लूपिं्रट का काम करेगी।
इस बीच पुर्तगाल ने पिछले दिनों बिजली के लिए कोयला फूंकना पूरी तरह से बंद कर दिया है। यह उसके फेजआउट के निर्धारित समय से दो साल पहले ही हो रहा है। फासिल ईंधन के पावर हाउस यूक्रेन ने भी 2035 या अधिकतम 2040 तक कोयले से बिजली उत्पादन खत्म करने का संकल्प लिया है। कॉप-26 में यूक्रेन ‘‘पावरिंग पास्ट कोल अलायंस’’ (पीपीसीए) में भी शामिल हो गया था। सरकारों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों और संगठनों का ये गठबंधन द्रुत गति से कोयले से छुटकारा पाने के लिए प्रतिबद्ध है।
फंसी हुई कोयला परिसंपत्तियां
शोधकर्ताओं ने आगाह किया है कि वे सरकारें जो कोयले से चिपकी हैं, वे फंसी हुई परिसंपत्तियों में अरबों की धनराशि गंवा सकती हैं और सैकड़ों हजारों रोजगार भी, क्योंकि दुनिया गर्मी को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित रखने के लिए कार्बन मुक्त हो रही है। अवरूद्ध परिसंपत्ति वो होती है, जिसका एक समय पर तो मूल्य होता है और आय भी होती है, लेकिन एक समय बाद वो वैसी नहीं रह जाती।
जून 2021 की एक रिपोर्ट के मुताबिक यूरोप, उत्तरी अमेरिका और आस्ट्रेलिया में एक तिहाई कोयला खदानें 2040 तक अवरूद्ध परिसंपत्तियां बन जाएंगी। अगर देश अपने जलवायु लक्ष्यों को हासिल कर लें। जैसे इन हालात में आस्ट्रेलिया को हर साल 25 अरब डालर का नुकसान हो सकता है। अगर देशों ने साफ ऊर्जा प्रणालियों का रूख करने में तेजी नहीं दिखाई तो वैश्विक स्तर पर 22 लाख नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं। लेकिन कोयले से निजात पाने के लिए आर्थिकी ही एकमात्र प्रेरणा या बहाना नहीं है। गौरव गांती कहते हैं, ‘‘सरकारों के सामने दो रास्ते हैं- कल के जीवाश्म ईंधनों में निवेश कर संपत्तियों के फंस जाने का जोखिम मोल लें या अक्षय ऊर्जा में निवेश कर डेढ़ डिग्री सेल्सियस के रास्ते पर आगे बढ़ें।
भाव्या सिंह
मानवता के लिए ‘खतरे की घंटी’
पृथ्वी पर बढ़ता तापमान मानव के लिए ऐसी चुनौती बन चुका है जिससे निपटने के लिए वह तैयार तो है, पर उस पहल के लिए तैयार नहीं हो पा रहा है। ऐसी स्थिति को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग तेज हो रही है और इसके लिए साफ़ तौर पर मानव जाति ही जिम्मेदार है।
इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पृथ्वी की औसत सतह का तापमान, साल 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। तापमान में बढ़ोतरी वैज्ञानिकों के पूर्वानुमान से एक दशक पहले ही जाएगी।
बढ़ता तापमान कई भयावह ख़तरे को उत्पन्न करेगा। ऐसे संकटों से इंसान के जीवन की सहजता ख़त्म होती चली जाएगी। बढ़ते तापमान से दुनिया भर में मौसम से जुड़ी भयंकर आपदाएं आएंगी। पृथ्वी पर फैली बर्फ की चादर तेजी पिघलने लगेगी और अब समुद्र का बढ़ता जल स्तर और बढ़ते अम्लीकरण से पृथ्वी अपरिवर्तनीय बदलाव झेल रही है।
आईपीसीसी पैनल का नेतृत्व कर रहीं वैलेरी मैसन-डेलोमोट कहती हैं, ‘‘कुछ बदलाव सौ या हजारों वर्षों तक जारी रहेंगे, उन्हें केवल उत्सर्जन में कमी से ही धीमा किया जा सकता है।
वायुमंडल को गर्म करने वाली गैसों का उत्सर्जन बड़े पैमाने पर हो रहा है। दुनिया के अधिकांश देश पृथ्वी शिखर सम्मेलन में कितने समझौते की अवहेलना करते अपने आर्थिक विकास को तवज्जो दे रहे हैं। यही कारण है कि सिर्फ दो दशकों में ही तापमान की सीमाएं टूट चुकी हैं। वैज्ञानिकों के अनुमानों से अधिक संकट गहराते जा रहा है। धरती पर बढ़ती हुई प्राकृतिक आपदाओं को देखते हुए शोधकर्ताओं का कहना हैं कि इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस शताब्दी के अंत तक समुद्र का जलस्तर लगभग दो मीटर तक बढ़ सकता है। समुद्र का बढ़ता स्तर अपने तट पर बसे शहरों को लील लेगा। कई समुद्री द्वीप डूब जाएंगे। ऐसे हालात के चलते दो दशकों में नदियों में बाढ़ से उसके ज़द में आने वाले इलाक़े बढ़े हैं।
दुनिया में रिकार्ड गर्मी
आईपीसीसी की रिपोर्ट में बढ़ती गर्मी की बात गंभीरता से कही गई है, लेकिन इसके साथ ही यह उम्मीद भी जुड़ी हुई है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में बड़ी कटौती करके बढ़ते तापमान को स्थिर किया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज की 42 पन्नों की रिपोर्ट को नीति-निर्माताओं के लिए सारांश के रूप में जाना जाता है।
आईपीसीसी की यह रिपोर्ट, आने वाले महीनों में सिलसिलेवार आने वाली कई रिपोर्ट्स की पहली कड़ी है। साल 2013 के बाद अपनी तरह की ये पहली रिपोर्ट है जिसमें जलवायु परिवर्तन से जुड़े विज्ञान का व्यापक तौर पर विश्लेषण किया गया है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेश का कहना है कि ‘आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप की पहली रिपोर्ट मानवता के लिए ख़तरे का संकेत है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव का कहना है कि मिल-जुलकर जलवायु त्रासदी को टाला जा सकता है, लेकिन ये रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि इसमें देरी की गुंजाइश नहीं है और अब कोई बहाना बनाने से भी काम नहीं चलेगा। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने विभिन्न देशों के नेताओं और तमाम पक्षकारों से जलवायु सम्मेलन (सीपीओ26) को सफल बनाने की अपील की है
इस रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल अीन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने तैयार किया है जिसने 14,000 से अधिक वैज्ञानिक काग़ज़ात का अध्ययन किया है। आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन किस तरह से दुनिया को बदलेगा इस पर यह हाल की सबसे ताज़ा रिपोर्ट है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह बहुत बड़ी ख़बर है, लेकिन यह उम्मीदों का एक छोटा-सा टुकड़ा है।
क्यों महत्वपूर्ण है रिपोर्ट?
पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारों के लिए उत्सर्जन कटौती को लेकर यह रिपोर्ट एक बड़े स्तर पर चेताने वाली है। जलवायु परिवर्तन के विज्ञान पर आईपीसीसी ने पिछली बार 2013 में अध्ययन किया था और वैज्ञानिकों का मानना है कि उन्होंने उसके बाद से बहुत कुछ सीखा है। बीते सालों में दुनिया ने रिकार्ड तोड़ तापमान, जंगलों में आग लगना और विनाशकारी बाढ़ की घटना देखी है। पैनल के कुछ दस्तावेज़ बताते हैं कि इंसानों के कारण हुए बदलावों ने असावधानीपूर्ण तरीक़े से पर्यावरण को ऐसा बना दिया है जो कि हज़ारों सालों में भी वापस बदला नहीं जा सकता है।
आईपीसीसी की इस रिपोर्ट का इस्तेमाल नवंबर 2021में ब्रिटेन (ग्लासगो) में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के सीओपी26 (क्लाइमेट चेंज कांफ्रेस आफ़ द पार्टीज़) सम्मेलन में भी होगा।
संयुक्त राष्ट्र का सीआओपी 26 सम्मेलन महत्वपूर्ण लम्हा हो सकता है, अगर जलवायु परिवर्तन को नियंत्रण में लाने पर सहमति बन जाए तब। 196 देशों के नेता मिलकर एक बड़े लक्ष्य के लिए कोशिश करेंगे और किए जाने वाले उपायों पर अपनी सहमति देंगे।
सम्मेलन का नेतृत्व कर रहे ब्रिटेन के मंत्री आलोक शर्मा ने कहा था कि दुनिया विनाश को बचाने के लिए लगभग सारा समय खो चुकी है और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव फ़िलहाल जारी हैं।
लीड्स विश्वविद्यालय के जलवायु परिवर्तन के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर पीयर्स फ़ोर्स्टर कहते हैं, कि ‘आज जो हम बहुत कुछ महसूस कर रहे हैं उसके बारे में रिपोर्ट काफ़ी कुछ कहने में सक्षम है। रिपोर्ट यह स्पष्ट करने में सक्षम होगी कि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कैसे नुक़सान पहुंचा रहा है और ये बेहद ख़तरनाक होने जा रहा है। उन्होंने एलबीसी से कहा, ‘‘यह रिपोर्ट बहुत सारी बुरी ख़बरों के साथ आएगी जो बताएगी कि हम कहां हैं और कहां जा रहे हैं, लेकिन यह उम्मीदों का एक दस्तावेज़ भी है जो मुझे लगता है कि जलवायु परिवर्तन पर बातचीत के लिए अच्छा है।“
आशावादी बने रहने के लिए क्या कुछ कारण सकते हैं? इस पर वो कहते हैं कि अभी भी जलवायु परिवर्तन के बीच तापमान को डेढ़ डिग्री सेल्सियस बढ़ने से रोका जा सकता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव स्वरूप अगर धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो इसके बेहद गंभीर परिणाम हो सकते हैं. अब तक वैश्विक तापमान औद्योगीकरण पूर्व के स्तर से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है।
2015 में हुए पेरिस जलवायु समझौते के तहत वैश्विक औसत तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देने का लक्ष्य रखा गया था और कहा गया था कि इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस पार नहीं होने दिया जाएगा, मगर यह संभव नहीं हो सका।
आईपीसीसी की बैठकों में शामिल रहे डब्ल्यू डब्ल्यू एफ के डाक्टर स्टीफ़न कार्निलियस कहते हैं, ‘‘हमारे माडल बेहतर हो गए हैं, हमें भौतिकी, रसायन और जीव विज्ञान की बेहतर समझ है। तो वे अब भविष्य के तापमान परिवर्तन का आकलन करने में सक्षम हैं और बीते कई सालों की तुलना में वे और बेहतर हुए हैं।
2013 में प्रकाशित हुई आईपीसीसी की अंतिम रिपोर्ट में कहा गया था कि 1950 के बाद से जलवायु परिवर्तन की ‘प्रमुख वजह’ इंसान रहे हैं। आने वाली रिपोर्ट में संदेश और भी अधिक मज़बूत रहने वाला है. इसमें औद्योगीकरण पूर्व के स्तर के वैश्विक तापमान के मुकाबले इसके 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर बढ़ने को लेकर चेतावनी दी जा सकती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होता है तो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव बेहद गंभीर हो सकते हैं। ऐसी उम्मीद है कि इस बार आईपीसीसी यह भी बताएगा कि किस तरह इंसानों का प्रभाव समुद्र, वायुमंडल और हमारे ग्रह के अन्य पहलुओं पर पड़ रहा है।
समुद्री जलस्तर में वृद्धि
सबसे महत्वपूर्ण चिंता समुद्र का जल स्तर बढ़ने को लेकर है। आईपीसीसी के अपने पिछले अनुमानों के हिसाब से यह विवादित विषय रहा है क्योंकि इसको कई वैज्ञानिकों ने ख़ारिज कर दिया था।
लंदन में यूसीएल के प्रोफ़ेसर आर्थर पीटरसन कहते हैं, ‘‘समुद्र का जलस्तर स्तर बढ़ने की ऊपरी सीमा बताने को लेकर पहले वे अनिच्छुक रहे हैं, पर हमें लगता है कि इस बारे में आगाह करने का समय आ गया है।“
बीते कुछ महीनों में जिस तेज़ी से जंगलों में आग लगने और बाढ़ के मामले बढ़े हैं, उसके लिए जलवायु परिवर्तन को वजह माना गया है। रिपोर्ट में उन अध्यायों को भी शामिल किया जाएगा जिसमें तापमान बढ़ने से मौसम के भयंकर रूप के मामले सामने आ रहे हैं। दुनिया भर में चल रही गरम लू और मूसलाधार बारिश की तमाम वजहों में से एक वजह जलवायु परिवर्तन भी हो सकती है।“
धधकती आग बढ़ती गरमी
हिमालय में धधक रही आग से चिंतित हैं। ‘‘जून 2021में अमेरिका में भयंकर गर्मी पड़ी। ऐसा मौसम जलवायु परिवर्तन के बिना हो ही नहीं सकता। दुनिया दिन ब दिन और गर्म होती जा रही है। ख़ासतौर से उत्तरी यूरीप में अधिक गर्म हो रहा है, अगर मौसम चक्र बदलता है तो सूखा बढ़ेगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि इससे समुद्र का स्तर सैकड़ों या संभवतः हज़ारों सालों तक बढ़ना जारी रहेगा क्योंकि गर्मी गहरे समुद्र तक पहुंच चुकी है। शोध इस बात की पुष्टि भी करता है कि अगर दुनिया औद्योगीकरण पूर्व के समय के वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के स्तर पर रोकने में सक्षम हो गई तो भारी तबाही को रोका जा सकता है।
रविन्द्र गिन्नौर