जलवायु परिवर्तन संपूर्ण विश्व के लिए बड़ा खतरा

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आज विश्व जलवायु परिवर्तन जैसी विकट समस्या से जूझ रहा है। वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन के वैश्विक तथा क्षेत्रीय प्रभाव के कारण यह विचारणीय मुद्दा बना हुआ है। सामन्यतः जलवायु का आशय किसी दिए गए क्षेत्र में लम्बे समय तक औसत मौसम से होता है। अतः जब किसी क्षेत्र विशेष के औसत मौसम में परिवर्तन आता है, तो उसे जलवायु परिवर्तन कहते हैं। यदि वर्तमान संदर्भ में बात करें, तो इसका वैश्विक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
पूरी दुनिया में अब सब कुछ बदल रहा है और आशंका है कि निकट भविष्य में यह अनेक संकटों को जन्म देगा। द वल्र्ड वेदर एट्रिब्यूशन ग्रुप (डब्लू डब्लू जी) ने भारतीय उपमहाद्वीप के विषय में ग्रीष्म लहर (लू) के बारे में गंभीर भविष्यवाणी की है। भारतीय मौसम विभाग ने 122 वर्ष पहले अभिलेखों के दस्तावेजीकरण के आरंभ होने के बाद से इस वर्ष मार्च को सबसे अधिक गर्म घोषित किया है। यह तापमान औसत से लगातार 3 डिग्री सेल्सियस से 8 डिग्री सेल्सियस अधिक था, जिसने देश के कई भागों में कई दशक के उच्च तापमान के कुछ सर्वकालिक रिकार्ड तोड़ दिए हैं।

भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के अनुसार वर्ष 2008 के बाद से नौ वर्षों में जून में सामान्य से कम और छह वर्षो में सामान्य से अधिक मानसूनी वर्षा अंकित की गई है, इसका अर्थ यह है कि मानसून ठीक से जुलाई से शुरू होता है, जबकि भारतीय कालगणना के अनुसार प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु आषाढ़ मास में प्रथम नक्षत्र आद्रा से प्रारंभ होती (इस वर्ष 22 जून को) है।

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के पूर्व सचिव एम राजीवन के अनुसार – ‘‘हम मानसून के जून में देर से आने या कमजोर रहने और फिर सितंबर के बाद भी वर्षा जारी रहने की प्रवृत्ति देख रहे हैं।’’ यह बदलाव विलंबित पश्चिमी विक्षोभ और जलवायु परिवर्तन के संकट के फलस्वरूप आर्कटिक समुद्री बर्फ के पिघलने से जुड़ा हो सकता है। भारत को प्रभावित करने वाले पश्चिमी विक्षोभों की संख्या बढ़ रही है, किंतु उत्तर – पश्चिमी हिमालय में सर्दियों में वर्षा लाने वाले मजबूत विक्षोभों की संख्या वास्तव में घट रही है, जिससे कम बर्फबारी और अधिक ऊँचाई पर शुष्क स्थिति उत्पन्न हो रही है। कमजोर वर्षा के कारण उत्तर भारत में गर्मी लगातार बढ़ रही है।

सेंटर फार साइंस ऐंड एनवायरनमेंट की पत्रिका ‘डाउन टु अर्थ’ ने वर्ष 1988 से 2018 तक 30 वर्षों के आईएमडी के आंकड़ों का विश्लेषण करने के लिए भारत के 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के 730 जिलों में से 676 को चयनित किया। आंकड़ों के अनुसार, 62 प्रतिशत जिलों में जून में वर्षा की कमी पाई गई, इससे खरीफ की बुआई प्रभावित हुई और उपज बहुत कम हुई। जलवायु परिवर्तन के व्यापक प्रभाव के कारण ही शुष्क दिनों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, वर्षा कम होने से जनजीवन का संकट बढ़ा है और फसलों का उत्पादन कम हुआ है।

चिंताजनक रूप से, रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकाला गया कि चरम मौसम की घटनाएँ, जिन्हें कभी 100 वर्षों में एक बार घटित होने वाली मानी जाती थीं, अब पहले की तुलना में उनके घटित होने की 30 गुना अधिक संभावना है। समान रूप से चिंताजनक बात यह है कि मार्च जहाँ सबसे शुष्क रिकार्ड में से एक था और अप्रैल की वर्षा भी उत्तर भारत की फसल उगाने वाले क्षेत्रों के लिए सामान्य से कम थी। इसके विपरीत, केरल के कुछ हिस्सों में बेमौसम वर्षा ने किसानों को धान की कटाई के लिए पानी वाले खेतों से गुजरना पड़ा। फिर भी किसानों को कम गुणवत्ता वाली फसल प्राप्त हुई।

यूक्रेन पर रूस के आक्रमण से आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित हुई है। इन दोनों देशों की विश्व में गेहूँ निर्यात में लगभग एक तिहाई भागीदारी है, ऐसे में जलवायु परिवर्तन के कारण, जो देश विशुद्ध रूप से आयात पर आश्रित हैं, उनके यहाँ भुखमरी की समस्या पैर पसार रही है। वहाँ तापमान बढ़ने से फसलों की उत्पादकता नकारात्मक रूप से प्रभावित होगी।

जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारण
¨ धरती का एक बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे प्रथक होने से महाद्वीपों का निर्माण हुआ। धरती के विखण्डन ने महानगरीय धाराओं तथा वायु के प्रवाह को परिवर्तित कर दिया।, जिसका प्रभाव जलवायु पर पड़ा।

¨ ज्वालामुखी विस्फोट से पर्याप्त मात्रा में सल्फर – डाइआक्साइड, सल्फर – ट्राईआक्साइड, क्लोरीन, जलवाष्प, धूलकण और राख फैल जाती हैं. जो जलवायु को कई वर्षों तक प्रभावित करती हैं।

¨ नासा के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में बताया है कि आर्कटिक के नीचे ग्रीनहाउस गैस मीथेन का विशाल भण्डार है, जो आर्कटिक पर जमी बर्फ को पिघला रहा है। इस गैस से वातावरण तप्त हो रहा है। इससे वैश्विक स्तर पर तापमान में वृद्धि हो रही है।

¨ ग्रीनहाउस प्रभाव एक ऐसी घटना है, जिसके द्वारा पृथ्वी का वायुमण्डल गुजरते हुए सूर्य के प्रकाश में कार्बन – डाइआक्साइड. जलवाष्प तथा मीथेन जैसी गैसों की उपस्थिति में सौर विकिरण को अपने अंदर अवशोषित कर लेता है तथा पृथ्वी की सतह तथा निचले वातावरण को सामान्य से अधिक गर्म कर देता है।

¨ जीवाश्म आधारित ईंधन के दोहन से कार्बन – डाइआक्साइड एवं नाइट्रोजन – डाइआक्साइड जैसी गैसों का उत्सर्जन बढ़ा है। इससे जलवायु परिवर्तन की समस्या विकराल हुई है और अम्लीकरण, वायु और जल प्रदूषण भी बढ़ा है।

¨ शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण लोगों की जीवनशैली में काफी परिवर्तन आया है। विश्व भर की सड़कों पर वाहनों की संख्या बहुत बढ़ गई है। इससे खतरनाक गैसों का उत्सर्जन पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है।

¨ वनों और पेड़ों की अंधाधुंध कटान से हरित क्षेत्र कम हो रहा है, इससे जलवायु परिवर्तन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
अपने देश की वर्ष 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, देश के सभी हिस्सों में चरम मौसमी घटनाएँ हुई हैं। भारी वर्षा, चक्रवात, बादल फटना,बर्फबारी, आकाशीय बिजली गिरना,भूकम्प, सूखा, बाढ़, शीत लहर. ग्रीष्म लहर, भूस्खलन जैसी प्राकृतिक घटनाओं में वृद्धि हुई है। असामान्य मौसम के कारण लगभग 5000 नागरिकों की मौतें हुईं तथा लगभग 1, 30000 पशुओं को भी किसी न किसी मौसमी दुर्घटना का शिकार होना पड़ा। देश में लगभग 24 लाख हेक्टेयर भूमि सूखे या बाढ़ की चपेट में आई। हजारों घर क्षतिग्रस्त हुए। पिछले वर्ष उत्तराखंड में लगभग 180 दिन किसी न किसी बुरी स्थिति का सामना करना पड़ा। ऐसे ही मध्य प्रदेश में 150 दिन और उत्तर प्रदेश एवं केरल में 130 दिन प्राकृतिक प्रकोप झेलना पड़ा। मौसम की यह असामान्यता का सबसे बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन ही है।

वर्ष 2024 का आधा वर्ष समाप्त हो गया है और हम प्रकृति के प्रकोप से जूझ रहे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि लगातार 9 महीनों से वह तापक्रम नहीं रहा, जो पिछले दशकों में था अर्थात तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि देखी गई। वैज्ञानिक मान रहे हैं अल नीनो दूसरी प्रकार की मौसमी समस्याएँ खड़ी कर सकता है, यह समस्या भीषण शीतकालीन स्थिति की हो सकती है। यह प्रभाव केवल अपने देश के लिए ही नहीं, अपितु सारे विश्व में होगा।

जलवायु में अचानक परिवर्तन
कभी-कभी किसी स्थान का अचानक जलवायु परिवर्तन किसी प्राणी या पौधे के लिए अनुकूल नहीं होता है। दूसरे स्थान की यात्रा पर जाने से व्यक्ति बीमार पड़ जाता है। घने कोहरे के कारण विमानों की उड़ान स्थगित हो जाती है। लू का अत्यधिक प्रकोप होने के कारण घर से निकलना कठिन हो जाता है। यह सब जलवायु में अचानक परिवर्तन के कारण होता है। यह प्राणी का परिस्थिति के साथ तालमेल न बिठा पाने के कारण होता है। अस्थायी जलवायु परिवर्तन से शारीरिक और मानसिक स्थिति बदले हुए परिवेश में असंतुलित हो जाती है। यह जीवन में उद्भव और नई प्रजातियों के विकास में भी पर्यावरण अनुकूलन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

औसत तापमान में वृद्धि
आने वाले दशकों में दुनिया भर में औसत तापमान में वृद्धि होने की संभावना है। मध्य – उच्च अक्षांशों में बढ़ते तापमान से मौसम का प्रभाव सकारात्मक, किंतु ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में प्रभाव हानिकारक होने की संभावना है। भारत में पहाड़ी प्रदेशों के तापमान में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है।

चरम मौसमी घटनाओं से आजीविका पर संकट
बार – बार होने वाली चरम मौसमी घटनाएँ जैसे सूखा, बाढ़ और चक्रवात आजीविका को नष्ट करती हैं। इसके कारण अधिक गरीबी और भुखमरी बढ़ जाती है। फल – फूल तथा फसलों की गुणवत्ता घटने के साथ ही उत्पादकता कम हो जाती है। इससे जानवरों और पौधों की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं।

सूखा
जलवायु परिवर्तन के कारण कम वर्षा की अवधि का परिणाम भयावह होता है। इससे सूखा की तीव्रता, आवृति और अवधि में वृद्धि की संभावना रहती है। सूखे से कृषि हानि होती है। इससे खाद्यान्न का कम उत्पादन हो पाता है, फल – सब्जी कम पैदा होने से महँगी हो जाती हैं। पशुओं को अपेक्षित चारा न मिल पाने के कारण पशुधन की मात्रा और उत्पादकता कम हो जाती है।

वर्षा के प्रारूप में परिवर्तन
विगत कुछ दशकों से बाढ़, सूखा और वर्षा आदि की अनियमितता बहुत बढ़ गई है। यह जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप हो रहा है। इससे मरुस्थलों का फैलाव बड़ी समस्या के रूप में उभरा है। पहले से पानी की समस्या झेल रहे क्षेत्रों में पानी की मात्रा में गिरावट और जल – स्तर नीचे चले जाने के कारण पानी का संकट और बढ़ गया है।

ग्रीष्म लहर
ग्रीष्म ऋतु में कुछ दिन (मई – जून में) ग्रीष्म लहर अर्थात लू चलना सामान्य बात है। यह ग्रीष्म ऋतु की एक प्रमुख प्राकृतिक घटना है, किंतु इस वर्ष जनवरी से ही मौसम में वह सामान्यता नहीं दिखी, जो प्रायः 5-10 वर्षों पहले होती थी। वैज्ञानिकों का मानना है कि लगातार नौ महीने से वह तापक्रम नहीं रहा, जो पिछले दशकों में था। वर्ष 2023 में जुलाई सबसे गर्म मास था। वर्ष 2024 की ग्रीष्म लहर हम पूरे मई – जून मासों से झेलते आ रहे हैं। यह जलवायु परिवर्तन का ही गंभीर संकेत है और हम प्रकृति के महाप्रकोप का प्रहार सहन करने के लिए विवश हैं। इस वर्ष लू से हजारों की संख्या में लोगों की मृत्यु हो चुकी है और बड़ी संख्या में लोग बीमार हुए हैं।

लंबे समय तक चलने वाली ग्रीष्म लहर ने जंगलों में लगने वाली आग के लिए शुष्क परिस्थितियाँ पैदा की हैं। प्राप्त आँकड़ों के अनुसार ब्राजील में 2019 से अब तक अमेजन के जंगलों में कुल 74,155 बार आग लग चुकी है। अभी कनाडा और आस्ट्रेलिया के जंगलों में भयंकर आग लगी थी, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को स्पष्ट करती है। अधिक तापमान से हिमनदों के पिघलने से भू – स्खलन तथा हिम – स्खलन की घटनाएँ सामान्य हो गई हैं।

वन्यजीव प्रजाति को हानि
तापमान में अत्यधिक वृद्धि तथा वनस्पति पैटर्न में बदलाव ने कुछ पक्षी – प्रजातियों को विलुप्त कर दिया है। वन्य – जीव प्रतिकूल मौसम के कारण जंगलों से मानव की बस्ती में आ रहे हैं। उन्हें आहार, जल और निवास उचित मात्रा में नहीं मिल रहा है, जिससे उनका जीवन संकट में है। विशेषज्ञों के अनुसार पृथ्वी की एक चैथाई पक्षियों की प्रजातियाँ वर्ष 2050 तक विलुप्त हो सकती हैं। वर्ष 2008 में ध्रुवीय भालू को उन जानवरों की सूची में रखा गया था, जो समुद्री जल स्तर में वृद्धि के कारण विलुप्त हो सकते हैं।

रोगों का प्रसार और आर्थिक हानि
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप भविष्य में मलेरिया, डेंगू. स्वाइन फ्लू जैसी गंभीर बीमारियाँ और बढ़ेंगी तथा इन्हें नियंत्रित करना कठिन होगा। इससे मृतकों की संख्या बढ़ सकती है और विश्व को अत्यधिक आर्थिक हानि हो सकती है।

प्रकृति पर प्रतिकूल प्रभाव
जलवायु परिवर्तन से प्रकृति भी अछूती नहीं है। इसके दुष्प्रभाव के कारण पूरी दुनिया में इस बार वसंत पहले ही आ गया, क्योंकि गर्मी समय से पहले ही आ गई। जापान और मैक्सिको में समय से पहले ही फूल खिल गए। भारत में आम के वृक्षों में समय पूर्व ही बौर आ गया। यूरोप में तेजी से बर्फ पिघलने लगी। टेक्सास में अत्यधिक गर्मी पड़ती है, वहाँ का तापमान बहुत बढ़ चुका है। अपने देश के कई प्रदेशों के शहरों का तापमान 45 से 55 डिग्री सेल्सियस रहा। इससे मानव ही क्या सभी पशु – पक्षी और वनस्पति त्राहि-त्राहि कर उठे। यह स्थिति अत्यंत गंभीर है और आशंका है कि आने वाले समय में शायद

हवा – मिट्टी – पानी की कमी तो झेलेंगे ही,हमारे स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ेगा।
वैज्ञानिकों के अनुसार वर्ष 2024 के अंत तक अल नीनो समाप्त होने से थोड़ी राहत मिलेगी, परंतु पुराने अनुभव बताते हैं कि जब प्रकृति अपने लक्ष्य से भटक जाती है, तब सटीक स्थिति का पता नहीं चलता। अपने देश में पश्चिमी विक्षोभ आगे सरक गया, इसलिए जो वर्षा दिसंबर में होनी थी, वह मार्च में हुई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर माना गया कि वर्ष 2024 में गर्मी का लगभग एक दशक पूर्व का रिकॉर्ड टूट गया और 99 प्रतिशत आशंका है कि हम आने वाले समय में और अधिक गर्मी झेलेंगे।

ग्लेशियरों का पिघलना
पिघलने वाले ग्लेशियर प्रारंभ में जल निकाय में बहने वाले पानी की मात्रा बढ़ाते हैं और प्रवाह के पैटर्न को बढ़ाते हैं। अंततः ग्लेशियरों के पिघलने से वर्ष – प्रति – वर्ष पानी की उपलब्धता अधिक परिवर्तनशील हो जाएगी, क्योंकि यह मौसम, बर्फ और वर्षा पर निर्भर करेगा।

चक्रवातों से क्षति
ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के कई क्षेत्रों में, वार्षिक वर्षा का एक बड़ा भाग ऊष्णकटिबंधीय चक्रवातों से आता है। चक्रवात में एक क्षेत्र को तबाह करने की क्षमता होती है, जिससे जीवन की क्षति होती है और कृषि फसलों, भूमि, बुनियादी ढाँचे और आजीविका में व्यापक विनाश होता है। अध्ययन से पता चला है कि भविष्य में तेज हवाओं और वर्षा से चक्रवात अधिक तीव्र आ सकते हैं।

समुद्र के स्तर में वृद्धि
समुद्र के औसत स्तर में वृद्धि से आने वाले दशकों या शताब्दियों में कृषि भूमि के जलमग्न होने और भूजल के खारे होने का खतरा है। इस स्थिति में तूफानी लहरों का प्रभाव बढ़ेगा, जिससे जन – धन की भारी तबाही मच सकती है।

स्वास्थ्य और पोषण में परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन में सांस की बीमारी और दस्त सहित विभिन्न बीमारियों को प्रभावित करने की क्षमता है। रोग के परिणामस्वरूप भोजन से पोषक तत्त्वों को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है और बीमार लोगों को पोषण संबंधी आवश्यकताओं में वृद्धि होती है। एक समुदाय में खराब स्वास्थ्य के कारण श्रम उत्पादकता में भी कमी आती है।

वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु प्रयास
जलवायु परिवर्तन आज वैश्विक समस्या है, जिसके लिए, पिछले कई वर्षों से प्रयास किए जा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन पर निगरानी हेतु अंतर्सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की स्थापना वर्ष 1988 में यूनाइटेड नेशंस एनवायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) एवं मेट्रोलाजिकल आर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएमओ) के द्वारा की गई, जिससे विश्व की सरकारों को एक स्पष्ट वैज्ञानिक दृष्टिकोण उपलब्ध कराया जा सके।

आईपीसीसी नियमित रूप से जलवायु परिवर्तन के बारे में वैज्ञानिक रिपोर्ट, जिसे मूल्यांकन रिपोर्ट भी कहते हैं, जारी करता है। इसकी पहली रिपोर्ट वर्ष 1990 में जारी हुई थी जिसमें जलवायु परिवर्तन को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया गया था। वर्ष 2014 में जारी पाँचवीं रिपोर्ट में ग्रीन गैसों के उत्सर्जन से वैश्विक तापमान वृद्धि का अनुमान व्यक्त किया गया। इसे वर्ष 2020 तक नियंत्रित करने की सिफारिश की गई। विश्व के कई देशों में जलवायु परिवर्तन से संबंधित कई वैश्विक सम्मेलन भी हुए।

भारत के प्रयास
भारत द्वारा वर्ष 2008 में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपीसीसी) का शुभारंभ किया गया, जिसका उद्देश्य जनता के प्रतिनिधियों, सरकार की विभिन्न एजेन्सियों, वैज्ञानिकों, उद्योगों और समुदायों को जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों और उससे बचने के उपायों के बारे में जागरूक करना है। इस कार्य योजना में मुख्यतः 8 मिशन सम्मिलित हैं –

ऽ राष्ट्रीय सौर मिशन, ऽ विकसित ऊर्जा दक्षता के लिए राष्ट्रीय मिशन, ऽ सुस्थिर निवास पर राष्ट्रीय मिशन, ऽ राष्ट्रीय जल मिशन, ऽ सुस्थिर हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र हेतु राष्ट्रीय मिशन, ऽ हरित भारत हेतु राष्ट्रीय मिशन, ऽ सुस्थिर कृषि हेतु राष्ट्रीय मिशन, ऽ जलवायु परिवर्तन हेतु रणनीतिक ज्ञान पर राष्ट्रीय मिशन।

जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु भारत में एक अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन की शुरुआत हुई है। इस सौर गठबंधन की शुरुआत भारत और फ्रांस ने 30 नवंबर 2015 को पेरिस जलवायु सम्मेलन में की गयी। इसका मुख्यालय गुरुग्राम (हरियाणा) में है। इस गठबंधन का प्रमुख उद्देश्य वैश्विक स्तर पर 1000 गीगावाट से अधिक सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता प्राप्त करना और 2030 तक सौर ऊर्जा में निवेश के लिए 1000 बिलियन डॉलर की राशि को जुटाना शामिल है। साथ ही वर्ष 2030 तक भारत देश के सकल घरेलू उत्पाद में 30 – 35 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कम करेगा तथा 2030 तक गैर – जीवाश्म ईंधन से 40 प्रतिशत ऊर्जा प्राप्त करेगा। भारत सरकार ने वर्ष 2030 तक 33 प्रतिशत वन क्षेत्र बढ़ाने का लक्ष्य रखा है। वर्ष 2015 से 2030 तक 6. 2 अरब वृक्ष लगाने का लक्ष्य है।

जलवायु परिवर्तन का खतरा कम करने के लिए सुझाव
ऽ मौसम में बदलाव के व्यापक प्रभाव हैं। हमें जलवायु परिवर्तन के खतरों को गंभीरता से लेते हुए, संपूर्ण विश्व को एकजुट होकर सकारात्मक प्रयास यथाशीघ्र किए जाने चाहिए, जिससे यदि हम खतरों को रोक न सकें, तो जन – धन की क्षति कम से कम हो। हमें सोचना चाहिए कि इन बदलावों से हम कैसे तालमेल बिठाएँ। ऽ प्राकृतिक आपदाओं को रोकने के लिए या उससे होने वाली क्षति को कम करने के लिए आपदा प्रबंधन रणनीति बनाएँ। ऽ हमें टिकाऊ कृषि पद्धतियों को अपनाना होगा। कृषि नीति को, जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए फसल उत्पादकता में सुधार और सुरक्षा जाल विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जल संसाधन का बेहतर प्रबंधन स्थायी कृषि की एक प्रमुख विशेषता होनी चाहिए। ऽ गरीबी कम करने के लिए, खाद्य – असुरक्षित लोगों की आजीविका में सुधार की आवश्यकता है। उन्हें न केवल गरीबी और भूख से बचने में सहायता मिले, अपितु उन्हें जलवायु के खतरों का सामना करने, उनसे उबरने और उनके अनुकूल होने में भी सहायता मिल सके। ऽ शहरी भारत न केवल वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता है, अपितु जलवायु परिवर्तन का शिकार भी है। इसकी जनसंख्या का अधिकतम भाग गरीब लोगों का है। अतः ध्यान रखा जाए कि जलवायु परिवर्तन का शहरी खाद्य सुरक्षा पर व्यापक प्रभाव न पड़े । ऽ जलवायु – लचीली रणनीतियों को विकसित करने के लिए और पर्याप्त नीतिगत हस्तक्षेप करने के लिए , भारत की खाद्य सुरक्षा पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के एकीकृत मूल्यांकन की आवश्यकता है। ऽ जलवायु परिवर्तन के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सभी देशों को समन्वयपूर्वक लक्ष्योन्मुखी कार्यों को मिलकर करने की आवश्यकता है। ऽ पेड़ – पौधे जलवायु परिवर्तन के प्रथम पंक्ति के योद्धा हैं। वे वैश्विक उत्सर्जन के 33 प्रतिशत से अधिक भाग अवशोषित करते हैं इसके साथ ही पशु – पक्षी और कीट – पतंगों को प्राकृतिक आवास भी उपलब्ध कराते हैं। अतः पेड़ो की कटान रोकी जाए और अधिकाधिक वृक्षारोपण किया जाए।

सारांशतः जलवायु परिवर्तन बड़ी चुनौती के रूप में मानवता के समक्ष खड़ा है। जैसे – जैसे तापमान में वृद्धि होगी, वैसे – वैसे ही गंभीर. व्यापक और न सुधारे जा सकने वाले प्रभाव सामने आएँगे। खाद्य सुरक्षा के संकट के साथ जल, जंगल और जमीन पर आश्रित रहने वाले प्राणियों पर भी इसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देगा। अतः समय आ गया है कि संपूर्ण संपूर्ण विश्व जलवायु परिवर्तन की इस चुनौती के लिए एक जुट हो जाएँ।

जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए और पर्यावरण संतुलन हेतु भारत सहित विश्व के सभी देश प्रयासरत हैं। अक्षय ऊर्जा प्रतिष्ठानों को स्थापित करने में हुई प्रगति, इलेक्ट्रिक वाहनों की बढ़ती संख्या और देश को हरित ऊर्जा बिजलीघर में बदलने के प्रयास सरकार द्वारा किए जा रहे हैं, जो एक स्वागत योग्य कदम है। हमें लाखों को जलवायु संकट से बचाना है,इसमें न केवल मनुष्य, अपितु पशु – पक्षी, पेड़ – पौधे, वन – पर्वत, खाद्यान्न, जड़ – चेतन आदि सभी चीजें सम्मिलित हैं. जो परिवार, प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ी हैं। सभी प्राणियों के लिए भोजन – पानी आदि मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए।

हमें प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए आपदा प्रबंधन रणनीति बनानी चाहिए, जिससे यदि आपदा को रोक न सकें, तो कम से कम उसके प्रभाव को कम किया जा सके। हम अपनी नीतियों का पारिस्थितिकी दृष्टिकोण से अवलोकन कर लें, अन्यथा बाद में प्राकृतिक आपदाएँ अधिक सोचने का अवसर नहीं देंगी और सबकुछ नष्ट हो जाएगा। प्रकृति के संकेतों को समझने में ही हमारी भलाई है।

स गौरीशंकर वैश्य विनम्र
117 आदिलनगर, विकासनगर, लखनऊ- 226022