ग्लास्गो से धरती को बचाने की आशाएं

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हमारी पृथ्वी को तप-तप कर मरने से बचाने की आशाएं अब ग्लास्गो पर टिकी हैं। विश्व के शीर्ष नेता, संयुक्त राष्ट्र संघ के उच्चाधिकारी और जलवायु विशेषज्ञ 31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक स्काटलैंड के ग्लास्गो में विचार-विमर्श कर विश्व हितार्थ नए फैसले लेने जा रहे हैं।
सारे विश्व की दृष्टि ग्लास्गो में होने जा रहे जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के 26वें सम्मलेन पर पर टिकी है। यहाँ से ही हमारे जिन्दा ग्रह पृथ्वी की रक्षा के लिए एक ठोस रणनीति तैयार होने की सम्भावना है। यह महत्त्वपूर्ण घटना संयुक्त राष्ट्र के शीर्ष वैज्ञानिक निकाय, इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीपीसी) की मौसम में प्रलंकारी परिवर्तन सम्बन्धी गंभीर चेतावनी के बाद होने जा रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सम्मलेन में भाग लेने की घोषणा के साथ यह सुनिश्चित-सा लगने लगा है कि ग्लास्गो से विश्व हित में कुछ ठोस परिणाम निकल कर आएँगे। उन्होंने अब तक संयुक्त राष्ट्र संघ की जिस भी बैठक में भाग लिया है, वहां से सकारात्मकता की एक लहर पैदा हुई है।
वर्ष 2015 में पैरिस जलवायु समझौते के अंतर्गत पूर्व औद्योगिक काल की तुलना में वैश्विक तापमान में वृद्धि के लक्ष्य को 1.5 डिग्री सेल्सियस से बढ़ाकर 2 डिग्री सेल्सियस तक कर दिया था। समझौते में कथन थाः ‘‘2 डिग्री सेल्सियस से नीचे और प्रमुखतः 1.5 डिग्री सेल्सियस“ जो कि पैरिस के जलवायु सम्मलेन की एक हताशा को इंगित करता है। पूर्व औद्योगिक युग की तुलना में अब तक सृष्टि का तापक्रम 1.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है जिसके कारण हम विनाश के इतने भयावह दृश्य देख रहे हैं। तापक्रम 1.5 डिग्री तक बढ़ जाएगा,तो दृश्य और भी भयावह होंगे। ताप में इतनी वृद्धि तो 2030 से 2035 तक हो जाने की सम्भावना है। लेकिन जब पृथ्वी 2 डिग्री तक गर्म हो जाएगी तो क्या हाल होगा, सोचा जा सकता है। और विश्व के नेता, प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण संरक्षण का दायित्व उठाने वाली सरकारें तथा विशेषज्ञ वैश्विक गर्माहट के प्रति बस इतने से गंभीर हैं! अगर विश्वमंच पर जलवायु परिवर्तन पर इसी तरह के नाटक चलते रहे तो हो लिया जगत का कल्याण!
जलवायु परिवर्तन के लिए अब तक कार्बन उत्सर्जन को ही दोषी ठहराया गया है, और वह भी प्रमुखतः जीवाश्म ईंधनों के दहन से होने वाले उत्सर्जन को। वैसे यह काफी सीमा तक सही भी है। इस दृष्टि से चीन विश्व में सबसे ऊपर है जो 2019 के सकल कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन का 28ः वायुमंडल में उड़ेलता है। दूसरे स्थान पर 14.5ः योगदान के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका है। इस तरह चीन अमेरिका से दुगना कार्बन वायुमंडल में छोड़ता है। तीसरे स्थान पर भारत है, जो अमेरिका से आधा (7ः) कार्बन उत्सर्जन करता है। इसके बाद 5ः और 3ः उत्सर्जन के साथ चौथे और पांचवें स्थान पर रूस और जापान हैं। कुल मिलाकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सार्वभौमिक गर्माहट की आधी समस्या केवल चीन, अमेरिका और भारत के कारण ही है, और इन तीनो में आधी से अधिक समस्या और सारे विश्व के स्तर पर लगभग एक-तिहाई समस्या चीन के कारण है।
आईपीसीसी के मत के अनुसार, अगर विश्व को 1.5 डिग्री सेल्सियस ताप वृद्धि से बचाना है तो 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 2010 की तुलना में आधा करना होगा और 2050 तक दुनिया को कार्बन उत्सर्जन में ‘‘नेट जीरो“ होना होगा। आईपीसीसी के इन तर्कों की काट वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड की निरंतर बढ़ती सांद्रता से हो जाती है, जो 2020 में 413.2 पीपीएम के स्तर तक पहुँच चुकी है। वर्ष 1750, जब से औद्योगिक क्रांति का युग प्रारम्भ हुआ है, कार्बन डाइआक्साइड में 149ः, मीथेन में 262ः और नाइट्रस आक्साइड की मात्रा में 123ः की वृद्धि रिकार्ड हो चुकी है।
वायुमंडल में निरंतर पाँव पसारती इन ग्रीनहाउस गैसों के आंकड़ों से समझा जा सकता है कि 2015 के पेरिस जलवायु समझौते की घज्जियाँ उड़ने जा रहीं हैं। यदि ग्रीनहाउस गैसों की उड़ान इसी तरह जारी रही, तो 21वीं शताब्दी के अंत तक सृष्टि का तापक्रम, आईपीसीसी के अनुमान के अनुसार, 2.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा।
जलवायु परिवर्तन पर पार्टियों के 26वें सम्मलेन में चीन जैसे प्रदूषक देशों पर नकेल कसनी चाहिए, जो जलवायु का सबसे बड़ा खलनायक है। अपने लगभग सभी पड़ोसियों की सीमाओं में घुसपैठ का दुस्साहस करने और युद्ध जैसी स्थिति बनाए रखने से प्रदूषण बढ़ता है, और पीड़ित देशों को अपने प्राकृतिक संसाधनों की सार-संभाल से ध्यान हटाना पड़ता है। चीन लम्बे समय से 77 के समूह ‘विकासशील देशों’ की पीठ पीछे छिपा है और अपनी वास्तविक मंशा स्पष्ट नहीं करता। सेंटर फार साइंस एंड एनवायरनमेंट की सुनीता नारायण के अनुसार, इस आने वाले दशक में चीन उपलब्ध कार्बन बजट के 30ः पर कब्ज़ा कर लेगा। पूर्ण उत्सर्जन कमी चीन का कोई लक्ष्य नहीं है। इस लम्बे खेल में इसकी इच्छा 2030 तक शेष बड़े प्रदूषकों के साथ ‘‘समतुल्यता“ अर्जित करना है, जिसका अर्थ यह हुआ कि शेष दुनिया के विकास के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। चीन की ऐसी व्यूह रचना को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
क्या आतंकवाद की भी कोई भूमिका है जलवायु परिवर्तन में? इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन अब तक जलवायु सम्बन्धी 25 सम्मेलनों में आतंकवाद को कभी मुद्दा नहीं बनाया गया। ग्लासगो में इसे एक प्रमुख मुद्दा बनाना होगा। आतंकवाद का जलवायु परिवर्तन से क्या सम्बन्ध है, यह जानने के लिए हम सबसे पहले यह जान लें कि कार्बन उत्सर्जन के लिए जो भी देश, समाज और चुनिंदा औद्योगिक संस्थान उत्तरदायी हैं, उनसे भी अधिक उत्तरदायी हैं वे देश, समाज और लोग जो कार्बन अवशोषण की प्रक्रियाओं को बाधित कर रहे हैं, जिनकी सोच में प्रकृति, हरियाली, उर्वरा धरती, पर्यावरण, पारिस्थितिकी जैसे तत्त्व ही नहीं। कार्बन उत्सर्जन और कार्बन अवशोषण की प्रक्रियाओं से जैवमंडल में कार्बन संतुलन बनता है। अगर उत्सर्जन के माध्यम से कार्बन डाइआक्साइड मुक्त होकर वातावरण में प्रवेश करती है तो प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से पुनः वनस्पतियों के द्रव्यमान में और मिट्टी में आ जाती है। यही कार्बन चक्र है।
आतंकवादी समाज अपने यहाँ वनस्पति को कोई स्थान नहीं देते, उनके लिए प्रकृति और प्रकाश संश्लेषण के लिए कोई जगह नहीं। केवल मौतों में, और ‘दुश्मन’ के हाथों मर कर ‘जन्नत’ में जाने का भ्रम पालने वाले आतंकवादी समाजों से जो प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन होता है, उसका अवशोषण नहीं होता। उदाहरण के लिए, पकिस्तान और अफगानिस्तान में केवल 2ः वन हैं, और वे भी छितरे और उजड़े-से। इराक, सीरिया, लेबनान और फिलिस्तीन में भी वन देखने को नहीं मिलते। फलस्वरूप लम्बे समय में जितना उत्सर्जन आतकंवादियों के देश-समाजों से होता है, उतना उन औद्योगिक समाजों और देशों से भी नहीं होता जिनका भूगोल हरियाली से लकदक है।
पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन की मार से बचाने के लिए ग्लास्गो सम्मलेन में साहसी, निष्पक्ष और दूरगामी सकारात्मक प्रभाव वाले फैसले लेने होंगे और अपने एजेंडा में विस्तारवादी चीन और इस्लामी आतंकवाद को सम्मिलित करना होगा।
वीर सिंह