प्राकृतिक खेती, विषहीन खाद्य सुरक्षा और हरित उद्योग

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स्वतंत्र भारत के एक दशक पूरा होने के बाद ही ‘हरित क्रांति’ के प्रभाव में प्राकृतिक खेती को तिलांजली दी जाने लगी थी। ‘हरित क्रांति’ के सिद्धांतों एवं साधनों से भारत के कुछ हिस्सों में धान, गेहूँ, मक्का जैसी फसलों की उपज अप्रत्याशित रूप से बढ़ी। कई क्षेत्रों में बंधों, नहरों और ट्यूबवेल का जाल बिछ गया।
संकर बीज, रासायनिक खाद और पेस्टिसाइड तथा अन्य कृषि रसायनों, ट्रैक्टरों तथा अन्य बड़े कृषि उपकरणों के उत्पादन और विपणन में विदेशी बहुराष्ट्रीय तथा स्थानीय व्यापारियों के प्रतिष्ठानों एवं दुकानों की भरमार हो गयी। माना जाने लगा कि देश खाद्यान्नों में न सिर्फ आत्मनिर्भर हुआ, निर्यातक भी बन गया।
अनाजों की उपलब्धता से ही सरकारों की लोकप्रियता का एक बड़ा आधार आज कल गरीब लोगों एवं परिवारों को मुफ्त में मिलने वाला राशन भी बना हुआ है।
‘हरित क्रांति’ के फल के रूप में सरकारों और जनता के साथ-साथ खाद्यान्न वितरण से जुड़े सरकारी अधिकारी, कर्मचारी एवं गैर सरकारी व्यापारी भी बड़े पैमाने पर अनेकों तरह से लाभान्वित हुए हैं। देश भर में खुले कृषि विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों एवं अनेक सरकारी विभागों के राष्ट्रीय, राज्य तथा स्थानीय स्तर के संजाल से लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार मिला, तथा अनेक शासक, प्रशासक, वैज्ञानिक, अधिकारी, कर्मचारी, व्यापारी आदि अनेकों तरह से लाभान्वित हुए।
कहते हैं सभी चीजें बदलती हैं। लोग भी, स्थितियाँ भी और प्रभाव भी। अब धीरे-धीरे ‘हरित क्रांति’ का उत्सव कम होता जा रहा है। फसलों की उपज बढ़ने के बावजूद खेती की लागत बढ़ जाने, प्राकृतिक आपदाओं की अनिश्चिंतता से होने वाले नुकसान, मिट्टी की गुणवत्ता कम होते जाने, जोतों के छोटे होते जाने तथा कृषि उपज की कीमत अपेक्षा के अनुरूप नहीं बढ़ने से छोटे किसानों की आमदनी नहीं बढ़ी है और वे बेहाल हैं। गाँवों की नई पीढ़ी खेती-किसानी से भाग रही है।
श्रम की जरूरत तथा शुद्ध नियमित आय के अभाव में किसानों की युवा पीढ़ी ने खेती के बजाय शहरों की मजदूरी को अधिक बेहतर माना और गाँवों से शहरों की तरफ अबाध गति से युवाओं का पलायन हो रहा है, जो शहरों और गाँवों दोनों की सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को क्षरित कर रहा है।
जल, जमीन, हवा और खाद्य पदार्थों में कृषि रसायनों की विषाक्तता लगातार बढ़ रही है। जमीन के गर्भ में भी और पृथ्वी की सतह पर अवस्थित जल स्रोतों में पानी घटता जा रहा है। वैश्विक गर्मी से ग्लेशियरों के पिघलने से चीर संचित संरक्षित जल स्रोत भी क्षीण हो रहे हैं, जो पहाड़ों की चोटियों पर आदिकाल से सुरक्षित थे। गर्मी जैसे-जैसे बढ़ेगी, जल का वाष्पीकरण भी बढ़ेगा, लोगों की, पशुओं की तथा फसलों की पानी की आवश्यकता भी बढ़ेगी।
पशु पालन घटने से खेतों में कार्बन कम हो रहा है, तथा मिट्टी में जहरीले कृषि रसायन एवं लवण बढ़ रहे हैं। कृषि के लिए लाभदायी मिट्टी के जीवाणुओं की संख्या और उनके प्रकार घटते जाने से मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति घट रही है। फलतः मिट्टी के भीतर का प्राकृतिक जैविक एवं पारिस्थितिक तन्त्र विखण्डित हो रहा है। जमीन के ऊपर की पौधों एवं फसलों को मदद करने वाले कीट-पतंगो, कीड़े-मकोड़ों की जैव विविधतता एवं उनकी संख्या भी लगातार कम हो रही है, एवं उनकी जगह फसलों को नष्ट करने वाले सूक्ष्मजीवी, विषाणु एवं कीट बढ़ रहे हैं। पशुपालन घटने से आवारा तथा नीलगाय जैसे जंगली पशुओं के फसलों को नुकसान पहुँचाने की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं तथा जलवायु परिवर्तन से बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ने की घटनाओं ने एवं वर्षा और मौसम चक्र के आसन्न बदलावों ने कृषि उपज की अनिश्चितता बढ़ा दी है। अब यह राज की बात नहीं है, कि छह दशकों तक उत्सव के रूप में चर्चित ‘हरित क्रांति’ खाद्य सुरक्षा के लिए अनेकों तरह के संकट उत्पन्न कर चुकी है।
कुछ लोग, कुछ संस्थाएँ और कुछ सरकारें अब फिर से खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण पुनर्जीवन को ध्यान में रखकर प्राकृतिक खेती की बात करने लगे हैं, परन्तु कृषि तन्त्र से अनियंत्रित लाभ लेने वाले उद्योगपति, व्यापारी, सरकारी अधिकारी एवं मुख्यधारा के वैज्ञानिकों की विशाल आबादी इसे अव्यवहारिक और खाद्य सुरक्षा के लिए ख़तरा मान रही है।
किसान भी इतने संकट में हैं कि किसी नई व्यवस्था के लिए पहल करने से बचते रहते हैं। दरअसल हमारे कृषि तन्त्र का सारा दर्शन और विज्ञान बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और विकसित देशों के आर्थिक विस्तार के दौर में उनकी ही देख-रेख में निर्मित हुआ है। इस दौर में छोटे किसानों और कृषि पर्यावरण की कितनी भी क्षति हुई हो, इन अफसरों, वैज्ञानिकों, बाबुओं तथा व्यापारियों का लाभ ही लाभ रहा है।
प्रधानमन्त्री और मुख्यमन्त्री जैसे बड़े पदाधिकारियों की घोषणाओं के बावजूद प्राकृतिक खेती कब तक नीतिगत एवं कार्यकारी व्यवस्थाओं में आ पायेगी, कहना अब भी कठिन है। खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण प्रबंधन का यह संकट, लगता है अभी भी जारी रहने वाला है।
प्राकृतिक खेती के बारे में ‘हरित क्रांति’ के लाभार्थियों द्वारा जिनकी व्यापकता एवं क्षमता अपार है, अनेक नकारात्मक बातें कही जा रही हैं। जैसे यह, कि इससे कृषि उत्पादों की उपज घट जाएगी। कृषि में श्रम बढ़ जाएगा तथा मजदूरी अधिक होने तथा कृषि मजदूरों की कमी से उत्पादन लागत बढ़ जाएगी, आदि-आदि। यहाँ तक कि हाल ही में श्रीलंका का तात्कालीन आर्थिक संकट भी जैविक खेती से जोड़कर प्रचारित करने के लिए एक तथाकथित ज्ञानियों की फौज खड़ी हो गयी है।
यहाँ यह समझना आवश्यक है, कि प्राकृतिक खेती का मतलब एक संस्था द्वारा जैविक / प्राकृतिक खेती के लिए विकसित एवं प्रचारित की जा रही ‘शून्य बजट खेती’ मात्र नहीं है। प्राकृतिक खेती की अनेक विधियाँ हैं, जिनमें खेती के लिए बाहरी एवं अप्राकृतिक (कारखाने में बने रसायनों) के प्रयोग से परहेज करके, जैविक तथा प्रकृति संगत तरीकों से खेती में विविधता, सततता, पौष्टिकता एवं उपज बढ़ाने का प्रयास किया जाता है।
इन शंकाओं के समाधान के लिए प्राकृतिक खेती की तकनीकों, इसमें सम्भावित नवाचारों एवं नई नीतियों पर लगातार आधिकारिक एवं अकादमिक विमर्श, प्रभावी ढाँचों एवं नवीन कार्य योजनाओं की आवश्यकता है।
यह सही है कि जैविक और प्राकृतिक खेती में मशीनीकरण कम है, परन्तु इसके सफल होने की दिशा में हो रहे प्रयासों में छोटी जोतों के लिए जुताई, बुवाई, सिंचाई, कटाई, मड़ाई आदि के लिए सौर या जैव ईंधन आधारित छोटी अर्ध मशीनीकृत मशीनों के नवाचार, उत्पादन एवं व्यापार की भी असीम संभावनाएँ हैं।
फसलों की उपज बढ़ाने वाले सूक्ष्मजीवों की प्रकृति में भरमार है। उन्हें उत्पादों के रूप में उत्पादित एवं विपणन करने की अनेकों तरह की संभावनाएँ, बड़े हरित उद्योगों एवं स्थानीय स्त्तर के ग्रामीण लघु उद्योगों की नई श्रृंखला और कुशल, अर्धकुशल एवं अकुशल ग्रामीण युवाओं के लिए नए तरह के रोजगारों की नई खेप तैय्यार करने की असीम संभावनाओ को समेटे हुये हैं।
इसको अपनाने से प्राकृतिक विविधतापूर्ण मौसम के लिए लचीले बीजों का चुनाव एवं उनके पौध निर्माण के लिए नए लघु उद्योग बन सकेंगे। कृषि क्षेत्र में फसलों की सिंचाई के लिए भारी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है, जबकि भूगर्भ और सतह स्थित जलाशयों में पानी घट भी रहा है, तथा प्रदूषित भी हो रहा है। जलवायु परिवर्तन एवं प्राकृतिक कृषि की आवश्यकताओं के अनुरूप फसलों की सिचाई के लिए नए तरह की सिचाई विधियाँ और उनके सस्ते, स्थानीय एवं नवाचारी प्रकृति संगत उपकरणों के उत्पादन एवं विपणन के लिए नए उद्योगों की अनेकों तरह की नवीन संभावनाएँ प्राकृतिक खेती से उत्पन्न होगी जिनकी बात अभी नहीं हो रही है।
जैविक एवं प्राकृतिक रूप से उगाये गये कृषि उत्पादों के विष विहीन एवं विविध होने से इनकी माँग के अनुरूप इनकी छँटाई, पैकिंग, प्रोसेसिंग एवं विपणन की नई छोटी-बड़ी व्यक्तिगत तथा सहकारी कंपनियाँ बन सकेगी। पशु पालन और दुग्ध उत्पादन में ढाँचागत विकास एवं विपणन की सम्भावनाएँ बढ़ेगी। जमीन, पानी एवं हवा की विषाक्तता कम होने से कृषि पर्यावरण में सुधार होगा और धारणीय तरीके से कृषि पर्यावरण में सुधार से सस्ते प्राकृतिक अदानों से ही धीरे-धीरे कृषि उपज बढ़ जाएगी।
इस तरह से हमारी कृषि और खाद्य सुरक्षा रोजगार और प्रकृति से जुड़कर नए आयाम के साथ फिर से धारणीय हो जाएगी। आवश्यकता है, ईमानदारी से प्रयास किए जाने और इसके विकास के साथ-साथ नियमित प्रभाव आकलन के लिए वैज्ञानिक तरीकों को अपनाए जाने की। इसकी सफलता और असफलता को वैज्ञानिक दर्शन एवं विधियों से आँककर प्राकृतिक कृषि को नवीन नवोन्मेषी तकनीकों से पोषित करके नए तरह की वैज्ञानिक खेती पद्धति विकसित हो सकती है, जो समावेशी हो, प्रकृति संगत हो, धारणीय हो तथा सामाजिक एवं आर्थिक रूप से प्रगतिशील हों।
वैज्ञानिक आकलन के प्रभावों के सम्यक् विश्लेषणों से इन विधियों में लगातार नीतिगत एवं कार्यदायी बदलाव किए जा सकते हैं। इसके लिए स्वतंत्र और जवाबदेही क्षमतवान व्यवस्थाओं की आवश्यकता है।
राणा प्रताप सिंह