दुनिया की जीवनशैली और लोगों की सोच को बदलने को मजबूर कर दिया है कोविड 19 ने। शक्तिशाली साधन सम्पन्न देशों ने महामारी के आगे घुटने टेक दिए। उपभोक्ता संस्कृति और ग्लोबलाइजेशन को करारा झटका लगा है। विश्व के साथ भारत में अनेक बदलाव होंगे, जिसका संकेत प्रधानमंत्री मोदी ने दिया है। भारत की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार गांव बनेंगे, जिन्हें आत्मनिर्भर बनाया जाएगा।
आत्मनिर्भर नहीं गांव
गांव के लोग रोजी-रोटी के लिए, बेहतर सुविधा के लिए शहरों का रूख करते हैं। ऐसे में शहरों में बढ़ती ण्ुग्गी-झोपड़ी, बदस्तूर फैलते प्रदूषण के साथ निचले तबकि के लोग बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष करते रहते हैं। शहरों का दमघोंटू वातावरण लोगों को चैन से जीने नहीं देता और ग्रामीण शहरों को छोड़ना नहीं चाहते। पूरे देश के शहरों में ऐसी विषम स्थिति नजर आती है। गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की कई योजनाएं आईं, मगर वे क्रियान्वित नहीं हो सकीं।
प्रधानमंत्री का संकेत
भारत में एक बड़ा बदलाव आएगा। कोरोना संकट के चलते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संकेत देते हुए कहा कि, ‘‘इस कोरोना संकट से हमने पाया है कि हमें आत्मनिर्भर बनना ही पड़ेगा।’’ सरपंचों को वीडियो कांफ्रेंसिंग से संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने अपने उद्गार व्यक्त किए। जिन्होंने कहा कि, ‘‘भारत में ये विचार सदियों से हो रहा है, लेकिन आज बदलती हुई परिस्थितियों ने हमें फिर से याद दिलाया है कि आत्मनिर्भर बनो, आत्मनिर्भर बनो, आत्मनिर्भर बनो।’’ आत्मनिर्भरता बहुत ही अर्थपूर्ण है। इसी संदर्भ में कुछ दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि कोरोना संकट के बाद वाली व्यवस्था कैसी हो, इस पर विचार होना चाहिए। जिन्होंने अपनी राय देते हुए कहा कि भारत के लिए ‘‘शासन, प्रशासन और समाज’’ के सहयोग से आत्मनिर्भरता और स्वदेशी जरूरी है।
मेक इन इंडिया
स्वदेशी विचार पर बल देते हुए भागवत ने कहा, ‘‘हमें इस बात पर निर्भर नहीं होना चाहिए कि हमारे पास विदेश से या आता है, और यदि हम ऐसा करते हैं तो हमें अपनी शर्तों पर करना चाहिए। हम अपने माल का उत्पादन खुद करें और उनका उपयोग खुद करें।’’ स्वदेशी के विचार को व्यक्तिगत स्तर से लेकर परिवार तक आंतरिक रूप से अपनाना होगा।
‘मेक इन इंडिया’ से भारत की अर्थव्यवस्था को स्वदेशी की ओर लाने की योजना रही है। आत्मनिर्भरता और स्वदेश घरेलू उत्पादन पर अधिक जोर देता है। लेकिन भारत में विदेशी बाजार के खुलने से स्वदेशी उत्पादन उनके सामने टिक पाएगा। क्वालिटी और कीमत के मुकाबले में स्वदेशीकरण कैसे टिक पाएगा?
जो लोग स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की वकालत करते हैं वो कम खर्च, सरकारी नौकनियों में बढ़ोत्तरी और उपभोक्ता संस्कृति को घटाने पर जोर देते हैं। स्वदेशी उपभोक्ता मंच के अरूण ओझा कहते हैं, ‘‘हमें सोचना पड़ेगा कि एक परिवार के पास एक की बजाए पांच गाड़ियों की क्यों जरूरत है? अगर आप एक भारतीय साबुन इस्तेमाल करते हैं तो कई तरह के विदेशी साबुनों की क्या जरूरत है।
स्वदेशी आत्मनिर्भरता
देश की कई कम्पनियों ने बेहतर गुणवत्ता और कम दाम वाले उत्पादन प्रस्तुत किए हैं। इस श्रेणी में आती है तमिलनाडु की अरूणाचलम मरूगनांथम की कम्पनी, जो कम लागत वाले सैनेटरी पैड बनाने वाले मशीन के अविष्कारक हैं। जिस मशीन से बने सस्ते और बेहतर पैड देश की दस फीसदी महिलाओं तक जा पहुॅंचे। इसकी सफलता की चर्चा देश-विदेश में हुई और अक्षय कुमार ने ‘पैडमैन’ फिल्म इन्हीं के जीवन पर बनाई। अरूणाचलम की चर्चा ही विदेशों में नहीं हो रही है, बल्कि कई देशों में इनके उत्पाद धड़ल्ले से बिक रहे हैं। जहॉं उनकी यूनिट लगती है, वहॉं बड़ी विदेशी कम्पनियां नहीं जाती।
स्वदेशी आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए सरकार को नई तकनीकी, खोज को प्रोत्साहित करने के लिए आधारभूत योजना भी बनानी होगी। कोरोना महामारी के शुरूआती दौर में वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने देश में 5 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लक्ष्य को साकार करने के लिए घरेलू उद्योगों को आत्मनिर्भर बनाने और राष्ट्रवाद की भावनाओं को आत्मसात करने का आव्हान करते हुए कहा था, ‘‘उद्योग को राष्ट्रवाद और आत्मनिर्भरता बढाने की भावना के साथ काम करना चाहिए।’’
कोरोना संकट के चलते लम्बे समय तक लाकडाउन से अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। खासकर मजदूर वर्ग और हर रोज खाने कमाने वालों पर गाज गिर गई है। सरकार, प्रशासन और समाज सेवी संस्थाएं, दानदाता जिनकी मदद करने आगे आए हैं, मगर लाकडाउन के बाद सीधे उन्हें रोजगार से कैसे जोड़ पाएंगे। घरेलू उद्योग-धंधे पहले ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चलते खत्म हो गए हैं। शहरों से भारी तादाद में मजदूर अपने गांव वापस लौट आए हैं, जिनके सामने रोजी-रोटी का संकट उठ खड़ा हुआ है। ऐसे में स्वदेशी ग्रामीण आत्मनिर्भरता उनके लिए संबल बन सकती थी, मगर गांवों को पंगु बनाने की योजना ही क्रियान्वित होती रही।
शहरों की बजाए गांव में रहकर ग्रामीण आत्मनिर्भर बनें, ऐसी योजना पर सरकार काम करने वाली नजर आती दिखती है। प्रधानमंत्री ने सरपंचों से ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की बात कही कि, ‘‘मजबूत पंचायतें आत्मनिर्भर गांवों का भी आधार हैं और इसलिए पंचायत की व्यवस्था जितनी मजबूत होगी, उतना ही लोकतंत्र भी मजबूत होगा और उतना ही विकास का लाभ उस आखिरी छोर पर बैठे सामान्य व्यक्ति को भी होगा।’’
परिवर्तन समय की जरूरत है। अर्थव्यवस्था का पहिया कैसे चलता रहे, इसके लिए छोटे-छोटे ग्रामीण उद्योग को प्रोत्साहन देना होगा। परिवर्तन की बयार में स्वदेशी आत्मनिर्भरता की राह में चलकर भारत का आर्थिक भविष्य उज्ज्वल हो, यह समय ही बताएगा।
अंशिता सिंह
तो मना करें और कहें नमस्कार
कोरोना वायरस मर जाएगा छिड़काव करने से, यह सही नहीं है। अगर आप पर डिसइंफेक्टेंट का छिड़काव हुआ है तो आप सुरक्षित हो गए हैं, यह सोच गलत है। कोराना वायरस इससे मर जाएगा, क्या इस से यह भ्रांत धारणा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसका खुलासा किया है।
बेअसर है छिड़काव
सफाई और सतहों के डिसइंफेक्शन को लेकर डब्ल्यूएचओ ने 16 मई 2020 को एक डाक्यूमेंटरी जारी किया है। डाक्यूमेंट के अनुसार छिड़काव बेअसर है, बल्कि इससे स्वास्थ्य पर उल्टा असर पड़ सकता है। डब्ल्यूएचओ घर के अंदर और बाहर डिसइंफेक्टेंट के छिडत्रकाव की सलाह नहीं देता। इसका कारण है कि डिइंफेक्टेंट धूल से इनएक्टिवेट हो जाते हैं और यह संभव नहीं है कि इन सभी जगहों को अलग से साफ कर आर्गेनिक मैटर हटाया जा सके।
इंसानों पर डिसइंफेक्टेंट का छिड़काव किसी भी नजरिए से सही नहीं है। ऐसा छिड़काव शरीर के साथ साइकोलाजिकल लेबल पर नुकसानदेह हो सकता है। इससे संक्रमित शख्स के संक्रमण फैलाने पर भी कोई असर नहीं पड़ेगा, बल्कि इन केमिकल से लोगों को नुकसान अवश्य पहुॅंचेगा।
नुकसानदेह डिसइंफेक्टेंट
अब देखें डिसइंफेक्टेंट में क्लोरीन, 5 प्रतिशत सोडियम हाइपोक्लोराइड और पानी का मिश्रण होता है या फिर क्लोरीन, हाइड्रोक्लोराइड पाउडर और पानी को मिलाकर तैयार किया जाता है। इससे आंखों और त्वचा में जलन, सांस लेने में परेशानी, जी मचलाना और उल्टी होना जैसी समस्या हो सकती है।
स्वास्थ्य मंत्रालय ने डब्ल्यूएचओ से पहले ऐसी चेतावनी 18 अप्रैल 2020 को जारी की थी। जब बरेली में प्रवासी मजदूरों पर डिसइंफेक्टेंट के छिड़काव का वीडियो वायरल हुआ था। स्वास्थ्य मंत्रालय ने सलाह दी कि किसी शख्स या समूह पर केमिकल डिइंफेक्टेंट का छिड़काव शारीरिक और मानसिक रूप से घातक हो सकता है। अगर वह शख्स कोविड 19 वायरस के सम्पर्क में आता भी है तो भी शरीर पर डिसइंफेक्टेंट के छिड़काव से अंदर का वायरस खत्म नहीं होगा।रसायनों का छिड़काव प्राकृतिक तौर पर सही नहीं है। विज्ञान भी इस बात को नहीं मानता कि कपड़ों और शरीर पर डिसइंफेक्टेंट का छिड़काव असरदार है। अगर अपने आसपास ऐसा होता देखते हैं कि लोग टनल में जाते हैं, जहॉं छिड़काव हो रहा है, या फिर आफिस के अंदर घुसने के पहले गार्ड छिड़काव कर रहा है तो उसे मना कर दें।
बचाव कैसे करें
तो फिर कोविड 19 से बचने के लिए क्या उपाय करें। इसके लिए सबसे पहले आप मास्क पहनें, फिजिकल डिस्टेंस बनाए रखें और अपने हाथ धोएं। अगर आप ऐसा करते हैं तो सचमुच कोविड 19 के संक्रमण से अपने को बचा सकते हैं। एक बात और, जब किसी से मिलें तो हाथ मिलाने की बजाए हाथ जोड़कर नमस्कार कहें। भारत में अभिवादन की इस परम्परा को आज पश्चिमी देशों ने भी अपना लिया है, ताकि वे वायरस संक्रमण से बचे रह सकें।
सेनेटाइजर का असर
सेनेटाइजर का आंख मूंदकर इस्तेमाल करना कई स्वास्थ्यगत खतरों को आमंत्रित करने जैसा है। बेवजह लगातार 50-60 बार तक उपयोग करने से त्वचा रोग, लीवर, किडनी कैंसर और फेफड़ों में विकार आ सकता है। खासकर खुशबू वाले सेनेटाइजर को बार-बार सूंघने से खतरा बढ़ सकता है। हाल ही में हुए शोध में यह खुलासा हुआ कि 10 साल से कम उम्र के बच्चों व गर्भवती महिलाओं की इम्युनिटी इस कारण घट सकती है। अक्सर खुशबू वाले सेनेटाइजर को बच्चे बार-बार सूंघते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि बच्चों की पहुॅंच से इसे बाहर रखें।
घातक रसायन का असर
सेनेटाइजर में ट्राइकोसान, वेन्जाल कोनियम क्लोराइड, फेथलेट्स जैसे घातक तत्व मिले रहते हैं। ऐसे रसायन हमारे लिए खतरनाक होते हैं। ट्राइकोसान आसानी
सूरज हमें दे रहा कोरोना से लड़ने की ताकत
विटामिन डी की कमी से कोरोना मरीजों की मौज ज्यादा हुई। जिन देशों में विटामिन डी की कमी लोगों में है, वहॉं कोरोना से मौत का आंकड़ा तेजी से बढ़ा। अमेरिका और इटली जैसे देश, जहॉं बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, वहॉं कोरोना संक्रमित लोगों की मौतों का होना वैज्ञानिकों के लिए चुनौती भरा रहा। विटामिन डी की कमी से कोरोना संक्रामक वाकई जानलेवा होता है, इस पर विश्व स्तर पर अध्ययन किया गया।
विटामिन डी से सम्बन्ध
कोरोना संक्रमित व्यक्ति में विटामिन डी की कमी है तो जान जा सकती है। कोरोना संक्रमित मृत्युदर अलग-अलग देशों में असामान्य रूप से कम और ज्यादा हुई। आखिर ऐसा क्यों, इस बात का पता लगाने के लिए अमेरिका की नार्थ वेस्टर्न यूनीवर्सिटी ने एक रिसर्च किया। रिसर्च में चीन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, दक्षिण कोरिया, स्पेन, स्विटजरलैंड, बिट्रेन और अमेरिका के अस्पतालों के आंकड़े एकत्र किए। शोध टीम के प्रमुख प्रोफेसर वादिम बैकमैन कहते हैं, ‘‘इससे अलग हमें विटामिन डी की कमी के साथ अहम सम्बन्ध दिख रहा है।
इटली, स्पेन और बिट्रेन में कोरोना वायरस से जान गंवाने वाले ज्यादा लोग विटामिन डी की कमी से जूझ रहे थे। जबकि कोरोना वायरस से बुरी तरह प्रभावित कई दूसरे देशों में मृतकों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम है। आखिरकार शोध प्रमुख को कहना पड़ा कि, ‘‘मुझे लगता है कि लोगों को यह जानना जरूरी है कि विटामिन डी की कमी मृत्यु दर में एक अहम भूमिका निभा सकती है। लेकिन हम इस बात पर जोर नहीं देंगे कि हर किसी को विटामिन डी की दवा लेनी चाहिए।’’
इम्यून सिस्टम पर असर
विटामिन हमें सूरज की धूप, दूध के उत्पादों और मछली से भी मिलता है। प्रोफेसर बैकमेन कहते हैं, विटामिन डी सिर्फ इम्यून सिस्टम को दुरूस्त ही नहीं रखता है, बल्कि यह उसे ओवर रिएक्ट करने से भी रोकता है। विटामिन डी के स्तर और बहुत ही ज्यादा साइटोकाइन में सीधा सम्बन्ध देखने को मिला है। साइटोकाइन सूक्ष्म प्रोटीनों का एक ऐसा बड़ा समूह है, जिसमें कोशिकाएं संकेत देने के लिए इस्तेमाल करती हैं।
इंसान के इम्यून सिस्टम को नियंत्रित या अनियंत्रित करने में साइटोकाइन संकेतों की अहम भूमिका होती है। अगर साइटोकाइन के चलते इम्यून सिस्टम ओवर रिएक्शन करने लगे, तब यह स्थिति जानलेवा हो जाती है। कोरोना वायरस के बहुत सारे मामलों में पीडितों की मौत इम्यून सिस्टम के ओवर रिएक्शन से ही हुई है। नार्थ वेस्टर्न यूनीवर्सिटी के शोध के मुताबिक विटामिन डी की कमी से बहुत ज्यादा साइटोकाइन का स्राव देखने को मिला है।
फेफड़ों को नुकसान
विश्वविद्यालय के शोध से जुड़े शोधार्थी दानिश खान इसका खुलासा करते हुए कहते हैं, ‘‘साइटोकाइन का तूफान फेफड़ों को बुरी तरह नुकसान पहुॅंचा सकता है और यह घातक रेस्पेरेट्री डिस्ट्रेस सिंड्रोम भड़का सकता है, जिससे मरीज की मौत हो सकती है। कोविड-19 के ज्यादातर मरीजों की मौत इसी वजह से हुई दिखती है, जबकि वायरस ने खुद फेफड़ों को उतना ज्यादा नुकसान नहीं पहुॅंचाया।’’
रिसर्च में यह खुलासा हुआ कि इटली, स्पेन और बिट्रेन में ज्यादातर वे मरीज ही मौत के शिकार हुए, जिनमें विटामिन डी की कमी थी। इसके बावजूद शोध प्रमुख विटामिन डी की दवा लेने की सलाह भी नहीं देते कि हर किसी को यह दवा लेनी चाहिए।
विटामिन की दवा लेने और धूप और भोजन से मिलने वाले विटामिन डी में काफी अंतर है। शरीर को जितनी जरूरत होती है, वह धूप और भोजन से विटामिन डी लेता है, जबकि दवा से ऐसा नहीं होता।बहरहाल यह कहा जा सकता है कि जहॉं-जहॉं विटामिन डी की कमी वाले कोविड 19 से संक्रमित हैं, उन्हें खतरा ज्यादा है। विटामिन डी का अहम स्रोत सूर्य है। यूरोपीय देशों में जहॉं धूप की कमी है, वहीं कोविड-19 ज्यादा मारक सिद्ध हुआ। विटामिन डी फेफड़ों को ज्यादा मजबूती देता है और इसकी कमी घातक सिद्ध होती है। दवा की बजाए हमें विटामिन डी प्राकृतिक स्रोतों से लेना, आज के परिवेश में ज्यादा बेहतर होगा।
रविन्द्र गिन्नौरे
पर्यावरण परिवर्तन से घट रहा पेड़ों का कद
इंसानों के जंगलों में दखल के बाद पहले ही पेड़ों की संख्या तेजी से घट रही थी लेकिन एक और नकारात्मक बदलाव दिख रहा है। अब पर्यावरण बदल रहा है। दुनियाभर के जंगलों में पेड़ों की लम्बाई छोटी हो रही है और उम्र घट रही है। जैसे तापमान और कार्बन डाइ आक्साइड बढ़ रही है, वैसे-वैसे ये बदलाव बढ़ता रहा है। इसकी शुरुआत एक दशक पहले ही शुरू हो चुकी है।
यह रिसर्च अमेरिका के पेसिफिक नार्थवेस्ट नेशनल लेबोरेट्री ने दुनियाभर के जंगलों पर की है। रिसर्च कहती है कि अब दुनियाभर के जंगल और पर्यावरण बदल रहे हैं। जंगलों में आग, सूखा, तेज हवा के कारण होने वाला डैमेज मिलकर जंगलों की उम्र को घटा रहे हैं और पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है।
अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखते पुराने जंगल
रिसर्च के प्रमुख शोधकर्ता मैकडावेल का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के साथ यह बदलाव बढ़ रहा है। नए जंगल के मुकाबले पुराने जंगलों में विभिन्नताएं हैं और ये ज्यादा कार्बन डाई आक्साइड सोखते हैं लेकिन इन पर नकारात्मक असर दिख रहा है। आने वाले समय में हम जो पड़े उगा रहे हैं उसके मुकाबले पुराने जंगल काफी हद तक बदल जाएंगे। जलवायु परिवर्तन को रोकने के दो ही बड़े मंत्र है कार्बन को सोखना और जैव-विविधता यानी बायोडाइवर्सिटी।
बर्बादी की कगार पर ले गया इंसान
जंगलों में जो बदलाव दिख रहे हैं वह इंसानों की कारगुजारी का नतीजा हैं। नतीजा है कि दुनियाभर के पुराने जंगल तेजी से खत्म हो रहे हैं। शोधकर्ताओं ने इसे समझने के लिए सैटेलाइट इमेज का इस्तेमाल करके विश्लेषण तो पाया ऐसे पिछले एक दशक हो रहा है। यह पूरे पर्यावरण को बदल रहा है। शोधकर्ताओं ने इसकी दो बड़ी वजह बताई हैं।
पहला- इंसानों को जंगलों में बढ़ता दखल और दूसरी प्राकृतिक आपदाएं जैसे आग, कीट और पेड़ों में फैलती बीमारियां। तेजी से कटते पेड़ तीन तरह से असर डालते हैं, पहला- यहां लोग बढ़ते हैं, दूसरा- कार्बन की मात्रा बढ़ती है और तीसरा पौधे खत्म होने लगते हैं।
जंगलों का दम घोट रहा है बढ़ता तापमान
शोधकर्ता मैकडावेल के मुताबिक, तेजी से बढ़ता तापमान और प्राकृतिक आपदा पेड़ों का दम घोट रही है। पिछले 100 सालों में हमने काफी पुराने जंगल खोए हैं। इनकी जगह पर ऐसे पेड़ उगे हैं जो जंगलों की प्रजाति से मेल नहीं खाते थे। इस दौरान नए जंगल उगे। लेकिन तेजी से कटते पेड़ जानवरों और पेड़ों के बीच स्थितियां बदल रही हैं।
होता जाएगा मुश्किल इंसान का जीवन
द इंस्टीट्यूट आफ साइंस, मुम्बई के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. उमेश बी काकड़े का कहना है कि पेड़ों और जंगलों को संरक्षित करने की जरूरत है। खाली पड़ी जमीन पर आबादी के मुताबिक अलग-अलग तरह के पेड़ लगाएं। सिर्फ ऑक्सीजन के लिए नहीं बल्कि जानवरों और पक्षियों के लिए ये बेहद जरूरी है। धरती पर आक्सीजन और भोजन का यही एकमात्र स्रोत हैं जैसे-जैसे ये खत्म होंगे, इंसान का जीवन मुश्किल होता जाएगा।
दखल का उदाहरण कोरोनावायरस
मुम्बई की पर्यावरणविद और आवाज फाउंडेशन की फाउंडर सुमैरा अब्दुलाली कहती हैं, आज हम इंसान अपने जंगलों को ऐसे मैनेज करते हैं ताकि ज्यादा ज्यादा टिम्बर ले सकें। इसलिए जंगलों को एक खास अवधि में काटा जाता है और फिर पौधारोपण किया जाता है। ऐसे जंगलों का मुख्य उद्देश्य टिंबर पैदा करना होता और यहां पर पेड़ों को कभी भी उनकी पक्की उम्र तक बढ़ने नहीं दिया जाता और उन्हें पहले ही काट लिया जाता है इसके अलावा इंसानों के कारण जंगलों में फैली आग और जलवायु परिवर्तन का असर पुराने जंगलों पर हो रहा है। इन्हें बचाने की जरूरत है, दुनियाभर के जंगल यह समस्या झेल रहे हैं।
पर्यावरणविद सुमैरा अब्दुलाली कहती हैं कोरोनावायरस जानवरों से इंसानों में पहुंचने की एक वजह यह भी है कि इंसानों का जंगलों और वाइल्डलाइफ में हस्तक्षेप बढ़ रहा है। जिसका असर दुनियाभर में लाकडाउन के रूप में दिखा। यह बताता है कि इंसान और कुदरत एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इस समय पुराने जंगलों को बचाने और संरक्षित करने की जरूरत है। अगर हमने पौधों की प्रजातियां खो दीं तो बदले हुए पर्यावरण का सीधा असर इंसानों और जानवरों पर दिखेगा।
भव्य सिंह