विलुप्त होती मधुमक्ख्यिॉं : आएगी भूखों मरने की नौबत

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कभी बरामदे, तो कभी पेड़ों में लगे छत्ते की भिनभिनाहट किसी को भी परेशान कर सकती है। काली-पीली मधुमक्खी ने कहीं काट लिया तो दर्द कौन झेलेगा? लेकिन इनके छत्ते मिटाने से कहीं इंसान पूरी धरती को तो खतरे में नहीं डाल रहा? एक स्टडी में दावा किया गया है कि 1990 के बाद से मधुमक्खियों की एक चौथाई आबादी पब्लिक रेकार्ड में देखी ही नहीं गई हैं। एक छोटी सी मधुमक्खी के गायब होने पर चिंता क्यों, क्या आप जानते हैं? दरअसल, इस नन्हे जीव ने उठा रखा है। धरती पर जीवन के विकास का बीड़ा और अगर ये न हो तो न सिर्फ जंगल बल्कि दुनियाभर का पेट भरने वाली फसलें भी खतरे में पड़ सकती हैं।
बेंगलुरु के गांधी कृषि विज्ञान केंद्र की यूनिवर्सिटी आफ ऐग्रिकल्चरल साइंसेज में वैज्ञानिक डॉ. वासुकी बेलावडी ने का कहता है कि, कि दुनिया में मधुमक्खियों की 20,507 प्रजातियां हैं जिनमें से एक दर्जन शहद पैदा करने वाली मधुक्खियां होती हैं। करीब-करीब सभी प्रजातियां फसलों और जंगली पौधों में परागण के लिए जरूरी होती हैं। भारत में 723 प्रजातियां और अभी और भी ज्यादा खोजी और पहचानी जानी हैं।
मधुमक्खियों की विविधता और मौजूदगी पर कई इंसानी गतिविधियों का असर पड़ता है। इसमें गहन कृषि और निवास स्थान की तबाही जैसे कारण शामिल हैं लेकिन इसकी पुष्टि करने के लिए डेटा नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि नैशनल बी बोर्ड आफ इंडिया, जिसका ज्यादा फोकस इंडियन हाइव बी ।Apis cerana  पर है, उसने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 2005और 2018 के बीच शहद के उत्पादन में (35 हजार मीट्रिक टन से बढ़कर 1.05 लाख मीट्रिक टन के साथ 200% बढ़त हुई है) और बी कालोनी में 8 लाख से 35 लाख के साथ 400% बढ़ गई हैं।
बेंगलुरु के नैशनल सेंटर फार बायोलजिकल साइंसेज में रिसर्चर रजत एस बताते हैं कि भारत में  Bees पर टैक्सोनामिक स्टडीज कम की गई हैं। कहा जा सकता है कि कुल संख्या बहुत कम आंकी गई है और अब तक ज्यादातर मधुमक्खियों की टेक्सोनामी के आधार पर पहचान नहीं हुई है। स्थानीय मधुमक्खी Apis cerana बी कीपिंग के लिए इस्तेमाल की जाती है और शायद ही इसकी कालोनी की आबादी गिनी जाती है। जंगली मधुमक्खियों जैसे राक बी (Apis dorsata ), ड्वार्फ हनी बी (Apis floria ), ब्लैक ड्वार्फ बी (Apis andreniformis ) और हिमालयन जायंट हनी बी (Apis laboriosa ) की आबादी पर कोई डेटा नहीं है।
कहां गईं एक चौथाई मधुमक्खियां?
अर्जंटीना के रिसर्चर्स ने सिटिजन-साइंस प्राजेक्ट्स और डेटाबेस के आधार पर की गई एक स्टडी में पाया है कि साल 2006 से 2015 के बीच 1990 से पहले के मुकाबले 25% कम मधुमक्खियां रेकार्ड की गई हैं। इससे मधुमक्खियों की आबादी पर संकट की आशंका पैदा हो गई है।
डॉ. वासुकी बताते हैं कि कई इंसानी गतिविधियों का मधुमक्खियों पर असर हो सकता है। एक बड़ा कारण कीटनाशकों का अत्याधिक इस्तेमाल हो सकता है। हालांकि, दूसरे देशों की तुलना में भारत में कीटनाशक कम इस्तेमाल होते हैं

लेकिन यह साल दर साल यह बढ़ती जा रही है। एक और वजह छत्ता बनाने के लिए जगह की कमी और जब फसल न हो, उस मौसम में पनपना मुश्किल हो जाता है। खर-पतवार खत्म करने के लिए इस्तेमाल होने वाले केमिकल्स की वजह से जंगली पौधों की कमी हो रही है।
रजत का कहना है कि राक बी चट्टानी चोटियों पर, पेड़ों की डालों पर और ऊंची इमारतों पर छत्ता बनाती हैं। मधुमक्खी की ये अकेली ऐसी प्रजाति है जो रात को खाने की खोज में निकलती है और रोशनी से आकर्षित होती है। आमतौर पर बड़ी इमारतों में पेस्ट मैनेजमेंट कंपनियां आती हैं और इनके छत्तों को केमिकल से मार देती हैं।
कहीं देर न हो जाए
रिसर्चर्स ने ग्लोबल बायोडायवर्सिटी इन्फर्मेशन फसिलटी (GBIF) के डेटा को स्टडी किया जिसमें संग्रहालयों, यूनिवर्सिटीज और आम लोगों के योगदान से मिला तीन सदियों का डेटा होता है।GBIF में दुनियाभर की 20 हजार से ज्यादा प्रजातियों का जिक्र है। मधुमक्खियों के व्यापार के लिए खास कीटाणुओं का इस्तेमाल भी किया जाता है जिससे पैरागोनिअन बम्बलेबी और दूसरी प्रजातियों में कमी दर्ज की गई है।
मधुमक्खियों पर कीटनाशकों, जलवायु परिवर्तन, कीटाणुओं के साथ-साथ जैव विविधता और निवास स्थान की कमी का भी असर पड़ता है। वन अर्थ में छपी स्टडी के मुख्य लेखक अर्जंटीना के एडवर्डो जटारा के मुताबिक मधुमक्खियों के अभी अस्तित्व पर खतरा तो नहीं हैं लेकिन ये बढ़ भी नहीं रही हैं। इनकी प्रजातियों की संख्या भी कम होती जा जा रही है। हमें यह समझना होगा कि यहां सिर्फ आंकड़ों के सहारे नहीं रहा जा सकता क्योंकि गिरावट देखा जाना एक ट्रेंड की ओर इशारा करता है। अगर आंकड़ों में इनकी आबादी पर खतरा मिलने तक इंतजार किया गया, तो बहुत देर हो चुकी होगी और फिर शायद कुछ किया न जा सके।
जलवायु परिवर्तन की मार
पिछले महीने सामने आई पेन स्टेट यूनिवर्सिटी के एक्सपर्ट्स की एक स्टडी में बताया गया है कि मधुमक्खियों पर जलवायु परिवर्तन का असर उनके घर छिनने से ज्यादा हो रहा है। 1000 जगहों पर जंगली मधुमक्खियों की आबादी के 14 साल के डेटा के आधार पर यह नतीजा पाया गया। इसके मुताबिक सर्दियों में ज्यादा तापमान और लंबे गर्मी के मौसम की वजह से पौधों और फूलों की संख्या और विविधता में कमी आई है। इसकी वजह से जंगली मधुमक्खियों के लिए भी संकट पैदा हो गया है।
क्यों की जानी चाहिए इनकी चिंता?
डॉ. वासुकी बताते हैं, ‘मुझे लगता है कि लोगों को धीरे-धीरे मधुमक्खियों की अहमियत और परागण के बारे में लोगों को धीरे-धीरे पता चल रहा है लेकिन इसके बारे में जानकारी का स्तर अभी का है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मधुमक्खी और परागण की अहमियत को समझा नहीं जा सकता है। किसानों या ज्यादातर लोगों को लगता है कि मधुमक्खियों का इस्तेमाल शहद के लिए होता है। जब हम मधुमक्खियों के बारे में सुनते हैं तो हमें शहद देने वाली मधुमक्खियों के बारे में समझ आता है। ये मधुमक्खियां कई फसलों और जंगली पौधों के परागण का काम करती हैं लेकिन लोगों को समझना होगा कि कई सौ ऐसी मधुमक्खियां हैं जो बेहतरीन काम कर रही हैं। जंगली मधुमक्खियों की मदद से होने वाला परागण हजारों जंगली पौधों के पैदा होने में अहम भूमिका निभाता है और करीब 85% फसलें इनकी वजह से सुनिश्चित होती हैं।’
कैसे बचेंगे ये नन्हे जीव?
डॉ. वासुकी ने बताया है कि कई संस्थानों ने किसानों और आम लोगों को ट्रेन करने के लिए गतिविधियां शुरू की हैं। इंडियन काउंसिल आफ ऐग्रिकल्चरल साइंसेज मधुमक्खियों पर एक प्रोजेक्ट (All india coordinated project on Honey bees ) चला रहा है। मधुमक्खियों के योगदान को समझते हुए इसका नाम अबAICRP on Honey bees and pollinators   कर दिया गया है।National Bee Board  का नाम भी National Honey  and pollination board  करने की सलाह दी गई है।
‘रजथ राक’ हनी बी की मानिटरिंग पर आधारित रिसर्च कर रहे हैं। उन्होंने बेंगलुरु में मधुमक्खियों की कालोनी का सर्वे शुरू किया है और उन्हें मानिटर कर रहे हैं। उनकी लैब में एक सिटिजन साइंस प्राजेक्ट शुरू किया जा रहा है जिसके जरिए आम लोगों को रिपोर्ट करने और मानिटर करने के लिए शामिल किया जाएगा। इसके लिए स्मार्टफोन ऐप और वेबपेज पर काम चल रहा है।
प्रीति सिंह