संपूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था का आधार स्तंभ प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ही रहा है। चाहे वह खनिज हो या कृषि या फिर ऊर्जा स्रोत। प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था पर्याप्त मायनों में पूरी तरह धारणीय थी, चूॅंकि वह प्रकृति के अनुकूल नियोजित थी। वर्तमान युग में विश्व के सभी देश ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके आर्थिक प्रगति करने हेतु एक प्रकार से आर्थिक संग्राम में सन्नद्ध है। किन्तु विडंबना यह है कि अनेकानेक लोकतांत्रिक देश यथा- भारत, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, जर्मनी इत्यादि आर्थिक संग्राम में चीन के द्वारा प्रकृति, पर्यावरण एवं मानव अधिकारों का अत्याधिक शोषण करके विकसित की गई आर्थिक बढ़त को भी जानते हुए नकारने की कोशिश करते रहे हैं। पर यह एक कड़वा सच है कि जहां पश्चिमी देश खास कर यूरोपीय देश पृथ्वी पर आसन्न हो रहे मौसम परिवर्तन तथा भूमंडलीय तापन को शिथिल करने के प्रयास में अपनी अर्थव्यवस्था को कार्बन संदूषण मुक्त करने के लिए भले ही बलिदान करते रहे हों, वहीं पर चीन उसी दौरान में यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कंबेंशन आन क्लाईमेट चेंज को भी (वर्ष 2002 से 2017 तक) धत्ता बताकर सर्वाधिक यूरोपीय देशों से धन का संकलन करते हुए भी कार्बन संदूषण करने वाली प्रक्रियाओं को विस्तृत करता रहा था। एक विकासशील देश की खाल ओढ़कर उसने समस्त पर्यावरणीय मानकों को दरकिनार रखते हुए तथा सभी मानव श्रम मानदंडों को भी शिथिल रखते हुए अपने यहा समस्त उपभोक्ता तथा औद्योगिक आगत सामग्रियों का इतना विपुल उत्पादन उपभोक्ता एवं उद्योगों के लिए किया कि उसके न्यूनतम उत्पादन लागत के समक्ष विश्व के विकसित राष्ट्रों के औद्योगिक संस्थान भी धाराशायी दिखाई होते दिखे।
इन सबके बावजूद भी विश्व समुदाय चीन को आर्थिक-तकनीकी रूप से विकसित राष्ट्रों की श्रृंखला में सूचीबद्ध नहीं कर पाया है। सर्वाधिक प्रदूषणकारी राष्ट्रों के रूप में भी उस पर कोई अंकुश नहीं लगा पाया है। इस वैश्विक अर्थसंग्राम में चीन अपनी आर्थिक शक्ति के आधार पर भारत के पड़ोसी देशों यथा बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान पर भी अपनी आर्थिक पकड़ बनाते हुए सामरिक और राजनैतिक शक्तियों को भी सिद्ध कर रहा है। वहीं भारत के आंतरिक व्यवस्था में लोकतांत्रिक संविधान के नाम पर तथा विचार स्वतंत्रता के नाम पर एवं धार्मिक एवं जातिगत असहिष्णुता के नाम पर भी अशांति फैलाने के हरेक प्रयासों को पुरजोर समर्थन भी दे रहा है। ऐसी परिस्थितियों में यह अत्यंत आवश्यक है कि भारत इस अर्थ युद्ध में विजय के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए अपनी समस्त शक्तियों को संचित कर पूर्ण एकाग्रता के साथ प्रयास करे।
इस दिशा में सर्वप्रथम यह स्वीकार करना होगा कि इस देश के समस्त कृषक, उद्यमी, श्रमिक एवं व्यापार जगत के साथ वैज्ञानिक, इंजीनियर इत्यादि एक प्रकार के अर्थ योद्धा या अर्थ सैनिक हैं।, जो भौगोलिक सीमा रेखा पर भले ही सामरिक रूप से युद्धरत होकर न खड़े हों, पर आर्थिक कुरूक्षेत्र में संग्रामरत हैं। इसलिए अर्थ युद्ध को जीतने के लिए आवश्यक है कि इसमें युद्धरत योद्धाओं को सबल-स्वस्थ तथा सदैव आक्रामक बना कर विजेता के उत्साह से ऊर्जित रखा जावे। इस सिद्धांत को स्वीकार करने पर यह स्पष्ट होता है कि उद्यम के संचालन की सहजता के लिए एवं द्रुतगति देने के लिए तथा इनके साथ धारणीय विकास के श्रेष्ठतम स्तर को पाने के लिए आधुनिक संचार विज्ञान का संपूर्ण आश्रय अत्यंत विजयात्मक परिणाम दे सकते हैं।
यद्यपि वर्तमान सरकार किसी भी उद्यमी पर या व्यापारी पर आनलाइन डिजिटल माध्यमों से कठोर एवं सतत निगरानी रखे हुए हैं, जिसके तहत विद्युत आपूर्ति की आनलाइन मानीटरिंग की तर्ज पर ही जमीन से निकालने वाले पानी की मात्रा, कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं की गुणवत्ता एवं मात्रा, उद्योग से उत्सर्जित दूषित जल की गुणवत्ता एवं मात्रा, आने-जाने वाले मालवाहक ट्रकों पर भी जीपीएस से निगरानी, आनलाइन सेल्स बिलिंग, आनलाइन पेमेंट, वाहनों के प्रदूषण नियंत्रण स्तर इत्यादि की निगरानी भी आनलाइन मानीटरिंग द्वारा की जा रही है। तो साथ-साथ लगभग सभी विभागों से आवश्यक स्वीकृतियां प्राप्त करने हेतु भी आनलाइन आवेदन मंगाए जा रहे हैं तथा स्वीकृतियां भी आनलाइन जारी हो रही हैं। पर इस तकनीकी क्षमता का अभी भी उपयोग राज्यों और केन्द्र शासन के आंतरिक प्रशासनिक प्रबंधन हेतु पूर्णतया नहीं किया जा रहा है। ज्यादातर आवेदनों के निपटारे में निहित वैधानिक प्रक्रियाओं का पारदर्शीय प्रदर्शन अभी भी अव्याप्त है। परिणामतः अनेकों विभागों से स्वीकृतियां प्राप्त करने की प्रक्रियाओं को पूर्ण करने में अपेक्षित से अधिक समय और संसाधन व्यय होता है। उसी के स्थान पर चीन जैसे साम्यवादी देश में भी सभी स्वीकृतियों को समयबद्ध तरीके से शीघ्रातिशीघ्र जारी करने हेतु कठोर द्रुत तंत्र विकसित है। जिससे आवेदकों को अपने आवेदनों के अद्यतन स्थिति का संज्ञान सतत मिलता रहता है। इसी का परिणाम है कि चीन में औद्योगीकरण विश्व में सर्वाधिक गति से संभव हुआ। वहीं भारत में आज भी उदारकाल तथा संचार क्रांतियुग के पूर्व में निरूपित कानूनों के जंजाल में अर्थव्यवस्था अटकी हुई है। बहुत सारे कानून उन कालातीत प्रावधानों पर प्रारूपित हैं, जो कि आजादी के पूर्व ही तर्कसंगत नहीं रह गए थे।
यद्यपि प्रदूषण नियंत्रण तकनीकियों में अद्भुत विकास हुआ है। पर्यावरण संरक्षण पद्धतियों में अविश्वसनीय ऊंचाईयां हासिल हुई हैं। आज हजारों मेगावाट के कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों की छाया में भी नागरिक सुखपूर्वक रहते हैं। किसान सहजतापूर्वक खेती करते हैं। भिलाई स्टील प्लांट जैसे विशाल इस्पात संयंत्र, जिसमें 50 लाख टन/वर्ष से अधिक लोहा उत्पन्न होता है, नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन के सैकड़ों मेगावाट के कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों के समीप बसने वाले नागरिकों, उद्यमियों, किसानों तथा पशुपालकों को प्रदूषण जनित कोई दुष्प्रभाव की रिपोर्ट पढ़ने-सुनने में नहीं आती। आज जब देश के आर्थिक विकास को तीव्र गति देने के लिए सीमेंट, स्टील, विद्युत उत्पादन को त्वरित करना आवश्यक है, तो भी हमारी सरकारें 23 वर्षों पूर्व नियोजित उन कानूनों के आधार पर पर्यावरण संरक्षण के कृत्य को कानूनीजामा पहनाने में लगी हैं, जो कि आज पूरी तरह से संदर्भ विहीन से हो गए हैं।
आज भी सरकारों की प्राथमिक सोच दंड और भय से शासन करने और संचालन की दिशा तक सीमित है। यद्यपि लायसेंस राज्य को वर्ष 1981 में ही समाप्त कर दिया गया था, तदापि तकनीकी स्वीकृतियों का लायसेंस राज्य अप्रत्यक्ष ढंग से राजनैतिक शक्तियों द्वारा संधारित है। जबकि भारत के प्रत्येक नागरिक को अधिकार है कि वह संपत्ति को धारण कर सके। धारणीय पद्धति से उस पर आवास, भवन, मकान बना सके, उद्योग स्थापना कर सके। आवागमन हेतु यातायात साधनों का उपयोग कर सके। फिर भी इनमें से ज्यादातर कृत्यों के लिए शासन की पूर्व स्वीकृतियां आवश्यक हैं एवं इन स्वीकृतियों की प्रक्रियाएं दुरूह, समय साधी तथा जटिल हैं।
यह विडंबना है कि भारत सरकार तथा राज्य सरकारें तो पूरे देश के नागरिकों को पूरी तरह से बदलना चाहती हैं, पर अपने स्वयं के प्रशासन को, अधिकारियों को, कानून की उन पुरानी बेड़ियों में बांधकर, नागरिकों को दौड़ाना चाहती है, जिसमें उनके लिए चलना भी कष्टदायक है। आवश्यकता है कि इस वैश्विक अर्थयुद्ध में भारत के आर्थिक विकास को पूर्णरूपेण धारणीय बनाने एवं प्रदूषण मुक्त बनाने हेतु विधि के प्रावधानों में आधुनिक उपलब्धियों को संज्ञान में लेकर परिवर्तन लाया जावे। साथ ही अपने अधिकारियों, कर्मचारियों को और अधिक डिजिटल तकनीकी से सुसज्जित कर, उनकी कार्यदक्षता तथा गति को और तीव्र किया जावे। उन पर विश्वास का स्तर बढ़ाया जावे, उनके अधिकार का स्तर बढ़ाया जावे।
विशाल इंजीनियरों एवं वैज्ञानिकों के शासकीय दल को मात्र दंड एवं नियंत्रण में निहित करने के स्थान पर उद्यमिता विकास तथा संरक्षण प्रोत्साहन में, प्रदूषण नियंत्रण पुरस्कारण में प्रशिक्षित कर नियोजित किया जावे। यदि भारत सरकार तथा राज्य सरकारें अपने आंतरिक प्रशासनिक संचालन में भी ट्रांसपेरेंट मैनेजमेंट इंफार्मेशन सिस्टम की तरह ट्रांसपेरेंट गवर्नेस इंफारमेशन सिस्टम लागू करती हैं तो केन्द्र शासन तथा राज्य शासन का न केवल आर्थिक व्यय बहुत कम होगा, अपितु प्रशासनिक कार्बन फुटप्रिंट भी कम होगा तथा वायु तथा जल प्रदूषण भी कम होगा। देश की आर्थिक प्रगति चीन से चौगुना तेज होगी। सभी प्रकार के जातीय और धर्म विद्वेष भी स्वतः समाप्त होंगे। राजनीतिक कुटिलताओं का धरातल भी ध्वस्त होगा।
-संपादक