कोरोना पर जीत के लिए सोशल डिस्टेंशिंग एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय

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वर्तमान सभ्यता के ज्ञात इतिहास में नोवल कोरोना वायरस से उत्पन्न महामारी कोविड-19 सबसे भयावह त्रासदी है। नवम्बर 2019 के अंत से चीन के वुहान शहर से आरंभ इस त्रासदी का आयाम इस संपादकीय के लिखे जाने तक ही सम्पूर्ण विश्व में विस्तृत ही हो रहा है। इसका अनुमान लगाना अत्यंत कठिन है कि मानव सभ्यता इस पर कब तक और कैसे सम्पूर्ण विजय पा पाएगी। यद्यपि विश्वव्यापी प्रयास जारी हैं कि जल्दी से जल्दी इस रोग का निदान कर इसे परास्त किया जावे, पर इसके समाधान या उपचार के उपाय तत्काल निकट भविष्य में विकसित होते प्रतीत नहीं हो रहे हैं। तदैव पत्रिका का यह अंक इसी विषय पर विभिन्न आयामों को लेकर प्रकाशित है, ताकि वायरस की इस महामारी से अपने आप को बचाने हेतु तथा लड़ने हेतु पाठकों को सक्षम किया जा सके।
इस विषाणु की उत्पत्ति एवं प्रसार के बारे में सम्पूर्ण विश्व में लोगों में काफी मत भिन्नता है। जहॉं अमेरिका एवं यूरोप के अंतर्गत् काफी बड़े समुदाय का मानना है कि चीन सरकार ने इस विषाणु को जैविक युद्ध के लिए विकसित किया था और जान-बूझकर या अनजाने में इसका प्रसारण हो गया है। किन्तु चीन सरकार ने स्पष्ट किया है कि यह विषाणु उसके द्वारा विकसित नहीं किया गया है। अपितु चमगादड़ों में या पैंगोलिन में पाए जाने वाले कोरोना वायरस में उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) होने के कारण यह प्रकृति से ही मनुष्यों में फैला है, भले ही इसके प्रसार का प्रारंभिक केन्द्र चीन का वुहान शहर ही रहा है। इन कारणों की व्याख्या एवं सत्यता का निर्धारण एक लम्बी अंतर्राष्ट्रीय प्रक्रिया का अंग है, जिसका विश्लेषण कतिपय कारणों से करना हमारे लिए उचित नहीं है या संभव भी नहीं है। तदापि हमारा चिंतन है कि इस महामारी या विषाणु की उत्पत्ति को जैविक युद्ध मानना, आज की परिस्थितियों में एक वही भूल होगी। चूॅंकि समय की आवश्यकता यह है कि पहले तो सम्पूर्ण विश्व को एक साथ होकर इससे लड़कर इस पर विजय पाना जरूरी है। चूॅंकि यह रोग किसी देश या जाति या धर्म या प्रजाति के विरूद्ध नहीं है, अपितु सम्पूर्ण मानव प्रजाति पर इसका प्रकोप है। आज सम्पूर्ण मानव प्रजाति इससे भयभीत है।
इस पृष्ठभूमि में हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि यह एक प्राकृतिक विपदा है और इस संकट के समाधान के लिए सम्पूर्ण मानव शक्तियों को एक साथ अवश्य आना ही चाहिए। चीन को भी चाहिए कि इस विपदा का दुरूपयोग आर्थिक शोषण या दोहन हेतु न करके सम्पूर्ण विश्व के समक्ष मानव जाति की रक्षा की प्राथमिकता को सिद्ध करे। पर्यावरणीय पृष्ठभूमि पर चिंतन करने से ऐसा भी लगता है कि यह विपदा प्रकृति ने मानव द्वारा प्रकृति पर निरंतर हो रहे प्रतिहार के प्रतिकार के स्वरूप प्रकृति ने ही सृजन किया है। हमने तथा विश्व के अनेकों विद्वानों ने काफी लम्बे समय से बार-बार यह चेतावनी दी है कि यदि हम पृथ्वी की प्रकृति पर प्रहार को नियंत्रित नहीं करेंगे, तो प्रकृति विवश होकर मानव जाति को विनाश लीला में धकेल सकती है। समय-समय पर आने वाले भूकम्पों, बड़वानलों, तूफानों, चक्रवातों, अतिवृष्टि और अनावृष्टि तथा एबोला, सार्स जैसी महामारियों को भी इस श्रृंखला में सूचीबद्ध किया जाता रहा है। तदैव इस चिंतन के विस्तार से ऐसा लगता है कि इस महामारी के भयावह दुष्परिणाम आना अभी शेष हैं। अस्तु आवश्यकता है कि मानव जाति अपने आपको बड़े नुकसान से बचाने हेतु सार्थक प्रयास करे।
मानव जाति ने विज्ञान तथा तकनीकी उत्कर्षता के अभिमान से प्रकृति को नकारने का जो प्रयास किया था, उसके प्रतिकार में प्रकृति क्या यह सिद्ध कर रही है कि इस महान मानव सभ्यता के विनाश के लिए उसे परमाणु बम, अणुबम या महायुद्ध या विश्व युद्ध की आवश्यकता नहीं है, अपितु एक अत्यंत सूक्ष्म जीव के तत्वावधान से भी वह इस पूरी मानव प्रजाति को सदा के लिए समाप्त कर सकती है। अस्तु, इस विनाश से बचाव के लिए न तो अरबों-खरबों रूपयो का धन, न ही अमेरिका, इंग्लैंड जैसे शक्तिशाली राष्ट्रों की राजध्यक्षता की शक्ति और न ही लाखों प्रकार की दवाईयों, चिकित्सा उपकरणों, युद्धक बम, राकेट, वायुयान, जेट ही मददगार हैं और न ही कोई भी मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारा, पंडित, मौलवी, पादरी, गुरूग्रंथ, कुरान, रामायण, बाइबल आदि भी इससे सक्षम रूप से बचाने में सहायक हैं। तो फिर क्या मानव सभ्यता का इतना हास्यास्पद अंत समक्ष संभव हो रहा है या इससे बचने के कुछ विकल्प शेष हैं?
शायद हैं! इसे प्रकृति की एक चेतावनी ही मानना चाहिए न कि प्रकृति का अंतिम प्रहार। तदैव इस चेतावनी से हमें जो सबक मिला है, वह निश्चित रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो हमें विवश करते हैं, हमें अपने परम्परागत ज्ञान एवं जीवनशैली की ओर मुड़कर मूल्यांकन करने हेतु। हमें यह चिंतन अवश्य करना चाहिए कि जिस मानव प्रजाति में प्रकृति ने प्रतिकूल परिस्थितियों में अनुकूलन हेतु क्षमता विकसित करने की शक्ति दी थी, अर्थात ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट’ के सिद्धांतों के स्वरूप हमें सतत फिट और अधिक फिट होने की क्षमता दी थी, पर कालांतर में उसका हलास हो गया। हमारे शरीर में व्याप्त उसी क्षमताओं के कारण मानव शरीर में नए-नए रोगों के प्रति रोग प्रतिरोधक (इम्युनिटी) क्षमता विकसित और सुदृढ़ होती थी। किन्तु क्या हमारी वर्तमान जीवनशैली और आधुनिक चिकित्सा भेषज प्रणाली तथा परिवर्तित आहार-व्यवहार पद्धतियों ने इस क्षमता का ह्लास कर दिया है। जबकि मानव के अतिरिक्त जैव जगत में अन्य समस्त प्राणियों में अभी भी ऐसी सक्षमता व्याप्त है। क्या प्रकृति के समीप शुद्ध हरीतिमा युक्त पर्यावरण, जल तथा मिट्टी के सान्निध्य में रहने वालों में यह क्षमता ज्यादा श्रेष्ठ है। क्या शाकाहार और सदाचार तथा संतोष के साथ जीने वालों में इसके प्रति प्रतिरोध क्षमता श्रेष्ठ है। ऐसे अनेकों कारक हैं, जिनका तार्किक आधार लेकर वैज्ञानिक मूल्यांकन और सत्यापन किया जाना चाहिए, ताकि कोविड-19 महामारी से उबरने के उपरांत की जीवनशैली में आवश्यक परिवर्तन किया जा सके।
इस महामारी से मानव मृत्यु के आंकड़े भयावह हैं। किन्तु, अमेरिका तथा पश्चिमी देशों में ज्यादा चिंता उनकी बर्बाद हो रही अर्थव्यवस्था के लिए बताई जा रही है। वहीं भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चिंतन है कि ‘‘जान है तो जहान है’’। तदैव मानव जीवन की रक्षा को सर्वाधिक प्राथमिकता दी जा रही है। इस प्रक्रिया में यह अत्यंत आवश्यक हो गया था कि सक्षम एवं सार्थक कदम उठाए जावें। चूॅंकि इस महामारी का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि वह संक्रमित मानव छींक, सर्दी से उत्सर्जित वायरस के नम कणों को दूसरे व्यक्ति के श्वांस प्रणाली, आहार प्रणाली में प्रवेश द्वारा तेजी से संक्रमण फैला रहा था। चूॅंकि इस बीमारी के संक्रमित होने के बाद भी लक्षण तत्काल दृश्य नहीं होते और लाक्षणिक होने के 7-8 दिनों की अवधि में भी वह संक्रमित व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में आने पर संक्रमण का प्रसार करता रहता है। तदैव लोगों को आपस में भौतिक दूरी बनाकर संक्रमण के क्रम को तोड़ने का निर्णय लेकर सरकार ने 21 दिन का ‘‘लॉक डाउन’’ किया। किन्तु दुर्भाग्यवश इस अवधि में संक्रमण का प्रसार रूका नहीं, तदैव पुनः 20 दिनों का ‘लॉक डाउन’ पुनः लागू किया गया है। अनेकों अर्थशास्त्रियों, व्यापारियों, उद्यमियों एवं शासकीय तंत्र के अधिकारियों द्वारा इस लाक डाउन के कारण अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुॅंचने का अनुमान व्यक्त किया गया है। विश्व बैंक द्वारा जी.डी.पी. गिरकर 3% से कम हो जाने की आशंका भी व्यक्त की है। यह निश्चित रूप से सत्य भी प्रतीत हो रहा है। पर इसके साथ ही लाक डाउन के कारण अनेकों सकारात्मक परिणाम भी प्रकट हो रहे हैं। ज्यादातर शहरों की वायु गुणवत्ता अत्यंत निर्मल हो गई है, लोग पंजाब के शहरों से हिमालय की हिम श्रृंखलाओं का स्पष्ट दर्शन कर पा रहे हैं। गंगा का जल कानपुर में ही गंगोत्री की तरह स्वच्छ और निर्मल हो गया है। यमुना का जल दिल्ली में अद्भुत निर्मलता प्राप्त कर नीलाभ हो गया है। मनुष्यों से भयभीत वन्य प्राणियों की हिंसक प्रजातियां भी नगरों की वीथिकाओं पर विचरण कर मनोहारी दृश्य प्रस्तुत कर रहे हैं। नगरों भीड़मुक्त पार्कों में मोर एवं अन्य पक्षी नृत्य कर रहे हैं, रात्रिकालीन आकाश में तारा पुॅंज अद्भुत दृश्य बिखेर रहे हैं। ऐसा लगता है कि प्रकृति प्रफुल्लित है और प्रसन्नता से ऐसे लाकडाउन का स्वागत कर रही है। अनेकों वृद्ध एवं व्यस्क लोग अपने शरीर में नूतन ऊर्जा का संचार महसूस कर रहे हैं। दमा-श्वांस से पीड़ित लोग बेहतर स्वास्थ्य का अनुभव कर रहे हैं।
तदैव इन सकारात्मक परिणामों के प्रतिफल के मूल्यांकन करने पर क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि भले ही आर्थिक सूचकांकों पर हमें आघात लग रहा है, पर पर्यावरणीय लाभ सूचकांक पर हमें ज्यादा लाभ पहुॅंचा है। तदैव इस घटना से यह सीख और समझ लेना नितांत आवश्यक है कि हम आर्थिक विकास की कितनी गति रखें और कैसे धारणीय स्वरूप में रखें, ताकि जो सकारात्मक परिणाम प्रत्यक्षतः प्रकट हुए हैं, उनका पुनः विलोप न हो जावे।
इस रोग का यद्यपि कोई सार्थक उपचार नहीं है, फिर भी अनेकों लोगों पर हाइड्राक्सी क्लोरोक्वीन तो कुछ लोगों पर HIV के लिए प्रयुक्त एंटी वायरल लाभप्रद पाए गए हैं, तो कुछ लोगों के लिए प्लाज्मा एंटी बाडी उपचार का प्रयोग लाभदायक पाया गया है। यद्यपि मालीक्यूलेट (PCR ) टेस्ट तथा सेरालाजी टेस्ट (IgG & IgM)  के माध्यम से किसी व्यक्ति में संक्रमण का पता लग सकता है। किन्तु इन परीक्षणों के द्वारा या किसी अन्य कोई भी परीक्षण के द्वारा तत्काल यह पता लगाना संभव नहीं है कि किसी व्यक्ति को कुछ क्षणों पूर्व ही संक्रमण हुआ हो, ऐसी परिस्थितियों में सबसे श्रेष्ठ उपाय सोशल डिस्टेंशिंग या फिजिकल डिस्टेंशिंग ही उपाय है।
इस बीमारी के उपचार की अनेकों सीमाएं हैं तथा उनके परोक्ष दुष्प्रभाव भी हैं। पर विवशता में जो भी उपलब्ध है, उसके आधार पर डॉक्टरों का सारा संसार इससे रात-दिन लड़ रहा है। इन हालातों में भारतीय जन समूह के लिए एक आशा की अतिरिक्त किरण यह है कि आयुर्वेद, योग, प्राणायाम, प्राकृतिक चिकित्सा तथा शाकाहारीय आहार प्रणाली के पालन से काफी अच्छे रोगरोधन स्तर को हम विकसित कर सकते हैं। अनेकों संक्रमित रोगियों ने अपने उपचार के दौरान ऐसे उपायों को लाभदायक पाया है। अनेकों आयुर्वेदिक संस्थान, आयुष मंत्रालय तथा परम्परागत वैद्य एवं आयुर्वेद चिकित्सकों से लोग सतत् परामर्श लेकर अपने आपको सुरक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं।
इस बीच समस्त नागरिकों से अपेक्षा है कि वे सोशल डिस्टेशिंग या फिजिकल डिस्टेंशिंग हेतु लागू लाकडाउन का एवं केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा जारी दिशा-निर्देशों का कड़ाई से पालन करें। चिकित्सा सेवा समूहों, पुलिस, स्थानीय प्रशासन एवं स्व-सहायता स्वयं सेवकों का सम्मान करें। इस रोग से अपने आपको बचाकर रखें और अन्य को भी बचावें।
भारत सरकार से अपेक्षा है कि परम्परागत चिकित्सा प्रणाली एवं वानस्पतिक औषधियां तथा सामुदायिक रस-रसायन से इसकी चिकित्सा पर भी और रोग रोधन क्षमता संवर्धन पर भी तत्काल शोध आरंभ करने का प्रयास करें। अंत में यह अवश्य स्वीकार करें कि प्रकृति पर अनावश्यक दुष्प्रहार हमें बंद तो करना ही होगा, भले ही हमारी अर्थव्यवस्था का इससे जो भी बुरा हाल हो। प्रकृति पुरूष से प्रार्थना है कि मानव सभ्यता को इस प्रचंड अभिशाप से शीघ्रातिशीघ्र मुक्ति दिलावे। जय हिन्द।
संपादक