आर्थिक सिद्धांतों में पर्यावरणीय दुष्प्रभाव को जोड़कर धारणीय अर्थशास्त्र बनाया जावे

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इस अर्थ प्रधान युग में लगभग समस्त गतिविधियां आर्थिक समीकरणों से ही परिभाषित प्रवर्धित हो रही हैं। अतः हम अपनी पत्रिका के माध्यम से निरंतर यह आव्हान करते रहे हैं कि प्रकृति एवं पर्यावरण द्वारा प्रदत्त सीमित संसाधनों के मूल्य को निःशुल्क नहीं माना जावे। इनके दोहन से समाज के विशेष वर्ग द्वारा या किसी व्यावसायिक संस्थान विशेष द्वारा प्रकृति एवं समाज का अप्रत्यक्ष रूप से शोषण न हो जावे।
वर्तमान में संचालित अर्थव्यवस्था मूलतः इस असत्य विश्वास पर आधारित है कि ‘‘प्रकृति अनंत है एवं इसके संसाधन भी अनंत हैं, अतः उनका कितना भी दोहन किया जावे तो भी ये भंडार शायद समाप्त न हों।’’ किन्तु सत्य इससे सर्वथा विपरीत है। आज से 60 साल पहले जब पेट्रोलियम पदार्थों के उत्खनन को आरंभ किया गया था एवं जब उनका दोहन भी सीमित था और उपभोग भी सीमित था, तब शायद ही किसी की कल्पना रही हो कि पेट्रोल के भंडार भी दुनिया से समाप्ति की स्थिति में पहुॅंच जावेंगे। उस जमाने में तो मिट्टी तेल (केरोसिन) के उपभोग को भी संवर्धित करने के लिए रेडियो के माध्यम से विज्ञापन प्रसारित किए जाते थे। किन्तु आज की स्थिति हम सबके सामने है, जब हम साक्षात देख रहे हैं कि दुनिया में पेट्रोल के भंडार समाप्त हो रहे हैं। वहीं यह भी साक्षात सिद्ध है कि फासिल फ्यूल के उपभोग से हरितकारी गैसों के उत्सर्जन से वातावरण में इनके सांद्रण के बढ़ने से मौसम परिवर्तन हो रहा है, जिसके परिणाम बाढ़, सूखा, महावृष्टि तो अनावृष्टि आदि है। इसलिए ही तो आज विश्व के समस्त राष्ट्र एवं संयुक्त राष्ट्र संघ भी पेट्रोलियम पदार्थों के उत्पादों के संरक्षण के लिए निरंतर आव्हान कर रहे हैं, इसके उपयोग को कम करने हेतु नई तकनीकियों और वैकल्पिक तकनीकियों का विकास कर रहे हैं।
विडम्बना यह है कि किसी भी प्राकृतिक संसाधन से निर्मित उत्पाद के निर्बाध उपभोग करने वाले उपभोक्ता के दिमाग में यह भ्रम होता है कि वह उसका बाजार मूल्य चुकाकर, उसकी असीमित मात्रा का उपभोग कर सकता है। जबकि सत्य यह है कि अनेकों प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित उत्पादों में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से उत्पन्न दुष्प्रभाव की लागत तथा प्रकृतिक्षय का मूल्य निहित नहीं किया जाता है। उदाहरण हेतु हम वर्तमान लेख के लिए पेट्रोलियम उत्पादों को ही ले लेते हैं तो हम पाते हैं कि उसके उपभोगकर्ता, उसके उपभोग से जनित किसी भी दुष्प्रभाव का भुगतान बाजार मूल्य के रूप में नहीं करते हैं। इसी प्रकार पेट्रोलियम उत्पादक कम्पनियां या देश पेट्रोलियम के उत्खनन से और उपभोग से विश्व पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को या प्रकृति पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को या मानव सभ्यता पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को मूल्यांकित कर, उसका क्षतिपूर्ति मूल्य विशेष मानव समुदाय को अदा नहीं करते हैं। तदैव बाजारवादी अर्थव्यवस्था का यह एक दुर्भाग्यशील पक्ष है कि उपभोक्ता अपने धन की शक्ति का उपयोग अधिक से अधिक उपभोग वस्तुओं का करना चाहते हैं। जबकि प्रकृति तथा पर्यावरण ऐसे उपभोग से काफी दुष्प्रभावित होते हैं।
भारत के सरकारी अर्थव्यवस्था का भी एक दुर्भाग्यजनक पक्ष यह भी है कि प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण कृत्यों को आर्थिक मूल्यांकन के आधार पर नियामित न करके या प्रोत्साहित न करके, केवल दंड एवं भय के माध्यम से नियंत्रित करती है। जबकि विश्व समुदाय ने भी जब यह पाया कि मौसम परिवर्तन जैसे पर्यावरण त्रासदी को रोकने के लिए भी केवल अंतर्राष्ट्रीय कानून सदियों से राष्ट्रों के बीच कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण जैसे सहज उपायों को भी दंड एवं भय से नियंत्रित एवं नियामित करना कठिन है। तभी उन्होंने कार्बन एमीशन रिडक्शन पटल के माध्यम से यूनाईटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन आन क्लाईमेट चेंज के द्वारा आर्थिक आकर्षण पैदा कर कार्बन इमीशन रिडक्शन के विशाल लक्ष्य को प्राप्त किया।
भारत में एक लघु अवधि के लिए ऐसे प्रयासों पर चर्चा आरंभ हुई थी, किन्तु वे कालातीत दिखाई पड़ते हैं। वर्तमान में संचालित PAT (perform achive and trade) जैसे मैकेनिज्म को जो गति प्राप्त होनी चाहिए थी, वह भी अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। समय की मांग यह है कि सभी प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग करने वाले संस्थानों, निकायों, उद्यमों पर यथा- लौह अयस्क, मैग्नीज ओर, कापर ओर, बाक्साइट, तांबे इत्यादि धातु खनिजों, एवं कोयला, लिग्नाइट, प्राकृतिक गैस, पेट्रोल जैसे ऊर्जा ईंधन फासिल फ्यूलों पर तथा पानी के उपभोग पर भी पर्यावरण क्षतिपूर्ति शुल्क रोपित किया जावे। इससे प्राप्त सम्पूर्ण राशि का उपभोग ऐसे अनुसंधान कार्यों में किया जावे, जो कि इनके श्रेष्ठ दक्षता के साथ उपयोग को सुनिश्चित करते हों।
यह उल्लेखनीय है कि चीन ने पिछले 30 वर्षों में अपने स्वयं के संसाधनों से तथा अंतर्राष्ट्रीय साधनों से, जैसे- क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म से प्राप्त धनराशि का एक विशाल भाग पर्यावरण संरक्षण, ऊर्जा दक्षता एवं संसाधन दक्षता को परिष्कृत करने के लिए, आविष्कारों तथा अनुसंधान हेतु निवेश किया। आज परिणाम यह है कि चीन विश्व के सक्षमतम वैज्ञानिक राष्ट्र अमेरिका, जापान तथा जर्मनी की तुलना में भी धातु एवं ऊर्जा उद्योगों में श्रेष्ठतया ऊर्जा दक्ष हैं एवं ज्यादा श्रेष्ठ पर्यावरणप्रिय तकनीकियों से औद्योगीकरण संभव कर पा रहा है। भारतीय अर्थशास्त्रियों को नियोजन के दौरान यह निश्चित रूप से ध्यान रखना चाहिए कि आहत लोगों को केवल राहत एवं व्यवस्थापन करने के बजाए, उन परिस्थितियों को परिहार्य उपयुक्त परियोजनाओं में करने हेतु राशि को प्राथमिकता से निवेश करें, जिससे कि आहत करने वाली परिस्थितियॉं पैदा ही न हों।
उदाहरण के लिए आज भी आसाम के ब्रह्मपुत्र नदी की बाढ़, बिहार में कोसी और गंडक की बाढ़ जैसे स्थायी समस्याएं हैं, महाराष्ट्र में लातूर का सूखा क्षेत्र है, जिनके 70 वर्षों से ठोस समाधान के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किये गयं। वर्तमान वैज्ञानिक परिवेश में इनका समाधान निश्चित रूप से संभव है और इनके सार्थक समाधान हेतु जितनी भी राशि व्यय की जावेगी, उसका अधिक प्रतिफल राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को और पर्यावरण को तथा समाज को अवश्य प्राप्त होगा। यह समय है जब सरकार को एवं नीति नियोजकों को प्राचीन परम्परागत अर्थव्यवस्था एवं आर्थिक नीति परित्याग कर पर्यावरणीय पृष्ठभूमि में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के दुष्प्रभावों को शिथिल करने व समाप्त करने के लिए अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों का सदुपयोग करना चाहिए। इसलिए आवश्यक है कि बाजार आधारित मांग एवं आपूर्ति के सिद्धांतों से ऊपर उठकर प्रकृति संरक्षण लागत एवं दुष्प्रभाव शमन लागत को वस्तु एवं सेवा मूल्यों में समाहित कर अर्थशास्त्र के आर्थिक सिद्धांतों को धारणीय एवं प्रकृति प्रिय बनाया जावे।
-संपादक