हरेक गांव में एक पार्क शहीदों के नाम पर भी रोपित करें

हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी हम सब 15 अगस्त को स्वतंत्रता के पावन पर्व को अत्यंत उत्साह से मना रहे होंगे। इस दिन हम सब भारतवर्ष को अंग्रेजों की गुलामी से आजादी दिलाने वाले बलिदानियों को उनके बलिदान के लिए याद करते हैं। उनके बलिदान की गाथा को सुनकर, समझकर अपने हृदय, मन, मस्तिष्क में राष्ट्र के प्रति प्रेम और समर्पण के भाव उद्भूत करने का प्रयास करते हैं। आजादी के बाद भारत का धर्म के आधार पर हुआ विभाजन विश्व के राजनैतिक इतिहास में सबसे भयावह दुर्घटना है, जिसका कोई भी धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक या राजनैतिक लाभ अखण्ड भारत या खंडित-खंडित भारत के बहुतायत नागरिकों को निश्चित रूप से प्राप्त नहीं हुआ। धर्म के आधार पर विभाजित एक मुस्लिम देश बनने के बावजूद, आज सबसे ज्यादा खूनखराबा पाकिस्तान में हो रहा है और ऐसी ही दुर्दशा बांग्लादेश में भी आरंभ हो चुकी है। जहाॅं पर नागरिकों की हत्यायें बहुधा स्वधर्मीय नागरिकों द्वारा ही किसी न किसी कारणों से की जाती हैं। जब और कुछ आधार नहीं मिलता तो व्यक्तिगत दुश्मनियों में की गई हत्याओं को भी ईश निंदा का नाम दे दिया जाता है। धर्म या जाति के नाम पर जारी खून-खराबों से न तो किसी धर्म को लाभ हुआ है और न ही जाति को।

पाकिस्तान के ही तर्ज पर अब बांग्लादेश भी राजनैतिक विद्रोह की अग्नि में झुलसने लगा है। वहाॅं अचानक विस्फोटक हो गए छात्र आंदोलन के कारण राजनैतिक हिंसा इतने चरम पर पहुॅंच गई है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना को ही देश छोड़ना पड़ा है। इसके पीछे की राजनीति जो भी हो, उसका विश्लेषण करना हमारा लक्ष्य नहीं है, अपितु जब हम प्रकृति एवं पर्यावरण के वर्तमान सभ्यता और जनसंख्या को धारण करने की क्षमता की पृष्ठभूमि में मूल्यांकन करते हैं तो हम यह निश्चित रूप से विज्ञान सम्मत निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जब कभी भी जहाॅं भी प्राकृतिक एवं पर्यावरणीय संसाधनों पर दबाव भार-धारण क्षमता से अधिक बढ़ जाता है, तो मानव का व्यवहार पशुवत हो जाता है, हिंसात्मक हो जाता है और फिर किसी भी धर्म या समाज के कोई उपदेश मनुष्य के पशुवत व्यवहार को बदलने में सक्षम नहीं हो पाते। भले ही पूरी दुनिया में मान्यता यही है कि सभी धर्मों का लक्ष्य एवं उद्देश्य मानव कल्याण और सामाजिक सौहार्द्र ही बताया जाता है। सर्वत्र यही बताया और समझाया जाता है कि सभी धर्म शांति और भाई-चारे के धर्म हैं, जिसमें हिंसा और हत्या का कोई स्थान नहीं है। फिर भी कुछ धर्मों के नाम पर सर्वाधिक अशांति और हिंसा बदस्तूर जारी है। पर अरब देशों में और इंडोनेशिया जैसे आधुनिक सम्पन्न देश में ऐसी कोई भी न हिंसा है और न ही अशांति। पर, चूॅंकि पाकिस्तान, बांग्लादेश में जनसंख्या विस्फोट प्रकृति के धारणीय क्षमता से कई गुना ज्यादा पहुॅंच चुकी है, शायद यह दुर्दशा इसीलिए ही हो।

इन विरोधाभाषी परिस्थितियों को हम एक ही देश में एक ही धर्म के मानने वालों के मध्य साक्षात द्वंद देख सकते हैं। पर इसके मूल कारण में क्या है? यदि हम गंभीरतापूर्वक विचार करें, तो हम पाएंगे कि विश्व के जिस किसी भी भूभाग पर जहां प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग सहज उपलब्धता से ज्यादा हो चुका है, अर्थात संसाधन बुरी तरह से तनावग्रस्त हो चुके हैं, उन सभी स्थानों पर प्रकृति- मनुष्यों के स्वभाव में तनाव, असहिष्णुता, हिंसा और उपद्रवों का भाव पैदा कर देती है। इसी कारण से ऐसे भूभाग में एक ही धर्म के मानने वाले लोगों में, एक ही जाति के लोगों में या एक ही राष्ट्रीयता के लोगों में भी स्वाभाविक रूप से स्वभाव में हिंसा तथा असहिष्णुता पैदा हो जाती है।

हम यदि महाभारत के युद्ध के कारणों का भी इसी पृष्ठभूमि में विश्लेषण करने का प्रयास करें, तो हम पाएंगे कि कौरवों द्वारा पृथ्वी के संसाधनों पर पूरी तरह से कब्जा करके, उनका अप्राकृतिक रूप से उपभोग किया जा रहा था, जो कि अधारणीय था। तदैव धर्म विरूद्ध था। वहीं पांडवों की मांग थी कि उन्हें धारणीय जीवनयापन के लिए केवल पांच ही गांव दे दें, तो उसमें वे अपना गुजर-बसर धारणीय ढंग से कर लेंगे, जो कि धर्मसंगत था। किन्तु, कौरवों के राजकुमार दुर्योधन को यह स्वीकार नहीं था। तदैव अंतोतगत्वा युद्ध की परिणिति में सब कुछ प्रगट हुआ।

आज न केवल पाकिस्तान, बांग्लादेश में आंतरिक गृहयुद्ध की स्थिति बनी हुई है, तो वहीं इजराइल-फिलीस्तीन के बीच व्याप्त युद्ध के कारण ईरान-लेबनान आदि देश भी युद्ध की ओर अग्रषित हैं। रूस और यूक्रेन तो पहले ही इस आग में झुलस रहे हैं। पर विश्वव्यापी इस आंतरिक अशांति या वैश्विक अंतर्राष्ट्रीय अशांति का समाधान क्या है? इस समीकरण पर चर्चा करने से एक बात तो समझ में आती ही है कि जब तक हम प्रकृति के प्राकृतिक पोषण क्षमता से अधिक शोषण (दोहन) करते रहेंगे, तो यह द्वंद जारी रहेगा। चूॅंकि हम किसी भी विज्ञान एवं तकनीकी के द्वारा प्रकृति के संसाधनों में वृद्धि नहीं कर सकते हैं, तदैव अपने जीवनशैली में ऐसा परिवर्तन करना आवश्यक है, जिससे हम अपने वस्तु तथा ऊर्जा उपभोग को धारणीय स्तर तक कम कर सकें। ऐसा करने के लिए कोई नया कानून बनाना शायद ही फायदेमंद या सहायक हो। इसे सिद्ध करने हेतु हमें स्वयं के स्वभाव तथा व्यवहार में परिवर्तन कर ही उपभोग को कम करना होगा। तदैव सभी धर्मों की प्रासंगिकता इसी पृष्ठभूमि पर उपयोगी एवं प्रासंगिक लगती है, जिसमें कि जैन धर्म, हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म में भी भोग और उपभोग को कम से कम करने का आव्हान है, तो जीवन को सम्पूर्ण सादगी से जीने का आदेश है। और सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि कई धर्मों में तो स्पष्ट लिखा है कि यदि किसी का पड़ोसी भूखा है तो उसका दायित्व पहले उसके भूख-प्यास को मिटाने के लिए प्रयास करना है। कई धर्म में आदेश है कि यदि कोई अपने संतानों की श्रेष्ठतम परवरिश नहीं कर सकता हो तो उसे अपने नफ्स को जब्त करना चाहिए (अर्थात इंद्रियों पर अंकुश लगाना चाहिए), ताकि परवरिश क्षमता से ज्यादा औलादें पैदा न हों। तो आज जब पृथ्वी माॅं की ही क्षमता इतनी नहीं है कि वह एक भी अतिरिक्त इंसान को धारणीय जीवनयापन के लिए संसाधन ही दे सके तो फिर ज्यादा संतानों को पैदा करके, अपनी जवानी और बुढ़ापा तो बर्बाद करना ही है, अपितु देश तथा समाज को भी विद्रूप करना है।

हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि हर वर्ष हम उस दिन को चिन्हांकित करके ष्म्ंतजी व्अमत ैीववज क्ंलष् अर्थात त्मेवनतबम क्मचसमजपवद क्ंल मनाते हैं। जिस दिन हम अपनी पृथ्वी के द्वारा वर्ष भर में पुनः संचित किए हुए संसाधनों का पूरी तरह उपभोग कर लेते हैं। इस वर्ष यह दिन 01 अगस्त को ही पहुॅंच गया, अर्थात मात्र 7 महीनों में हम 12 महीनों की प्रकृति की कमाई को खा गए। तो बाकी 5 महीना का उपभोग हम आने वाली पीढ़ियों से कर्जा लेकर कर रहे हैं? लेकिन ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि हमें हमारी प्रकृति और पृथ्वी के प्राकृतिक पारिस्थितिकीय सीमाओं एवं क्षमता का ज्ञान ही नहीं है और न ही इसे कहीं ठीक से पढ़ाया जाता है और न ही बताया जाता है। ज्यादातर ऐसे ज्ञान भी स्थानीय भाषा यथा हिंदी, उर्दू, मराठी, तमिल, गुजराती, मलयाली, कन्नड़, गुरूमुखी आदि में उपलब्ध भी नहीं है। अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान कुछ लोगों के लिए ड्राइंग रूम में चर्चा की शोभा बढ़ाने तक ही सीमित हो जाता है। उसके दुष्परिणाम यह हैं कि हम आजादी के 75 वर्षों में भले ही अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति का उत्सव मनाते जा रहे हैं, पर इस बढ़ी हुई भूख को भरने के लिए अर्थव्यवस्था और कृत्रिम तकनीकी के गुलाम होते जा रहे हैं और यह गुलामी इतनी ज्यादा गहरी हो चुकी है कि ज्यादातर इंसानों को धन-अर्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ भी प्रतीत नहीं होता है। बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ, बढ़ता हुआ प्रति व्यक्ति उपभोग, इस दुर्दशा की अग्नि में घी नहीं पेट्रोल का काम कर रहा है। इस आर्थिक गुलामी का दुष्परिणाम यह दिख रहा है कि ज्यादातर भारतीय नागरिक अपने दायित्वों के निर्वहन के लिए उदासीन हैं और हरेक बिन्दु के लिए सरकार की ओर अथवा राजनैतिक संगठनों की ओर आश्रित दिखते हैं। जबकि समाधान उनके (सरकारों के) हाथों में है ही नहीं, इसका समाधान हम सभी भारतीयों के (नागरिकों के) खुद के हाथों में है और यह समय की पुकार है कि जिन शहीदों ने आजादी के लिए शहादत दी, उनके सम्मान में हम अपने प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण का संकल्प लें। प्रधानमंत्री मोजी जी के आव्हान के अनुसार एक पेड़ माॅं के नाम रोपण तो अवश्य करें, तो साथ ही हरेक गांव में एक पार्क शहीदों के नाम पर भी रोपित करें।

हमें यह याद रखना चाहिए कि प्रकृति, पर्यावरण और पृथ्वी को बीमार और बूढ़ा करके हम अपने जवानी या बुढ़ापे को बीमारी मुक्त और जरा मुक्त नहीं कर सकते। करोड़ों, अरबों रूपये की आर्थिक समृद्धि भी बीमार पृथ्वी के बाशिंदों को स्वस्थ्य और सुखमय बचपना, जवानी या बुढ़ापा नहीं दे सकते। इसलिए आर्थिक समृद्धि के सृजन के लिए प्रकृति और पर्यावरण पर प्रहार बिल्कुल भी ना करें। पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। रक्षाबंधन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।
-संपादक