इस अर्थप्रधान युग में ज्यादातर मनुष्यों का चिंतन प्राकृतिक परिवेश एवं परिस्थितिकी के संरक्षण के गंभीर चिंता और चुनौतियों से भटक चुका है। इस भटकाव के कारणों की विवेचना करने पर न तो कोई ठोस कारण सहजता से समझ में आता है और न ही कोई सहज मार्ग ही। फिर भी पर्यावरण के प्रति अनेकानेक वर्षों से सतत चिंता करने के कारण कुछ तो विवेचना करना हमारी विवशता बन जाती है। इस विवेचना के प्रयास में प्रथम दृष्टि में यदि पर्यावरणीय समस्याओं को सूचीबद्ध करने के प्रयास करते हैं तो ऐसा लगता है कि अब तो प्राकृतिक एवं हृष्ट-पुष्ट पारिस्थितिकी का शायद कुछ भी भाग शेष नहीं बचा है। पर्यावरणीय समस्याओं की सूची और पारिस्थितिकी विनाश की सूची अनंत सी हो गई है।
वैज्ञानिक अनुसंधान सारों एवं प्रतिवेदनों को एक किनारे भी कर दें तो भी अखबारों के मुख पृष्ठों से लेकर अंतिम पृष्ठ तक, सभी समाचार पत्र तबाह हो चुकी वायु गुणवत्ता, शहरों में व्याप्त खतरनाक वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, प्लास्टिक प्रदूषण से पटे पड़े हैं। पर्यावरणीय बिगाड़ एवं पारिस्थितिकी नाश की सूची अत्यंत विशाल है। इसे कुछ पृष्ठों में सूचीबद्ध करना असंभव सा लगता है। इन सभी प्रदूषणकारी संस्कारों के भयावह परिणाम नित्य प्रतिदिन स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर भी हो रहे हैं। बढ़ते महा नगरीय वायु प्रदूषण से श्वांस जनित रोग, फेफड़ों का कैंसर, स्तन एवं वक्ष कैंसर में वृद्धि के वैज्ञानिक रिपोर्ट सामने हैं। पर सार्थक समाधान कहीं भी घटित होता नजर नहीं आता। दिल्ली जैसे देश की राजधानी में, जहाॅं यद्यपि औद्योगिक प्रदूषण का योगदान बहुत न्यून है, फिर भी वहां के वायु प्रदूषण का स्तर सर्वाधिक चिंताजनक है। पर अभी तक न तो सही कारणों का निदान हो पाया है और न ही समाधान का। दिल्ली के दूषित वातावरण के लिए कोई एक उद्योग या कुछ उद्योग ही दोषी नहीं है, जिसे/जिन्हें बंद करके समाधान सिद्ध किया जा सके। अपितु सूक्ष्मता से विवेचना करने से ऐसा लगता है कि बेतहाशा बढ़ चुकी गैर जिम्मेदार जनसंख्या तथा नागरीय अपसंस्कार इसके प्रति उत्तरदायी हैं।
कृषि उत्पादों में हानिकारक सायनों के उच्च स्तर की रिपोर्ट प्रतिदिन पढ़ने में आते हैं। उनके स्वास्थ्य पर दुष्प्रभावों की बात सर्वविदित और सर्वमान्य हो चुकी है। फिर भी विषाक्त रसायनमुक्त कृषि उत्पादों का उत्पादन और उपभोग व्यावहारिक रूप से सहज और संभव प्रतीत नहीं होता।
क्योंकि, बढ़ती जनसंख्या के लिए बढ़ते खाद्यान्न की मांग की पूर्ति के लिए इन कृत्रिम रासायनिक आगतों को कृषि में प्रयोजित करना अपरिहार्य हो गया है। इसके साथ ही बढ़ते खाद्यान्न मांग की पूर्ति के लिए फसलों की तीव्रता (ब्तवच प्दजमदेपजल) को भी सघन करने के लिए यांत्रिक टिलेज (जोताई-बोवाई-कटाई) भी आवश्यक हो गया है, तो दो-तीन फसलों के उत्पादन हेतु सिंचाई की बारंबरता में भी वृद्धि हो रही है। इस प्रकार से यदि हम सकल यांत्रिक कृषि के जीडीपी पर आर्थिक सुप्रभाव के साथ समाज पर और कृषि पर्यावरण पर दुष्प्रभाव का एक ही तलपट पर मूल्यांकन करते हैं तो हम पाते हैं कि इस प्रकार से बढ़ी हुई कृषि सघनता के कारण देश में लगभग 40 प्रतिशत कृषि भूमि की मिट्टी की गुणवत्ता खतरनाक स्तर तक गिर चुकी है, जो भविष्य में इस प्रकार के निरंतर उत्पादन देने में भी शायद ही सक्षम हो। तो वहीं कृषि उत्पादों द्वारा जितना वातावरण से कार्बन अवशोषित किया जाता है, लगभग उतना ही कार्बन कृत्रिम रसायनों, उर्वरकों, कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों, सिंचाई तथा यांत्रिक कृषि कार्यों आदि से उत्सर्जित हो जाता है। इस प्रकार प्रकृति के कार्बन चक्र में जो कृषि उत्पाद किसी समय कार्बन संचय (ैमुनमेजतंजपवद) के लिए एक स्वच्छ विकल्प हुआ करते थे, वे आज बदली हुई परिस्थितियों में अब शायद एक सुरक्षित एवं ठीक विकल्प के रूप में नहीं बचे हैं। इन परिस्थितियों में चुनौती यह है कि कृषि कर्मों को धारणीय कैसे बनाएं और अगली चुनौती यह है कि बढ़ती जनसंख्या को कैसे नियंत्रित करें तथा बढ़ चुकी जनसंख्या को भी धारणीय कैसे बनायें?
इसी प्रकार तमाम तरह के प्रदूषणों से परेशान मनुष्यों तथा जीव-जंतुओं को इसके दुष्प्रभावों से बचाने के लिए नित नए कानून बनाए जा रहे हैं। इन कानूनों में कठोर दंड के प्रावधानों को भी प्रदाय किया जा रहा है। किन्तु आर्थिक प्रगति के भ्रम में उलझी हुई इस अर्थव्यवस्था और समाज के लोग अब पर्यावरणीय तबाही के उस मुकाम पर पहुॅंच चुके हैं कि उन्हें यह समझना भारी पड़ रहा है कि इन दुष्कृत्यों के लिए सही मायने में कौन दोषी है या कौन-कौन दोषी है और कितना दोषी है? और कब से दोषी है? क्या ऐसे लोगों पर दोषारोपण करके ही हम प्रकृति, पर्यावरण और पृथ्वी को दुष्प्रभावों से मुक्त कर पाएंगे और क्या ऐसा करके तबाह हो चुके पारिस्थितिकी और पर्यावरण को ठीक कर पाएंगे? या फिर इन दोषियों को दंडित करने से ही प्रकृति का पुनरूद्धार होगा? या फिर दोष और दंड की प्रक्रियाओं से पृथक कोई और मार्ग भी हमें सिद्ध करना होगा? क्या यह स्वेच्छा से उपभोक्ता मुक्ति का मार्ग होगा या पर्यावरण संरक्षण की सुशिक्षा का?
पर्यावरण और पारिस्थितिकी को प्रबंधित करने का दायित्व धारण करने वाले समस्त जन इस दुविधा में उलझे हुए हैं कि इस सभ्यता को निरंतर सुरसा की तरह निगल रहे पर्यावरणीय बिगाड़ की समस्या से मुक्ति का मार्ग अंततः क्या हो? अतर्राष्ट्रीय स्तर पर न्छव् के द्वारा न्छथ्ब्ब्ब् के तत्वावधान में प्रतिवर्ष कांफ्रेंस आफ पार्टीज के तहत पृथ्वी पर आसन्न मौसम परिवर्तन (ब्सपउंजम ब्ींदहम) को रोकने के लिए गंभीर चिंतन, मनन किया जाता है कि पृथ्वी पर पनप रही इस मौसम परिवर्तन की समस्या का समाधान क्या है? महीनों-महीनों पूर्व, चिंतन आरंभ होता है और कई-कई दिनों तक निरंतर चर्चा-परिचर्चा होती है। पर जो लक्ष्य निर्धारित किए जाते हैं, उनकी पूर्ति कभी भी संभव नहीं हो पाती है।
ये लक्ष्य पूरे क्यों नहीं हो पाते, इस पर चिंतन करने हेतु भी कोई ठोस पहल नहीं की जाती। पर यदि एक सहज भाषा में हम समझने का प्रयास करें तो हम पाते हैं कि वर्तमान अर्थव्यवस्था का मूल सिद्धांत ही इस अव्यवस्था का दोषी है, जिसमें प्रकृति के शोषण के दुष्प्रभावों से उत्पन्न लागत को उस प्राकृतिक वस्तु के दोहन या उपभोग के लागत में जोड़ा नहीं जाता, जिसके दोहन या उपभोग से उत्पन्न दुष्प्रभाव का भार तो समाज एवं देश पर पड़ता है। ऐसे दुष्प्रभावों की पीड़ा समाज की अंतिम श्रृंखला में खड़ा मासूम नागरिक झेलता है, तो भाषायी संवाद से दूर, पशु-पक्षी, वन-वनस्पतियां झेलते हैं। दूसरी दुविधा यह होती है कि लोकतांत्रिक प्रणाली से चुनी गई सरकारों की विवशता यह होती है कि जन सामान्य को कठोर कानूनी बंधनों में बांधने का साहस नहीं कर पाती। अस्तु तमाम तरह के कानूनों एवं विभागों के अस्तित्व में आने के बावजूद भी पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी पर पड़ रहे प्रहारों के दुष्प्रभावों से मुक्ति दिलाना केवल कानूनी प्रक्रिया से मुश्किल सा होता है।
ऐसी परिस्थिति में हमें तो एकमात्र मार्ग यह लगता है कि संपूर्ण विश्व के जन समुदायों को कानूनी बाध्यता से भी पूर्व पर्यावरण, पारिस्थितिकी तथा पृथ्वी के सीमित संसाधनों का बोध (जानकारी) पहली कक्षा से पढ़ाना शुरू किया जावे। पृथ्वी पर बढ़ रही जनसंख्या का बोझ किस तरह से हमारा वर्तमान तथा भविष्य सबको तबाह कर रहा है, उसके प्रति जागृत किया जावे। स्पष्ट रूप से यह बतलाया जावे कि न तो कोई समाज, और न ही कोई देश या न ही कोई राजनैतिक दल, न ही कोई धर्म, और न ही कोई दैवीय शक्ति पृथ्वी पर स्वयं ईश्वर रूप प्रकृति द्वारा सृजित प्राकृतिक संसाधनों की आपूर्ति में कोई वृद्धि कर सकता है। हम सबको यह स्वीकार करना आवश्यक है कि सभी धर्मों का मौलिक लक्ष्य एवं उद्देश्य उपभोग को कम करना, सादगी से जीवन जीना, सदाचार, सदाशयता से पारस्परिक सहयोग एवं सहृदयता से ही जीवन जीना है। यदि कोई भी धर्माचार्य या राजनैतिक दल या अन्य कोई भी स्वार्थ समूह, प्रकृति पुरूष या आदि प्रकृति शक्ति के उस सत्यता से पृथक प्रचार करता है, तो समाज के सुधी लोगों को उसे सचेत कर सजग कर, समझा कर प्राकृतिक सीमाओं के सत्य को स्वीकार कराना ही चाहिए।
आज के इस युग में जब एक बार फिर भारत वर्ष में राम के चरित्र के माध्यम से हम पूरे विश्व के समक्ष भारतीय संस्कृति के आदर्शों को प्रस्तुत कर रहे हैं, तो उनमें सबसे बड़ा आदर्श तो यह है कि एक चक्रवर्ती सम्राट होकर भी श्रीराम जी ने अयोध्या के राजपाठ को त्याग कर कुल की मर्यादा के लिए 14 वर्षों तक वनवासी, तपस्वी का जीवन जीकर, आज के इस युग के मानवों एवं राजनेताओं के लिए आदर्श मार्ग प्रस्तुत किया। राज्य के विस्तार के लिए संघर्ष या युद्ध को त्याग कर, धर्म और मर्यादा के लिए ही संघर्ष और आवश्यक हुआ तो युद्ध भी किया। पर अपने लिए नहीं, अपितु सत्य और धर्म की रक्षा के लिए। विश्व में त्याग और बलिदान के ऐसे उदाहरण अन्यत्र नहीं देखे सुने गए। भौतिक साधनों और सुखों को त्यागने के मामले में आज भी भारत में जैन परम्परा के अंतर्गत ऐसे अनेकों विभूतियों के भी प्रत्यक्ष उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने अपने सैकड़ों करोडों रूपयों के आर्थिक साम्राज्य को त्याग कर दिगम्बर जीवन जीने के लिए जैन मुनि का आश्रम धारण किया। इसी उपभोग मुक्ति के धारणीय चिंतन को हमें अपने संस्कारों में यथाश्रेष्ठ रूप में धारण करना जरूरी है, ताकि हम वस्तु तथा ऊर्जा का उपभोग न्यूनतम करके, अपने जीवन को सादगीमय करके पृथ्वी के क्षणभंगुर पर्यावरण पर हो रहे प्रखर प्रहार को कम करने में मदद कर सकें।
ऐसे भावों को अंगीकार करने में हमें भारतीय वांग्मय में अनेकों सनातनीय साहित्यों से प्रेरणा मिलती है। शास्त्रों में कहा गया है कि-
‘‘अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदार चारितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम।।’’
ऐसे संस्कार सूत्र हमें मेरा पराया के दुर्भाव से मुक्त करते हैं, तो मानव एवं अन्य सभी प्राणियों को इस पृथ्वी रूपी आवास के अंतर्गत एक ही परिवार के सदस्य मानकर इसके पर्यावरण के सुरक्षा की प्रेरणा भी देते हैं। परस्पर प्रीति और सहयोग के भावों को भी पुष्ट करते हैं। इन्हीं संस्कारों को अपने आप में समाहित कर हम इस धरा पर पर्यावरण को संरक्षित करने हेतु दोष और दंड के द्वंद से समाज को मुक्त कर एक धारणीय मार्ग को प्रशस्त कर सकते हैं।
सभी सुधी पाठकों को आने वाले त्यौहार रंगों के पर्व ‘‘होली पर्व’’ की हार्दिक शुभकामनाएं।
-संपादक