शरीर में व्याप्त उच्च रोगरोधन क्षमता से ही मनुष्य सुरक्षित रह सकता है

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वर्ष 2021 को विदा करते-करते ऐसा लग रहा था कि मानवता अब कोरोना संक्रमण के अभिशाप से मुक्ति के मार्ग पर है और नए साल में पूरी सभ्यता फिर से कोरोना मुक्त होकर पूरी गति से गतिमान रहेगी। किन्तु, नववर्ष के आरंभ के पूर्व ही पश्चिमी देशों में विस्फोटक ढंग से फैले ओमीक्रान स्ट्रेन ने चिंता की नई लहर पैदा कर दी है। यद्यपि संपूर्ण विश्व के वैज्ञानिक इस महामारी के निदान के लिए रात-दिन प्रयासरत हैं, किन्तु जिस प्रकार से कोरोना अपना स्वरूप बदलकर म्यूटेशन कर रहा है, उससे ऐसा लग रहा है कि वैज्ञानिकों एवं प्रकृति में एक अदृश्य स्पर्धा छिड़ गई है। यद्यपि कोरोना से बचाव के लिए अनेकों प्रकार के वैक्सीनों का प्रयोग किया जा रहा है, पर अभी भी अनेकों वैज्ञानिक ऐसे हैं, जो वैक्सीन के अनजाने दुष्परिणामों से आशंकित भी हैं और मनुष्य के शरीर के स्वयं की रोगरोधन क्षमता की संपुष्टि को ही श्रेष्ठ मानते हैं। इनमें से अमेरिका के एक वैज्ञानिक डॉ. अदिति भार्गव के भी ऐसे ही विचार हैं।
इस पृष्ठभूमि में यदि हम उन जन समूहों का आंकलन करने की कोशिश करते हैं, जिन पर कोरोना की पहली लहर से लेकर तीसरी, चौथी लहर का भी सबसे कम असर हुआ है तो यह समक्ष दिखाई पड़ता है कि जो लोग प्रकृति के पारस्परिक प्रेम के अंतर्गत प्रकृतिमय जीवन जी रहे हैं, उन पर न्यूनतम प्रभाव है। इन महामारियों के उपचार के परम्परागत चिकित्सकों यथा- गुनिया, वैद्य एवं हकीमों से चर्चा करने पर, उनका जो विचार या दर्शन इस व्याधि के प्रति है, वह वर्तमान पश्चिमी चिंतन से पूरी तरह भिन्न है। उनकी मान्यता है कि शरीर में व्याप्त रोग रोधन क्षमता की संपुष्टि से ही मनुष्य सुरक्षित रह सकता है। परम्परागत चिकित्सकों की यह भी मान्यता है कि प्रकृति में मनुष्य को रोगग्रस्त करने के लिए पर्याप्त आसुरी शक्तियां सदा से विद्यमान हैं। इनसे दुष्प्रभावित वही लोग होते हैं, जिनका जीवन आसुरी वृत्ति में होता है। इस चिंतन को यदि हम वर्तमान परिवेश में परिभाषित करने का प्रयास करते हैं तो, इसका अभिप्राय यह स्पष्ट होता है कि आसुरी वृत्ति से तात्पर्य, जो प्राकृतिक दिनचर्या है, उसके विरूद्ध जीवन जीना। अर्थात समय पर न सोना, समय पर न उठना, आवश्यकता से अधिक भोजन करना, अप्राकृतिक भोजन करना, गरिष्ठ भोजन करना, आलस्य में जीवन जीना, शराब, तम्बाकू, धूम्रपान जैसे व्यसनों के अंतर्गत जीवन जीना एवं व्याभिचार में जीवन जीना, तनावयुक्त जीवनशैली इत्यादि। आवश्यकता से अधिक धन संचय भी वर्तमान जीवनशैली में तनाव का मुख्य कारण है।
वहीं पृथ्वी पर ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन तथा पर्यावरण क्षय का भी मुख्य कारण है। यद्यपि इन तथ्यों को वर्तमान युग के अंतर्गत रूढ़िवादी बातें कहकर तिरस्कृत किया जाता है, किन्तु आज विज्ञान भी इस बात को निश्चित रूप से स्वीकार कर रहा है कि मनुष्य के अंतर्गत व्याप्त ‘‘जैव घड़ी’’ का संबंध मनुष्य के शरीर में रोगरोधन क्षमता को सुव्यवस्थित करने के लिए आवश्यक है। तो मनुष्य के मस्तिष्क को तनाव रहित होना भी स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। वहीं आहार का संतुलन, विचार का संतुलन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। ऐसा लगता है कि भारत के मनीषी एवं ऋषि आधुनिक विज्ञान की पराकाष्ठा से भी शायद ऊॅंचे चिंतन स्तर पर थे, जिन्होंने निरोगी जीवन के लिए जो मार्ग बताए थे, वह आज भी शाश्वत सिद्ध होते हैं। तो क्या कोरोना महामारी हमें गंभीरतापूर्वक सांस्कृतिक सिंहावलोकन करने का संकेत दे रही है कि हम अपनी जीवनशैली को तत्काल धारणीय बनावें। अन्यथा प्रतिवर्ष अपना रूप बदल-बदल कर हमें झकझोरती रहेगी।
इस प्रक्रम में वर्तमान कृषि पद्धति में जो रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों एवं खरपतवारनाशकों का उच्च अनुपात में उपयोग किया जा रहा है, इसके परिणामस्वरूप मिट्टी में व्याप्त आवश्यक सूक्ष्म जीवों की संख्या एवं स्वास्थ्य पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ा है और पड़ रहा है। जिस कारण मृदा वैज्ञानिक वर्तमान युग में कृषि भूमि को मृत मिट्टी के रूप में भी परिभाषित करने लगे हैं, जिनको कि पहले जीवित मिट्टी के रूप में माना जाता था। बहुत से कृषि वैज्ञानिक गिर रहे रोग रोधन क्षमता के कारणों में इसे भी महत्वपूर्ण कारक बताते हैं। पर आज भी रासायनिक कृषि के व्यसन से कृषकों को मुक्त करना नशा मुक्ति से भी ज्यादा जटिल है।
इस महामारी के अतिरिक्त सभ्यता के समक्ष व्याप्त सबसे गंभीर संकट के रूप में पृथ्वी के बढ़ते तापमान और और मौसम परिवर्तन को लगभग सभी राष्ट्र स्वीकार कर चुके हैं। किन्तु इसके समाधान के प्रयासों में सबसे आवश्यक प्रयास जनसंख्या नियंत्रण को कानूनी स्वरूप देने को कोई तैयार नहीं है। इस अंक में ‘मौसम परिवर्तन संकट पर जनसंख्या का दुष्योगदान’ लेख में प्रस्तुत विवरण से जनसंख्या का मौसम परिवर्तन पर पड़ रहे दुष्प्रभावों से स्पष्ट होगा कि यदि पृथ्वी पर अब तत्काल जनसंख्या नियंत्रण करने हेतु ठोस कदम नहीं उठाये गए तो पृथ्वी पर आसन्न तापमान वृद्धि को नियंत्रित करना असंभव होगा। ऐसी परिस्थितियों में क्या प्रकृति निरंतर मानव जनसंख्या नियंत्रण हेतु करने नाना प्रकार की प्राकृतिक त्रासदियों के सृजन के रूप में ही ‘कोरोना’ जैसी त्रासदी का सृजन कर रही है? और क्या करती रहेगी? यह विषय गंभीर है, संकट साक्षात है, पर समस्या यही है कि ‘बिल्ली के गले में घंटी’ बांधने कोई तैयार नहीं है। पर चाहे-अनचाहे इस दिशा में ठोस निर्णय लेना तो होगा ही। कैलेंडर नववर्ष 2022 के सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं।
-संपादक