भगीरथ के द्वारा पृथ्वी पर लाई गई गंगा के उद्धार के लिए भी पुनः भगीरथ प्रयास की ही आवश्यकता है

पृथ्वी रूपी डूबते हुए जहाज पर सवार 195 देश पिछले 29 वर्षों से अधिक समय से यह जानते हुए भी कि, हरितकारी गैसों के बढ़ते सांद्रण के कारण वातावरण के बढ़ते तापमान के कारण, बदलते मौसम के कारण, पृथ्वी के ध्रुवों में जमी बर्फ के पिघलने के कारण ज्यादातर भौगोलिक भूभाग डूबने के कगार पर हैं। इस कड़वे सच को जानने, समझने के बावजूद भी लगता है कि हर वर्ष होने वाले कांफ्रेस आफ पार्टीज की आयोजित होने वाली बैठकों में सार्थक समाधान पर ठोस निर्णय लेने के स्थान पर, बारम्बार इन बैठकों में इस समस्या से होने वाले दुष्प्रभावों से राहत पाने के लिए धन की व्यवस्था के लिए ज्यादा बहस होती है। अविकसित देश तथा विकासशील देश इन सारी समस्याओं के सृजन के लिए बारम्बार विकसित देशों पर दोषारोपण में समय व्यतीत कर देते हैं।

इस वर्ष अजरबेजान की राजधानी बाकू में सम्पन्न हुए कांफ्रेस आफ पार्टीज की 29वीं बैठक में लगभग 195 देशों देशों के 83000 से अधिक लोगों ने भाग लिया, जो कि पिछले सभी कांफ्रेस का रिकार्ड टूट गया। ुिर भी इस कांफ्रेंस के परिणाम भी बहुत कुछ उत्साहजनक और आशाजनक प्रतीत नहीं होते हैं। कांफ्रेंस के अंदर में जिन अनेकों बिन्दुओं पर चर्चा, परिचर्चा की गई, उनमें से ऐसा कोई ठोस मार्ग निर्धारित नहीं दिखाई पड़ता, जिससे कि निकट भविष्य में पृथ्वी पर व्याप्त इस संकट से मुक्ति का कोई ठोस मार्ग प्रशस्त होता दिखाई दे सके। कांफ्रेंस में इस समस्या के मूल कारणों में बढ़ती जनसंख्या, बढ़ते उपभोग तथा आर्थिक समृद्धि के कारण पृथ्वी के संसाधनों पर बढ़ते दबाव को रोकने पर भी कोई सार्थक चर्चा से कोई निर्णय समक्ष दिखाई नहीं दे रहा है। इन सबके बावजूद भी कांफ्रेस आफ पार्टीज के माध्यम से जो प्रयास किए जा रहे हैं, उन प्रयासों की प्रशंसा, इस बिन्दु को लेकर अवश्य की जा रही है कि समस्त विश्व के राष्ट्राध्यक्ष इस समस्या के समाधान के लिए चिंतित हैं। काॅप-29 प्रस्ताव में जो मुख्य बिन्दु इस दृष्टिकोण से सराहना के पात्र बन सकते हैं कि, विकसित देशों ने कम से कम 300 बिलियन डालर (लगभग 2700 अरब रूपए) प्रतिवर्ष विकासशील देशों को वर्ष 2030 तक देने का संकल्प किया। भले ही यह राशि 1300 बिलियन डालर प्रतिवर्ष की की मांग की तुलना में एक चैथाई से भी कम है, किन्तु इस समझौते के लिए प्रयत्नशील लोगों के लिए यह अवश्य सफलता का बिन्दु है। किन्तु, चिंता का विषय यह है कि जो विकसित देश प्रतिवर्ष 300 बिलियन डालर विकासशील देशों को देंगे, उस धन का सृजन इन विकसित देशों द्वारा क्या कार्बन उदासीन मार्ग से होगा, या उसके सृजन में भी पुनः अतिरिक्त कार्बन उत्सर्जन होगा। इसी तारतम्यता में चिंता का विषय यह भी है कि विकासशील देशों के द्वारा जो इस प्राप्त धन काा व्यय किया जावेगा या निवेश किया जावेगा, क्या उस व्यय से या निवेश से कार्बन उत्सर्जन शिथिल होगा या कम होगा या इस राशि के उपयोग से इन विकासशील देशों का भी उपभोग बढ़ेगा या और कार्बन उत्सर्जन बढ़ता जाएगा। इस बिन्दु पर एक निराशाजनक बिन्दु यह भी है कि पेरिस समझौते में जो आर्टिकल-6 निर्धारित हुआ था, उसे 10 वर्ष के बाद भी लागू नहीं किया जा सका। इसे अगले वर्ष ब्राजील में होने वाले 30वें कांफ्रेंस के लिए स्थगित करना पड़ा। यह आर्टिकल फाॅसिल फ्यूल ट्रांजीशन के सम्बन्ध में था, जो कि मौसम परिवर्तन को रोकने के लिए मील का पत्थर माना गया था। किन्तु, आर्टिकल-6 के ही अंतर्गत जो पेरिस एग्रीमेंट क्रेडिटिंग मैकेनिज्म को निरूपित किया गया था, उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की जानकारी में ‘‘देश से देश’’ (कंट्री टू कंट्री) के बीच कार्बन मार्केट के रूप में एक केन्द्रीय बाजार के रूप में विकसित करने हेतु विचार किया गया।
बाकू के सम्मेलन में भी पूर्व सम्मेलनों में जिस धरातल पर चर्चा की जाती रही है, उसी धरातल पर चर्चा आगे बढ़ी है। पर जो सबसे महत्वपूर्ण चर्चा का बिन्दु, हमारी दृष्टिकोण से प्रारंभ से ही रहा है कि पृथ्वी पर बढ़ती जनसंख्या एवं बढ़ते प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग ही इस समस्या का मुख्य कारण है। इस पर नियंत्रण हेतु कोई भी पूर्ववर्ती अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर न कोई चर्चा है, न कोई समाधान है। बहस को यदि हम सामान्य भाषा में समझाने का प्रयास करें तो, ऐसा लगता है कि डूबते हुए जहाज में सवार यात्री इस बात के लिए लड़ रहे हैं कि, उस डूबते जहाज के मस्तूल में कौन बैठेगा या तलहटी में कौन बैठेगा या उस जहाज का वातानुकूलित कमरों में बैठकर कौन डूबेगा और कौन खुले डेक में बैठकर डूबेगा। हास्यास्पद बात यही है कि इतनी विकसित सभ्यता और इतनी विकसित ज्ञान के बावजूद कोई यह नहीं समझ पा रहा है कि जहाज में कोई कहीं भी बैठे हों, जब जहाज को ही डूबना हो, तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि कोई 10 मिनट पहले डूबे और कोई 15 मिनट बाद डूबे तो कोई 20 मिनट बाद डूबे, कोशिश तो पूरे जहाज को बचाने की होनी चाहिए। पर हम आज सम्पूर्ण विश्व के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक परिदृश्य को देखते हैं, तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि ‘‘प्रकृति एवं पर्यावरण’’ तो बस, वैज्ञानिक, राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक आदि प्रकार की किताबों के बोझ में कुचलकर कराह रही है। मनुष्य ने भले ही कितनी ही प्रकार की भाषाओं का सृजन कर लिया हो, कितनी ही वैज्ञानिक प्रगति कर ली हो, विकसित समाज स्थापित कर लिया हो, मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारे बना लिए हों, पर वह आज भी प्रकृति के द्वारा बोली जाने वाली भाषा एवं मनुष्यों के अलावे पृथ्वी पर व्याप्त समस्त जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों के द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा से पूरी तरह अनभिज्ञ है। उदाहर्णाथपृथ्वी ने जहाॅं एक चींटी की इन्द्रियों को भी शहद के लिए मिठाई जैसे शक्कर जैसे तत्व को ढूंढने के लिए संवेदनशील घ्राण शक्ति प्रदान की है कि वह सैकड़ों मीटर दूर भी इन मीठी वस्तुओं को सूंघ लेती हैं या पहचान लेती हैं और अपनी आवश्यकतानुसार पूरे दलबल के साथ, टोली के साथ जाकर भक्षण करती हैं। कभी-कभी तो यह देखा गया है कि एक चींटी अपने भार से 10 गुना, 20 गुना भारी वस्तुओं को भी दर्जनों चींटियों को मिलाकर अपने हाथ और पैरों को समन्वय बनाकर, उठाकर अपने बिलों में ले जाती हैं। इसी तरह का हम अनेकों अन्य पशु-पक्षियों, कीटों में (जैसे मधुमक्खी, दीमक इत्यादि में) आपसी समन्वय और सद्भाव देखते हैं, जिसमें जाति और धर्म जैसा कोई भेद नहीं होता है। कभी-कभी तो पशुओं के विभिन्न प्रजातियों के बीच में भी अद्भुत स्नेह और सद्भाव दिखाई पड़ता है। किन्तु आज वहीं, मनुष्य सभ्यता अत्याधुनिक वैज्ञानिक विकास के बावजूद भी प्रकृति के द्वारा प्रदत्त समस्त प्राकृतिक उपहारों को नष्ट करने को आतुर है। किसी अज्ञात एवं असंभव लक्ष्य को पाने के लिए अनेकानेक देश युद्धरत हैं। अभी हाल में ही बांग्लादेश में हुए तख्तापलट, फ्रांस में प्रधानमंत्री का निष्कासन, अनेकों अनेक देशों के बीच जारी युद्ध एवं अशांति के अतिरिक्त अतिरेक पैदा कर रहे हैं।

यह एक अत्यंत विडम्बना का विषय है कि इस बाजारवादी सभ्यता में प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए बहुधा ही किसी व्यक्ति या संस्था या उद्योग के लिए पर्यावरण तथा प्रकृति के लिए खड़े रहकर बात करना या काम करना बहुधा आत्मघाती सिद्ध होता है, क्योंकि हम यह देखते हैं कि, यह पूरी की पूरी विकसित तथा विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था भी प्रकृति एवं पर्यावरण के शोषण के द्वारा ही अधिकांश रूप से संचालित है। अतः जब भी इसके संरक्षण के लिए कोई ठोस बिन्दु उठाया जाता है, तो उसे आर्थिक विकास के लिए अवरोध मानकर अमान्य किया जाता है या फिर उद्योग द्वारा पर्यावरण प्रिय ढंग से संचालन आर्थिक रूप से घाटे का सौदा सिद्ध होता है। शायद इसी कारण से ही विश्व के अनेकों दूरस्थ अंचलों में प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्य करने वाले लोग या समूह आर्थिक रूप से, सामाजिक रूप से गंभीर रूप से संघर्षरत पाए जाते हैं। विश्व की तमाम संस्कृतियों के बीच जब हम इस बात का मूल्यांकन करने की कोशिश करते हैं कि संस्कारों के अंतर्गत प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण को सर्वोच्च स्थान कहाॅं दिया गया है, तो हम पाते हैं कि इस बिन्दु को सर्वोच्च स्थान भारतीय संस्कृति में ही प्रदाय किया गया है। भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र भी ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ का एवं ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’’ का है।

भारतीय संस्कृति की शक्ति का एक महापर्व आगामी माह में 13 जनवरी 2025 से महाकुंभ के रूप में प्रयागराज नगर में संगम के तट पर प्रति 12 वर्ष के अंतराल पर आयोजित किया जाने वाला है। इस महाकुंभ का धार्मिक पक्ष जो भी हो, उसे हम यहां नहीं चर्चा कर रहे हैं, किन्तु उसके पर्यावरणीय महत्व को अवश्य संज्ञान में लाना चाहते हैं। भारतवर्ष की सांस्कृतिक सभ्यता के विकास में गंगा तथा यमुना नदी का अत्यधिक महत्व रहा है, जो कि प्रयागराज में वर्तमान में एक दूसरे से संगम करती हैं। इसी स्थान पर एक गुप्त या लुप्त नदी सरस्वती नदी के भी अस्तित्व की मान्यता है और इसे भी इसी स्थान पर इन दोनों नदियों से जुड़ने की मान्यता है। गंगा के जल की पवित्रता अद्भुत है। किन्तु यमुना के जल में वर्तमान नगरीय सभ्यता के द्वारा जनित जल-मल प्रदूषण ने इसे जहरीला बना दिया है। जल प्रदूषण नियंत्रण हेतु केन्द्र शासन द्वारा तथा राज्य शासन द्वारा भले ही अनेकों प्रयास किए जा रहे हैं, किन्तु ये अभी भी अपर्याप्त हैं। इन दोनों नदियों के तट पर बसे सभी नगरों के मल-जल का 100 प्रतिशत उपचार करने तथा इनके उपचार को बायो मीथेनाइजेशन पद्धति से उपचारित कर मीथेन रिकवरी कर, उसे नेचुरल मीथेन गैस पाईप लाइन में डालना सर्वाधिक श्रेष्ठ विकल्प है। ऐसा करके ही इन दोनों नदियों की पवित्रता को कुछ हद तक बनाए रखा जा सकता है। पूरी गंगा या यमुना को एक साथ पवित्र करने के बजाए, उत्तर से अर्थात उद्गम से आरंभ कर दक्षिण अर्थात निकास की ओर क्रमशः एक-एक शहर के जल-मल से गंगा तथा यमुना को मुक्त करने हेतु क्रमिक प्रयास करना चाहिए। भगीरथ के द्वारा पृथ्वी पर लाई गई गंगा के उद्धार के लिए भी पुनः भगीरथ प्रयास की ही आवश्यकता है।

नए वर्ष के लिए हार्दिक शुभकामनाएं तथा महाकुंभ वर्ष संवत 2081 के लिए भी ढेर सारी बधाईयां एवं शुभकामनाएं।
– संपादक