समृद्धि का मार्ग सर्व सामान्य के लिए सुखद, पर्यावरण हितकारी तथा धारणीय हो

दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश संयुक्त राज्य अमेरिका में श्रीमान डोनाल्ड ट्रम्प ने 20 जनवरी 2025 को राष्ट्रपति पद का पदभार ग्रहण किया। पदभर ग्रहण करते ही उन्होंने ताबड़तोड़ अनेकों-अनेक निर्णय लिए, ताकि उनके अनुसार अमेरिका की अर्थव्यवस्था को विश्व की सर्वाधिक सशक्त, सम्पन्न अर्थव्यवस्था बनाए रख सकें। साथ ही अपने ही देश में औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि करने एवं अवैध अप्रवासी नागरिकों को बाहर करने तथा अनेकों देशों को और संस्थानों को दिए जाने वाले वित्तीय समर्थन-अनुदानों को कटौती करने का निर्णय लिया। इनके साथ-साथ ही उन्होंने अमेरिका को ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए निष्पादित ‘‘पेरिस समझौते’’ से बाहर करने का निर्णय लिया।

पेरिस समझौते से बाहर रहने का यह निर्णय पूरी दुनिया के लिए एक चिंता का विषय है। खासतौर से तब जबकि दुनिया का दूसरा सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन करने वाला देश (अमेरिका), जो कि स्वयं इसके दुष्प्रभावों से परेशान है, इस समस्या से मुखातिब होने से कतरा रहा है। उदाहरणार्थ तकनीकियों से सर्वाधिक सम्पन्न देश में लासएंजेल्स शहर के बीच धधक रही आग को तमाम कोशिशों के बावजूद भी एक लम्बे समय तक बुझाया जाना संभव नहीं हुआ और हजारों करोड़ रूपयों की सम्पत्ति का सर्वनाश हो गया। हजारों एकड़ में फैले नगर तथा नगरीय जंगल जल कर राख हो गये। सैकड़ों करोड़ों रूपयों से बने आलीशान महल जल कर भस्म हो गये। इस आग के कारणों के मूल में यह बात सर्वाधिक रूप से समक्ष आई कि मौसम परिवर्तन ही इसके मूल में सबसे बड़ा कारण रहा है। समुद्री तट पर स्थित शहर के किनारे समुद्र से बह कर आ रही समुद्री हवाओं में गंभीर रूप से सूखापन और बढ़ा हुआ तापमान, इन जंगलों में सुलग रही आग को बुझाने में कठिनाई पैदा कर रहा था।

बहुतेरे वैज्ञानिकों के अनुसार समुद्री तट में इतनी सूखी और गरम हवाओं का बहना भी एक गंभीर चिंता का विषय है। यदि ऐसी अवस्था पृथ्वी पर बढ़ते हुए हरितकारी गैसों के कारण ही है। तो इस बात की कल्पना करने से मन सिहर जाता है कि समुद्री तटों से दूर स्थित वनों में भी यदि गरम-सूखी हवाओं के बहाव में वृद्धि होने के कारण से आग लग गई तो उसे बुझाना कैसे संभव होगा। यद्यपि आस्ट्रेलिया के जंगलों में ऐसी आग लगभग हर वर्ष लगती है, पर उनके पास फिर भी बड़वानल को बुझाने हेतु साधन सम्पन्नता है। पर विकासशील देशों के जंगलों की आग को बुझाने की व्यवस्था तो अत्यंत ही क्षीण है। विशेषकर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, ईरान, ईराक तथा अफ्रीकी देशों में तो जंगली आग से लड़ने के लिए बहुत ही कम साधन हैं। इसके अलावे वर्ष 2024 में हमने मौसम परिवर्तन के अनेकों अन्य घटनाओं का साक्षात्कार किया, जिनमें स्पेन की बाढ़, सऊदी अरब की बाढ़, अमेरिका में फ्लोरीडा के तूफान आदि हैं। लिखने का तात्पर्य यह है कि इन तमाम घटनाओं ने जब यह सिद्ध कर दिया है कि बढ़ते तापमान के कारण पृथ्वी पर बदलते मौसम के गंभीर परिणाम आना शुरू हो गए हैं, तो फिर इससे लड़ने से या इसे रोकने से यदि विश्व का दूसरा सबसे अधिक हरितकारी गैस (GHG) प्रदूषण कारक देश अमेरिका पीछे हटेगा तो किस ताकत से शेष दुनिया के देशों को इस प्राकृतिक आपदा से लड़ने के लिए आहूत किया जा सकता है? कैसे चीन जैसे प्रथम नम्बर के सबसे प्रदूषणकारी देश को ग्रीन हाउस गैस नियंत्रित करने को विवश किया जा सकता है?

अस्तु, इस युग में आर्थिक समृद्धि को हासिल करने की अंधी दौड़ में अमेरिका ने जो शुरूआत की थी, उससे बाहर होना अमेरिका के जन सामान्य को क्या संभव प्रतीत नहीं हो रहा है? पर चिंतन का विषय यह है कि क्या कारण है कि अमेरिका जैसे देश के विद्वान वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी भी अपने देश में आर्थिक समृद्धि और पर्यावरणीय विपन्नता के असंतुलन से उत्पन्न होने वाले मानव समाज के विषाद एवं दुखों की कल्पना नहीं कर पा पा रहे हैं? गंभीरता से चिंतन करने पर यह स्पष्ट होता है कि भोगवादी संस्कृति में भौतिक सुख का आभास उपभोग से ही होता है और अधिक से अधिक उपभोग के लिए अधिक से अधिक धन की आवश्यकता होती है। भले ही उस अधिक धन अर्जन से या वस्तुओं के अधिक उपभोग से प्रकृति और पर्यावरण पर या किसी अन्य नागरिक पर ही कोई भी दुष्प्रभाव क्यों न पड़ रहा हो। चूॅंकि उससे उपभोग कर्ता और समृद्धि संग्राहक को चूॅंकि सीधे साक्षात कोई दुष्प्रभाव या कष्ट नहीं झेलना पड़ता है। इसलिए यह घातक अर्थ समृद्धि का कुचक्र यूं ही सतत गतिमान रहता है और शायद बना ही रहेगा। इस घातक चक्र को तोड़ना इसलिए कठिन है, क्योंकि किसी भी वस्तु या ऊर्जा के उपभोग त्याग करने पर कोई मूल्य संवर्धन इस अर्थव्यवस्था की गणना में नहीं होता। किसी भी ऊर्जा संरक्षण कृत्य या प्रदूषण नियंत्रण या हरितकारी गैसों के नियंत्रण के कृत्य को बाजार में बिना कानून के विनिमय मूल्य प्राप्त करना कठिन है। अतः इस उपभोग पर नियंत्रण या पर्यावरण संरक्षण केवल कानूनी प्रक्रिया के दम पर ही संभव है। और, ऐसे कानूनों की वैश्विक स्तर पर आवश्यकता को बनाए जाने की संभावना पेरिस समझौते से उत्पन्न हुई थी, किन्तु, वह अब धूमिल पड़ रही है। फिर भी अमेरिका को अपने देश के अंदर ही हरितकारी गैसों के नियंत्रण हेतु प्रयास करना ही होगा।

भारतवर्ष के वित्त मंत्री महोदया ने भी अपने वित्तीय बजट में जो करों में राहत प्रदान की है, वह निश्चित रूप से आम भारतीय के लिए राहतजनक है, स्वागतयोग्य है। इससे बाजार में धन की अधिक उपलब्धता से उपभोग में भी वृद्धि होगी। तदैव भारत की अर्थव्यवस्था तो गतिमान होगी ही। साथ ही उपभोग वृद्धि से जनित पर्यावरणीय दुष्परिणामों को कम करने या उसे टालने हेतु कुछ सार्थक प्रयासों हेतु इसी बजट के वित्तीय प्रावधान भी किए गए हैं वह भी स्वागतेय हैं।

इस दिशा में नवीनीकृत ऊर्जा साधनों के विकास के लिए लगभग 25649 करोड़ रूपए बजट में निर्धारित किए गए हैं। इसमें सौर ऊर्जा हेतु 24100 करोड़ रूपए किए सुनिश्चित किए गए हैं। साथ ही पर्यावरण प्रिय विकास के लिए स्वच्छ तकनीकी, घरेलू मूल्य संवर्धन के लिए सोलर फोटोवोल्टिक सेल, विद्युत बैटरी, पवन चक्की एवं ग्रिड स्तर के बैटरी बैंक के निर्माण को प्रोत्साहित करने नेशनल मैन्युफैक्चरिंग मिशन के शुभारंभ का प्रावधान किया गया है। इनके अतिरिक्त लघु परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को निजी क्षेत्रों में स्थापित करने के भी प्रावधान किए हैं, जिससे स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन का मार्ग प्रशस्त होगा।

यह विडम्बना है कि प्रत्येक नागरिक सरकार को दिए जाने वाले करों को तो अपने ऊपर बोझ मानता है, पर किसी वस्तु को उपभोग हेतु दिए जाने वाले अतिशय लाभ को किसी प्रकार का आर्थिक बोझ नहीं मानता। जबकि जिस प्रकार से सरकारी टैक्स का भुगतान आम आदमी के मत्थे ही होता है, ठीक उसी प्रकार सभी प्रकार की वस्तुओं से अर्जित लाभ का भार भी तो आम आदमी ही वहन करता है। किन्तु, सरकार के द्वारा संकलित कर (टैक्स) से राष्ट्र कल्याण का कार्य किया जाता है, तो अतिशय अर्जित लाभ से बढ़े हुए उपभोग से पर्यावरण तथा प्रकृति पर अनावश्यक भार में वृद्धि होती है। तदैव इस युग में जब प्रकृति तथा पर्यावरण के उपभोग जनित दुष्परिणाम की भार वहन क्षमता समाप्त हो चुकी है, उस समय न केवल भारत को, अपितु दुनिया के समस्त देशों को ऐश्वर्यमय उपभोग हेतु पर्यावरण दुष्प्रभाव का मूल्यांकन कर, उस पर कुछ टैक्स अवश्य लगाना चाहिए और इस धन का निवेश प्रकृति, पर्यावरण संरक्षण तथा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन नियंत्रण हेतु करना चाहिए। इस राशि का उपयोग नदियों के जल प्रबंधन, बाढ़ नियंत्रण जैसे कि ब्रह्मपुत्र के विशाल जल संसाधन को बाढ़ की विभीषिका के स्थान पर मरूस्थल में जल समृद्धि के स्रोत के रूप में विकसित करने हेतु किया जाना चाहिए। गंडक, कोसी जैसे नदियों से प्रतिवर्ष आपदा पैदा करने वाली नदियों के प्रबंधन हेतु करना चाहिए।

भारत का गणतंत्र अपना 76वां गंणतंत्र दिवस मना कर संविधान के 77वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है। अभी हाल के वर्षों में जनसंख्या में आई वृद्धि तथा प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ रहे दबाव के दृष्टिकोण से भारत को अपनी नीतियों को धारणीय बनाने हेतु एक सिंहावलोकन करने की आवश्यकता है, ताकि इस देश में पनप रही आर्थिक समृद्धि के साथ-साथ बढ़ रही आर्थिक असमानता के साथ पर्यावरणीय असमानता को यथाश्रेष्ठ कम करना संभव हो। आर्थिक नीतियों, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन हेतु, निरूपित नीतियों को इस प्रकार संशोधित करना जरूरी है, ताकि धन कुछ सीमित हाथों में ही संचित न हो जावे अपितु समृद्धि का मार्ग सर्व सामान्य के लिए सुखद, पर्यावरण हितकारी तथा धारणीय हो। इस अर्थ प्रधान युग का सबसे बड़ा आधार यह भंगुर (थ्तंहपसम) पर्यावरण और सशक्त प्रकृति ही है। इसका संरक्षण हमारी आर्थिक नीतियों का सर्वोच्च लक्ष्य हो, तभी विश्व में सुख-समृद्धि का सृजन संभव है।

-संपादक