पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण नियंत्रण हेतु अवसर द

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कोविड-19 के दुष्प्रभाव से शिथिल हुई समस्त सामाजिक एवं सार्वजनिक गतिविधियों के कारण इस वर्ष ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ पर कोई सार्वजनिक आयोजन संभव नहीं हुआ। तदापि इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस का ध्येय सूत्र था ‘‘प्रकृति को अवसर दें।’’ पर इस विषय पर जन साधारण के स्तर पर इस दिवस पर कोई सार्थक अभियान संभव नहीं हो पाया। पर भारत सरकार पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ‘‘प्रकृति और जैव विविधता’’ को प्रोत्साहन के आह्वान के साथ इस दिवस का आयोजन किया। प्रत्येक वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस का आयोजन किसी एक ध्येय सूत्र को समक्ष रखकर किया जाता है, जिसका उद्देश्य पर्यावरण संबंधी उस ज्वलंत समस्या के प्रति विश्व समुदाय का ध्यान आकृष्ट करना एवं विशेषकर समस्त राष्ट्रों की सरकारों को उस लक्ष्य के प्रति सचेत करना अवश्य है।
इस ध्येय सूत्र में प्रकृति को अवसर देने को कहा है। किन्तु मानव अपने विकास की हड़बड़ी में प्रकृति को कोई मौका नहीं देना चाहता और यही द्वंद अत्यंत हृदय विदारक परिस्थितियां उत्पन्न कर रहा है। हमने प्रकृति के समस्त आयामों के साथ गंभीर छेड़खानी पैदा कर, अनेकों उन प्राकृतिक चक्रों को ध्वस्त कर दिया है, जो मानव को स्वतः सुरक्षा एवं सुख प्रदान कराते थे। यथा वनों की कटाई कर हमने वायुमंडलीय संतुलन को बिगाड़ दिया, भूमिगत जल दोहन प्रक्रिया को ध्वस्त कर दिया, मृदा के कटाव को तेज कर दिया, जैव विविधता एवं वानस्पतिक विविधता को क्षत-विक्षत कर दिया। पर इतना करने के बाद भी हमारी सभ्यता विराम नहीं ले रही है- प्रकृति पर प्रहार पर। किन्तु प्रकृति भी अपना स्वतः उद्धार करने को उद्यत है। तदैव कोविड-19 जैसी महामारी को संप्रेषित कर रही है? या बाढ़, भूकम्प, दावानल का सृजन कर रही है। पर जिस भी माध्यम से प्रकृति अपने उद्धार का मार्ग प्रशस्त करना चाहती है, मानव उस मार्ग में रोड़े अटकाता है और यही द्वंद दुखदायी सिद्ध होता है।
कोविड-19 के लाकडाउन 1 से 2 के दौरान जब समस्त औद्योगिक एवं सार्वजनिक गतिविधियां रोक दी गई थी, तो प्रकृति ने अपने आप को पुनःउद्धारित करते हुए, आकाश की पारदर्शिता, नदियों की निर्मलता, पहाड़ों की पवित्रता, वनों की सुरम्यता, जैव (प्राणी) विविधता का भव्यता का बोध कराया था। सैकड़ों किलोमीटर दूर पंजाब के गांवों से हिमालयीन श्रृंखला के उतुंग शिखरों के दर्शन हो रहे थे। आनंद में पशु-पक्षी नगरों में विचरण कर रहे थे। एक अभयता की स्थिति प्रकृति के उपदानों को प्रतीत हो रही थी। पर आर्थिक दुष्चक्र की विवशता ने पुनः मानवीय पथिक को उसी पाथेय में पद बढ़ानों को बाध्य कर दिया है। परिणामतः जिस जैव विविधता संरक्षण एवं पर्यावरण संरक्षण के आह्वान के लिए हम विश्व पर्यावरण दिवस पर चिंतन कर रहे थे, वह फिर नेपथ्य में चला गया है।
सरकारों का भ्रम यह है कि कानून और दंड के मार्ग से वे एक धारणीय विकास को सुनिश्चित कर सकते हैं। पर भारत जैसे देश में जब यह सिद्ध हो चुका है कि 95 प्रतिशत लोग या तो कानून को समझते नहीं हैं, या समझते हुए भी समझना चाहते नहीं हैं या कानून की कोई परवाह नहीं करते, तो ऐसी स्थिति में केवल दंड और भय के मार्ग के सहारे हमारे प्रकृति को परास्त होते रहने देना बुद्धिमानी नहीं है। भारत में पर्यावरण कानूनों का प्रादुर्भाव 1974 के आसपास लगभग 45 वर्षों पूर्व हुआ था। उस दौरान के कानूनों में और आज के कानून में काफी कठोरता तो अवश्य आई है, पर इसके बावजूद प्रदूषण के स्तरों में वह नियंत्रण नहीं है और न ही पर्यावरण संरक्षण का वह मुकाम हासिल हुआ है, जिसकी अपेक्षा थी और है। जबकि हजारों लोग इन कानून का दंड लेकर अरबों रूपयों को व्यय कर व्यवस्था संचालन कर रहे हैं। पर फिर भी अपेक्षित परिणाम नहीं आ रहे हैं। तदैव इस व्यवस्था पर पुनःविचार करने की अवश्यकता है। केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी, अनेकों उद्योगपतियों एवं अर्थशास्त्रियों जैसे लोग जहॉं पर्यावरण कानूनों को विकास में बाधक मानते हैं, वहीं नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल एवं सुप्रीम कोर्ट तथा हाईकोर्ट और तमाम अशासकीय संगठन वर्तमान पर्यावरण कानूनों को पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण नियंत्रण एवं जैव विविधता संरक्षण में अपर्याप्त एवं अप्रभावी मानते हैं। जबकि पर्यावरण कानूनों के सहारे पूरे देश में, राज्यों में और हरेक जिला स्तर पर एक भारी-भरकम प्रशासकीय अमला लगा हुआ है, जो रात-दिन अपनी ओर से श्रेष्ठतम प्रयास भी कर रहा है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडलों, राज्य प्रदूषण नियंत्रण मंडलों, पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय तथा उनकी संचालित विशेषज्ञ समितियों में शामिल इंजीनियरों एवं वैज्ञानिकों में 10 हजार लोगों से अधिक की टोली लगी हुई है। पर ये सारे लोग उद्योगों, खदानों एवं विकास की गतिविधियों का कानूनी प्रमाण पत्रों के द्वारा या दंड के माध्यम से संरक्षण करने के कार्यों हेतु निहित किए गए हैं। पर विकल्प में यदि ये सारे लोग अपनी ऊर्जा से दंड को सिद्ध करने के स्थान पर समाधान को सिद्ध करने में लगाए जावें, तो शायद जो काम 70 वर्षों में नहीं हो पाया, वह एक साल में हो सकता है। अस्तु, आशय यह है कि इन इंजीनियरों एवं वैज्ञानिकों को, जिन्हें 45 वर्षों का संरक्षण का तकनीकी अनुभव एवं ज्ञान है, उसे यदि सरकार उद्योगों एवं विकास गतिविधियों में व्याप्त प्रदूषण की ओर पर्यावरण क्षय की समस्या के तकनीकी निदान के मार्ग को सुनिश्चित करने, उसे निष्पादित करने हेतु निहित करे, तो दंड का आयाम कम होगा और एक द्वंद के स्थान पर सार्थक सुखद स्थिति का सृजन होगा।
आज वैश्विक अर्थव्यवस्था में और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में चीन के बढ़ चुके वर्चस्व से मुक्ति पाने के लिए भी यह अत्यंत अनिवार्य है कि पर्यावरण संरक्षण कानूनों को त्वरित, सार्थक, सुलभ एवं सस्ता बनाया जाए। वर्तमान स्वीकृतियों की प्रक्रिया इतनी दुरूह एवं जटिल है कि कोई भी उद्यमी उसे देखकर ही हतोत्साहित हो जाता है। बहुत सारे अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों में इसी कारण से भारत में निवेश करने में भी अरूचि और संकोच उत्पन्न होता है। जबकि ऐसे अनेकों उद्योग हैं, जिन्होंने सफलतापूर्वक उन तकनीकियों को अंगीकृत किया है, जिससे वायु प्रदूषण 30 मिलीग्राम/घनमीटर से कम धूलकण तथा गैसीय प्रदूषण का नियंत्रण संभव हुआ है। ठोस अपशिष्ठों का संपूर्ण समाधान हुआ है। ध्वनि स्तर को सफलतापूर्वक नियोजन किया गया है। ऐसे उदाहरणों के समक्ष रख कर समाधान का मार्ग प्रशस्त करने का दायित्व इस तकनीकी रूप से सक्षम समूह को दिया जा सकता है।
समय की मांग है कि सरकार पर्यावरण संरक्षण के दायित्व में लगे लोगों के वैज्ञानिक क्षमता एवं अनुभव के साथ उद्यमियों एवं उद्योगपतियों के संकल्प पर विश्वास करे। साथ ही उद्यमियों एवं नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण की प्रक्रिया में सार्थक भूमिका निभाने के लिए आहूत करे। अनुभवों की पूॅंजी का सदुपयोग कर कानूनी दंड एवं भय से मुक्त करते हुए देश के पर्यावरण को संरक्षित रखते हुए विकास को तेज करे।
जैव विविधता संरक्षण की तरह ही संकल्प विविधता की शक्ति से एक सामान्य लक्ष्य- पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण मुक्ति का संभव हो सकता है। जिस प्रकार हमें प्रकृति को अवसर देना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार हमें उद्यमियों एवं उद्योग जगत को भी पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण नियंत्रण हेतु अवसर देना आवश्यक है।
संपादक