ऐसा लगता है कि संपूर्ण मानव सभ्यता आर्थिक समृद्धि के दुष्चक्र में फंस कर प्रकृति द्वारा प्रदत्त पर्यावरणीय समृद्धि को लगभग समाप्ति की ओर तेजी से अग्रसित है। आर्थिक समृद्धि की मृगमरिचिका इतनी भयावह है कि विद्वान से विद्वान चिंतक को भी पहले तो यह समझाना या समझना बहुत ही जटिल है कि धारणीय विकास के माध्यम से वह आर्थिक समृद्धि को बनाए रखते हुए प्राकृतिक पर्यावरणीय समृद्धि को अक्षुण कैसे रखे रह सकता है? और यदि समझ में आ जावे कि यह शायद संभव ही नहीं है, तो फिर उस सत्य पर विष्वास कर आर्थिक समृद्धि से मुंह मोड़ना तो बहुत मुष्किल है, और साथ ही कृत्रिम ऊर्जा भोगी साधनों से सृजित क्षणिक भौतिक सुखों के भोग को त्यागना तो और भी जटिल है। इस कुचक्र की उत्पत्ति का मूल स्त्रोत उपभोग आधारित अर्थ व्यवस्था है और लोगों का यह अंध विष्वास की पैदा तो उपर वाला करता है तो खाने पकाने का इंतजाम भी वही करता है। इस कथन के लिए उदाहरण दिया जाता है कि पत्थरों के बीच पनप रहे किसी सूक्ष्म जीव का भी पेट वह ऊपर वाला भरता है। पंडितों, कथाकारों एवं उलेमाओं का यह तपसरा तो सुनने में शायद गलत न लगे और गलत है भी नहीं। पर इंसान सही मायनों में तो उपरवाले पर शायद ही इतना भरोसा करता है कि वह अपने न्यूनतम भरण पोषण के लिए प्रकृति द्वारा प्रदत्त निःषुल्क संसाधनों से ही संतुष्ट हो सकें। उसे यदि विष्वास हो तो भोगवादी कुकृत्यों से प्रकृति और पर्यावरण को तबाह करना बंद करके, उसकी दया या रहम का इंतजार करे, कि उपर वाला उसके खाने रहने का भर इंतजाम कर दे और वह रहने खाने के अलावे कुछ और संचय न करे। पर सच यह है कि पृथ्वी में मौजूद 84 लाख योनियों में मनुष्य ही एकमात्र जीव है जिसके लिए प्राकृतिक आवास एवं भोजन का संकट है, जबकि प्रकृति ने मनुष्यों के लिए भी न्यूनतम आवश्यकता के लिए तो भरपूर दिया है। पर उसके लोभ और लालच की पूर्ति के लिए ही संसाधन कम पड़ रहे हैं। इंसान जब एक बार जन्म ले लेता है और जैसे ही वह सक्षम हो जाता है तो वह अपने वर्तमान में अधिक से अधिक उपभोग और भविष्य में अधिक से अधिक उपभोग की व्यवस्था के लिए धन का संचय तेजी से आरंभ करता है।
जन्म से लेकर आज तक जिन घटनाक्रमों से वर्तमान पीढ़ी का साक्षात्कार हो रहा है उससे तो उसे यही प्रतीत होता है कि आर्थिक संसाधनों की शक्ति से ही वह अपने वर्तमान एवं भविष्य को सुरक्षित कर सकता है और इन आर्थिक संसाधनों को संचय करने में प्रकृति तथा पर्यावरण का कितना विनाष कर रहा है और उस विनाष से उसके वर्तमान तथा भविष्य और आने वाली पीढ़ी पर क्या खतरा उत्पन्न हो रहा है या हो चुका है उसका न तो कोई ज्ञान है और न संज्ञान है और न ही उसे ग्रहण करने को वह तत्पर ही है। उदाहरण हमारे सामने एक नहीं लाखों है और एक दो दिनों के नहीं बरसों-बरस के और एक दो जगह नहीं पूरी पृथ्वी के उदाहरण हंै, पर इन सबका हवाला देने के लिए कुछ पन्ने पर्याप्त नहीं है, अपितु लाखों पन्ने भी कम पड़ जावेंगे। फिर भी कुछ के उदाहरण तत्काल स्मृति में मेरे भी है और आपके भी होंगे, उसमें से भारत की राजधानी दिल्ली की वायु गुणवत्ता, जल गुणवत्ता, शोर का स्तर, जनसंख्या का धनत्व, कचरों के ढेर, भूमिगत जल स्तर, ट्राफिक जाम, पार्किंग संकट, विषाक्त फल, भोजन, अन्न आदि में से किसी को भी ले लें और उनके साथ ही सामान्य नागरिकों के स्वास्थ्य के स्तर का मूल्यांकन कर लें तो आपको सहज स्पष्ट होगा-दिल्ली की हवा दुनिया में सबसे जहरीली, यमुना का पानी दुनिया में सबसे खतरनाक, कचरों के ढेर हिमालय की ऊंचाई का आभास देने वाले पहाड़ जैसे दुनिया में सबसे ऊंचे, सर्वाधकि सघन जनसंख्या घनत्व में जीने वालों में ज्यादातर लोग उच्चरक्त चाप, मधुमेह, कैंसर, अस्थमा से पीड़ित हैं। पर भी दिल्ली के लोगों की आर्थिक समृद्धि में पिछले पचास वर्षों में जबरदस्त इजाफा हुआ है। करोड़पतियों एवं अरबपतियों की संख्या में निष्चित रूप से वृद्धि हुई है और हो रही है। पर जब इतनी आर्थिक समृद्धि हुई है तो फिर इतनी पर्यावरणीय समस्याएं क्यों है?
क्या पैसों की कमी है? या फिर विद्या या तकनीकी की या फिर कानून की या फिर संसाधनों की या फिर सोच की या संस्कारों की? कुछ तो अवष्य कम है जिसके कारण से दिल्ली का पर्यावरण पुरी तरह से दुखद स्थिति में हैं और यह केवल दिल्ली में ही नहीं पूरे देष के लगभग सभी महानगरों में है। इन समस्याओं पर बहस प्रतिदिन हो रही है पर सार्थक समाधान समक्ष नहीं आ रहा है क्यों? और यदि हम स्थानीय प्रदूषण की बात पर थोड़ी देर के लिए विराम दे दें और दिल्ली या भारत से बाहर निकले और पर्यावरणीय क्षतियों पर दृष्टिपात करें तो भी यह स्पष्ट होता है कि पूरी पृथ्वी बढ़ते हुए हरितकारी गैसों से पूरी तरह तप रही है, और इस तपन में बढ़ोत्तरी के खतरनाक परिणाम नित्य दिख रहे है। अभी हमें मूसला धार वर्षा के रूप में स्पेन में 29 अक्टूबर 2024 को वलेंसिया (टंसंदबपं) नामक शहर में दिखाई पड़े, जहां 8 घंटे में इतना पानी बरस गया, जितना की साल भर में शायद नहीं बरसता हो। परिणाम पूरा शहर पानी के प्रताप से जल प्रलय की स्थिति में आ गया था हजारों गाड़ियां पानी में कागज की नाव की तरह तैर कर बह रही थी सैकड़ों मकान ताष के पत्तों की तरह बह रहे थे। सैकड़ों मासूम लोग मौत के हवाले हो गए। अभी इस विनाश से लोग उबरे भी नहीं थे कि 8 नवम्बर को गिरोना में भी बरसाती बाढ़ आ गई। जबकि स्पेन आर्थिक रूप से समृद्धि और तकनीकी और औद्योगिक रूप से विकसित राष्ट्र है, वहां के सामान्य नागरिक भी प्रकृति तथा पर्यावरण के प्रति ज्यादा सजग हैं। फिर भी यह कैसे हुआ? क्यों हुआ?
अमेरिका में हाल में फ्लोरिडा में ट्रापिकल तूफान मिनोल्टा ने भी गेन्स विल, टैम्पा आदि शहरों में भयंकर तबाही मचाई, ऐसे ही ट्रापिकल तूफान और चक्रवातों की आवृत्ति भी अमेरिका में काफी तेजी से बढ़ी है और विष्व का सर्वोच्च समृद्धि का देष अमेरिका जो धन संपन्न है, विज्ञान संपन्न है, तकनीकी का बादषाह है, फिर भी इन कुदरती खतरों के सामने लाचार दिखाई देता है।
इसी प्रकार से हम पाते है कि न्यूयार्क, न्यूजर्सी में इस बरस सूखा सा पड़ा हुआ है। वर्षा की आवृत्ति बहुत कम है। इन घटनाओं की पृष्ठ भूमि में हम यदि पर्यावरणीय खुर्दबीन से दुनिया के किसी भी भू-भाग पर दृष्टिपात करें तो हम पाते है कि कहीं बाढ़ है तो कहीं सूखा तो कहीं बर्फ ज्यादा गिर रहा है तो कहीं गर्मी इतनी ज्यादा हो गई है कि जंगलों में आग लग रही है, जंगल धधक रहे हैं। पर प्रष्न यह है कि यह हो क्यों रहा है और इसके निदान क्या हैं? समाधान क्या हैं?
इस प्रष्न पहेली के हल पर चिंतन करने पर समझ में यह आता है कि पर्यावरण तथा प्रकृति पर प्रहार कर आर्थिक समृद्धि सृजन करने वाले लोगों को प्रकृति पर्यावरण पर किए जाने वाले उस आघात का सीधा कोई भी आर्थिक नुकसान या पर्यावरणीय नुकसान या संसाधनीय नुकसान नहीं पहुंचता है, अतः ऐसी क्षति की पीड़ा उन्हें नहीं होती है, और न ही उन्हें इससे उत्पन्न क्षतियों का स्पष्ट आभास होता है। अपितु ऐसे आघातों का दुष्परिणाम शनैः शनैः संचित होकर स्थानीय दुष्प्रभाव के साथ-साथ पूरी पृथ्वी पर तथा वैष्विक पर्यावरण पर पड़ता है और जिसके दुष्प्रभावों से निपटने के लिए जो भौतिक संसाधन या तकनीकी या उपकरण या ऊर्जा की जरूरत होती है उसे प्राप्त करने के लिए दुष्प्रभावित लोगों को भी अर्थ या धन की आवष्यकता होती है फलस्वरूप धन संपन्न लोग अपने आप को इन दुष्प्रभावों से सुरक्षित करना संभव कर लेते हैं। कुचक्र के प्रभाव से ग्रस्त शेष धन विपन्न लोग, इन दुष्प्रभावों से मुक्ति पाने के मार्ग में आवष्यक धन पाने के लिए प्रकृति और पर्यावरण की तबाही की परवाह किए बिना दिन रात धन सृजन के पर्यावरणीय घातक मार्ग में लग जाते हैं। यह कुचक्र ऐसा ही चल रहा है और इसे रोकने के लिए भले ही कितने ही कानून बना दिए गए हंै, पर कानूनों के पहाड़ों के नीचे आम आदमी अपने आप को फंसा हुआ दबा हुआ पाता है। राहत कितनी मिलती है यह दिल्लीवासियों के दुःखों से दिख रहा है।
विसंगति यह है कि प्रत्येक कानून के पालन के लिए आवष्यक पैसों की व्यवस्था करने के लिए फिर से प्रकृति और पर्यावरण को ही पीसा जाता है। इस कुचक्र को तोड़ने का एक ही मार्ग है, उपभोग में नियंत्रण, उपभोग में कमी और ऐसा करने के लिए जनसंख्या नियंत्रण एवं उपभोगवादी संस्कारों को त्यागना भी बहुत जरूरी है। इस पृथ्वी पर भले ही सारे देषों में एक ही जाति या एक ही धर्म और एक ही भाषा के लोग ही क्यों न हो जावे, फिर भी अषांति तब तक दूर नहीं होगी, युद्ध तब तक नहीं रूकेंगे जब तक कि प्रकृति और पर्यावरण के पुनः सृजन की क्षमता और इस मानव सभ्यता के उपभोग की मात्रा के बीच में संतुलन न पैदा हो जावे। आज पृथ्वी पर मनुष्य विज्ञान तथा तकनीकी के माध्यम से निष्चित रूप से आष्चर्य जनक कृत्यों को संपादित कर रहा है पर हमें इसकी सीमा को स्वीकार करना होगा। स्थानीय स्तरों पर प्रदूषण नियंत्रण एवं वैष्विक तापमान में वृद्धि को रोकने के लिए जन सामान्य में, बच्चों में, युवा में, बूढ़ों में जन जागृति लाना जरूरी है। इसलिए पर्यावरण तथा प्रकृति पर व्याप्त खतरों एवं इनके समाधान के मार्ग के ज्ञान तथा साहित्यों को सरल हिंदी भाषा एवं अन्य सभी भाषाओं में प्रकाषित, प्रसारित एवं प्रचारित करना जरूरी है लोगों को षिक्षित और प्रषिक्षित करना जरूरी है।
-संपादक