प्रदूषण नियंत्रण हेतु भूमिका में बदलाव जरूरी

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वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था कृषि आधारित से सरककर लगभग पूर्णतया उद्योग आधरित हो गई है। जिसका आरंभ ब्रिटेन और यूरोप में लगभग 1760 ईस्वी से हुआ था एवं कालांतर में इसका विस्तार संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ। इस औद्योगिक क्रांति की अवधि 1820 से 1840 को भी माना जाता है। औद्योगिक निर्माण गतिविधियों का आरंभ जब हुआ, उस दौरान कोयले को जलाकर ही ज्यादातर निर्माण प्रक्रिया संपादित होती थी। जिससे निकलने वाले धुओं के उत्सर्जन के लिए मोटी-मोटी, ऊॅंची-ऊॅंची चिमनियां ही एकमात्र विकल्प थी। चूॅंकि धुओं में व्याप्त प्रदूषण तत्वों को रोकने के उस समय कोई सार्थक तकनीकी उपकरण या उपाय नहीं थे। उसी प्रकार कारखानों से जहरीले धुओं के साथ गंदा जहरीला पानी भी निकलना एक आम बात थी। कारखानों से नाना प्रकार के ठोस अपशिष्ठ और कचरों का भी उत्सर्जन होता ही था। इस सभी प्रकार के प्रदूषक तत्वों की उत्पत्ति को कम करने एवं इनके समाधान की पर्याप्त तकनीकियां उपलब्ध नहीं थीं। तदैव वायुमंडलीय प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूमि प्रदूषण एवं ध्वनि प्रदूषण काफी स्पष्ट और साक्षात होता था। किन्तु उस शताब्दी में पूरी पृथ्वी पर मानव जनसंख्या भी ईस्वी 1850 तक तो केवल 120 करोड़ ही थी। उस युग में प्रति व्यक्ति ऊर्जा का उपभोग एवं अन्य सुख-सुविधाओं हेतु साधनों का उपभोग भी बहुत कम था। तदैव, अनियंत्रित प्रदूषणकारी उद्योगों के संचालन का गंभीर दुष्प्रभाव शायद मानव जीवन एवं पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी पर नहीं पड़ता रहा हो।
किन्तु, वर्तमान युग में जब वर्ष 2020 तक पृथ्वी की जनसंख्या लगभग 780 करोड़ पहुॅंच चुकी है, तो 56 प्रतिशत लोग नगरीय बसाहट में रह रहे हैं। वहीं प्रति वर्ग किलोमीटर जनसंख्या का घनत्व 8 व्यक्ति से बढ़कर 52 व्यक्ति तक पहुॅंच चुका है, प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपभोग एवं अन्य सुख-सुविधाओं के उपभोग में भी कई-कई गुना अधिक वृद्धि हुई है। परिणामतः बढ़ती जनसंख्या के साथ मानव की बढ़ते उपभोग के साथ अर्थव्यवस्था का स्वरूप कृषि आधारित न होकर उद्योग आधारित हो चुका है। तदैव, विश्व के समस्त देशों में औद्योगिक उत्पादन की होड़ मच गई है।
अमेरिका, यूरोप एवं जापान जैसे देशों ने अपने औद्योगिक उत्पादन में श्रेष्ठता को वर्ष 1980-1990 के दशक तक बनाए रखा। इसी दौरान बढ़ते प्रदूषण के दुष्प्रभावों को देखते हुए इन विकसित देशों ने अपने यहॉं प्रदूषणकारी उद्योगों को विकासशील देशों में स्थानांतरित करना ज्यादा हितकारी पाया। वहीं आजादी के बाद भारत में भी औद्योगिक गतिविधियों को तेज करने के प्रयास हुए। किन्तु, 1980 के दशक में चीन ने जब अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व समुदाय के निवेश के लिए मुक्त किया तो औद्योगिक उत्पादन को वृद्धि करने हेतु किसी भी प्रकार के प्रदूषण के दुष्प्रभावों को पूरी तरह से अनदेखी करते हुए अपने यहां उत्पादन बढ़ाने की होड़ लगा दी। परिणामतः सैकड़ों की संख्या में मिनी सीमेंट प्लांट, मिनी ब्लास्ट फर्नेस, कागज कारखानों की बाढ आई, जिनसे उत्पन्न धूल-धुएं से वहॉं का आसमान काला हो जाता था, जन-जीवन बुरी तरह दुष्प्रभावित हो गया था, नदियों, नालों का पानी काला, जहरीला हो जाता था। पर, चीनी सरकार ने फिर भी इन उद्योगों की स्थापना को अवरूद्ध करने की बजाए, उन्होंने अपने उद्योगों में प्रभावशाली प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों की स्थापना और संचालन को सर्वोच्च प्राथमिति दी। सभी इंजीनियरिंग कालेजों एवं तकनीकी संस्थाओं को वायु एवं जल प्रदूषण नियंत्रण उपकरण यथा ईएसपी, बैग फिल्टर, जल उपचार संयंत्र इत्यादि के निर्माण हेतु तकनीकी विकसित कर, उसे उद्योगों तक पहुॅंचाने का जिम्मा दिया। फलतः वर्ष 1992 में आसमान में जहॉं घनघोर प्रदूषण हुआ करता था, उन औद्योगिक क्षेत्रों में वर्ष 2000 तक लगभग नगण्य प्रदूषण दिखने लगा। वहीं चीन सरकार ने यह भी पाया कि पर्यावरण घात एवं प्रदूषण को जितना बड़ा स्रोत उद्योग है, उससे ज्यादा मानवीय जनसंख्या भी प्रदूषण का कारण है। वहीं पर्यावरणीय संसाधनों की उपलब्धता भी सीमित है। तदैव औद्योगिक उत्पादकता को सक्षम एवं प्रतिस्पर्धी बनाए रखते हुए अर्थव्यवस्था के विकास को पर्यावरण पर कोई दुष्प्रभाव होने से बचाने हेतु सम्पूर्ण जनसंख्या नियंत्रण का संकल्प लिया, और उसके अनुरूप कानून बना कर देश को, पर्यावरण को, जनसंख्या वृद्धि के दबाव से मुक्त कर लिया।
आज जब भारत देश की जनसंख्या 135 करोड़ पहुॅंच चुकी है और कृषि अर्थव्यवस्था से इतने लोगों को सुखमय जीवन देना संभव नहीं है, तदैव आवश्यक है कि भारत को भी अपने औद्योगिक विकास को तीव्रतम गति दिया जावे। केन्द्र सरकार इस दिशा में भरसक प्रयास भी कर रही है। पर 30 साल से ज्यादा पुराने समय में विसंगति परिस्थितियों में वर्तमान पर्यावरणीय कानून जिन भावनाओं एवं परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विकसित हुई थी, वे यद्यपि आज बदल चुकी है, पर उसके कारण उत्पन्न अवरोध इन कानूनों को गतिशील नहीं होने दे रहे हैं।
यह अत्यंत चिंता का विषय है कि वर्ष 1994 में जारी ईआईए अधिसूचना को वर्ष 2006 में जब संशोधन किया गया था, उस समय में भी उसमें व्याप्त उन खामियों को दूर नहीं किया गया, जिनसे कि वह पर्यावरण संरक्षण हेतु प्रभावशाली भूमिका निभा सके। और आज जब 2020 के संशोधन में ऐसी कोशिश हो रही है, तो भी उन पूर्वाग्रहों से नीति निर्धारक अपने आपको मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। जबकि वर्तमान वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास ने ऐसे उदाहरण स्थापित कर दिये हैं कि हजारों मेगावाट के कोयला आधारित विद्युत संयंत्र की चिमनी की छाया में रहने वाले व्यक्ति को भी धूल, धुएं से परेशानी न हो। लाखों टन लोहा बनाने वाले ईस्पात संयंत्र के परिसर को लोगों ने बागवानी के स्वरूप सुखद दृश्य देखा है, तो लाखों टन/वर्ष सीमेंट बनाने वाले संयंत्रों में उपवन का दृश्य व्याप्त है। कागज कारखानों से, डिस्टलरियों से, ईस्पात संयंत्रों से कोई दूषित जल डिस्चार्ज नहीं हो रहा है। चिमनियों की प्रतिपल निगरानी हो रही है। वायुमंडल के गुणधर्मों की जांच के लिए ऑनलाइन मशीनें लगी हुई हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड सेंट्रल सर्वर से कैमरों के माध्यम से चिमनियों और दूषित जल नालियों के मुहानों की निगरानी हो रही है। वायु उत्सर्जन के मापदंड इतने कठोर हो गए हैं कि धूलकण 5000 मिलीग्राम/घनमीटर से घटकर 50 मिलीग्राम/घनमीटर रह गए हैं। जहॉं 1994 में  SOx, NOx, पारा उत्सर्जन पर कोई नियंत्रण सीमा नहीं थी वहॉं आज 2020 में नियंत्रण हेतु कठोर मापदंड हैं। सभी उद्योगों को 33 प्रतिशत ग्रीन बेल्ट लगाना है। शत-प्रतिशत ठोस अपशिष्ठों का वैज्ञानिक समाधान करना है। इस प्रकार से संचालनरत उद्योगों को आज पर्यावरण स्वीकृति प्राप्त करने के अलावे 43 ऐसे अन्य नियमों, अधिनियमों में अनुज्ञप्तियां एवं स्वीकृतियां लेना होती ही हैं, जिनमें भी उन्हीं सभी शर्तों का पालन अनिवार्य होता है, जो उद्योगों पर पर्यावरण स्वीकृति करने के समय अधिरोरित की जाती है।
पिछले लगभग 25 वर्षों के पर्यावरण स्वीकृतियों के दस्तावेजों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि जिन शर्तों के आधार पर पर्यावरण स्वीकृति दी जाती है, वे सभी शर्तें लगभग सभी उद्योगों पर एक समान हैं एवं एक तरह से सामान्य शर्तें (Standard Conditions) जिन्हें अन्य नियमों में भी रोपित किया ही जाता है। चाहे उस हेतु पर्यावरण प्रभाव अध्ययन एवं जन परामर्श अपेक्षित है या नहीं।
पर घोर विडम्बना है कि भारत सरकार का पर्यावरण मंत्रालय, उद्योग मंत्रालय एवं अन्य मंत्रालय तथा नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल्स भी इस सत्य को संज्ञान में नहीं ले पाए कि केवल एक पर्यावरण स्वीकृति पत्र जारी कर देने मात्र से ही पर्यावरण संरक्षित नहीं होता। अपितु, किसी भी गतिविधियों से उत्पन्न दुष्प्रभाव के नियंत्रण हेतु सार्थक एवं सक्षम उपाय आवश्यक हैं। वर्तमान तकनीकी एवं वैज्ञानिक युग में वह सब भलीभांति संभव है। अतः जब सम्पूर्ण भारत एक प्रकार से आर्थिक समर में युद्धरत है, जिसमें विजय हेतु औद्योगिक गतिविधियों को सर्वोच्च गति देना अनिवार्य है, तो ऐसे समय में किसी भी राजनैतिक अविश्वास के कारण इस प्राथमिकता को शिथिल करना देश हित में नहीं है।
चूॅंकि चीनी औद्योगिक इकाईयों ने न केवल भारत, अपितु विश्व के समस्त देशों के उद्योगों के समक्ष जीवित रहने की गंभीर चुनौती पैदा कर दी है। सस्ता श्रम, सस्ती बिजली, सस्ती भूमि, सस्ती पूॅंजी, सरल कानून, सहज प्रक्रियाओं की शक्ति में उन्होंने अपने उद्योगों की उत्पादकता अत्यंत विशालकाय कर लिया है। विज्ञान तथा तकनीकी के समस्त श्रेष्ठ मार्गों को अंगीकृत कर सभी स्वीकृति प्रक्रियाओं को तीव्र एवं दक्ष बना लिया है। चूॅंकि भारत में पूॅंजी के संकट के कारण एवं अकुशल श्रम के कारण उत्पादन मंहगा हो जाता है। ऐसे अनेकों उद्योग हैं, जो श्रेष्ठतम तकनीकी क्षमताओं के बावजूद विधिक व्यवधानों के सम्यक सम्यक आपूर्ति के अभाव में रूग्ण हो रहे हैं। अतः वैश्विक आर्थिक संग्राम में भारतीय उद्योगों को धारणीय और लाभदायी भी बनाना आवश्यक है।
हम अपने देश की संप्रभुता केवल सेना की सामरिक शक्ति भर से नहीं सुरक्षित रख सकते। अपितु इसके लिए हमे अर्थ सम्पन्न राष्ट्र भी बनाना आवश्यक है। इसके लिए तेज गतिमान औद्योगिक प्रगति भी चाहिए तो इनका स्वरूप धारणीय भी होना आवश्यक है। तदैव किसी भी पर्यावरण स्वीकृति प्राप्त करने हेतु आवश्यकता रखने वाली परियोजना को स्वीकृति के पूर्व विषय विशेषज्ञों की समिति द्वारा इसका गहन मूल्यांकन किया जाता है, जिसमें कुछ परियोजनाओं हेतु पर्यावरण प्रबंधन एवं आवेदन को आधार लिया जाता है। तो कुछ परियोजनाओं के लिए पर्यावरण प्रभाव आंकलन प्रतिवेदन एवं कुछ परियोजनाओं को जन परामर्श की अनुक्रिया के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है।
वर्तमान तकनीकी विकास एवं वैज्ञानिक उद्भव के इस युग में जहॉं भारत सरकार के पर्यावरण वन एवं मौसम परिवर्तन मंत्रालय, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल, राज्य प्रदूषण नियंत्रण मंडल, विषय विशेषज्ञों, नीरी, आई.आई.टी., एनआईटी, इंजीनियरिंग कालेजों में इतना विशाल ज्ञान एवं तकनीकी तथा अनुभव उपलब्ध है कि किसी भी परियोजना से हो रहे दुष्प्रभावों को सटीक आंकलन कर नियंत्रण के उपाय निरूपित कर निष्पादित किए जा सकते हैं। तदैव, इस औद्योगिक विकास के संग्राम को निर्बाध एवं पर्यावरण प्रिय ऊर्जा दक्ष एवं रोजगार परक करने हेतु भारत सरकार तथा राज्य सरकारों को और इनके द्वारा संचालित समस्त विभागों तथा प्रदूषण विभागों को अपनी भूमिका को बदलकर केवल नियामक और नियंत्रक के स्थान पर तकनीकी मार्गदर्शक और प्रोत्साहक का स्वरूप अंगीकृत करना चाहिए। ताकि इस प्रकार के सभी अपेक्षित स्वीकृतियों को निर्बाध ढंग से द्रुतगति से स्वीकृत कर देश की तेज औद्योगिक प्रगति धारणीय स्वरूप में संभव हो सके। आशा है कि भारत सरकार एवं नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल द्वारा इस दिशा में सार्थक कदम शीघ्र लिए जावेंगे।
संपादक