वर्तमान में नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के विपक्ष में एवं पक्ष में सम्पूर्ण भारत उद्वेलित है, तो चीन में फैले कोरोना वायरस के आतंक से सम्पूर्ण विश्व उद्वेलित है। वस्तुतः दोनों समस्याओं के पटल पूर्णतया भिन्न हैं। किन्तु यदि दार्शनिक विश्लेषण के मार्ग से विवेचना की जावे तो शायद यह निष्कर्ष निकले कि दोनों ही समस्याओं के मौलिक रूप से मूल में विस्फोटक हो चुकी जनसंख्या की परिणिति से उत्पन्न समृद्धि संकट और पर्यावरणीय संकट ही है। भारत में नागरिकता संशोधन अधिनियम को वस्तुतः इसलिए लागू करना पड़ा ताकि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक आधार पर पीड़ित हो रहे लोगों को अपने पुरखों के मौलिक देश भारत में नागरिकता दी जा सके। परन्तु जब भी प्रश्न यह उठता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में ऐसा धार्मिक उत्पीड़न क्यों हो रहा है, तो इसके भी मूल में जाने पर यह पाया जावेगा कि उन देशों के प्राकृतिक संसाधनों की क्षमता से कई गुना ज्यादा विस्फोटक हो चुकी वहॉं की जनसंख्या के दुष्परिणिति में ही ये जातीय संघर्ष उत्पन्न हो रहे हैं, जो वर्तमान में भले ही धार्मिक आधार पर हों, पर भविष्य में उन्हीं धर्मावलंबियों के बीच अन्य आधार पर संसाधनों हेतु संघर्ष पैदा कर सकता है। चूॅंकि मानव सभ्यता के आरंभ से आज तक संघर्षों की गाथा में जाने पर मौलिक कारण तो संसाधनों के अभावों से उत्पन्न संकट के कारण, अस्तित्व का संघर्ष ही रहा है। भले ही उसका आधार जाति बना हो या धर्म या देश।
पर वैश्विक समृद्धि के सृजन पर अपना राजनैतिक अधिकार बनाए रखने हेतु चीन द्वारा रचित एक क्रांतिक षडयंत्र के नियोजन की विफल परिणिति है, कोरोना वायरस? जिसकी परिणति आज समस्त विश्व के राष्ट्राध्यक्षों को इस चिंतन पर विवश करती है कि जिन महासंहारक रासायनिक या आणविक या जैविक हथियारों का जखीरा उन्होंने इकट्ठा किया है, उसके प्रयोग से यदि विनाश की लीला आरंभ होगी तो उसके दुष्प्रभावों की क्या दुष्परिणिति होगी? और क्या कोई उससे किसी को बचा पाएगा? अस्तु, इनका मानवहित में क्या प्रयोजन है?
यद्यपि राजनैतिक चिंतन या विश्लेषण हमारी पत्रिका का विषय नहीं है, किन्तु समाज के सौहार्द्रपूर्ण पर्यावरण में उत्पन्न हो रहे संकट के समाधान की अपेक्षा में यह लघु निष्कर्ष प्रस्तुत है। हमारी सोच है कि भारतीय भूभाग एक प्राकृतिक परिवेश से पोषित, प्रफुल्लित प्रकृति के परिणाम की परिस्थितिकी से बना देश है। जिसमें प्रचुर प्राकृतिक प्रसाद के कारण सौहाद्रता एवं उदारता स्वाभाविक ही रचती-बसती थी। तदैव, भारतीय संस्कृति में ‘सर्वजन-सुखाय-सर्वजन हिताय’, ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ की भावना प्रारंभ से भरी हुई थी। तदैव यही भावना इसकी संस्कृति का मूलाधार बन गई है। वहीं रेगिस्तानी क्षेत्रों के देशों में तीक्ष्ण/भीषण प्रकृति पूरी तरह से प्रखरता से और प्रचंडता से संसाधनों से विपन्न थी। फलतः जीवन के लिए अनिवार्य एवं सुलभ संसाधनों के अभाव में वहॉं की संस्कृतियां अत्यंत दुरूह, स्वार्थमयी एवं द्वंदपूर्ण तथा हिंसात्मक रहीं थीं। अस्तु, दोनों ही क्षेत्रों के भौगोलिक परिदृश्यों में तथा पर्यावरणीय संसाधनों के परिदृश्य में व्याप्त विषमता के कारण या फिर पुरखों के सांस्कृतिक धरोहरों के कारण विभिन्नता के कारण विश्व कल्याण के और मानव कल्याण के दर्शन पर काफी मतांतर स्पष्ट देखा जा सकता है। शायद यही कारण है कि भारत में पनपी संस्कृतियों में तथा अरब से उपजी संस्कृति में कभी कोई सामंजस्य उत्पन्न नहीं हो पाया है। पर, आज जब सम्पूर्ण भारत में जनसंख्या दबाव के कारण संसाधनों के संकट से उत्पन्न हो रही अव्यवस्था से निजात पाने के लिए सरकार कानूनी प्रयास कर रही है तो जनता के बीच नाना प्रकार से उत्पन्न किए जा रहे भ्रमों से विषाद की स्थिति बन रही है। अस्तु ऐसे सभी राजनैतिक समस्याओं के स्थानीय समाधान का भी मार्ग वस्तुतः जनसंख्या वृद्धि पर सम्पूर्ण नियंत्रण के द्वारा ही संभव है। वहीं इसके साथ ही पर्यावरण को दुष्प्रभावित किए बिना धारणीय विकास के मार्ग द्वारा सृजित विकास भी इस संघर्ष को कम कर सकता है।
विडम्बना यह है कि राजनैतिक पटल पर दीर्घकालिक मुद्दों के आधार पर नागरिकों के द्वारा मत व्यक्त नहीं किया जाता। इसलिए सर्वदा शीघ्रकालिक एवं त्वरित प्रतिक्रिया उत्पन्न करने वाले मुद्दों पर ही राजनीतिक ध्रुवीकरण होता है। अन्यथा अभी हाल ही में संचालित हो रहे दिल्ली के चुनावों में स्वस्थ एवं स्वच्छ पर्यावरण तो सबसे बड़ा मुद्दा होना था, पर था कहीं भी नहीं? न तो सत्ता पक्ष और न ही विपक्ष और न ही निष्पक्ष लोगों ने इसे कोई मुद्दा बनाया?
यह अत्यंत विडम्बना की बात है कि दुनिया की सबसे जहरीली हवा में जीने वाले 2.5 करोड़ लोगों को आज तक स्वच्छ हवा और शुद्ध जल और नगरीय कचरा मुक्त, ट्राफिक जाम मुक्त जीवन की गारंटी कोई चुनावी मुद्दा नहीं है। किसी भी संवाद माध्यम में यह चर्चा नहीं है कि पर्यावरण के जो आयाम 2.5 करोड़ लोगों के जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं, उन्हें नहीं छूकर, कुछ अस्पतालों के निर्माण से या कुछ स्कूलों के निर्माण से कितने लोगों का, कितने समय तक भला हो सकता है? मेरी समझ से परे है कि यह क्यों लोगों कि समझ में नहीं आता कि मुफ्त बिजली से जो 1000-2000 रूपए प्रति परिवार का लाभ वे ले रहे हैं, यदि उस धन का निवेश पर्यावरण सुधार हेतु, वायु प्रदूषण नियंत्रण हेतु या जमुना जल दूषण समाप्ति हेतु कर दिया जावे, तो प्रति व्यक्ति लाभ उससे दुगुना क्या चौगुना हो सकता है। मेरी समझ में नहीं आता कि क्यों नहीं राजनैतिक दल इस बात का विस्तृत विश्लेषण कर, जनता के समक्ष रखते हैं? क्यों नहीं दूरसंचार-दूरसंवाद खिड़कियों पर इस आधार प्रश्न पर कोई बहस नहीं होती है? क्यों नहीं समाचार पत्रों में इस पर्यावरणीय प्रश्न के समाधान पर कोई सार्थक प्रस्ताव कभी प्रस्तुत नहीं होता है? दिल्ली के अस्पतालों में बढ़ती भारी भीड़ को चिकित्सा की व्यवस्था से ज्यादा जरूरत उन कारणों को समाप्त करने की है, जिससे कि वे बीमार हो रहे हैं। वस्तुतः इन सभी ज्यादातर बीमारियों के मूल कारण तो पर्यावरणीय प्रदूषण ही तो हैं। मुफ्त में बांटे जाने वाली विशाल धनराशि को दिल्ली में 500 किलोमीटर की परिधि में पराली से मुक्ति के लिए क्यों नहीं व्यय किया जा सकता है? क्यों नहीं इस राशि को बडे-बड़े एयर क्लीनिंग टावरों की स्थापना के लिए किया जा सकता है? क्यों नहीं इस राशि को जमुना में घुल रहे जहर से मुक्ति के लिए व्यय किया जा सकता है?
पर विडम्बना यह है कि सरकारें पर्यावरण सुधार कार्यों में खर्च को कोई प्राथमिकता नहीं देना चाहती। जो भी काम हो रहे हैं, ऐसा लगता है, वे केवल नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल या सुप्रीम कोर्ट के दबाव में ही हो रहे हैं। सरकार के पर्यावरणीय विभाग लोगों को सुशिक्षित एवं जागरूक करने की जगह केवल कानून के डंडे से हांक कर स्थिति को सुधारना चाहते हैं। पर जब ये डंडे चलते हैं तो सारा देश अपराधी दिखाई देता है, तो फिर लोकतांत्रिक सरकार को पुनः सुप्त होना पड़ता है। दुविधा यही है कि जिस कार्य को जनता को शिक्षित कर स्व-प्रेरणा से कराया जा सकता है, उस कार्य को कानून के भय से करने हेतु बाध्य करने का मार्ग नियत किया जाता है, तो द्वंद एवं संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है। पर जिस दिन जनता जागरूक होगी, प्रमुख चुनावी मुद्दा स्वच्छ वायु, निर्मल आकाश, आचमनीय जमुना का जल, कचरा मुक्त वीथिकाएं, हरियाली मय नगर ही होंगे।
किन्तु जब परिस्थितियां इतनी प्रतिकूल हो जाती हैं कि नियंत्रण के कोई अन्य मार्ग शेष न हों तो विषम निर्णय लेने ही पड़ते हैं, भले ही वे लोकप्रिय न हों, पर वे होते तो लोकहितकारी ही हैं। जैसा कि चीन में फैल चुके कोरोना वायरस पर प्रभावशाली नियंत्रण के प्रयास में चीन ने अपने एक पूरे प्रांत हुबई एवं वुहान शहर को लगभग पूरी तरह से पृथक कर दिया है। वहॉं की एक करोड़ से अधिक की आबादी को शेष चीन से सभी प्रकार के आवागमन से काट कर अलग कर दिया है। स्थिति यहॉं तक गंभीर बताई जा रही है कि कुछेक हजार पीड़ित जिंदा लोगों को मारने हेतु न्यायालय से स्वीकृति की मांग की जा रही है।
मानव सभ्यता के लिए यह एक अत्यंत विदारक स्थिति को स्पष्ट कर रही है। पर विडम्बना यह है कि जो लोग चीन से बाहर रहते हैं, जो पूरी तरह से मासूम हैं, जिन्हें ऐसे किसी भी प्रकार के जैविक अस्त्रों के निर्माण या उपयोग का कभी कोई लाभ मिल भी नहीं सकता और न कभी मिला ही है, वे सब भी बहुत बुरी तरह से आतंकित हैं कि यदि स्थिति पर नियंत्रण नहीं हो पाया, तो उन लोगों का, उन समाज का, उन राज्यों का, उन राष्ट्रों के मानवीय पूॅंजी व्यवस्था या अर्थव्यवस्था की क्या गंभीर दुर्दशा होगी, और इसकी भरपाई कैसे कोई कर पाएगा। अभी भी समय है, हम सभी पूर्वाग्रहों एवं दुराग्रहों से मुक्त होकर भारत के ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के आधार मंत्र को ही मानव धर्म बनाकर पर्यावरणीय सेवा में समाज को सन्निद्ध करें। अंत में यही शुभकामना है कि आगामी चुनावों में स्वस्थ एवं स्वच्छ पर्यावरण और सशक्त भारत ही बने प्रमुख चुनावी मुद्दा। चूॅंकि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का उद्घोष समृद्ध पर्यावरण की परिणति है। जय-हिन्द, जय-भारत!
-संपादक