समय रहते हुए हमें आर्थिक विकास में पर्यावरण प्रिय पथ को ही प्रषस्त करना होगा

पृथ्वी पर आसन्न मौसम परिवर्तन और भूमण्डलीय तापमान वृद्धि के प्रति चिंतित राष्ट्रों के द्वारा प्रति वर्ष आपसी बैठक लेकर इस समस्या के समाधान के लिए प्रयास किए जाते हैं। अभी हाल ही मंे संयुक्त राष्ट्रसंघ फेमवर्क आॅन क्लाइमेट चेंज (न्छथ्ब्ब्ब्) के तत्वाधान में दिसंबर माह 2023 की 12 तारीख को दुबई में काप-28 (ब्व्च्.28) की बैठक संपादित हुई। इस बैठक के आयोजन की सफलता और असफलता पर पूरे विष्व में भिन्न-भिन्न विचार हंै। किन्तु यदि एक विवष सामान्य नागरिक के रूप में चिंतन कर निस्कर्ष निकाला जावे तो यह प्रतीत होता है कि विष्व का अधिकांषतः राजनैतिक नेतृत्व अत्यंत विवषता के भाव से ही मौसम परिवर्तन की इस समस्या से लड़ने की औपचारिकता ही निभा रहा है। यद्यपि भारत वर्ष के प्रधानमंत्री माननीय नरेद्र मोदी जी ने भारतीय स्तर पर हरितकारी गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित रखने गंभीर प्रयासों को विष्व पटल पर प्रस्तुत किया है और सर्वत्र इसकी सराहना भी हुई है, परंतु पूरा विष्व इस बात को स्वीकार करने को कदाचित तत्पर नहीं है कि इस असंभव सी दिखने वाली समस्या के पीछे सबसे बड़ी कारण विषाल जनसंख्या है। हमने सदैव इस बात को रेखांकित किया है कि बढ़ती हुई जनसंख्या पर पूर्ण विराम लगाए बिना मात्र तकनिकी उन्नयन और कानूनी बंधनों से ही पृथ्वी के भंगुर पर्यावरण को परास्त होने से नहीं बचाया जा सकता। पर यह विडंबना ही है कि मानव सभ्यता के शीर्षस्थ लोग यह स्वीकार नहीं कर पा रहे है कि मानव यदि प्रकृति पर तकनिकी ताकतों से भी विजय पा जाता है तो भी वह स्वयं ही पराजित होगा। चूंकि मानव सम्यता का अस्तित्व प्रकृति के इस प्राकृतिक अस्तित्व से ही संभव हुआ था और है और रहेगा। तदैव आर्थिक समृद्धि के भ्रम में विष्व को आर्थिक प्रगति के पथ पर प्रगतिमय में पाकर प्रसन्न होने का समय नहीं है अपितु यह चिंतन करना अत्यंत अनिवार्य है कि इस आर्थिक समृद्धि को हासिल करने हेतु हमने अपने प्राकृतिक पर्यावरण को कितना क्षतिग्रस्त किया है क्या उस क्षति की पूर्ति की लागत से ज्यादा धन और समृद्धि हमें प्राप्त हुई है या नहीं? यदि नहीं तो फिर हमारी छद्म मुद्राओं की समृद्धि का क्या मायने है? इस आर्थिक समृद्धि का सबसे स्याह पृष्ठ यह है कि अर्थ समृद्धि का सुख तो केवल कुछ सीमित अर्थ संपन्न लोगों को होता है किंतु पर्यावरणीय विपन्नता का दुष्परिणाम तो अर्थ विपन्न लोगों को ही झेलना होता है। तदैव भारत सरकार ने मौसम परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए आगामी 7 वर्षों में 57 लाख करोड़ रूपयों को अनुकूलन हेतु व्यय करने का प्रावधान किया है।

आज विष्व के देषों के बीच कार्बन उदासीनता के लक्ष्य को पाने के पथ पर चीन सबसे अधिक तेजी से अपने आप को सक्षम करता जा रहा है। एक तरफ चीन ने अपनी जनसंख्या को पूरी तरह से स्थिर कर लिया है, वहीं उसने अपने विद्युत ऊर्जा की आपूर्ति के लिए कार्बन उदासीन मार्ग के रूप में सौर, पन, बिजली, पवन, नाभिकीय ऊर्जा में उल्लेखनीय वृद्धि की है, तो साथ ही समुद्र की लहरों से ऊर्जा उत्पन्न करने की दिषा मंे गंभीरता से प्रयासरत है तथा अविष्वस्त सूत्रों से ज्ञात होता है कि इस दिषा में उसने काफी सफलता भी प्राप्त कर ली है। चूंकि पृथ्वी पर भूखंड की उपलब्धता अत्यंत सीमित है तथा बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए ऊर्जा पूर्ति से पूर्व अन्न, जल तथा आवास एवं अधोसंरचना को विकसित करने के लिए भूमि का उपभाग प्राथमिकता रखता है अतः सौर ऊर्जा में भूमि का उपयोग करने से ज्यादा जरूरी इन कृत्यों हेतु भूमि के उपयोग को प्राथमिकता देना आवष्यक है। अतः स्वाभाविक निस्कर्ष यह बनता है कि विषाल समुद्रीय क्षेत्र में समुद्रों की लहरों में व्याप्त ऊर्जा को विद्युत शक्ति में परिवर्तित किया जा सके तो मानव सभ्यता के समक्ष कार्बन उदासीन ऊर्जा पूर्ति के लक्ष्यों को ज्यादा सहजतापूर्वक संभव किया जा सकता है। इस हेतु भारत सरकार को मात्र सौर ऊर्जा पर निर्भर न होकर न्यूक्लीयर ऊर्जा तथा अन्य ऊर्जा कार्बन मुक्त ऊर्जा स्त्रोतो को शीघ्रता से स्थापित करना होगा।

पिछले माह भारत के पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव संपादित हुए इसमें से तीन राज्यों में भाजपा को भारी सफलता हासिल हुई। इस सफलता के पीछे राजनैतिक कारणों की व्याख्या करना इस लेख का लक्ष्य नहीं है। अपितु जनमानस की मानसिकता का मूल्यांकन करने से यह समझ में आता है कि बढ़ते गंभीर पर्यावरण संकट से तथा बढ़ती जनसंख्या के कारण संसाधनों के दबाव में आम आदमी अपनी न्यूनतम दैनिक जरूरतों की पूर्ति के लिए संघर्षरत है, जिससे स्वच्छ जल, सुरक्षित आवास, न्यूनतम भोजन के लिए अन्न तथा खाद्यान्न को पकाने के लिए ऊर्जा और प्रकाष के लिए ऊर्जा आदि संसाधनों एवं जीवन के लिए आवष्यक इनके साथ दैनिक नित्यकर्म के निपटान की व्यवस्था हेतु पर्याप्त आर्थिक संसाधन नहीं जुटा पाने के कारण संघर्षरत है। तदैव जिन राजनैतिक दलों ने इनके समाधान की गारंटी दी लोगों ने उनका समर्थन किया है। इन न्यूनतम आवष्यकताओं की पूर्ति में आ रही बाधाओं के पीछे सबसे बड़ा कारण विस्फोट हो चुकी जनसंख्या है जिसके विषाल आकार के कारण मांग में हो रही वृद्धि एवं संकुचित हो रहे आपूर्ति संसाधनों के कारण आर्थिक महंगाई में निरंतर वृद्धि हो रही है। तदैव आर्थिक संसाधनों की आपूर्ति के लिए अर्थव्यवस्था को गति देना आवष्यक है और अर्थव्यवस्था को गति देने के दुष्परिणाम में पर्यावरण की दुर्गति बढ़ रही है। किन्तु लोकतंत्र की विवषता है कि तंत्र यदि लोक की अपेक्षाओं के विरूद्ध प्रकृति संरक्षण हेतु यदि कठोर कार्य करता है तो उसे निरंकुष या तानाषाह की संज्ञा दे दी जाती है। अस्तु वर्तमान काल में पर्यावरण पर दबाव आर्थिक समृद्धि की अपेक्षाओं से बढ़ रही औद्योगिक गतिविधियों एवं बढ़ रहे उपभोग के कारण है, तो स्वाभाविक रूप से कानून का दबाव पर्यावरण संरक्षण के लिए बढ़ रहा है। इस द्वंद का समाधान सहज नहीं है। इसके समाधान के प्रयासों में नित्य प्रतिदिन माननीय न्यायालयों द्वारा भी गंभीर निर्णय दिए जा रहे हैं। जिनको व्यावहारिक रूप से लागू करना भी सहज नहीं है। अंतोतगत्वा आर्थिक प्रगति एवं पर्यावरण दुर्गति के बीच जारी द्वंद्व को समाप्त करने के लिए श्रेष्ठ तो यह होगा कि आम नागरिकों को पर्यावरण सुषिक्षा उनकी सरल भाषा में प्रदान किया जावें, किन्तु यह घोर विडंबना का विषय है कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भी मौसम परिवर्तन हेतु रोकने के लिए पर्यावरणीय पहलूओं पर किए जा रहे कृत्यों को, ज्ञान को भी 140 करोड़ भारतीयों के राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्रकाषित नहीं किया जाता है, जबकि अंग्रेजी के अलावा फेें्रच, जर्मनी, स्पेनिष, जापानिज, चाईनिज आदि सभी भाषाओं में न्छथ्ब्ब्ब् द्वारा चलाएं जा रहे परियोजनाओं तथा निर्णयों को प्रकाषित किया जाता है। अतः भारत सरकार को इस मुद्दे को संयुुक्त राष्ट्र संघ में उठाकर हिन्दी भाषा में सभी सूचनाओं एवं जानकारियों को उपलब्ध कराने का आहवाहन करना चाहिए।

चूंकि पूरे विष्व में भारत ही एक ऐसा देष है जिसकी संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण सर्वोच्च स्थान रखता है यदि भारतीय धार्मिक विष्वासों में से ही हम पर्यावरण संरक्षण के लिए कुछ सूत्रों को आधार में लेते है तो भी यह एक अत्यंत सषक्त पर्यावरण संरक्षण का मार्ग प्रषस्त कर सकता है। इस वर्ष 2024 में श्रीराम जन्मभूमि स्थल पर श्रीराम के भव्य मंदिर के शुभारंभ की बेला में यदि श्रीराम की जीवनी से हम पर्यावरण संरक्षण का ज्ञान ही हासिल करने का प्रयास करें तो हम भारत के विषाल जनसमूह को इस कार्य के लिए सरलता से गतिषील प्रदान कर सकते है। हम पाते है कि राम के संपूर्ण वनवास काल का कार्बन फुट प्रिंट भी शून्य ही रहा होगा। राम ने संपूर्ण वनवास में समाज के सभी वर्गों को संपूर्ण सम्मान दिया तो जैव विविधता को भी उतना ही मान दिया। राम ने निःषक्त जनों को सषक्त बनाने एवं अधर्म पर धर्म के विजय के लिए जनसंग्राम के लिए संपूर्ण समाज को साथ देने का आह्वान कर विजय प्राप्त किया था। आज वैष्विक पर्यावरण संकट के इस काल में विष्व के प्रत्येक नागरिक को भी वानर, भालू और गिलहरी की तरह ही अपनी -अपनी छोटी-छोटी पर्यावरण संरक्षण हेतु आवष्यक भूमिका अदा करना है ताकि यह भूमंडल पुनः प्रफुल्लित पर्यावरण और पारिस्थितिकी को प्राप्त कर सकें।
भारत पुनः विष्वगुरू बनने के पथ पर अग्रसित हो रहा है इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु राम के जीवन का सबसे बड़ा आदर्ष त्याग एवं समरसता को अपने अंतर्गत समाहित करके ही हम पर्यावरण को संरक्षित कर सकते है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि विज्ञान एवं तकनिकी से हम प्रकृति को परास्त नहीं कर सकते और यदि हम ऐसा करने का प्रयास करते हैं तो भी पराजय हमारी ही होगी और हम जीत कर भी हार जाऐंगे। तदैव समय रहते हुए हमें आर्थिक विकास में पर्यावरण प्रिय पथ को ही प्रषस्त करना होगा। भारतीय संस्कृति के आदर्ष पुरूष मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के जीवन से पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लेकर भारत को विकसित करना होगा। मकर संक्रमण पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं तथा प्रभु श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के लोकार्पण पर समस्त भारतीयों एवं विष्व के अन्य देषों में आस्थावान नागरिकों को बधाई।

-संपादक