पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है। 7 नवम्बर से लेकर 30 नवम्बर तक लोकतंत्र के इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव संपन्न होने जा रहे है। सभी राजनैतिक दलों ने अपने-अपने घोषणा पत्र लगभग जारी कर दिए है। इनमें से श्रेष्ठतम जानकारी के अनुसार किसी भी राजनैतिक दलों ने अपने घोषणा पत्र में पर्यावरण संरक्षण, प्रकृति संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, जल संरक्षण, मृदा संरक्षण, मौसम परिवर्तन आदि जैसे किसी भी ज्वलंत मुद्दों को अपने घोषणा पत्र के लायक नहीं माना है, इनमें से कोई भी विषय चुनावी मुद्दा नहीं है और न ही बढ़ती जनसंख्या को नियोजित करना या नियंत्रित करने को ही कोई मुद्दा लिया है। लगभग सभी राजनीतिक दलों के द्वारा परंपरागत पद्धति से अपने आप को सत्तारूढ़ करने हेतु लोक लुभावने वायदे यथा सस्ते मूल्यों पर एलपीजी (स्च्ळ) गैस, सस्ते मूल्यों पर बिजली देने तथा कर्ज माफी, जैसे लोक लुभावने आष्वासनों की श्रृंखला ही घोषित की है। यह एक विकट विसंगति है कि आज जब दुनिया में सबसे बड़ी समस्या और चुनौती तो पृथ्वी पर प्रकृति और पर्यावरण को बचाना है। तो फिर बढ़ रहे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, नगरीय अपषिष्ठ प्रदूषण जैसे साक्षात एवं समक्ष मुद्दों को भी आम मतदाताओं से मत पाने योग्य आष्वासन क्यों नहीं माना? जबकि ये ऐसी समस्याएं है जिनसे कोई वर्ग विषेष नहीं, कोई जाति विषेष नहीं, कोई धर्म विषेष नहीं अपितु सारी मानव एवं जीव सभ्यता गंभीर रूप से दुष्प्रभावित है। आज जब पूरी पृथ्वी पर मानव जाति या यूॅं कहंे कि जीव सभ्यता के अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है तो भी क्यों प्रजातांत्रिक प्रणाली में प्रजा को अपने प्राणों की रक्षा करने हेतु ये अपरिहार्य मुद्दे किसी राजनैतिक दल को सत्ता शक्ति प्रदान करने के लिए पात्रता नहीं रखते।
समाचार पत्रों के समाचारों में, संपादकीयों में भी कहीं भी लोकतांत्रिक चुनावों में पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण नियंत्रण को कोई मुद्दे के रूप में स्थान नहीं मिल रहा है। टेलीविजन चैनलों में रात-दिन चल रही राजनैतिक परिचर्चाओं, वाद-विवाद, वार्तालापों में, सोषल मिडिया – फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप, टेलीग्राम आदि में भी इन चुनावों में पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण, कोई मुद्दे के रूप में चर्चाओं में नहीं है। आखिर क्यों? यह एक चिंता का विषय है कि जिन समस्याओं से पूरा विष्व पीड़ित है और जिसका निराकरण शासन प्रषासन एवं जनता के द्वारा सम्मिलित प्रयास से किया जाना सर्वोच्च प्राथमिकता हो, बढ़ रहे प्रदूषण के स्तर, विनाष हो रही प्रकृति-पर्यावरण, घटते वन क्षेत्रों, घटती जैव विविधता, दूषित हो रहे जल क्षेत्रों, विस्फोटक हो रही जनसंख्या आदि के नियोजन हेतु कोई नितिगत चुनावी संकल्प का कोई प्रावधान नहीं है, कोई चर्चा भी नहीं है?
यह एक गंभीर चिंता का बिन्दु है और दुर्भाग्य यह है कि न केवल भारत अपितु अन्य ऐसे ही विकासषील देषों में भी तथा बहुधा विकसित देषों में भी जनता की प्राथमिकताओं में पर्यावरण और प्रकृति संरक्षण अंतिम क्रम में ही है। पर ऐसा क्यों है? जबकि हम नित्य देख रहे है कि दिल्ली जैसे महानगर जो भारत की राजधानी है जहां प्रदूषण नियंत्रण करने तथा पर्यावरण संरक्षण करने के दायित्व को वहन करने वाली सर्वोच्च वैधानिक शक्ति संपन्न शासकीय, अर्धषासकीय एवं अषासकीय संस्थान विद्यमान हैं, फिर भी आज इस संपादकीय में लिखते-लिखते ज्ञात होता है कि दिल्ली के राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण सूचकांक 650 से ऊपर चला गया है। दिल्ली की इस दुर्दशा को देखते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय ने 7 नवम्बर को पंजाब सरकार को स्पष्ट आदेश दिया कि, ‘‘हमें नहीं मालूम कि आप इसे कैसे करेंगे, पर आप यह सुनिश्चित करें कि खेतों में खुलेआम पराली को जलाना पूरी तरह बंद हो।’’ माननीय न्यायालय ने कहा कि, ‘‘ऐसी गंभीर समस्या को एक राजनीति का अखाड़ा नहीं बनाया जा सकता और दिल्ली को साल-दर-साल इस समस्या को झेलने विवश भी नहीं किया जा सकता।’’ पर सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है और हम लोग गंभीर क्यों नहीं है? इन सहज समस्याओं के समाधान, इतने असहज क्यों हो चुके हैं? यद्यपि वैज्ञानिक एवं विधिवत्ताओं एवं राजनेताओं की दृष्टि में इसके कारण एवं समाधान निष्चित रूप से भिन्न हो सकते है। पर एक पर्यावरणीय चिंतक की दृष्टि से मनन करने पर यह प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि प्रकृति के विकास एवं पर्यावरणीय प्रदूषण के गंभीर दुष्परिणामों के दुष्प्रभावों का शासन तथा समाज पर पड़ने वाले आर्थिक भार का सटीक मूल्यांकन कभी भी नहीं किया जाता है और ऐसा करना सहज भी नहीं है, पर यदि मूल्यांकन किया जा सके या किया जाये तो हमें सहज ही समझ में आवेगा कि पराली को जलाने से किसानों को रोकने के लिए एक सहज मार्ग यह संभव हो सकता है कि पराली (ैजतंू) को उस मूल्य पर खरीदा जावे जिससे कि किसान को जलाने के स्थान पर एकत्र करने में और बेचने में ज्यादा आर्थिक लाभ हो तथा उस पराली (ैजतंू) का उपयोग बायोएथेनाॅल और बायो सीएनजी के उत्पादन में प्रयुक्त किया जाना आर्थिक रूप से संभव हो। इसे संभव करने के लिए भले ही बायो सेल्युलोज से उत्पादित एथेनाॅल या बायो सीएनजी को पेट्रोल से या प्राकृतिक गैस (छंजनतंस ळंे) से दुगुने मूल्य पर भी खरीदना क्यों न पड़े, तो भी हम पायेंगे कि 150 रूपये प्रति लीटर एथेनाॅल खरीद कर एवं 100 रूपये किलो में सेल्युलोजिक बायो सीएनजी खरीदकर भी एक देष के रूप में हम उससे ज्यादा फायदे में रहेंगे। चूंकि ऐसा करके पराली के जलाने से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को हम परास्त कर चुके होंगे तथा एक तरफ उससे होने वाली स्वास्थ्य के क्षति पूर्ति मूल्य से कम ही लागत पर इस समस्या का निवारण कर चुके होंगे। यद्यपि इस दिषा में केन्द्र सरकार द्वारा निरंतर चिंतन किया जा रहा है किन्तु जिस युद्ध स्तर पर इसके समाधान की आवष्यकता है उस स्तर पर राजनैतिक संकल्प का गंभीर अभाव है। उसका मुख्य कारण यह है कि जन सामान्य की दृष्टि में उनकी प्राथमिकता पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण है ही नहीं । आम आदमियों की सर्वोच्च प्राथमिकता सस्ती बिजली, सस्ता परिवहन, सस्ता गैस, सस्ता ईंधन तथा सस्ता अनाज आज ही बना हुआ है। उसे इस बात का कभी भी ज्ञान नहीं होता कि सरकार के द्वारा इन वस्तुओं को सस्ता करने हेतु आवष्यक धन का संकलन भी अंतोतगत्वा, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से उनसे ही किया जाता है। किन्तु आत्म केंद्रित नागरिकों से प्रजातंत्र में प्रकृति एवं पर्यावरण की प्राथमिकता की आस रखना शायद एक छलावा है तदैव प्रजातांत्रिक प्रणाली में लोकप्रिय सरकारों से भी इस दिषा में कठोर कदम लेने की अपेक्षा करना शायद उचित नहीं है।
अस्तु यह दायित्व समाज के प्रति सुधार का संकल्प लेकर कार्य करने वाले सामाजिक एवं धार्मिक संगठनों का हो जाता है कि जन जन तक इस समास्या के समाधान के संकल्प को सृदृढ़ करें।
इसका क्या कारण है कि केवल परंपरागत ऊर्जा उपभोगीय, वस्तु उपभोगीय विकास की ही बात होती है, पर धारणीय विकास की बात क्यो नहीं होती है? क्यों विकास के लक्ष्य में बिहार को बाढ़ मुक्त करना, गुजरात, राजस्थान के रेगिस्तानों को सूखा मुक्त कर हरा भरा करने हेतु, जल वाहिनियों को पहुंचाना, आसाम को बाढ़ मुक्त करने ब्रम्हपुत्र नदी के अपार जल शक्ति संसाधन का नियोजन करना, आदि संकल्प, बुलेट ट्रेन से या मेट्रो ट्रेनों से ज्यादा प्राथमिकता क्यों नहीं पाते हैं? स्थानीय नगरीय मल-मूत्रों से बायोमिथेन प्राथमिकता पाता है? स्थानीय नगरीय ठोस अपषिष्ठ समाधान, नगरों-षहरों में गंदी निकास नालियों को सीवेज सिस्टम से एवं गंदगी मुक्त नालियों के विकास को कोई प्राथमिकता क्यों नहीं मिलती? क्यों नहीं गंगा, कावेरी नदी लिंक को प्राथमिकता मिलती है?
प्रष्न यह है कि परंपरागत पर्यावरण घाती विकास की प्रक्रिया को धारणीय स्वरूप देने में जनता की कोई अभिरूचि क्यों दिखाई नहीं देती? क्यों जनप्रतिनिधियों में, पत्रकारों में, मिडिया चैनल के उदभाषकों में, राजनितिक प्राथमिकताओं से ज्यादा पर्यावरणीय प्राथमिकता क्यों नहीं होती? क्या आम नागरिक को यह भ्रम है कि प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण अपने आप हो जावेगा और ऐसा करने का उसका कोई दायित्व नहीं है? प्रष्नों का उत्तर हम सबको अपने आपको देना होगा।
एक तरफ जहां भारत की राजधानी दिल्ली तथा उत्तर भारत राज्य के अनेकों स्थानों में लोग वायु प्रदूषण से परेषान है। वहीं दुनिया के मध्य एषिया में हमास के द्वारा एकाएक इस्त्रायल पर किए गए आतंकवदी हमले से उत्पन्न प्रतिक्रिया एवं उत्तेजना इतनी उग्र हो चुकी है कि इस्त्रायल एक तरफ हमास के नामो निषान मिटाने के लिए गाजा पट्टी पर विभिषक संग्राम छेड़ चुका है वहीं उग्रवादियों के द्वारा इसे धर्मयुद्ध की संज्ञा देकर इसे इस्लाम के विरूद्ध युद्ध की संज्ञा देने की निष्फल कोषिष की जा रही है। युक्रेन, रूस के बीच जारी भारी नरसंहारक युद्ध के समाप्त होने के पूर्व इस युद्ध का आंरभ होना इस सभ्यता के लिए अत्यंत खतरनाक संकेत दे रहा है। यह एक गंभीर विडंबना है कि ज्ञान विज्ञान के इस युग में भी लोग धर्म-जाति एवं धर्म-आस्था के नाम पर प्राण लेने एवं प्राण देने के प्रण पर पनप रहे है।
हमारे लिए यह निष्कर्ष निकालना निरर्थक है एवं निष्फल भी है कि इन युद्धांे में कौन जीतेगा और कौन हारेगा। पर जब कभी भी पर्यावरणीय पृष्ठभूमि में जीत और हार के पलड़ों के बीच दृष्टिपात करने का दुस्साहस किया जाता है तो यह स्पष्ट समझ में आता है कि युद्धरत देषों में या सभ्यताओं में कोई भी जीते और कोई भी हारे, किन्तु पूरी तरह से परास्त तो प्रकृति एवं मानवता हो रही है। शायद ही किसी को अनुमान हो कि जिन युद्धोन्मत्त राष्ट्राध्यक्षों के द्वारा विजय के दंभ में परमाणु-नाभिकिय अस्त्रों का सृजन किया जा रहा है उनके प्रयोग से भले ही प्रत्यक्ष में कुछ भू-भाग के लोग काल कवलित हो जावें, पर उन परमाणु बमों के स्थायी एवं वैष्विक दुष्प्रभावों को विष्वव्यापी होने से कौन रोक सकता है? किसे पता है कि इन अस्त्रों के प्रयोग से पृथ्वी पर भविष्य के मौसम परिवर्तन का वह प्रलयकारी स्तर जिसके कुछ सौ वर्षों बाद होने की कुषंका है वह तत्काल हो जावे। ऐसे युद्धों की परिगतियों की परिकल्पना क्या इन युद्धोन्मत्त राष्ट्राध्यक्षों को नहीं है? या फिर हम युद्धोन्मत्त पागलों की हीं सभ्यता है? इस गालीनुमा जुमले को हम भले ही आज अपमानजनक माने पर यदि कभी भी पृथ्वी पर परमाणु अस्त्रों के प्रयोग से मानव सभ्यता पूरी तरह समाप्ति के बाद, दोबारा कभी कोई सभ्यता हजारों वर्षों बाद पनपेगी तो निष्चित रूप से उस सभ्यता के लोग हमें पागलों की सम्यता की ही संज्ञा देंगे, जिन्हें अपने झूठे एवं मिथ्या मान्यताओं के लिए विकसित मानव सभ्यता को राख के ढेर में परिवर्तित कर दी हुई जानी जावेगी। पर इस समस्या का समाधान कैसे हो, यह समझ से परे हो रहा है। शुभ-दीपावली पर्व की शुभकामनाओं सहित।
-संपादक