हमारे सांस्कारिक शक्तियों को शिथिल करके केवल कानून एवं दंड के मार्ग से जैव विविधता संरक्षण के लक्ष्य को प्राप्त करना संभव नहीं होगा

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कोरोना के महाप्रकोप से इस दूसरी लहर में लोग बहुत तेजी से संक्रमित हो रहे हैं। मैं और मेरा पूरा परिवार भी इसके दुष्प्रभाव से अछूता नहीं रहा। पूरे के पूरे परिवार के लोग आर.टी.पी.सी.टेस्ट में पाजिटिव पाए गए। पर, सबसे कम लक्षण मेरे वृद्ध पिता में रहा। या यूॅं कहें कि उन्हें किसी भी प्रकार के सर्दी, लक्षण, खांसी या बुखार इत्यादि लक्षण ही नहीं दिखे। वहीं मुझे और पत्नी तथा भाई को तो नौ दिन अस्पताल में उपचार लेने भर्ती होना पड़ा। ठीक होने के बाद जब सामूहिक चर्चा में यह विश्लेषण किया जा रहा था कि क्या कारण रहा कि मेरे पिताजी एवं उनके जैसे कुछ और गांवों में रहने वाले बुजुर्गों में बीमारी का बुरा असर नहीं आया।
तो इस संदर्भ में एक ग्रामीण साथी का कहना था कि पुराने जमाने के लोग बहुत साफ और स्वच्छ पर्यावरण में रहते थे, शुद्ध और विषमुक्त भोजन करते थे, साथ ही दिनचर्या के कार्यों के निष्पादन में भी व्यायाम खूब होता था। यहॉं तक कि सम्पन्न लोगों को भी कठोर शारीरिक श्रम करने की आवश्यकता होती थी। मुझे याद है कि हमारे परिवार में एक चाचाजी के पास एक पेट्रोल जीप थी और हमारे यहां एक ट्रेक्टर था, जिन्हें र्स्टाट करने के लिए प्रतिदिन खूब हैंडल मारना पड़ता था। पेट्रोल इंजन वाली जीप तो फिर भी 10-12 हैंडल के क्रेंकींग से होकर स्टार्ट हो जाती थी, पर डीजल से चलने वाले ट्रेक्टर को स्टार्ट करने तो बहुत ही अद्भुत जतन करना होता था। उसकी पी.टी.ओ. पुली पर एक इंच मोटे रस्सी को गीला करके लपेट करके, 2-4 मजबूत आदमियों से खींच-खींचकर स्टार्ट करना पड़ता था। 10-15 मिनट का यह दैनिक अभ्यास लगभग 3-4 किलोमीटर की पैदल चाल के बराबर व्यायाम पैदा करता था। तदुपरांत भी दिन भर होने वाले खेलकूदों में और उपद्रवों में भी भरपूर व्यायाम होता था। भले ही अप्रैल-मई माह की तेज गर्मियों में आम के पेड़ों पर पत्थरों की बरसात कर आम तोड़ कर खाना हो या फिर जून-जुलाई में टहनियों पर लठ्ठियां चलाकर जामुन तोड़कर खाना हो या फिर उसके बाद कुछ और। चूल्हे की आग को बनाए रखने कुल्हाड़ी से लकड़ी फाड़ना हो या फिर कुएं से नहाने-धोने या पीने के पानी के लिए रस्सी-बाल्टी से पानी निकालना हो। दिन भर के कामों में इतना भरपूर व्यायाम होता था कि शरीर की समस्त मांसपेशियों में उतनी कसरत हो जाती थी कि वे स्वयं स्वस्थ रहें और रोगरोधन क्षमता के लिए आवश्यक क्षमता पैदा करें।
पर विडम्बना यह है कि यांत्रिक सभ्यता के संस्कार ने हमें इन सभी सुखद अवसरों से वंचित कर दिया। पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के व्यावसायीकरण के हमारे मोह ने हमें इतना अंधा बना दिया कि हमने यह सोचने का समय ही नहीं निकाला कि नूतन सभ्यता के संक्रमण के मानव स्वास्थ्य पर और पर्यावरण पर क्या दुष्परिणाम हो सकते थे। हमने उन दुष्परिणों से स्वयं को और समाज को मुक्त रखने हेतु भी कभी प्रयास नहीं किया। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में संस्कारों से सिक्त समाज में एक आत्मसंतोष का भाव था। सीमित आवश्यकताओं के कारण प्रकृति से मिलने वाले प्रसाद से ही सुखद जीवन का अहसास था। लोगों में बेईमानी और लालच अपेक्षाकृत बहुत कम था। उसका कुछ कारण तो यह भी था कि लोगों ने अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखा था। सादगी से जीवन जीते थे। उसके साथ ही संस्कारों का भी प्रबल प्रभाव था, जो कि समाज को भारतीय वैदिक संस्कृति और सभ्यता पर आधारित जीवन का संबल प्रदान करते थे। पर वर्तमान सभ्यता ने शारीरिक सुख अवश्य दिया, किन्तु, यांत्रिक सभ्यता को अंगीकृत करने के दुष्परिणाम यह रहे कि हमारी आवश्यकताएं असीमित होती चली गई और इनकी पूर्ति के लिए प्रकृति पर प्रहार और तीव्र कर, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करने लगे। ‘‘स्वांतः सुखाय’’ जैसे शब्द रूढ़िवादी हो गए। ‘‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’’ शब्द कालातीत होने लगे। ‘‘वसुधैव-कुटुंबकम’’ केवल एक नारा बनता चला गया। परिणाम प्रत्यक्ष है कि पृथ्वी पर से लाखोंजीव और वनस्पति प्रजातियां लुप्ति के कगार पर हैं और यही दर जारी रही तो न जाने कितनी जल्दी पृथ्वी पर केवल मनुष्य नामक जीव ही अकेला बच जावे।
मानव सभ्यता के ज्ञात इतिहास में वर्तमान यांत्रिक युग के मानव ने जितना ज्यादा प्रकृति पर और अन्य समस्त जीवों के पर्यावास पर अतिक्रमण किया है, इतना गंभीर नुकसान जीवों एवं अन्य सभी प्रजातियों पर, जीवन के अभ्युदय काल से अब तक के इतिहास में कभी भी नहीं हुआ। पर अत्यंत घोर विडम्बना यह है कि प्राकृतिक जैव विविधता को संरक्षित और सुरक्षित रखने के लिए हमारे सांस्कारिक शक्तियों को हम शिथिल करके, केवल कानून एवं दंड के मार्ग से, जैव विविधता संरक्षण के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं, जो कि अत्यंत दुरूह एवं असंभव सा लगता है। चूॅंकि, हम देखते हैं कि नित्य प्रतिदिन अनेकों संवेदनशील जैव क्षेत्रों में भी विधि मान्यतापूर्वक अतिक्रमण जारी है। जिसका अद्यतन उदाहरण ‘‘लैमरू हाथी अभ्यारण्य’’ क्षेत्र है, जहॉं पर कोयला आधारित क्षेत्रों में उत्खनन हेतु कुछ कम्पनियों ने वन्य प्राणी संरक्षण अर्थव्यवस्था के अंतर्गत आवश्यक स्वीकृति हेतु आवेदन किया है। यद्यपि वन्य प्राणी संरक्षण के लिए बनाई गई योजनाओं को शासन की स्वीकृति अवश्य मिलती है, पर हमने अक्सर यह देखा है कि उन योजनाओं को वन्य प्राणी बहुधा अस्वीकार कर देते हैं। इसी का तो परिणाम है कि नित्य प्रतिदिन हाथी, तेंदुआ, बंदर तथा अनेकों अन्य वन्य पशु, मानव सभ्यता के क्षेत्र में आकर मानव समाज से टकरा रहे हैं। प्रकृति समय-समय पर अपने ऊपर हो रहे मानवीय प्रहार का प्रतिकार करके अतिक्रमण को रोकने का संकेत देती है, जिसमें कोरोना का विषाणु भी शायद एक है। भले ही इस विषाणु पर विजय पाने के करीब हैं, पर हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि प्रकृति हमें जब भी चाहे परास्त कर सकती है। अतः प्रकृति से प्रेमपूर्वक उसका प्रेमसिक्त प्रसाद पाना ही हमारे मानव समाज के लिए कल्याणकारी होगा, अन्यथा हमारे सांस्कारिक शक्तियों को शिथिल करके केवल कानून एवं दंड के मार्ग से जैव विविधता संरक्षण करना संभव नहीं होगा
-संपादक