भारत को विषम परिस्थितियों से लड़ने प्रकृति ने दी है अद्भुत क्षमता

दुनिया के सारे लोग आज भी कोरोना वायरस के आतंक से गंभीर रूप से भयग्रस्त हैं। चीन के वुहान शहर से फैले इस नए वायरस को ‘कोविड-19’ नाम दिया गया है। इसकी उत्पत्ति और फैलाव के पीछे डिजिटल प्रसार पटलों पर अनेकों अनेक प्रकार के सिद्धांत एवं कहानियां संचारित हैं। कोई कहता है कि इसे जैविक हथियार के रूप में चीन ने विकसित किया था। तो कोई कहता है कि अमेरिका के कुछ प्रयोगशालाओं में इसकी कुछ प्रजातियां पहले से ही मौजूद थी। अस्तु, सत्य क्या है, इसकी गवेषणा करना हमारे लिए संभव नहीं है। तदापि इस घटना से संबंधित पर्यावरणीय एवं प्राकृतिक परिदृश्यों के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन के कारण हमारा मत आम चर्चाओं में प्रचलित मतों से अंतर है।
यद्यपि यह सत्य है कि सम्पूर्ण विश्व में अब तक लाखों लोग इस कोरोना वायरस से संक्रमित पाए जा चुके हैं और 3900 से अधिक लोगों की इसके कारण मृत्यु भी हो चुकी है और प्रतिदिन मृत्यु की संख्या बढ़ती जा रही है। वहीं लगभग 95 हजार लोग इससे संक्रमित होने के बावजूद निजात भी पा चुके हैं। पर अभी तक इस बीमारी के उपचार हेतु कोई दवाई या पद्धति या वैक्सीन नहीं आई है। इसलिए इस वायरस के संक्रमण का इतना आतंक है कि लोगों को लगता है कि जो संक्रमित हो गया, वह शायद ही बच पाए। किन्तु, इस बात का प्रचार कम हो रहा है कि संक्रमित लोगों में से 95 प्रतिशत लोग सुरक्षित बाहर निकल आए हैं। तो इन 95 प्रतिशत लोगों में ऐसी क्या बात थी कि संक्रमण के बावजूद स्वस्थ होकर सुरक्षित हो पाए।
निश्चित रूप से इन लोगों में जो स्वाभाविक रोग रोधन क्षमता थी, वह पर्याप्त एवं उच्च थी या ये लोग ऐसे स्वच्छ एवं स्वस्थ पर्यावरण में रह रहे थे, जिसमें कि वायरस पर उन्हें विजय पाने में सहायता मिली। तदैव यदि हम इस पृष्ठभूमि पर इस बात का मूल्यांकन करने का प्रयास करें कि चीन जैसे तीव्र गति से औद्योगीकृत हुए देश में पर्यावरणीय प्रदूषण की क्या स्थिति है और उनके लोगों के स्वास्थ्य पर इसका कितना बुरा असर है, तो शायद यह एक विस्मयकारी तथ्य समक्ष आवेगा कि चीन के सघन रूप से औद्योगीकरण के कारण प्रदूषण की स्थिति काफी गंभीर बन चुकी थी और लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर बुरा असर हुआ था। हमने अपनी पत्रिका के अनेकों अंकों में कुछेक चीनी शहरों में पर्यावरण की भयावह स्थिति का चित्रण प्रकाशित किया था। पेइचिंग जैसे शहर तथा संघई की स्थिति चिंताजनक हुआ करती थी।
यह विश्व में सर्वविदित है कि प्रदूषण के कारण मनुष्य एवं जीवों की रोगरोधन क्षमता क्षीण होती है। मांसाहार भी रोगरोधन क्षमता के गिरावट का एक कारण बताया जाता है। और चीन के वुहान के मांसाहार की वीभत्सता तो अकथनीय है। तो क्या चीन में कोरोना वायरस के कारण हुई मौतों के पीछे वहॉं के दूषित पर्यावरण, वायु प्रदूषण और मांसाहार के कारण उन नागरिकों के रोगरोधन क्षमता की गिरावट तो नहीं?
कुछ पर्यावरणीय चिंतकों का यह भी मानना है कि प्रकृति पुनः माल्थस के सिद्धांतों के अनुरूप अपने ऊपर बढ़ रहे दबाव को घटाने के लिए, जनसंख्या नियंत्रित करने हेतु इस महामारी को जन्म दी है। कारणों के कारण तो बहुत सारे होंगे। और इनकी कथाएं भी अनेकानेक होंगी। उन पर बहस करना बेमानी है। पर जो कुछ दृढ़ सत्य और प्रत्यक्ष है, वह तो निश्चित ही है कि प्रकृति पर मानवीय प्रहार ने तथा पर्यावरण पर प्रदूषण ने, मानव के शारीरिक तंत्र में रोगरोधन क्षमता को काफी क्षीण किया है। इतना ही नहीं, प्रदूषणकारी तत्वों के दुष्प्रभाव से जीवाणुओं, कवकों एवं वायरसों में उत्परिवर्तन के कारण नई-नई प्रजातियों का अभ्युदय हो रहा है, जो चिकित्सा जगत के लिए नित नई चुनौतियॉं पैदा कर रहा है।
ऐसे समय में यह समझना आवश्यक है कि क्या हम अपनी जीवनशैली में सुधार कर उन 95 प्रतिशत लोगों की श्रेणी में 100 प्रतिशत लोगों को ला सकते हैं, जो वैक्सीन के आश्रय में जीवन के लिए सशंकित न हों। भारतीय संस्कृति में ऐसे अनेकों कृत्यों को दैनिक जीवन का अपरिहार्य अंग बनाया था, जिससे कि मनुष्य स्वस्थ भी रह सकता है और संक्रमित व्यक्तियों से पर्याप्त दूरी भी बनाए रख सकता है। उदाहरणस्वरूप नमस्ते या नमस्कार या हाथ जोड़ना या चरण स्पर्श द्वारा अभिवादन की विधि हाथ मिलाने से ज्यादा सुरक्षित है। शाकाहार और योगाभ्यास, प्राणायाम, ध्यान को स्वास्थ्य के लिए ज्यादा उत्तम पाया गया है। ऐसे अनेकों दैनिक जीवन में सांस्कारिक कृत्यों की अनुक्रियाएं हैं, जिसे आज विज्ञान स्वास्थ्य के लिए श्रेष्ठ और सुखद जीवन के लिए हितकर बता रहा है। अस्तु धार्मिक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर भारतीय परम्पराओं एवं संस्कृति का संवाहन मानव हित के लिए किया जाना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार पथ्य एवं अपथ्य भोजन के सिद्धांतों को अंगीकार करने का भी शायद इस संकट की कड़ी में मानव सभ्यता को लाभ मिल सके।
यद्यपि, स्वास्थ्य एवं स्वस्थ पर्यावरण के साथ धारणीय विकास को सुनिश्चित करने हेतु विश्व पटल पर समस्त देशों की सरकारों द्वारा चिंतन अवश्य किया जा रहा है, इस दिशा में अनेकों दस्तावेजों का संकलन तथा प्रकाशन भी किया जाता है, किन्तु पर जमीनी स्तर पर पर्यावरणीय चिंतन की प्राथमिकता का अभाव तथा इस विषय पर शिक्षण तथा प्रशिक्षण के अभाव में ठोस परिणाम कम दिखाई देते हैं। यूनाईटेड नेशन एनवायरमेंट प्रोग्राम के ‘यूनाईटेड नेशन एकानामिक कमीशन फार यूरोप’ (UNECE) के तत्वावधान में जून, वर्ष 2016 में सम्पूर्ण यूरोप के लिए एक ‘‘ग्लोबल एनवायरमेंट आउटलुक- जिओ 6 (GEO-6)’’ तैयार करवाया था। जिसमें वर्ष 2030 तक सम्पूर्ण यूरोप में विकास के वर्तमान पर्यावरण भक्षी प्रगति के पथ के दुष्प्रभावों की परिकल्पना को लेकर धारणीय विकास के लक्ष्य एवं मार्गों का निरूपण किया गया था। पर दुर्भाग्य यह है कि यूरोप में तैयार किए गए इस दस्तावेज पर भी उतनी सक्रियता से अमलीजामा नहीं पहनाया गया, जितना कि इसके अध्ययन तथा निष्पादन से अपेक्षित था। ऐसे ही दस्तावेजों की आवश्यकता भारत, चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे देशों के लिए भी बनाने की जरूरत है, जिससे कि यह पता चल सके हमारी वर्तमान जनसंख्या एवं विकास के परम्परागत मार्ग के दुष्प्रभावों से उत्पन्न पर्यावरण पर भार की तुलना में आगामी 10 वर्षों में क्या दुर्दशा होने वाली है। क्या हमारा पर्यावरण इस बोझ को झेलने को सक्षम है? पर भारत में तो इस दिशा पर चिंतन भी राजनैतिक पाप का कारण बन सकता है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि आर्थिक विकास की जो उच्च दर का हम सपना देख रहे हैं, उसे प्राप्त करने के लिए कितने पर्यावरणीय और प्राकृतिक संसाधन अपेक्षित हैं और क्या ये संसाधन हमें सुलभ हैं। यदि हैं, तो कितने वर्षों तक? साथ ही यह भी समझना बहुत जरूरी है कि इनके उपभोग से उत्पन्न आर्थिक प्रगति के कारण मानवीय वस्तु खपत में वृद्धि के जल-थल-नभ, वानस्पतिक, नदी-पहाड़ तथा जैव विविधता पर क्या दुष्प्रभाव हैं। हमने यदि आंख बंद करके प्रगति के आधारणीय मार्गों पर गमन किया तो आने वाले वर्षों में गंभीर रूप से प्रदूषित शहरों की सूची लम्बी होगी। नदियों, तालाबों में और गंभीर प्रदूषण का स्तर बढ़ेगा। पहाड़ों से वनस्पतियों का और अधिक नाश होगा। अतः सम्पूर्ण भारत के धारणीय विकास एवं टिकाऊ विकास के लिए यह आवश्यक है कि हम भी अपने देश के लिए, सम्पूर्ण भारत के लिए ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण महा भारत (अखंड भारत) जिसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, वर्मा और अफगानिस्तान भी शामिल हैं को ले, एक भारतीय उपमहाद्वीप के लिए ‘‘रीजनल एनवायरमेंट आउट लुक 2030’’ के रूप में तैयार करें। जिसमें सभी पर्यावरणीय घटकों एवं जनसंख्या, खाद्य तथा रासायनिक कृषि, जैव विविधता को समाहित कर भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित पर्यावरण हेतु मार्ग प्रशस्त करना संभव हो। अन्यथा आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में सम्पूर्ण मानव जाति की रोगरोधन क्षमता इतनी क्षीण न कर दें कि किसी भी छोटे-मोटे कोरोना जैसे वायरस से सम्पूर्ण मानव प्रजाति सकते में आ जावे।
सौभाग्य से भारत एक ऐसा देश है जिसे विषम परिस्थितियों से लड़ने हेतु प्रकृति ने अद्भुत क्षमता दी है। इसका सही नियोजन करने हम सब कटिबद्ध हैं। होली के पावन त्यौहार पर अभिनंदन तथा चैत्र नवरात्रि एवं हिन्दू नववर्ष पर पाठकों को शुभकामनाएं।
-ललित कुमार सिंघानिया