धर्मो रक्षति रक्षितःभारत वर्ष में इस समय विश्व के इस शताब्दी की या यूॅं कहें कि इस सहस्त्राब्दी में मानवों द्वारा मनाए जाने वाले पर्वों में सबसे बड़ा पर्व महाकुंभ का आयोजन प्रयागराज में चल रहा है। इस 45 दिवसीय महापर्व में 45 करोड़ से अधिक लोगों के भाग लेने का अनुमान था। उसमें से इस लेख के लिखे जाने तक ही 35 करोड़ लोगों ने संगम में स्नान कर लिया है। यूॅं तो इस पर्व को शुद्ध रूप से सनातन धर्म का पर्व ही माना जाता है, किन्तु इस पर्व के आयोजन के पर्यावरणीय पृष्ठभूमि और मानव समाज की समरूपता का मूल्यांकन करने पर लगता है कि वास्तव में यह पर्व इस सहस्त्राब्दी का महा पर्यावरणीय कुंभ का आयोजन है। इसमें ज्यादातर अखाड़ों में या धर्म क्षेत्रों में जारी प्रवचनों एवं उपदेशों के सार को संग्रहित करते हैं तो यह समझ आता है कि मानव मात्र के कल्याण के लिए एक सूत्र बहुत महत्वपूर्ण है, जिसमें कहा जाता है कि ‘‘धर्मो रक्षति रक्षितः’’ अर्थात यदि आप धर्म की रक्षा करते हैं तो धर्म आपकी रक्षा करता है। इस अर्ध श्लोक का पूरा श्लोक इस प्रकार है। धर्म एव हतो हन्ति धर्माे रक्षति रक्षितः । तस्माद् धर्मं न त्यजामि मा नो धर्माे हतोऽवधीत्।। शब्दार्थ- मृत धर्म, मारने वाले को नष्ट कर देता है और संरक्षित धर्म उद्धारकर्ता की रक्षा करता है। इसलिए मैं धर्म का त्याग नहीं करता कि कहीं नष्ट होकर वह धर्म मेरा ही नाश कर दे।
अस्तु एक पर्यावरणविद की दृष्टि से धर्म का विश्लेषण जब किया जाता है, अर्थात धर्म क्या है? यदि इसकी विवेचना की जाती है तो यह समझ में आता है कि ‘‘धारयेत इति धर्मः’’। अर्थात जो धारण योग्य है, वही धर्म हे। अर्थात जो धारणीय है वही धर्म है। तदैव प्रश्न उठता है कि धारणीय क्या है? अंग्रेजी में इसे ैनेजंपदंइसम भी कहा जाता है। और यदि इसकी वैज्ञानिक विवेचना की जावे तो यह स्पष्ट होता है कि जो भी प्रकृति और पर्यावरण पर हमारी जीवनशैली के कारण भार (प्रदूषण) उत्पन्न होता है, उसे यदि प्रकृति एवं पर्यावरण सहन (झेल) नहीं कर सकते तो वह धारणीय नहीं है, अर्थात् अधारणीय है। शायद ऐसे ही कृत्यों को पाप की संज्ञा दी गई थी, जिसमें हमें बचपने में बताया गया था नदी में थूकना, मल-मूत्र विसर्जन करना पाप है। नदियों के, तालाबों के जल को दूषित करना पाप है। किन्तु वर्तमान युग में जब ज्यादातर नदियां एक जल-मल निकास नाली बनकर रह गई हैं, वहां एक धार्मिक आयोजन के संकल्प की शक्ति से ही गंगा के जल में बीओडी 3 से नीचे और सीओडी 10 के नीचे तथा कोलीफार्म 2000 के नीचे और टर्बीडिटी 30 से नीचे ले जाया जाता है, तो वह निश्चित रूप से एक सराहनीय प्रयास है, जो कि धारणीय कार्य है, तदैव यह कृत्य भी धार्मिक कृत्य है।
एक तरफ जहां दिल्ली में प्रवेश कर रहे यमुना के जल को राजनीति करने वाले लोगों ने हरियाणा द्वारा जहर मिला कर प्रवाहित करने का आरोप किया है, वहीं दूसरी ओर वही विषैला यमुना का जल उत्तर प्रदेश में प्रवाहित होते-होते प्रयागराज में संगम तक पहुॅंचते-पहुंचते इतना शुद्ध हो जाता है कि गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर करोड़ों लोग इस महाकुंभ में प्रतिदिन स्नान, आचमन करके अपने आपको पापमुक्त कर पाते हैं। इस महाकुंभ में उमड़ी करोड़ों की भीड़ यूॅं तो ज्यादातर हिन्दुओं की ही है, पर इस मानव समुद्र में किसी अन्य धर्म से भी कोई है और किसी अन्य राष्ट्र से भी कोई और है, तो वह भी पूरी तरह से आस्था के इस कुंभ में अपने जातीय, धर्मीय या राष्ट्रीयता की पहचान को खोकर कुंभ प्रवासी मानव मात्र तीर्थ यात्री ही बनकर रह जाता है। और गंगा के जल में डुबकी लगाने के बाद पानी में डूबे हुए किसी भी व्यक्ति की क्या कोई जाति और धर्म या राष्ट्रीयता का भेद शेष रह जाता है? तो उत्तर होगा शायद नहीं। जिस जल राशि में शंकराचार्य डुबकी लगा रहे हैं, उसी जल राशि में एक सामान्य कृषक या श्रमिक डुबकी लगा रहा है, उसी राशि में गौतम अडानी डुबकी लगा रहे हैं तो उसी जल में एक भिखारी भी डुबकी लगा रहा है। प्रधानमंत्री से लेकर आम आदमी सभी उसी जल में डुबकी लगाकर स्नान कर रहे हैं। तो फिर कहां है भेद? मानव मात्र के बीच मिट गये इस भेद के साथ ही मनुष्य का हृदय प्रकृति एवं मां गंगा की गोद में बैठकर जब उस परमपिता परमेश्वर से पूरे विश्व के कल्याण की प्रार्थना करता है, तो स्वाभाविक निष्कर्ष यह निकलता है कि प्रकृति और पर्यावरण की प्रतिरक्षा किए बिना यह कैसे संभव है? अतः सनातनी त्यौहारों में सबसे ज्यादा बल प्रकृति का सम्मान करने पर दिया गया है। इसलिए प्रकृति के पांचों उपादानों (पंच भूतों) को पूज्य भी किया गया है।
गंगा स्नान एवं संगम स्नान की परम्परा भी प्रकृति पुरूष की इस अनुपम जल धारा की पवित्रता एवं प्रवाह को अक्षुण्ण बनाए रखने हेतु ही शायद आह्वाहित किया गया हो। चूॅंकि यह स्पष्ट है कि जल की पवित्रता की रक्षा करने से पवित्र जल (शुद्ध जल) हमारे स्वास्थ्य की रक्षा करेगा। हमारी फसलों एवं पशुधन की रक्षा करेगा, उनका संवर्धन करेगा। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि नदियों के जल की पवित्रता की रक्षा करना हमारा धर्म है और फलस्वरूप हमारी स्वतः ही रक्षा हो जाती है- शुद्ध जल से। इसी प्रकार यदि हम वायु को लेते हैं तो वायु को शुद्ध रखना हमारा धर्म है। चूॅंकि स्वस्थ और शुद्ध वायु के बिना भी हम स्वस्थ नहीं रह सकते। पृथ्वी अर्थात मृदा (मिट्टी) को स्वच्छ एवं स्वस्थ रखना भी हमारा कर्म है। अग्नि को शुद्ध रखना भी हमारा धर्म है तो आकाश में कोलाहल नहीं पैदा करना भी हमारा धर्म है। तो हम पाते हैं कि इन पांचों तत्वों की रक्षा यदि हम धर्म के दायित्व के रूप में करते हैं या धार्मिक कार्य मानकर भी करते हैं तो स्वाभाविक रूप से ये पंचतत्व हमारी स्वतः ही रक्षा करते हैं। इस मान्यता को अंगीकार कर हम पर्याववरण की जितनी सुरक्षा कर सकते हैं, शायद उतनी तो दंडात्मक कानूनों से भी नहीं कर सकें?
अतः ऐसा माना जा सकता है कि महाकुंभ का सबसे बड़ा संदेश प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा करना ही मानव मात्र का धर्म है। जहां किसी राजनैतिक आयोजन में प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री या किसी भी बड़े-बड़े राजनेता की सभा के लिए रूपया, पैसा, भोजन, वाहन, परिवहन देकर भी हजारों की भीड़ एकत्र करना कठिन होता है, चाहे उसके लिए कोई नेता या अधिकारी घर-घर जाकर न्यौता देकर आया हो, वहीं इस महापर्व पर किसी ने भी किसी को आमंत्रित नहीं किया। कोई भी संस्था या संगठन ने इसमें आने के लिए किसी भी यात्री को कोई प्रलोभन नहीं दिया, कोई ट्रेन, बस या प्लेन का किराया नहीं दिया, फिर भी लोग पूरी दुनिया से हजारों, लाखों खर्च करके कई-कई दिनों या सप्ताह या महीने की छुट्टी लेकर इस पर्व में भाग लेने को उमड़ रहे हैं।
ऐसी अविचल एवं अविरल आस्था की शक्ति ही किसी संस्कृति को अमरत्व प्रदान करती है। अमृत स्नान के नाम पर कुंभ में गंगा स्नान या संगम स्नान भारतीय संस्कृति को अमृत पान कराता है, अमरत्व प्रदान करता है। इसी अमृतपान की शक्ति से ही भारतीय सनातन संस्कृति विश्व में हजारों वर्षों से विपरीत परिस्थितियों को भी झेलकर आज जीवित है। क्योंकि इसका मूल भाव विश्व का कल्याण है, मानव में सद्भावना है, प्रकृति की रक्षा और पर्यावरण का संरक्षण है। तभी तो बड़े-बड़े साधु-संत, महामंडलेश्ववर, नागा बाबाओं के साथ बड़े-बड़े उद्यमी, उद्योगपति, धनपति भी अपनी-अपनी ओर से तमाम तरह की सुविधाओं को निःशुल्क प्रदान कर रहे हैं। आने वाली पीढ़ियों को ऐसे विशाल आयोजन को पुनः आयोजित करने की संभावना पर आश्चर्य होगा। संस्कारों की यह शक्ति अद्भुत है। इस पर्व के सफल आयोजन पर सम्पूर्ण सनातनी परिवार को बधाई एवं शुभकामनाएं।
- ललित कुमार सिंघानिया