शंकराचार्य ने उपनिषदों की इस धारणा का समर्थन किया है कि ब्रह्म सर्वोच्च सत्ता है। उससे बढ़कर कोई तत्व नहीं। वह शक्ति और ज्ञान की अंतिम सीमा है। कठोपनिषद में कहा गया है- पुरूषान्न परं किंचित साकाष्ठा सा परा गतिः। ब्रह्म का अर्थ भी है इससे बड़ा तत्व। ब्रह्म शब्द बृह् और मन् से बना है। इसका व्युत्पतिक्रम्य अर्थ है- सबसे बड़ा और महान। ब्रह्म ही जगत का मूल कारण है, जो अनेक नाम रूपों में प्रकट होने पर भी निर्गुण, निराकार और अखण्ड है। इसलिए इसे अद्वितीय भी कहते हैं। ब्रह्म देश और काल से परे है। वह स्वतः सिद्ध है, अतः उसकी सत्ता को किसी उदाहरण द्वारा नहीं समझाया जा सकता।
शंकराचार्य ने ब्रह्म का विचार व्यावहारिक और पारमार्थिक दो दृष्टियों से किया है। व्यावहारिक दृष्टि से सगुण ब्रह्म (ईश्वर) की सत्ता मानी गई है। यह ब्रह्म संसार की सृष्टि, पालन तथा संहार करने वाला है। यह माया की उपाधि से युक्त है- मायोपहितं सगुणं ब्रह्म। यह ब्रह्म की सृष्टि का निमित्त और उपादान कारण है, यह उपासना का विषय भी है। जब तक हम जगत को सत्य मान रहे हैं, तब तक इस ब्रह्म को स्वीकार करना आवश्यक है, क्योंकि नामरूपात्मक जगत की सृष्टि करने वाला यही सगुण ब्रह्म है। वहीं पालक और संहारक भी है। इस रूप में जब हम ब्रह्म का लक्षण देते हैं, तब यह तटस्थ लक्षण कहलाता है। एक अभिनेता जिस रूप को धारण करके रंगमंच पर आता है, वह उसका तटस्थ लक्षण होता है। इसी प्रकार ब्रह्म का भी तटस्थ लक्षण है- सगुणत्व, उपास्य होना, सृष्टि आदि करना। ब्रह्मसूक्त में इसी लक्षण को समझाने के लिए कहा गया है- जगमायस्य यतः। अर्थात इस जगत का जन्म आदि जिससे होता है, वही ब्रह्म है।
शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त-दर्शन में विश्व की व्याख्या के लिए माया को स्वीकार किया गया है। अन्य कोई वेदान्त सम्प्रदाय माया को उस रूप में नहीं मानता, इसलिए इस दर्शन का एक विशेष अभिधान ‘मायावाद’ भी पड़ गया है। विवर्तवादी होने के कारण शंकर समस्तनाम रूपात्मक जगत को ब्रह्म का विकार मानते हैं। किन्तु, प्रश्न उठता है कि ब्रह्म एक है, वह जगत के नाना रूपों को कैसे उत्पन्न करता है? स्वयं निर्गुण होने पर भी सगुण संसार की उत्पत्ति कैसे होती है? निर्गुण और निर्विकार ब्रह्म सृष्टिकर्ता कैसे हो सकता है? इस प्रश्न का समाधान माया के द्वारा होता है। माया के कारण ही निर्गुण और निर्विकार ब्रह्म सगुण ईश्वर होकर सृष्टिकर्ता बनता है। माया शक्ति के बिना जगत की सृष्टि नहीं हो सकती, इसलिए माया ईश्वर की शक्ति है।
अपने ‘विवेकचूड़ामणि’ नामक ग्रंथ में शंकराचार्य माया का वर्णन करते हुए कहते हैं-
अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्तिरनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा। कार्यानुमेया सुधियैव माया यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते।।
अर्थात यह अव्यक्त नामक शक्ति परमेश्वर की शक्ति है, जो अनादि अविद्या के रूप में है। वह सत्व, रजस और तमसइन तीन गुणों के रूप में है। विद्वान लोग ही माया के अनुमान उसका कार्य देखकर करते हैं। उसी के द्वारा यह पूरा जगत प्रसूत होता है।
शंकराचार्य के ब्रह्म को समझने के लिए उनकी माया विषयक धारणा को समझना आवश्यक है। यही कारण है कि ब्रह्मसूत्र पर भाष्य का आरंभ करते हुए भूमिका में वे अध्यास को समझाते हैं। यह अध्यास और माया अभिन्न हैं। शंकराचार्य के पूर्ण माया को ईश्वर की शक्ति या उपाधि के रूप में विद्वानों ने कल्पित किया था। गीता में कहा गया है कि माया त्रिगुणमयी है। इसका तरण बहुत कठिन है। जो पुरूष भगवान की भक्ति करते हैं, वे ही माया को पार करते हैं। शंकराचार्य ने माया को ईश्वर की बीजशक्ति के रूप में स्वीकार किया है। इसी शक्ति के कारण संसारी जीव अपने यथार्थ स्वरूप को भूलकर प्रगाढ़ शरीर का मोह करता है।
शंकराचार्य इस सामान्य अनुभव के आधार पर बतलाते हैं कि ब्रह्म जगत में व्याप्त भी है और इससे ऊपर भी है। जब तक जगत का आभास हो रहा है, तब तक वह ब्रह्म का आश्रित है, किन्तु जगत को जब भ्रमजाल समझकर दूर कर देते हैं, तब भी ब्रह्म रहता है। ब्रह्म जगत के सुख-दुःख या पाप-पुण्य से प्रभावित नहीं होता।
ब्रह्म, जगत और जीव ये सब अभिन्न हैं। अज्ञानवश जीव ब्रह्म को उपास्य समझता है और संसार को भोग्य मानता है। किन्तु परमार्थतः जीव भी ब्रह्म है और जगत भी ब्रह्म है। जीव में अल्पज्ञता होती है और ब्रह्म सर्वज्ञ है। जिस क्षण भेद बुद्धि मिट जाती है, उसी क्षण जीव, जगत और ब्रह्म एक हो जातो हैं। शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म सभी भेदों से रहित है।
विश्वातीत रूप में ब्रह्म सभी उपधियों से रहित ‘परब्रह्म’ है। सगुण ब्रह्म या ईश्वर को दूसरी ओर ‘अपरब्रह्म’ कहते हैं। दोनों में कोई भेद नहीं, उपाधि को लेकर भेद है। -परब्रह्म’ उपाधिरहित होता है, जबकि ‘अपरब्रह्म’ सोपाधिक होता है। परब्रह्म को किसी की अपेक्षा नहीं ‘निरपेक्ष’ है। ‘अपरब्रह्म’ को जगत की अपेक्षा होती है, जिसकी सृष्टि, पालन आदि करता है।
यद्यपि ईश्वर ‘परब्रह्म’ का औपाधिक रूप है, किन्तु उसका महत्व भी कम नहीं है। आध्यात्मिक मार्ग पर हम सीढ़ियों से ही चल सकते हैं। विवेकी के लिए सृष्टिकर्ता और पालक ईश्वर की आवश्यकता है। तब ईश्वर उपास्य हो जाता है। वह कर्मानुसार फल देता है। क्रमशः आगे बढ़ने और अद्वैत का साक्षात्कार होता है, जहां परब्रह्म एकमात्र सत्ता है, जीव और ब्रह्म एकाकार हो जाते हैं। इसलिए कहा गया है- जीव ब्रह्मैव नापरः।
ब्रह्म को आत्मा भी कहा गया है। वह अद्वैत तत्व है जिसे तर्क या बुद्धि से नहीं जान सकते। फिर भी उसकी सत्ता के लिए प्रमाण दिए गए हैं- ब्रह्म की सत्ताश्रुति प्रमाण से सिद्ध होती है। चारों वेदों की उपनिषदों में तत्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि, अममात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म इत्यादि महावाक्यों के द्वारा ब्रह्म को प्रमाणित किया गया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कह सकते हैं कि अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म ही सब की आत्मा है।
ब्रह्म निर्गुण है, किन्तु माया की उपाधि से युक्त होकर ईश्वर अर्थात सगुण और साकार बन जाता है। माया ईश्वर की त्रिगुणत्मिका शक्ति है। निर्गुण ब्रह्म अपनी ही शक्ति से सगुण बनता है। यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है। शंकराचार्य गीताभाष्य में कहते हैं कि अज, अविनाशी, भूतेश्वर तथा नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त- स्वभाव ईश्वर अपनी माया को वश में करके देहधारी जैसे हो जाते हैं। माया ब्रह्म की शक्ति है, किन्तु ब्रह्म से भिन्न नहीं है, तथापि वह नित्य नहीं है। वह ईश्वर की इच्छा मात्र है। ब्रह्म स्वयं अपनी इस बीज शक्ति से परिच्छिन्न होकर अनेक द्रष्टा जीवों तथा अनेक दृश्य पदार्थों के रूप में प्रतीत होता है। इस प्रकार दाहकता अग्नि से और संकल्प मन से अविच्छेध्य है, उसी प्रकार शक्ति भी ब्रह्म से अविच्छेध्य है। माया को लेकर ही ब्रह्म अपने सगुण रूप ईश्वर बन कर जगत की सृष्टि, पालन और संहार करता है।
माया की दो शक्तियां होती है- आवरण और विच्छेप। आवरण शक्ति निषेधात्मक होती है, जिसके द्वारा वस्तु के यथार्थ रूप को आच्छन्न कर दिया जाता है। यही शक्ति ब्रह्म के यथार्थ रूप को उसी प्रकार ढंक लेती है, जैसे बादल का छोटा टुकड़ा सूर्य को ढक लेता है। दूसरी ओर विच्छेप शक्ति भावात्मक है, जो छिपाए गए पदार्थ को दूसरे रूप में प्रकट करती है। जैसे शुक्तिका (सीपी) में रजत, रज्जु में सर्प, गगन में नीलत्व प्रकट होता है, इसी विच्छेप शक्ति से संसार के विविध पदार्थ प्रकट होते हैं। इस प्रकार माया का कार्य है ब्रह्म को छिपाकर संसारी जीवों तथा दृश्य पदार्थों को अयथार्थ रूप में उत्पन्न करना। सृष्टि माया की देन है। माया के अभाव में ईश्वर सृष्टि पालन या संहार नहीं कर सकता। माया को अध्यास में कहा गया है। इसी अध्यास से जगत की प्रतीति होती है। जीव और ब्रह्म में भिन्नता प्रतीत होती है। इस प्रकार सारा जगत ही अध्यास है, मिथ्या आरोप है, ब्रह्म पर आरोपित तथा कल्पित है। अंत में शंकराचार्य के अनुसार ईश्वर सभी को इस धरा पर दुनिया के सभी चीजों के बारे में जानकारी देते हैं। आप अच्छे काम करें उसका फल अवश्य मिलता है। गलत काम का अंजाम भी भुगतने के लिए आप स्वंय जिम्मेदार हैं। प्राकृतिक को सजाने , सुंदरता व बिगाड़ने में आप की जिम्मेदारी है। अतः प्रकृति के अनुसार चलें ईश्वर आपको मदद करेगा।
* संजय गोस्वामी
यमुना जी/13, अणुशक्ति नगर, मुॅंबई-94