वर्ष 2024 के आरंभ से ही सम्पूर्ण भारत में तथा विश्व के अनेकों देशों में बसने वाले सनानत धर्मावलंबियों में अयोध्या में प्रभु श्रीराम के जन्म स्थान के पुनरोद्धार के द्वारा भव्य मंदिर की स्थापना तथा प्राण प्रतिष्ठा हेतु अद्भुत उत्साह, उमंग एवं उल्लास का भाव देखा जा रहा था। पूरे भारत के गांव-गांव और नगर-नगर में इस भव्य मंदिर में श्री रामजी के बाल रूप की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की चर्चा चलती रही और आज भी जारी है।
श्री रामचन्द्रजी को सनातन धर्मावलंबियों द्वारा भगवान के रूप में पूजा जाता है। पर अनेकों अन्य मतावलंबियों द्वारा भी उनके जीवन चरित्र के आधार पर उनको एक आदर्श मानव के रूप में अनुकरणीय माना जाता है सम्मान दिया जाता है। चूॅंकि श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन एक साधारण से साधारण मनुष्य को भी अपने आसपास व्याप्त विपरीत परिस्थितियों के अनेकों आयामों से निरंतर संघर्ष कर उन पर विजय पाने को प्रेरित करता है। एक चक्रवर्ती सम्राट के राजपुत्र होने के बावजूद भी मर्यादा के मान के लिए 14 वर्षों का उनका वनवास का जीवन आज के इस पर्यावरणीय संकट से संघर्ष कर रही सभ्यता को समाधान पाने का सहज मार्ग प्रशस्त करने का पथ प्रदर्शित करा सकता है। अपार धन तथा वैभव को त्याग कर एक सन्यासी और एक वनवासी की तरह कठोर दिनचर्या में जीने का उदाहरण आज के युग के मनुष्यों को भोग-विलासिता से मुक्त होकर लोकहित और राष्ट्रहित में पर्यावरण प्रिय धारणीय जीवनशैली में जीने की प्रेरणा देता है।
इस समस्याग्रस्त पृथ्वी पर अनेकों समस्याएं आसन्न हैं। इन समस्त समस्याओं को यदि सूचीबद्ध कर समाधान हेतु श्रीराम के जीवन चरित्र से मार्ग ढूॅंढ़ा जावे, तो हम पाएंगे कि लगभग सभी समस्याओं का समाधान उनके जीवन चरित्र से हमें मिल सकता है। पहले चरण में आज का सबसे बड़ा संकट वर्तमान में मौसम परिवर्तन का ही है। इस संकट का सबसे बड़ा स्रोत भी बढ़ती मानव की संख्या तथा प्रति मानव बढ़ता हुआ ऊर्जा तथा सामग्रियों का उपभोग ही तो है। पर श्री रामचन्द्रजी के 14 वर्ष के वनवास काल के जीवनशैली का हम मूल्यांकन करें और उसको यदि हम आज के युग के जीवन में उत्सर्जित हो रहे ग्रीन हाउस गैस की गणना के अनुसार कार्बन फुट प्रिंट के आधार पर गणना करने का प्रयास करें तो हम पाएंगे कि उनके वनवास काल का कार्बन फुट प्रिंट तो लगभग शून्य ही रहा होगा। किन्तु आज के युग के लोग उस जीवनशैली में जीना असंभव ही पाएंगे। क्योंकि आज का हम सबका जीवन यांत्रिक सुख पर आश्रित हो गया है।
जबकि यंत्रों के निर्माण से लेकर संचालन में ऊर्जा का तो भारी उपभोग होता ही है और साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का भी, किन्तु, प्रश्न यह भी उठता है कि विश्व का प्रत्येक मनुष्य आज प्राकृतिक जीवनशैली को त्याग कर यांत्रिक जीवन क्यों जीना चाहता है? भले ही यांत्रिक जीवनशैली में सभी प्रकार के खतरे प्राकृतिक जीवन की तुलना में ज्यादा ही हैं। इसका उत्तर सहज नहीं है और हमारी सोच सर्वमान्य भी नहीं हो सकती है। तदापि एक भाव यह अवश्य आता है कि एक तो घटते हुए पर्यावरणीय संसाधनों को जीवनयापन के लिए पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित करने हेतु तथा दूसरा समाज में धन सम्पन्न और भौतिक ऐश्वर्यशील व्यक्ति को मिलने वाले ज्यादा सम्मान एवं गौरव के कारण भी लोग अधिक धन अर्जन कर अधिक भौतिक सुखों का सृजन कर ज्यादा सम्मान चाहते हैं? किन्तु, इसके विपरीत श्रीराम के जीवन में झांकने पर हमें ज्ञात होता है कि नाव चलाकर जीविका यापन करने वाला मल्लाह भी उनके लिए भाई के समान सम्मानीय है। तो एकदम गरीब झोपड़ी में जीने वाली आदिवासी महिला भी माॅं के समान है, तभी तो भीलनी के बेर खाकर समाजमें नागरीय और वनांचल के समाज के बीच की सामंजस्यता और समरसता का उदाहरण प्रस्तुत किया था। वहीं रावण जैसे धन सम्पन्न, बल सम्पन्न, सेना सम्पन्न, शक्ति सम्पन्न सम्राट को भी पराजित करने हेतु सत्य की शक्ति के साथ समाज के लघुत्तम सीमा पर स्थित लोगों को एकसूत्र में पिरोकर विजय का मार्ग प्रशस्त करके आज के युग के लिए यह उदाहरण दिया कि धन शक्ति और यंत्र शक्ति से ज्यादा शक्तिशाली जन शक्ति और सत्य शक्ति है।
चूॅंकि यह एक कड़वा सच है कि पर्यावरण और प्रकृति को सबसे ज्यादा क्षति भी असत्य, झूठ और भ्रम के द्वारा सृजित किए गए उपभोगवादी संस्कारों से ही हो रहा है। तदैव प्रकृति एवं पर्यावरण की रक्षा के लिए हम राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघन सभी के जीवन से त्याग, बलिदान और तपस्या का उदाहरण सम्पूर्ण विश्व के समक्ष रखकर इस मानव सृजित समस्या से मुक्ति पा सकते हैं। राम राज्य की कल्पना से मेरा अभिप्राय श्रीराम की मूर्ति की केवल पूजा करने से नहीं है, अपितु प्रत्येक मानव को पृथ्वी पर प्रकृति एवं पर्यावरण की रक्षा के लिए श्रीराम के जीवन से उन आदर्श सूत्रों को अपने आप में तिरोहित कर अपनाने से है। विश्व की लगभग सभी संस्कृतियां आज भारत की ओर इन धारणीय संस्कारों को धारित करने तत्पर लगती हैं।
राम राज्य के लिए यह कहा गया है कि ‘‘दैहिक दैविक भौतिक तापा राम राज कौनेहू नहीं व्यापा।’’ यदि इस चैपाई की गहनता से विश्लेषण करें कि राम राज्य में किसी भी नागरिक को कोई भी शारीरिक रोग बीमारी, आर्थिक दरिद्रता एवं मानसिक व्याधि आदि क्यों नहीं थी? तो उसके पीछे प्रकृति एवं पर्यावरण की पर्याप्त प्रफुल्लता रही होगी और उसके साथ ही प्रत्येक व्यक्ति का परस्पर प्रेम, उन सबका जीवन भी एक धारणीय जीवनशैली मय रहा होगा। लोगों में इस भाव से जीने का संकल्प रहा होगा कि ‘‘जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए’’। अर्थात प्रकृति पुरूष ने जितना और जैसा दिया था, उस पर संतोष से जीना जानते थे।
इसके विपरीत सोने की लंका में राज करने वाले प्रबल सैन्य शक्ति सम्पन्न, अर्थशक्ति सम्पन्न रावण के राज्य की विवेचना करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी सोने की लंका में आवश्यकता से अधिक धन संचय करने के उन्माद, लोभ एवं लालच में उसने पूरी लंका की प्रकृति और पर्यावरण को परास्त कर दिया होगा। तभी तो लंका के लोगों में क्रोध, उन्माद, नशा जैसी आसुरी बुराईयां व्यापक रही होंगी। परिणाम समक्ष है कि तमाम प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित लंकापति जो वायुयान, रथ आदि सभी प्रकार के साधनों से सुसज्जित था, वह एक पैदल चलने वाले वनवासी राजकुमार (श्रीराम) की वानरी सेना से परास्त हो गया था।
भारत की इस सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विरासत की विवेचना जब हम पर्यावरण तथा प्रकृति के संरक्षण की पृष्ठभूमि में तथा इन आयामों की शक्ति की पृष्ठभूमि में रखकर मूल्यांकन करते हैं तो यह पूरी तरह से स्पष्ट होता है कि प्रकृति के बीच वन तथा वन्य पशुओं के बीच भौतिक संसाधनों से विरक्त होकर भी जीने वाले लोगों के जीवन में शारीरिक स्वास्थ्य का सुख एवं मानसिक आनंद का सुख नागरीय सभ्यता के अंतर्गत भयावह भोगवादी जीवन जीने वालों से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ हो सकता है। पर विडम्बना यह है कि वर्तमान सभ्यता पूरी तरह से अर्थ प्रधान हो चुकी है, जिसमें प्रकृति के विभिन्न अवयव भी शनैः-शनैः बाजार में विक्रय के लिए प्रस्तुत हैं। ऐसी परिस्थितियों में सबसे जटिल समस्या तब बन जाती है, जब किसी भी देश का प्रशासन भी प्रकृति एवं पर्यावरण के विक्रय से प्राप्त धन में से अपनी सरकार के लिए मिलने वाले राजस्व को भी धन समाशोधन का आकर्षक स्रोत मान लेता है। यह एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण चिंतन है कि कैसे किसी भी शासन तंत्र को प्रकृति एवं पर्यावरण के शोषण से प्राप्त राजस्व के साधन के मोह से विरत किया जावे।
ऐसी परिस्थितियों में शायद यह आशा का विषय हो कि राममंदिर के पुनरूद्धार के द्वारा सम्पूर्ण विश्व में भारत के माध्यम से एक ऐसी सांस्कृतिक जीवनशैली को अंगीकार करने का संदेश मिले, जो पूर्णतया प्रकृति संरक्षीय और धारणीय हो। इस दिशा को और लक्ष्य को पाने के लिए भारत सरकार को अपनी आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों का विश्लेषण कर ऐसा मार्ग तय करना होगा कि प्रगति के पथ में नागरिकों के मध्य आर्थिक असंतुलन कम हो, पर्यावरणीय असंतुलन भी कम हो। इसलिए यह विवेचना का विषय होना चाहिए कि आज जब भारत की अर्थव्यवस्था 3.73 ट्रिलियन डालर की जीडीपी का स्तर पा चुकी है, अर्थात जब प्रति व्यक्ति जीडीपी 2664$ प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष पहुॅंच चुकी, अर्थात 221135 रूपय/प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष है, औसत आय 172000 रूपए प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष है। फिर भी क्यों 80 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीने को विवश हैं? अर्थात ग्रामीण क्षेत्र में उनकी वार्षिक आय 12714 रूपए से कम है, तो शहरी क्षेत्र में 15432 रूपए/व्यक्ति प्रति वर्ष से भी कम है।
अतः हमें यह अध्ययन करना होगा कि अर्थव्यवस्था के इस विशाल ऊॅंचाई पर पहुॅंचने के कारण पर्यावरण और प्रकृति पर क्या बोझ आ रहा है? और उस बोझ का वास्तविक मूल्य क्या है? तथा क्या यह बोझ जाने-अनजाने में उन मासूम नागरिकों पर तो नहीं पड़ रहा है, जिन्हें इस अर्थसमृद्धि का कोई भौतिक या मानसिक सुख भले ही नहीं मिल रहा हो, किन्तु उसके द्वारा उत्पन्न पर्यावरणीय क्षति का भार उन पर पहुॅंच रहा है? अस्तु, विश्लेषण का बिन्दु यह भी हो कि गरीबी रेखा के नीचे बढ़ रही जनसंख्या का मुख्य कारण जनसंख्या विस्फोट है या फिर अधारणीय अर्थव्यवस्था के द्वारा उत्पन्न पर्यावरणीय विनाश के लागत का बोझ है?
अंत में हम सबको स्वीकार करना चाहिए कि राम की प्रासंगिकता तभी सही माने में सार्थक होगी, जब हम सभी भारतीय उनके आदर्श के महत्वपूर्ण अंश अवश्य अंगीकृत करें। यदि इतना भी न हो तो भी कुछ अंश तो अवश्य अपने अंदर धारण करने का प्रयास करें। किसी भी मंदिर में विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के साथ स्थापना का उद्देश्य भी यही होता है कि हम यह मानते हैं कि अब साक्षात प्रभु की कृपा हम पर है, तो उनकी साक्षात निगरानी भी हम पर है। हमें यह अवश्य समझना चाहिए कि निगरानी कर्ता शक्ति हमारे सत्कर्मों के लिए सम्मान और शाबाशी हमें दे या न दे, किन्तु हमारे दुष्कर्मों के लिए हमें दंडित तो तत्काल कर सकता है। चूॅंकि अब हम उसकी जीवंत निगरनी में जो आ चुके हैं।
इस युग में राम के चरित्र का यह आदर्श भी अनुकरणीय है कि अपने शक्ति के उपयोग से किसी कमजोर राज्य को जीत कर गुलाम करने के बजाए उस राज्य के निरंकुश शासक को हराकर प्रजा के धर्मप्रिय जन को ही सत्तासीन करना उचित है। यदि यह भाव आज विश्वव्यापी हो तो चीन के द्वारा ताईवान पर, रूस के द्वारा यूक्रेन पर, हमास के द्वारा इस्रायल पर या ऐसे ही अन्य देशों के बीच जारी संग्राम को सहजता से समाप्त किया जा सकता है। साथ ही हमें यह चिंतन भी करना होगा कि अति समृद्धि और अति विपन्नता दोनों ही पर्यावरणीय हित के लिए घातक सिद्ध होते हैं। अति समृद्धिशाली लोग उपभोग ज्यादा करते हैं तो दरिद्रता के कारण व्यक्ति उन प्राकृतिक संवेदनशील घटकों का उपभोग करने विवश होता है, जो अत्यंत क्रांतिक होते हैं। अतः राम राज्य की संकल्पना को मूर्तरूप देने के लिए पर्यावरण हितकारी धारणीय जीवनशैली को अंगीकार करना जरूरी है एवं समाज में आय से समरूपता तथा व्यवहार में समरसता लाना जरूरी है। अयोध्या में प्रतिष्ठित हुए श्रीराम प्रभु के मंदिर हेतु एवं बसंत पंचमी पर्व पर सभी पाठकों को हार्दिक
शुभकामनाएं एवं बधाई।
-संपादक