हमने अपने पिछले अंक में ग्लासगो क्लाईमेट पैक्ट पर एक सरसरी टिप्पणी करते हुए लिखा था कि भूमण्डलीय उष्मन (ग्लोबल वार्मिंग) से उत्पन्न मौसम परिवर्तन के संकट को टालने के लिए निरंतर हो रहे समझौतों से बहुत अच्छे परिणाम मिलने की सफलता हमें धूमिल लगती है। इस निराशाजनक अभिव्यक्ति को विस्तार से समझाना यहां संभव नहीं है, तदापि जो मुख्य बिन्दु हैं उन्हें हम पाठकों के संज्ञान में लाना चाहते हैं।
यह घनघोर विडम्बना है कि पृथ्वी पर व्याप्त इस भयावह विपत्ति के मूल स्रोत के रूप में मानवीय गतिविधियों को सर्वस्वीकृति होने के बावजूद भी पृथ्वी पर मानव जनसंख्या नियंत्रण हेतु किसी भी अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में कभी भी कोई भी चर्चा नहीं होती है। जबकि वर्तमान पर्यावरण संकट का मूल स्रोत विस्फोटक हो चुकी जनसंख्या ही है। तदैव जनसंख्या नियंत्रण हेतु सार्थक निर्णय लिए बिना इस लक्ष्य को पाना कठिन है।
दूसरा दुर्भाग्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य को इस कटु सत्य का भी भलीभांति भान है कि मानव जीवन क्षण भगुंर है और कुछ भी कर लिया जावे, तो भी उसे अमर नहीं किया जा सकता। फिर भी आर्थिक सभ्यता में नव संस्कारों के कारण अधिक से अधिक धन संचय के मार्ग से, ज्यादा से ज्यादा उपभोग से ज्यादा सुख की तृष्णा को कम करने तथा लम्बी उम्र का भ्रम मिटाने के लिए कभी कोई ऐसे तथ्यात्मक चिंतन नहीं रखा जाता कि धन के आकर्षण में जारी प्रकृति शोषण का मोह कम हो सके।
वर्तमान सभ्यता में समृद्धि का मानदण्ड चूॅंकि आर्थिक पैमाने पर है, किन्तु इस अर्थ संचय पर प्रकृति के क्षय के क्षतिपूर्ति की लागत के मूल्यांकन करने का कोई प्रावधान नहीं है। तदैव सहज, सादगीमय प्रकृति के जीवनशैली को ऐश्वर्यमयी जीवनशैली की तुलना में हेय दृष्टि से देखा जाता है। फलस्वरूप एक मिथ्या सम्मान के भाव में ज्यादा से ज्यादा लोग उस विनाशकारी ऐश्वर्यमयी जीवनशैली की ओर प्रवृत्त होते हैं, जो लम्बे समय में पृथ्वी के पर्यावरण के लिए प्राणघातक है। किसी भी अंतर्राष्ट्रीय पटल पर पर्यावरण प्रिय परम्परागत सांस्कृतिक जीवनशैली को प्राथमिकता देने को या अंगीकृत करने की कोई पहल नहीं होती है। जबकि आज भी ‘‘आदि संस्कृति’’ में जी रहे लोगों का व्यक्तिगत कार्बन फुट प्रिंट अभी भी न्यूनतम है।
यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में बारम्बार स्थानीय लोगों की भागीदारी एवं जागृति पर सतत बल दिया गया है, किन्तु यह प्रमाणिक सत्य है कि भारतवर्ष जैसे देश में भी 135 करोड़ लोगों में शायद मुश्किल से 10 लाख लोगों को भी मौसम परिवर्तन के वर्तमान तथा संभावित विभीषिका के कारणों एवं निदान के बारे में तथा उसके शमन के उपायों के बारे में कोई जानकारी हो? राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी जितने भी समझौते होते हैं, जितने भी वार्तालाप होते हैं, उन सबके बारे में जो वैज्ञानिक चिंतन या सामाजिक चिंतन होता है, उस पर भी कोई विस्तृत जानकारी एवं ज्ञान, स्थानीय भाषाओं में यथा हिन्दी, उर्दू, तेलगू, तमिल, उड़िया, बंगाली, पंजाबी इत्यादि भाषाओं में उपलब्ध नहीं होता है। जबकि, दुनिया के अनेक छोटे-छोटे देश, जिनकी जनसंख्या भारतवर्ष के किसी एक प्रांत से भी कम है एवं जिनका कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण का योगदान उतना नहीं है, शायद उतना पैसा भी न हो, फिर भी उन देशों की भाषा में भी जैसे- पुर्तगीज एवं फ्रेंच इत्यादि में भी संयुक्त राष्ट्र संघ के एवं मौसम परिवर्तन सम्बन्धी विषयों पर सभी समझौते के विवरण की जानकारीयां उपलब्ध होती है। इस विषय को भारत सरकार के पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय तथा विदेश मंत्रालय को UNFCCC एवं UNO के संज्ञान में लाना चाहिए।
हमारे स्थानीय भाषाओं में जानकारी उपलब्ध न होने का दुष्प्रभाव यह है कि आम आदमी अपने बीच उन कारणों को और उन लोगों को चिन्हांकित नहीं कर पाते हैं जिनके पर्यावरणीय क्षतिकारक जीवनशैली के कारण पृथ्वी पर विपत्ति उत्पन्न हो रही है एवं पर्यावरण विपन्नता बढ़ रही है। न ही ऐसे लोगों का सम्मान कर पाते हैं, जो कि अपनी धारणीय जीवनशैली के कारण पृथ्वी पर समृद्ध मौसम के लिए रास्ता सृजित कर रहे हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए समृद्धि व सुख का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।
इस चिंतन पर विचार करने पर सबसे दुखद पृष्ठभूमि यह स्पष्ट दिखाई पड़ती है कि न केवल भारतवर्ष, अपितु दुनिया के अनेकों अन्य देश, जैसे अमेरिका तथा यूरोप के भी अनेकों भागों में किसानों की आर्थिक स्थिति अन्य सभी उद्यम एवं व्यवसायों पर लगे हुए लोगों से काफी हीन है, काफी न्यून है, काफी दुर्दशा और दरिद्रता है। जबकि मौसम परिवर्तन को रोकने या हरितकारी गैसों को न्यूनतम करने के दृष्टिकोण से देखा जावे तो सर्वाधिक योगदान खेती करने वाले किसानों का ही है। ही आज किसानों पर रासायनिक खाद एवं जहरीले रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग का दोषारोपण किया जाता है, किन्तु इस कटु सत्य को कोई स्वीकार क्यों नहीं करता कि विस्फोटक हो चुकी जनसंख्या को भरपूर भोजन देने के लिए ही विवशतापूर्वक किसानों पर इन सब विपत्तिकारक युक्तियों को थोपा गया, जिससे उनके उत्पादन की लागत तो अवश्य बढ़ गई, पर उस अनुपात में कृषि उपज मूल्यों में वृद्धि नहीं हुई। फलस्वरूप पहले से ही दरिद्रता में जी रहे किसान और अधिक आर्थिक गरीबी में फंसता गया।
ऐसी विपरीत परिस्थितियों में समानांतर रूप से जारी औद्योगिक समृद्धि के विकास के कारण आम कृषि आधारित उद्यमी एवं किसानों के जीवनशैली में हुए परिवर्तन के कारण भी जीवन की लागत पर्याप्त मात्रा में बढ़ गई। उस तुलना में विज्ञान, तकनीकी एवं औद्योगीकरण के कारण किसानों को समृद्धि प्राप्त नहीं हुई। यह एक चिंताजनक विषय है कि आज भारत के किसान अपने उत्पादों के समुचित मूल्य के लिए वर्षों से भिन्न-भिन्न स्वरूपों में संघर्षरत हैं। यद्यपि वर्तमान किसान संघर्ष को कुछ राजनीतिक महत्वाकांक्षी लोगों ने ऐसी परिस्थिति में पहुॅंचा दिया कि किसानों का जो मुख्य दर्द था, वह नेपथ्य में चला गया एवं अन्य अनावश्यक मुद्दे आंदोलन का सबब बन गए, जिससे किसानों के हितों के लिए जो वैज्ञानिक नीतियों एवं आर्थिक प्रशासनिक नियमों के द्वारा समाधान प्रस्तुत किए जा रहे थे, वे दुरूह हो गए।
इस दुर्भाग्यजनक स्थिति को एक राजनीतिक घटनाक्रम में आंकलन करने के कारण हम उस पर समीक्षा नहीं करना चाहते, तदापि यह अवश्य संकेत देना चाहते हैं कि वर्तमान मौसम परिवर्तन के संकट को टालने में जितनी बड़ी भूमिका विज्ञान प्रौद्योगिकी की हो सकती है, उससे बड़ी भूमिका किसानों एवं कृषि की हो सकती है। पर, सम्पूर्ण विश्व भर के अर्थशास्त्री, नीति निर्धारक तथा वैज्ञानिक एवं चिंतक न जाने क्यों इस सहज, सुलभ मार्ग के प्रति उतना अधिक तत्पर एवं दृढ़ दिखाई नहीं देते, जितना कि औद्योगिक प्रक्रियाओं के माध्यम से मौसम परिवर्तन को रोकने के लिए कार्यरत दिखते हैं।
एक संक्षिप्त संकेत के रूप में यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि सम्पूर्ण भारत में उपलब्ध कृषि अपशिष्ठ का उपयोग कंप्रेस्ड बायो सीएनजी के रूप में सहजतापूर्वक करना संभव है। केवल इस हेतु भारत सरकार के द्वारा बायो सीएनजी हेतु, लागत मूल्य पर उचित लाभ को जोड़कर, उचित मूल्य पर बायो सीएनजी को क्रय करने हेतु व्यवस्था करना ही पर्याप्त होगा। इसी प्रकार यदि बायो सीएनजी के आकर्षक मूल्य प्राप्त होते हैं, तो पूरे भारतवर्ष के लगभग सभी महानगरों में उत्पन्न होने वाले सीवेज सिस्टम से उत्पन्न होने वाले सीवेज को भी बायो मीथेनाईजेशन प्रक्रिया से शुद्ध कर बायो सीएनजी प्राप्त किया जा सकता है। इससे स्थानीय आटोमोबाइल जनित प्रदूषण को न्यूनतम किया जा सकता है, तो साथ ही शोधित दूषित जल को रिसायकल कर यमुना, गंगा जैसी पवित्र नदियों को प्रदूषण से मुक्त किया जा सकता है।
इसी तारतम्य में यदि अन्न आधारित तथा कृषि अपशिष्ठ आधारित बायो एथेनाल के आकर्षक मूल्य भारत सरकार सुनिश्चित करती है तो वर्तमान में देश में जितना भी अन्न उत्पन्न होता है, उसकी उत्पादकता को भी दोगुना किया जा सकता है, गन्ना की उत्पादकता को भी दोगुना किया जा सकता है तथा जितना भी कृषि अपशिष्ठ है, उसको जलने से बचाकर किसानों को मूल्य दिलाया जा सकता है। ऐसा करके पेट्रोलियम आयात बिल को जहॉं आधा किया जा सकता है, वहीं कार्बन उदासीन इन कृषि आधारित उत्पादों से बायो एथेनाल बनाकर, कार्बन डाईऑक्साइड इमीशन को सफलतापूर्वक नियंत्रित किया जा सकता है। इस प्रकार मौसम परिवर्तन को रोकने हेतु कृषि को सर्वश्रेष्ठ साधन के रूप में सिद्ध किया जा सकता है।
मौसम परिवर्तन भले ही एक प्राकृतिक संकट के रूप में समक्ष दिखाई दे रहा है, किन्तु यदि भारत सरकार के नीति नियोजक, इस संकट का समाधान करने के लिए कृषि संसाधनों को एक लाभकारी विकल्प के रूप में स्वीकार करते हैं, यदि नीति नियोजनों को उस दृष्टिकोण से निरूपित करते हैं तो, भारतवर्ष की अर्थव्यवस्था को तीन वर्षों में ही 5 ट्रिलियन से भी अधिक पहुॅंचाने हेतु यह मार्ग सार्थक सिद्ध होगा। वर्तमान केन्द्रीय सरकार निश्चित रूप से एक स्वर्णिम भारत के संकल्प को लेकर काम कर रही है, किन्तु इस दिशा में अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों में आम आदमी की भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि स्थानीय स्तर पर, राज्य स्तर पर, राष्ट्र स्तर पर और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रही चिंता एवं संकल्प पर स्थानीय भाषाओं में निरंतर विचार किया जावे। इस दिशा में इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए जो लोग जमीनी स्तर पर कार्य कर रहे हैं, उन्हें एक सूत्र में पिरोकर, उनका शक्ति संवर्द्धन किया जावे। साथ ही वर्तमान कृषि प्रणाली को मात्र अन्न ऊर्जा साधन न मान कर पेट्रोल तथा एलपीजी एवं सीएनजी के वैकल्पिक स्रोत के रूप में विकसित करने का संकल्प लें तो किसानों के कल्याण के साथ मौसम परिवर्तन रोकने में बड़ी सफलता मिलेगी।
– संपादक