स्वच्छ ऊर्जा के सहज और सस्ते मार्ग विकसित करना जरूरी है

बढ़ते हुए ग्रीन हाउस गैस स्तर के परिणामस्वारूप पृथ्वी के तापमान में हो रही वृद्धि तथा बदल रहा मौसम अब भविष्य की कुसंभावना नहीं, अपितु आज का यथार्थ बन चुका है। प्रतिदिन टेलीविजन-सोशल मीडिया (डिजिटल मीडिया) और समाचार पत्रों (प्रिंट मीडिया) में पृथ्वी के भूपटल पर बढे हुए तापमान के प्रमाणों की बाढ़ सी आई हुई है। एकदम ताजा उदाहरण हम भारतीयों के सामने में ‘‘मिचैंग तूफान’’ के रूप में आया तूफान अभी कुछ ही दिनों पूर्व गुजरा है, जब सर्दियों के मौसम में भारी वर्षा के कारण तमिलनाडु की राजधानी में इतनी अधिक वर्षा हुई कि बाढ़ की स्थिति बन गई। हवाई अड्डे को बंद करना पड़ा तथा सड़कों पर गाड़ियां खिलौनों की तरह तैरती हुई बहती नजर आईं। तूफान के प्रकोप से कुछ 5-7 लोगों के काल-कवलित होने की भी जानकारी है। मानवीय जीवन की क्षति का अनुमान तो फिर भी लग जाता है, पर इस तरह की विपदाओं से पशुधन एवं वन्य पशुओं को होने वाले नुकसान का आंकलन करना न केवल कठिन होता है, अपितु किसी के लिए प्राथमिकता में भी शायद ही होता हो?

पृथ्वी के अन्य भूभागों में भी इसी दौरान ऐसी ही कुछ भयंकर घटनाओं को मौसम के विपरीत घटते हुए निरंतर देखा जा सकता है। अतः अब मौसम परिवर्तन को भविष्य की कुसंभावना मानना भयंकर भूल होगी। इसे प्रामाणिक रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए कि मानव सभ्यता ने वायुमंडल पर हरितकारी गैसों का सांद्रण स्तर उस सीमा तक पहुॅंचा दिया है, जहाॅं पर तापमान में वृद्धि लगभग 1.5 डिग्री पहुॅंच ही चुका है। पृथ्वी के औसत तापमान की गणना करना भले ही शैक्षणिक या एकेडमिक अनिवार्यता हो, किन्तु पृथ्वी के भिन्न-भिन्न भूभागों में इस कारण से घटित हो रही विपदाएं, उस स्थान पर पीड़ित हो रहे लोगों के लिए थर्मामीटर में बढ़े तापमान को मापने से अधिक साक्षात अनुभूत सत्य है।

यद्यपि विश्व समुदाय इस तरह की समस्या की संभावना को वर्ष 1992 से ही महसूस कर रहा है तथा इसकी गंभीरता को क्योटो प्रोटोकाल के माध्यम से स्वीकार करते हुए आवश्यक कदम उठाने का निर्णय लिया गया था। जिसकी परिणिति में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कंवेंशन फार क्लाईमेट चेंज के रूप में दिखाई दिया। उस तारतम्य में क्लीन डेवलपमेंट मेकेनिज्म को भी अंगीकृत कर वर्ष 2002 से 2012 तक गंभीरता से विकसित देशों ने एवं विकासशील देशों ने लागू भी किया। पर अभी तक के प्रयासों के परिणाम ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन नियंत्रण के प्रभावशाली स्तर की दृष्टि से निराशाजनक ही हैं।

इसी प्रयास की कड़ी में फिलहाल दुबई में कांफ्रेंस आफ पार्टीज की 28वीं बैठक, ‘वल्र्ड क्लाईमेट एक्शन समिट’’ के नाम से नवम्बर 30 से आरंभ होकर 12 दिसम्बर 2023 तक जारी है। इस सम्मेलन में विश्व के लगभग सभी देशों के अगुआ नेता शामिल हो रहे हैं, जिसके प्रारंभिक सत्र में भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने आव्हान में मौसम परिवर्तन से लड़ने के लिए विकासशील देशों को वित्तीय समर्थन पर्याप्त रूप से देने हेतु बल दिया है। पर विडम्बना यह है कि एक तरफ पूरा विश्व समुदाय बदलते मौसम को परिवर्तित होने से रोकने के लिए चिंता करते हुए बैठकों पर बैठक कर रहा है, वहीं दूसरी ओर यूक्रेन-रूस युद्ध तथा हमास-ईस्त्रायल युद्ध यथावत जारी है। इन युद्धों से मौसम परिवर्तन को त्वरित करने हेतु बढ़ रहे हरितकारी गैसों को सीमित करने की चिंता करने का साहस कोई नहीं कर पा रहा है। आज भी पूरा विश्व सांप्रदायिक सोच के ऐसे खतरनाक शिकंजे में फंसा हुआ है कि उससे मुक्ति का कोई मार्ग प्रशस्त होता नहीं दिख रहा है।

यह भी सच है कि वर्तमान परिस्थितियों में मौसम परिवर्तन को रोकने के लिए जो प्रयास तकनीकी के माध्यम से समक्ष प्रस्तुत किए जा रहे हैं, उनके लिए भारी भरकम वित्त की आवश्यकता साक्षात दिखाई दे रही है। उदाहरण के तौर पर आज सम्पूर्ण विश्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती ऊर्जा की आपूर्ति के स्वच्छ मार्ग को सुनिश्चित करना है, चूॅंकि वर्तमान सभ्यता ही सर्वाधिक ऊर्जा भोगी सभ्यता बन चुकी है। ऊर्जा के उत्पादन में वर्तमान में विद्युत ऊर्जा उत्पादन में सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन हो रहा है।

वर्तमान परिस्थितियों में सम्पूर्ण विश्व में केवल विद्युत ऊर्जा की मांग वर्ष 2022 में 24398 टेरावाट आवर थी, जिसमें कोयले से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा की मात्रा अभी भी लगभग 35.8 प्रतिशत है। भारतवर्ष में भी वर्ष 2022 में विद्युत ऊर्जा की उत्पादन क्षमता लगभग 395.61 गीगावाट पहुॅंच चुकी है, जिसमें से कोयले से उत्पादित ऊर्जा का स्तर लगभग 203.90 गीगावाट है। अब हम यदि केवल अपने ही देश की बात करें तो हम यह पाते हैं कि भारत सरकार के श्रेष्ठतम प्रयासों से पिछले 10 वर्षों में अभी 152.90 गीगावाट ही स्वच्छ ऊर्जा स्रोत के रूप में विकसित हो पाया है। जिसमें से 106.37गीगावाट सौर ऊर्जा एवं पवन ऊर्जा के साथ है। बहुत थोड़ी मात्रा में अपशिष्ठ और बायोमास ऊर्जा के रूप में विकसित हो पाया है। केवल 46.524 गीगावाट ही पनबिजली ऊर्जा के रूप में विकसित हुआ है। किन्तु, न्यूक्लियर पावर के रूप में तो मात्र 6.78 गीगावाट ही स्थापित हो पाया है।

अब सवाल यह उठता है कि यदि हम 2030 तक भारतवर्ष में ही अपने विद्युत ऊर्जा की मांग को कार्बन उदासीन ढंग से उत्पादित करना चाहें तो सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इतनी ऊर्जा उत्पादन के लिए न तो सौर ऊर्जा के माध्यम से स्वच्छ बिजली बनाना संभव है और न ही पवन ऊर्जा से। इसी तरह ऐसे जल संसाधन उपलब्ध नहीं है, जहां पर पनबिजली परियोजनाओं की विशाल क्षमता के प्लांट लगाए जा सकें। ऐसी परिस्थितियों में हमारे पास इन विकल्पों में उपलब्ध सीमाओं के अंतर्गत ही जितनी श्रेष्ठतम स्वच्छ ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है, उसे करने का प्रयास करना आवश्यक है। इस दिशा में ऊर्जा के एक भाग को सहजता से उत्पन्न किया जा सकता है, वह नगरीय सीवेज के माध्यम से बायो मीथेन उत्पादन का मार्ग है।इसी तकनीकी को सर्वत्र प्रसारित करके पशुपालक किसानों के मध्य लोकप्रिय कर, पशुमल तथा कृषि अपशिष्ठ को भी बायो मीथेन के रूप में परिवर्तित कर, काफी विशाल मात्रा में आयातित पेट्रोलियम उत्पादों के विकल्प के रूप में विकसित किया जा सकता है। इसी श्रृंखला में कृषि अपशिष्ठ के रूप में उपलब्ध सेलुलोजिक बायोमास को बायो एथेनाल में परिवर्तित करके, बहुमूल्य विदेशी मुद्रा की बचत करने के लक्ष्य को भी प्राप्त करने हेतु सेलुलोजिक एथेनाल तकनीकी को सम्पूर्ण भारत में व्यापक किया जा सकता है।

परन्तु, हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि पूरे भारतवर्ष के अंतर्गत खेती की कुल उपलब्ध भूमि 16 करोड़ हेक्टेयर ही है और इस भूमि पर वर्तमान 145 करोड़ जनसंख्या के लिए अनाज, सब्जी, फल, दाल, तिलहन, मसाले आदि सभी के उत्पादन का भार लदा हुआ है। इस पर भी देश के तेजी से बढ़ रहे औद्योगिक विकास, जनसंख्या, अधोसंरचना विकास तथा खनिज संसाधनों के दोहन हेतु बढ़ती मांग को पूरा करने के कारण कृषि भूमि पर दबाव बहुत तेजी से बढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में कृषि भूमि को अब सौर ऊर्जा संयंत्रों में परिवर्तित करना शायद ही संभव हो। अतः सौर ऊर्जा के विकास के लिए केवल उन क्षेत्रों में ही प्रयास किया जाना उचित होगा, जहाॅं पर वर्तमान में कृषि की उत्पादकता बहुत कम हो या जो क्षेत्र सूखाग्रस्त हों या जैसे मरूस्थलीय क्षेत्रों में, जहाॅं पर खेती करना संभव नहीं हो पा रहा है।

इसी प्रकार मूल्यांकन करने के बाद जब समस्त उपलब्ध भूभाग को प्राथमिकता से कृषि के लिए सुरक्षित करने के बाद शेष भूभाग को आवास, अधोसंरचना, उद्योग, खनिज इत्यादि में नियोजन करने के बाद शेष उपलब्ध भूभाग को पूरा का पूरा भी सौर ऊर्जा या अन्य किसी भी रिन्युयेबल एनर्जी के उपयोग में लाने का नियोजन करें, तो भी हम पाते हैं कि बढ़ती हुई जनसंख्या एवं वर्तमान जनसंख्या में भी, प्रति व्यक्ति बढ़ते हुए ऊर्जा के उपभोग की पूर्ति करने के लिए हमारे उपलब्ध एवं श्रेष्ठतम संभावित नवीनीकृत ऊर्जा की क्षमताओं को दोहन करने के बाद भी सम्पूर्ण कोयला आधारित ऊर्जा उत्पादन क्षमताओं को शायद ही कभी कोयला मुक्त क्षमताओं में परिवर्तित कर पाएं।

किन्तु, अब और कोयले से बिजली बनाना मानव सभ्यता के लिए एक खतरा पैदा कर रहा है, तो विकल्प तो ढूॅंढ़ना ही पड़ेगा। ऐसा करने पर हम यह पाते हैं कि वर्तमानकाल में उपलब्ध तकनीकियों के मध्य में नाभिकीय ऊर्जा, परमाणु ऊर्जा ही एकमात्र ऐसा मार्ग है, जिसके माध्यम से हम भारत के सम्पूर्ण विद्युत ऊर्जा संसाधनों को कोयला मुक्त मार्ग से उत्पन्न कर सकते हैं। किन्तु, जैसा कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भी ब्व्च् 28 में अपने उद्बोधन में उल्लेख किया है कि, इन सभी कार्बन उदासीन ऊर्जा के विकल्पों हेतु पूॅंजी की आवश्यकता या वित्त की आवश्यकता बहुत ज्यादा होती है। इस बीच प्रधानमंत्री श्री मोदी जी ने अनुकूलन (।कंचजंजपवद) हेतु 57 लाख करोड़ रूपए का प्रावधान किया है। सरसरी तौर पर तुलना करने से हमें यह ज्ञात होता है कि जहाॅं एक मेगावाट कोयले के सुपर थर्मल पाॅवर प्लांट की स्थापना हेतु मात्र 6 करोड़ रूपए लगते हैं, जिससे लगभग 8700 आवर मेगावाट बिजली प्रतिवर्ष मिल सकती है, पर उतनी ही विद्युत यदि हमें सौर ऊर्जा से उत्पन्न करना हो तो हमें लगभग 30 करोड़ रूपए निवेश करना आवश्यक होता है। उतनी ही बिजली यदि न्यूक्लियर पावर प्लांट से पैदा करनी हो तो लगभग 65 करोड़ रूपए की आवश्यकता प्रति मेगावाट हेतु होती है। चूॅंकि हाइड्रो पावर प्लांट केवल ऐसे स्थान पर ही लगाए जा सकते हैं, जहाॅं पर जल की विशाल राशि उपलब्ध हो एवं जल के गुरूत्वीय प्रभाव में उतना वेग एवं ऊर्जा उपलब्ध हो कि उससे सार्थक रूप से विद्युत उत्पादन किया जा सके। पर ऐसे स्थान सीमित हैं, अतः इस विकल्प का मूल्यांकन उचित नहीं है। तदैव, विश्व के अनेकों देशों ने न्यूक्लियर पावर की क्षमता की वृद्धि के लिए सार्थक प्रयास किए जा रहे हैं। इस दिशा में चीन के द्वारा पिछले वर्षों में 37 नए परमाणु रिएक्टर बनाए गए हैं। इनके ये प्रयास कार्बन उदासीनता की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। चूॅंकि चीन में ऋण लेना आसान है तथा सस्ता है एवं लाइसेंस प्राप्त करना भी सहज है।

भारत के वित्तीय नियोजकों के लिए एक अनिवार्य चिंता भी विकसित करती है कि आर्थिक प्रतिस्पर्धा में यदि हमारी अर्थव्यवस्था को बनाए रखना हो तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि स्वच्छ ऊर्जा साधनों की आपूर्ति के मार्ग, यदि आर्थिक रूप से सस्ते एवं धारणीय नहीं होंगे, तो आर्थिक विकास की दर अवरूद्ध हो जावेगी। इसलिए स्वच्छ ऊर्जा के सहज और सस्ते मार्ग विकसित करना जरूरी है। सभी सुधी पाठकों को तुलसी पूजन दिवस, क्रिसमस एवं आगामी कैलेंडर वर्ष 2024 हेतु शुभकामनाएं।

-संपादक