बर्बादी के कगार पर हिमालय

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हिमाचल-प्रदेश के किन्नौर जिले में राष्ट्रीय राजमार्ग पर हुआ भू-स्खलन इस बात का संकेत है कि आधुनिक विकास ने पूरे हिमालय क्षेत्र को बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया है। इस हादसे में दस लोग मारे गए और कई मलबे में दब गए। मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं निरंतर सामने आ रही हैं। पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं।
उत्तराखंड और हिमाचल में बीते पांच साल में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकंप आए हैं। ये रिक्टर पैमाने पर 3 से कम होते हैं, इसलिए इनका तात्कालिक बड़ा नुकसान देखने में नहीं आता, लेकिन इनके कंपन से हिमालय में दरारें पड़ जाती हैं। नतीजतन भू-स्खलन और चट्टानों के खिसकने जैसी त्रासदियों की संख्या बढ़ गई है। ये छोटे भूकंप हिमालय में किसी बड़े भूकंप के आने का स्पष्ट संकेत हैं।
वरिष्ठ भूकंप वैज्ञानिक डॉ. सुशील रोहेला का कहना है कि बड़े भूकंप जो रिक्टर पैमाने पर छह से आठ तक की क्षमता के होते है, उनसे पहले अकसर छोटे-छोटे भूकंप आते है। इन भूकंपों की वजह से थ्रस्ट प्लेट खिसक जाती हैं, जो बड़े भूकंप के आने की आशंका जताती हैं।
हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं के लिए बनाए जा रहे बांधों ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है। टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो प्रदूषित होगी ही, हिमालय का भी पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा सकता है? लेकिन औद्योगिक-प्रोद्यौगिक विकास के लिए इन्हें नजरअंदाज किया गया।
इसीलिए 2013 में केदारनाथ दुर्घटना के सात साल बाद ऋषिगंगा परियोजना पर बड़ा हादसा हुआ था। इस हादसे ने डेढ़ सौ लोगों के प्राण तो लीले ही संयंत्र को भी पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था, जबकि इस संयंत्र का 95 प्रतिशत काम पूरा हो गया था।
उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जाता है और नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खंबे व दीवारें खड़े किए जाते हैं। इन गड्ढों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन पहाड़ों के ढहने और हिमखंडो के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ रही हैं। गोया, प्रस्तावित सभी परियोजनाएं कालांतर में अस्तित्व में आ जाती हैं तो गोमुख और हिमालय से निकलने वाली सभी नदियों का पानी पहाड़ से नीचे उतरने से पहले ही निचोड़ लिया जाएगा, तब गंगा अविरल कैसे बहेगी ?
गंगा की इस अविरल धारा पर उमा भारती ने तब चिंता की थी, जब केंद्र में संप्रग की सरकार थी और डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। उत्तराखंड के श्रीनगर में जल विद्युत परियोजना के चलते धारादेवी का मंदिर डूब में आ रहा था। इस डूबती देवी को बचाने के लिए उमा धरने पर बैठ गई थीं। अंत में सात करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान करके, मंदिर को स्थांनातरित कर सुरक्षित कर लिया गया।
उमा भारती ने चौबीस ऊर्जा संयंत्रों पर रोक के मामले में सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान 2016 में जल संसाधन मंत्री रहते हुए केंद्र सरकार की इच्छा के विपरीत शपथ-पत्र के जरिए यह कहने की हिम्मत दिखाई थी कि उत्तराखंड में अलकनंदा, भागीरथी, मंदाकिनी और गंगा नदियों पर जो भी बांध एवं जल विद्युत परियोजनाएं बन रही हैं, वे खतरनाक भी हो सकती हैं। लेकिन इस इबारत के विरुद्ध पर्यावरण और ऊर्जा मंत्रालय ने एक हलफनामे में कहा कि बांधों का बनाया जाना खतरनाक नहीं है।
इस कथन का आधार 1916 में हुए समझौते को बनाया गया था। इसमें कहा गया है कि नदियों में यदि एक हजार क्यूसेक पानी का बहाव बनाए रखा जाए तो बांध बनाए जा सकते हैं। किंतु इस हलफनामे को प्रस्तुत करते हुए यह ध्यान नहीं रखा गया कि सौ साल पहले इस समझौते में समतल क्षेत्रों में बांध बनाए जाने की परिकल्पनाएं अंतर्निहित थीं। उस समय हिमालय क्षेत्र में बांध बनाने की कल्पना किसी ने की ही नहीं थी ?
इन शपथ-पत्रों को देते समय 70 नए ऊर्जा संयंत्रों को बनाए जाने की तैयारी चल रही थी। दरअसल परतंत्र भारत में जब अंग्रेजों ने गंगा किनारे उद्योग लगाने और गंगा पर बांध व पुलों के निर्माण की शुरूआत की तब पंडित मदनमोहन मालवीय ने गंगा की जलधारा अविरल बहती रहे, इसकी चिंता करते हुए 1916 में फिरंगी हुकूमत को यह अनुबंध करने के लिए बाध्य किया था कि गंगा में हर वक्त हर क्षेत्र में 1000 क्यूसेक पानी अनिवार्य रूप से निरंतर बहता रहे। लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर टिहरी जैसे सैकड़ों बड़े-छोटे बांध और बिजली संयंत्रों की स्थापना के लिए आधार स्तंभ बनाकर गंगा और उसकी सहायक नदियों की धाराएं कई जगह अवरुद्ध कर दी गईं हैं।
दरअसल भारत समेत दुनिया के आधे से ज्यादा बांध बूढ़े हो चुके हैं और जो नए बांध निर्माणाधीन हैं, उन्हें भी एक समय बूढ़ा व जर्जर हो जाना है। भारत, अमेरिका, फ्रांस, चीन समेत सात से अधिक देशों में औसत उम्र पूरी कर चुके बांधों से करोड़ों लोगों की जिंदगी के सिर पर मौत का खतरा मंडरा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र ने जल सरंचना आयु रिपोर्ट (एजिंग वाटर इंफ्रास्ट्रक्चर) कनाडा के एक संस्थान के साथ तैयार की है। रिपोर्ट में कहा है कि 2025 तक दुनिया में ऐसे हजारों बांध होंगे, जिनकी उम्र पचास वर्ष से अधिक होगी। इनमें से अनेक बांध जर्जर अवस्था में पहुंच चुके हैं, जो मरम्मत के अभाव में कभी भी टूटकर लाखों जिंदगियां लील सकते हैं।
भारत में 1115 ऐसे बांध हैं, जिनकी आयु पचास वर्ष हो चुकी हैं। दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका व पूर्वी यूरोप में ऐसे अनेक बांध हैं, जिनकी उम्र 100 साल होने जा रही है। सात एशियाई देशों के कुल 58,700 बांधों में से ज्यादातर का निर्माण 1930 से 1970 के बीच हुआ है।
इस्पात, सीमेंट और कंक्रीट से बने बांधों की उम्र पचास से 100 साल होती है, चीन, भारत, जापान, कोरिया और पाकिस्तान में ऐसे 32,716 बांध हैं, जो अपनी उम्र पूरी कर रहे हैं। केरल का मूल्लापेरियर बांध 100 साल से ज्यादा का हो चुका है, यदि यह टूटता है तो 35 लाख लोगों की जान को खतरा हो सकता है। वैसे भी भारत में बांधों के टूटने से हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं। इस रिपोर्ट और उत्तराखंड की त्रासदियों को ध्यान में रखते हुए बांध परियोजनाओं पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है।
हालांकि देशभर के बांधों को सुरक्षित बनाए रखने की दृष्टि से 10,211 करोड़ रुपए का बजट भारत सरकार ने आबंटित किया है। यह धन ‘बांध पुनर्वास और सुधार कार्यक्रम’ (डीआरआईपी) के अंतर्गत दिया गया है। दो चरणों में बांधों की मरम्मत होगी। भारत बांध संख्या के लिहाज से तीसरे स्थान पर हैं।
देश में कुल बांध 5,745 हैं। इनमें से संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ने 1115 बांधों की हालत खस्ता बताई है। चीन पहले और अमेरिका दूसरे स्थान पर है। देश में 973 बांधों की उम्र 50 से 100 वर्ष के बीच है, जो 18 प्रतिशत बैठती है। 973 यानी 56 फीसदी ऐसे बांध हैं, जिनकी आयु 25 से 50 वर्ष हैं। शेष 26 प्रतिशत बांध 25 वर्ष से कम आयु के हैं, जिन्हें मरम्मत की अतिरिक्त जरूरत नहीं है।
दरअसल पुराने और ज्यादा जल दबाव वाले बांधों की मरम्मत इसलिए जरूरी है, क्योंकि बरसात का अधिक मात्रा में पानी भर लेने पर इनके टूटने का खतरा बना रहता है। बांधों की उम्र पूरी होने पर रख-रखाव का खर्च बढ़ता है, लेकिन जल भंडारण क्षमता घटती है। बांध बनते समय उनके आसपास आबादी नहीं होती है, लेकिन बाद में बढ़ती जाती है। नदियों के जल बहाव के किनारों पर आबाद गांव, कस्बे एवं नगर होते हैं, ऐसे में अचानक बांध टूटता है तो लाखों लोग इसकी चपेट में आ जाते हैं। उत्तराखंड व हिमाचल में पहाड़ों के दरकने और हिमखंडों के टूटने से जो त्रासदियां सामने आ रही हैं, उस परिप्रेक्ष्य में भी नए बांधों के निर्माण से बचने की जरूरत है।
प्रमोद भार्गव
शिवपुरी म.प्र.