पृथ्वी पर सभ्यता का इतिहास पूर्व से पश्चिम की ओर चला। अंग्रेजों ने भारत के अतीत को बिगाड़ कर हमारे भविष्य को खत्म करने का जो षड्यंत्र रचा था उस मिथक को सिरे से नकारते हुए ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’ (आईआईटी) खड़कपुर ने वैज्ञानिक तथ्यों सहित वेदों का विज्ञान और आर्यो की प्रामाणिकता को प्रस्तुत किया है। वैदिक उदघोष ‘वसुधैव कुटुंबकम’ को लेकर आर्यों ने दिग्विजय यात्रा की और दुनिया को सभ्य बनाया। अधिकांश देशों में अब आर्य सभ्यता की देव मूर्तियां और प्रतीक चिन्ह मिल रहे हैं। दुनिया के अधिकांश देश उन प्रतीकों को अपनी धरोहर के रूप में समेटे हुए हैं जिनका उल्लेख वेदों में आया है। आधुनिक विज्ञान भी वही कह रहा है जो वेदों में वर्णित है।
अंग्रेजों ने रचा झूठ
भारत में आर्य बाहर से आए हैं और वे आक्रांता हैं। अंग्रेजों ने ‘आर्य द्रविड़’ की काल्पनिक थ्योरी लिखकर भारत में अपनी जड़ें जमाने के लिए साजिश की थी। आजादी के बाद भी हम यही इतिहास पढ़ते रहे कि आर्य भारत में आक्रांता है! आजादी के 75 वें साल भारत में ‘‘आज़ादी का अमृत महोत्सव“ मनाया जा रहा है तब एक उस सच्चाई को सामने लाया गया है। भारतीय संस्कृति और उसकी अस्मिता के लिए एक सराहनीय पहल की गई है। आईआईटी खड़कपुर ने 2022 का एक कैलेंडर जारी कर ‘आर्य द्रविड़ थ्योरी’ की सच्चाई को सामने लाकर वैदिक सभ्यता के वैभवशाली इतिहास को प्रदर्शित किया है।
महान सभ्यताओं की जननी
कैलाश पर्वत भारत का एक पवित्र स्थान है। कैलाश पर्वत पर जो ग्लेशियर हैं वह उन महान नदियों का स्रोत रहा है जिसके किनारे भारत की कई सभ्यताएं फली फूली। 7000 ईसा पूर्व से पहले जिसे प्री हड़प्पन भी कहा जाता है, ‘सिंधु घाटी सभ्यता’ वाली सिंधु नदी का स्रोत यहीं है। यहीं पर 1000 ईसा पूर्व हड़प्पा सभ्यता के बाद की सभ्यता यहीं विकसित हुई। पूर्व में भारत की सबसे लंबी ब्रह्मपुत्र नदी का स्त्रोत कैलाश पर्वत का ग्लेशियर रहा। ऋग्वेद में सिंधु नदी की सहायक नदियों का जिक्र है। इन नदियों के स्रोत मध्य- पूर्वी हिमालय में स्थित शिवालिक की पहाड़ियां हैं। पूर्वी हिमालय से लेकर पश्चिमी नदी घाटी की नदियों में व्यास, झेलम, चिनाब, रावी और सतलुज नदी है। पूर्वी ‘सांपों नदी’ ही वह जगह है जहां खास प्रकार के घोड़े पाए जाने की बात कही गई है।
सिंधु से और पूर्व की तरफ गंगा गोमती घागरा सभ्यता पनपी। ऋग्वेद के आठवें मंडल में गोमती नदी का उल्लेख किया गया है।
‘‘एवा हांस्य सुनृतां विरप्शी गोमंती मही। पक्वा शाखा न दाशुर्षे।।“
(ऋग्वेद 1.8.8)
नेमिषारण्य जंगल गोमती नदी के किनारे बसा हुआ था, ऋषि मुनियों के आश्रम के कारण यह स्थल काफी लोकप्रिय रहा। उपनिषदों में इसका जिक्र है। ऐतिहासिक लक्ष्मणपुर (वर्तमान लखनऊ) इसके आसपास स्थित रहा है।
भूतकाल से भविष्य की ओर
फ़रवरी माह में स्वास्तिक को लेकर तथ्य दिये गये हैं। पवित्र स्वास्तिक चिन्ह के माध्यम से ‘समय चक्र’ और ‘पुनर्जन्म’ की व्याख्या की गई है। स्वास्तिक का पैटर्न ‘नान- लीनियर’ और ‘साइक्लिक’ है, जो आगे के भविष्य की तरफ इशारा करता है और पीछे का भूतकाल की ओर। ऋग्वेद में स्वास्तिक का उल्लेख इस प्रकार आया है।
‘‘नू मे ब्रह्मांण्यग्न उच्छंशाधि त्वं देंव मधवंद्भ्यः सुषूदः।
रातौ स्यांमोभ्यांस आ तें यूयं पांत स्वास्तिभि सदां नः।।“
(ऋग्वेद 7.1.20)
‘नॉन लीनियर फ्लो’ चेंज’ का जो वैदिक सिद्धांत है वह सिंधु घाटी सभ्यता से मिलता है। ऋग्वेद और पूरा का पूरा यजुर्वेद ही क्रिया (फ्लो) को एक साइक्लिक चेंज के रूप में परिभाषित करता है। व्यक्तिगत स्तर पर यह विकास की प्रक्रिया के रूप में बताए गए हैं और कास्मिक स्तर पर यह प्रतिक्रियाएं होती हैं।
मौसम के चक्र को भी इससे जोड़ा गया है। चीन के दर्शन में भी यह सिद्धांत है। भारत के ऋषि मुनियों ने इस चतुष्कोण बदलाव की व्यवस्था दी है। ऋतु चक्र को छह भागों में बांटा गया है। चार ऋतु के अलावा शरद ऋतु और मानसून को भी परिभाषित किया है। यह मौसम और संस्कृति का भारतीय इकोसिस्टम है।
स्पेस टाइम और कार्य के सिध्दांत
मार्च माह में जन्मांतर वाद की व्याख्या की गई है। वैदिक विज्ञान के मूल में ही समय अंतरिक्ष और कारणों का पता लगाया गया है। ‘कार्य संबंधी सिद्धांत’ ‘परस्पर निर्भरता’ के सिद्धांत पर आधारित है, जो कि किसी भी कार्य ‘फ्लो और वैल्यू’ के एक्शन, रिएक्शन पर आधारित होता है। इसका परिणाम पुनर्जन्म के रूप में निकलता है जिसे कास्मिक स्तर पर एक शरीर से आत्मा का निकलकर दूसरे शरीर में जाना कहते हैं। जिसे जन्मांतर वाद नाम दिया गया है। यहीं पर स्पेस- टाइम और कार्य के सिद्धांत को समझाया गया है। वेदों में इसका उल्लेख किया गया है।
द मैट्रिक्स
अप्रैल माह में योग की महत्ता को प्रदर्शित करते हुए ‘द मैट्रिक्स’ के बारे में दर्शाया गया है। सिंधु घाटी सभ्यता में जो सील मिली है वे ऋषि-मुनियों द्वारा प्रतिपादित किए गए ‘योग क्षेम’ के सिद्धांत से मिलती-जुलती हैं। ऋग्वेद के (10.167.1) में ‘योग क्षेम विषय कर्म’ और (7.36) में योगेभी कर्मभिः का उल्लेख है। (5.81.1) यहां योग को और विस्तार से समझाया गया है। जिसमें बताया गया है कि कैसे योगी अपने मन, बुद्धि को नियंत्रित करते हैं। होने और हो रहे के जरिए कास्मोलाजी की वास्तविकता का भान कराया गया है। चिंतन, ध्यान और सारी चीजों से ऊपर उठ जाने को ‘योग समाधि’ कहा जाता है। इसे प्राप्त करने वाले ‘योगी’ होते हैं। यह कृष्ण (अंधकार) है। योगी को सभी वैदिक कर्मकांड का मुख्य लक्ष्य माना गया है।
शुक्ल (उजाला) का भी सिद्धांत है। क्षेम या तंत्र उसे कहा गया है, जहां योगी को परम ज्ञान मिल जाता है। वह महायोगी हो जाता है। सप्त ऋषि इसे प्राप्त कर चुके हैं।
‘द मेट्रिक्स’ के बारे में बात करते हुए इसे कास्मिक क्रियाकलापों का गर्भाशय बताया गया है। यही बात सिंधु घाटी में मिली कलाकृतियों से भी परिलक्षित होती है।
भारत माता का सिद्धांत
मई माह में ऋग्वेद के मातृसत्तात्मक तथ्य की सत्यता को बताया गया है। ऋग्वेद का सूक्त (1.164.46) विविधता में एकता के सिद्धांत को आगे बढ़ाता है। यम के रूप में मृत्यु के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। देवी सूक्त (10.145) और रात्रि सुक्तम (10.127) कास्मो के निर्माण और विकास को लेकर ‘शुक्ल- कृष्ण सिद्धांत’ को आगे बढ़ाता है। जिसे हमेशा से आर्य ऋषियों ने इस दिव्य शक्ति को बिना शर्त प्रेम के रूप में देखा है। वेदों में आदित्य और इला- सरस्वती एवं भारती के रूप में प्रतिबिंबों का विवरण भी वैदिक काल में ही दिया गया था।
भारत माता का सिद्धांत जिसे आचार्य अवनींद्र नाथ ने दिया वह इसी प्राचीन क्रम को आगे बढ़ाता है। जबकि पश्चिमी देशों को पितृसत्तात्मक रूप से देखा जाता रहा है। इस लिए बाहर से कोई आर्य आए रहते तो उनकी सोच भी यही रहती।
यूनिकार्न का सिद्धांत
जून माह में स्पष्ट किया गया है कि यूनिकार्न का सिद्धांत भारत की ही देन है। ऋग्वेद (1.163) में वर्णित एक सींग वाले घोड़े और हड़प्पा में एक सींग वाले जानवर की तुलना की गई है। रामायण में ऋष्यश्रृंगा का विवरण है, जिसका जन्म हिरण के सींग से हुआ था। सिंधु घाटी सभ्यता में भी एक सींग वाले जानवर की चर्चा है जिसे शक्ति और उसके सींग को ईश्वर की तलवार का प्रतीक माना गया है। वेदों मैं जीवन के सिद्धांत को एक सींग से जोड़ा गया है जो बौद्ध धर्म में भी मिलता है। ‘यूनिकार्न’ का सिद्धांत, ईसाई मत और चीन में भी यही था। भारत से ही यह सिद्धांत सब जगह फैला है। बाहर से यह सिद्धांत भारत नहीं आया है इसकी पुष्टि होती है।
आर्यों के देव भगवान शिव
जुलाई माह में बताया गया है कि ऋग्वेद में भगवान शिव का जिक्र आया है, जो आर्य के देव हैं। पाश्चात्य अध्ययन में शिव को गैर आर्य देवता बताया गया है। श्वेतासार उपनिषद में कहा गया है, ‘जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कर्ता एक ही है, जो सब प्राणियों के हृदयाकाश में विराजमान हैं, जो सर्व व्यापक है, वही सुख स्वरूप भगवान शिव है।
‘‘सर्वाननशिरोग्रीवाः सर्वभूत गुहाशयः।
सर्वव्यापी स भगवान तस्मात्सर्वगतः शिवाः।।“ श्वेतासार उपनिषद (4.14)
आइसोलेशन के सिद्धांत
अगस्त माह में आइसोलेशन के सिद्धांतों के प्रतीक अश्विनी कुमारों की चर्चा की गई है, जिनके बारे में लिखा गया है कि वे मधु देते थे जिससे मृत्यु उनके पास भी नहीं फटक सकती थी। एशिया पेसिफिक और प्राचीन ग्रीस में इसी तरह दो देवताओं के साथ रहकर विचरण करने वाला सिद्धांत सामने आया है। आधुनिक विज्ञान भी इस डयूलिटी की बात करता है। मनुष्य के दिमाग में भी एनालिटिकल और इनटयूटिव्ह वाले दो हिस्से होते हैं।
महर्षि अरविंद का सिद्धांत
सितम्बर माह में बताया गया है कि कैसे पाश्चात्य विद्वानों ने महर्षि अरविंद के सिद्धांत को नकार दिया है। वास्तव भारत में पुर्तगाली और ब्रिटिश आक्रांता थे। वे भारतीय और यूरोपीय भाषा के कई समान शब्दों को लेकर अचंभित थे। इस कारण उन्होंने एक इंडो यूरोपियन लैंग्वेज सिस्टम के विकास का निर्णय लिया। बुद्ध से पहले आर्य आक्रमण का सिद्धांत रखा। उन्होंने लिखा कि भारत पर दूसरी बार 17वीं शताब्दी में उससे एक ऊंची जाति (याने अंग्रेजों) ने आक्रमण किया। भारत, ग्रीक और लैटिन भाषाओं में समानता को लेकर अंग्रेजी विद्वान थामस स्टीफेंस ने भी अपने भाई को गोवा से एक पत्र 1583 में लिखा था।
ज्ञान, विज्ञान पूर्व से पश्चिम
अक्टूबर महीने में यह बताया गया है कि कैसे पाश्चात्य विद्वान यह साबित करने के लिए बेताब थे कि संस्कृति और ज्ञान विज्ञान का फ्लो पश्चिम से पूर्व की तरफ हुआ है।
आर्य द्रविड़ झूठी थ्योरी बनाने वाले
नवंबर माह में मैक्समूलर, आर्थर दे गोबिनायउ और हास्टन स्टीवर्ड चैंबरलेन नामक तीन अंग्रेजी स्कालरों के विवरण हैं, इन्होंने आर्य द्रविड़ थ्योरी को आगे बढ़ाया। अंग्रेजों के षड़यंत्र में शामिल होकर एक आधारहीन कहानी गढ़ी। इस झूठी थ्योरी के कारण आज का भारत अपने अतीत से वंचित हुआ वहीं वैदिक सभ्यता के विज्ञान का लाभ भी मानव सभ्यता को नहीं मिल सका।
लाखों निर्दोषों का कत्ल
दिसंबर माह में आर्य और द्रविड़ थ्योरी के कारण कैसे दुनिया विश्व युद्ध में फंसी इसे स्पष्ट किया गया है। यूरोप ने जैसे आर्यों को परिभाषित किया वही आगे चलकर जर्मनी में नरसंहार का कारण भी बना। जर्मनी के हिटलर ने पाश्चात्य विद्वानों की इसी परिभाषा को सत्य मानकर कत्लेआम किया था। एडोल्फ हिटलर का मानना था कि आर्य नार्डिक लोग लगभग पंद्रह सौ साल पहले उत्तर दिशा से भारत आए और आर्यों ने स्थानीय नारियों के साथ घुले-मिले जिससे पृथ्वी पर दूसरे सभी नस्लों में श्रेष्ठ होने के गुणों को उन्होंने खो दिया है। इसी के साथ हिटलर ने लाखों लोगों का कत्ल करवाया। हिटलर को भले ही इस कत्लेआम का दोषी ठहराया गया है लेकिन इसके पीछे तथाकथित यूरोपीय विद्वानों की साजिश है जिन्होंने आर्य द्रविड़ की थ्योरी लिख कर साजिश रची थी।
वेदों में निहित विज्ञान को आर्यों ने ही रचा है। भारत ही आर्यों का देश है और सच्चाई अब दुनिया के सामने आ गयी है। वेद में समूची पृथ्वी के मानव कल्याण को लेकर वसुधैव कुटुंबकम् कहते हुए दुनिया की दिग्विजय यात्रा कर उन्हें आर्य बनाया।
– रविन्द्र गिन्नौरे