युद्ध और हिंसा से ज्यादा जलवायु परिवर्तन से विस्थापित

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जब भी जलवायु परिवर्तन की बात होती है, तो अधिकांश लोग इसे प्रदूषण, बढ़ते तापमान, बंजर होती जमीन (मरुस्थलीकरण), पोलर आइस का पिघलना और एसिड रेन (अम्ल वर्षा) से जोड़कर देखते हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण अस्तित्व में आई एक अनजान वास्तविकता से अधिकांश लोग अपरिचित हैं। ये वास्तविकता है, विभिन्न देशों के लोगों का विस्थापन। जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाला विस्थापन युद्ध और हिंसक संघर्षों के कारण होने वाले विस्थापन से भी ज्यादा भयावह है।
इससे भारत सहित विश्व के 148 देश प्रभावित है, जिनमें अधिक संख्या निर्धन और वंचित लोगों की है। विशेषज्ञ इसे दुनिया के लिए एक गंभीर समस्या बता रहे हैं, जो वर्ष 2050 तक हमारी उम्मीद से बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी, जिससे प्रत्यक्ष तौर पर विस्थापन के व्यापक परिणाम भी लोगों को सामने नजर आने लगेंगे।
ग्लोबल वार्मिंग के खतरे
दुनिया ग्लोबल वार्मिंग के परिणामों को जलवायु परिवर्तन के रूप में देख रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं असमय बारिश हो रही है, तो कहीं अतिवृष्टि। बेमौसम पड़ने वाले ओले और बर्फ किसानों की फसल को खराब कर देते हैं। तो वहीं गर्म दिनों की संख्या बढ़ रही है, जिससे सर्दियों के दिन कम हो रहे हैं। गर्मी बढ़ने से सूखा पड़ रहा है। भारत की 30 प्रतिशत भूमि मरुस्थलीकरण की चपेट में आ चुकी है। जंगलों में हर साल आग लगने से लाखों हेक्टेयर वन संपदा को राख कर देती है। तापमान बढ़ने का परिणाम हाल ही में पूरा विश्व आस्ट्रेलिया के बुश फायर और अमेजन के जंगलों की आग के रूप में देख चुका है। तो वहीं अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने सहित दुनिया भर के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। हर साल दुनिया भर में, विशेषकर भारत में बाढ़ भारी तबाही मचाती है। जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही इन सभी घटनाओं की समय समय पर चर्चा तो होती है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे विस्थापन का कोई जिक्र तक नहीं करता और न ही ये विस्थापन कभी चर्चा का विषय बनता है। इसी अनदेखी के कारण आज ये एक वैश्विक समस्या बन गया है।
लोगों का पलायन
संयुक्त राष्ट्र की वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट में 148 देशों पर किए गए सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष दिया गया है कि दुनिया में करीब 2.8 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें से 1.75 करोड लोग जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली विभिन्न आपदाओं की वजह से विस्थापित हुए है, जबकि शेष लोग युद्ध और हिंसक संघर्षों की वजह से विस्थापित हुए हैं।
वर्ष 2018 में विश्व बैंक ने अनुमान लगाते हुए कहा था कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2050 तक उप सहारा, अफ्रीका, दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका में 14.3 करोड़ लोगों को अपना घर छोड़कर विस्थापित होने के लिए मजूबर होना पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (आईडीएससी) के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2018 के अंत तक 16 लाख लोग राहत शिविरों में थे। भारत के संदर्भ में तो ये आंकड़ा और गंभीर है।
मौसमी घटनाओं में इजाफा
बीते वर्ष मैड्रिड में हुए कॉप 25 में विश्व मौसम संगठन ने वैश्विक जलवायु दशा रिपोर्ट 2019 जारी कर मौसमी घटनाओं के कारण हो रहे विस्थापन पर चिंता जताई। रिपोर्ट में बताया गया कि जनवरी 2019 से जुन 2019 के बीच एक करोड़ लोग अपने देश में ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित हुए हैं। जिनमें से 70 लाख लोग बाढ़, हरिकेन और चक्रवात आदि के कारण विस्थापित हुए हैं।
इससे आबादी वाले इलाकों, विशेषकर शहरों की जनसंख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। भारत में तो आपदाओं और इनकी भयावहता का रूप हम केदारनाथ आपदा के रूप में वर्ष 2013 में देख ही चुके हैं। तो वहीं वर्ष 2009 में बंगाल की खाड़ी में आया चक्रवात तथा 2004 की सुनानी का कहर सभी को याद है। कुछ वर्ष पूर्व ही नेपाल में भूकंप से मची तबाही के जख्म आज भी हरे हैं।
प्राकृतिक आपदाओं के खतरे
इंटर गवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पिछल दो सालों में भारत में हर महीने एक प्राकृतिक आपदा अवश्य हुई है। पिछले साल एशिया में 93 प्राकृतिक आपदाएं आईं, जिनमें से 48 आपदाएं केवल भारत में ही आई थी। हांलाकि वर्ष 2019 में 2018 की अपेक्षा प्राकृतिक आपदाएं कम आईं, लेकिन आपदा में जान गवाने वालों की संख्या में 48 प्रतिशत का इजाफा हुआ था। दुनिया भर में होने वाला विस्थापन न केवल अपने अपने देश की सीमाओं के अंदर हुआ, बल्कि कई जगहों पर लोगों को अपना देश छोड़ने के लिए भी मजबूर होना पड़ा।
भारत का सुंदरबन का इसका जीता जागता उदाहरण है, जो धीरे धीरे समुद्र के पानी में समा रहा है। इसी सूची में मुंबई सहित समुद्र के किनारे बसे सभी शहर हैं। ऐसे में जलवाय परिवर्तन एक गंभीर मामला है। हर वर्ग इसके दुष्प्रभावों से प्रभावित है। इसका समाधान करने के लिए अभी से दुनिया के सभी देशों और हर नागरिक को प्रयास करना होगा, वरना हम और अपको भविष्य में अपना घर या देश छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।
हिमांशु भट्ट

धरती को विनाश की ओर ले जाते बड़े देश

धरती का तापमान लगातार बढ़ता ही जा रहा है। जरूरत है वातावरण को गर्माने वाली गैसों का उत्सर्जन कम किया जाए, ताकि पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन के संकटों से बचाया जा सके। 15 साल पहले क्योटो प्रोटोकाल के तहत जो लक्ष्य तय किए गए थे, औद्योगिक देशों ने कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन कम करने का वायदा किया था, मगर दुनिया के बड़े देश अपने वायदों को पूरा नहीं कर सके।
38 औद्योगिक देश
क्योटो प्रोटोकाल में निर्धारित किया था कि बड़े उत्सर्जक देश (ग्रीन हाउस गैसें) किस तरह से जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को धीमा करने के लिए कदम उठा सकते हैं। क्योटो संधि के अनुसार 38 औद्योगिक देशों को 2012 तक पर्यावरण को नुकसान पहुॅंचाने वाली गैसों के उत्सर्जन को औसतन 5.2 फीसदी तक घटाना था। इन देशों को अपना उत्सर्जन 1990 वाले स्तर से काफी नीचे लाना था। इस संधि पर सहमति देते हुए अमेरिका और यूरोपीय संघ भी शामिल थे।
अमेरिका की सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी, जिसे अपने सबसे बड़े हिस्से के रूप में कार्बन डाईऑक्साइड के उर्त्स्जन को कम करना था। लेकिन ऐन-केन-प्रकारेण अमेरिका ने 2011 में समझौते को नकार दिया। अमेरिका के बाद कनाडा ने संधि समझौते की अवहेलना कर दी। तब ऐसा लगा था कि क्योटो प्रोटोकाल पूरी तरह विफल हो गया। इसके बावजूद यूरोपीय संघ ने अपना उत्सर्जन 19 फीसदी घटाया। जर्मनी में 23 फीसदी कमी दर्ज की गई। फिर भी कार्बन डाईऑक्साइड का वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन 35 फीसदी बढ़ चुका था।
स्वच्छ विकास तकनीक
क्योटो समझौते के तहत उत्सर्जन को कम करने के साथ ‘क्लीन डेवलपमेंट मेकेनिज्म’ की शुरूआत की गई थी। इसके तहत कार्बन प्वाइंट को खरीदना और बेचने की पहल हुई थी। यानी जो देश ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन कर रहा है, वह ऐसे देश से कार्बन प्वाइंट खरीद सकता है, जिसका उत्सर्जन कम हो रहा हो। इसे एमिशन ट्रेडिंग भी कहा गया।
एमिशन ट्रेडिंग से होने वाली कमाई का एक फीसदी हिस्सा जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए होने वाली पहल का दिया गया। इस पहल के तहत मैंग्रोव के जंगल लगाना, बांध बनाना, पहाड़ी इलाकों में जमीन के कटाव को रोकने के लिए उठाए गए कदम शामिल थे। विश्व बैंक के अनुसार इन सब पर अब तक दस अरब डॉलर खर्च किए जा चुके हैं।
कार्बन व्यापार
कार्बन डाईऑक्साइड का फायदा उतना नहीं हुआ, जितना अनुमान लगाया गया था। इंटरनेशनल सेंटर फॉर क्लाईमेट चेंज एंड डेवलपमेंट के निदेशक समीमुल हक का कहना है कि दुनिया में पहली बार कार्बन डाईऑक्साइड की कीमत लगाई गई थी और अब दुनिया भर की सरकार कार्बन डाईऑक्साइड पर टैक्स लगाने पर विचार कर रही हैं। कई देशों में कार्बन टैक्स लगाया जा चुका है। स्वीडन ने सबसे पहले कार्बन टैक्स लगाया, जहॉं एक टन जैविक ईंधन के लिए 114 यूरो कीमत चुनी पड़ रही है।
क्योटो प्रोटोकाल को एक तरह से ‘गेम चेंजर’ मानते हुए जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इकानामिक रिसर्च के पर्यावरण नीति के अध्यक्ष नॉय होफ कहते हैं, ‘‘2007 में हर किसी का कहना था कि ऐसा नहीं हो सकता कि 2020 तक यूरोप में ऊर्जा का 20 फीसदी हिस्सा अक्षय ऊर्जा का हो, पर आज यह हकीकत बन चुका है। क्योटो संधि सिर्फ ऊर्जा क्षेत्र में निवेश के रूप से महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह एक बड़ा प्रोत्साहन था।’’
बड़े देश हटे
औद्योगिक देश क्योटो प्रोटोकाल के तहत अपनी जिम्मेदारी से हट गए। विकासशील देशों ने तय किए अपने लक्ष्यों को पूरा नहीं किया। इस दौरान चीन, भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों की अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से बढ़ी। इसी के साथ इन देशों का ग्रीन हाउस उत्सर्जन भी बढ़ता गया। वर्तमान में वैश्विक उत्सर्जन का 50 फीसदी हिस्सा विकासशील देशों से हो रहा है। ऐसी स्थिति को देखते हुए ‘समीमल हक’ कहते हैं, ‘‘हम वैश्विक स्तर पर इस समस्या से निपटने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। हम सबको एकजुट होकर कुछ करना होगा।’’
2015 में पेरिस समझौता सामने आ गया और क्योटो प्रोटोकाल की जिम्मेदारियां गुम हो गईं। पेरिस समझौते के अनुसार दुनिया भर के देशों ने वादा किया कि धरती पर बढ़ते तापमान को औद्योगीकरणसे पहले के तापमान के मुकाबले 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने देना है। पेरिस समझौता पर हस्ताक्षर करने वाले देशों ने खुद ही कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन को कम करने के लिए लक्ष्य तय किए और वादा भी किया। परन्तु कोई भी देश पेरिस समझौते में अपने तय लक्ष्यों को पूरा नहीं कर सका।
धरती को गर्माने से बचाने के लिए क्योटो प्रोटोकाल से पेरिस समझौता तक जो लक्ष्य तय किए गए थे, उस पर गंभीरता से पहल नहीं की, किसी भी देश ने। ऐसे में भला धरती का तापमान कैसे घट सकता है? 1990 की तुलना में अब ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 41 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई और यह बदस्तूर बढ़ता ही जा रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो इस सदी के अंत तक धरती का तापमान तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका होगा। अगर धरमी को संकट से बचाना है, याने इंसान का जीवन थोड़ा सुखमय बनाना है तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर पूरी दुनिया के देशों को रोक लगाकर अपने औद्योगिक विकास को धीमा करना होगा।