आर्थिक समृद्धि की खतरनाक दौड़ में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपने देश को किसी तरह से भी दुनिया के अन्य देशों से पीछे नहीं रखना चाहते हैं। इस दिशा में उन्होंने विदेश व्यापार घाटा कम करने के लिए तथा अपने देश में निर्मित उत्पादों को प्रोत्साहित करने के लिए विदेशों से आयात होने वाली सामग्रियों पर भारी आयात शुल्क रोपित कर एक प्रकार से टैरिफ बैरियर बनाकर टैरिफ वार आरंभ कर दिया है। वहीं उन्होंने अपने देश में बढ़ती ऊर्जा की खपत को पूरा करने के लिए नए-नए तेल कूपों (व्पस ॅमससे) के उत्खनन, नई कोयला खदानों को आरंभ करने तथा कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों को तत्काल आरंभ करने की भी योजना बनाई है। तो वहीं विश्व समुदाय द्वारा मौसम परिवर्तन को रोकने के लिए निरूपित पैरिस समझौते से भी अपने आपको अलग कर लिया है। अमेरिका एक शक्तिशाली देश है और अमेरिकी राष्ट्रपति विश्व का सर्वोच्च शक्ति सम्पन्न व्यक्ति माना जाता है। जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा भी है कि ‘‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’’। तो इस मान्यता के अनुरूप श्रीमान ट्रम्प द्वारा लिया जा रहा हरेक निर्णय सबके द्वारा स्वागत ही योग्य है? यह एक लोकतांत्रिक प्रणाली की विडम्बना है कि कोई भी सरकार कोई भी ऐसे निर्णय नहीं ले पाती है, जो कि तत्काल समय में अलोकप्रियता पैदा करे, लोगों में उसके प्रति नाराजगी पैदा करे, भले ही वह निर्णय दीर्घकाल में देश, समाज और सभी नागरिकों के लिए कितनी ही अधिक कल्याणकारी क्यों न हो? पर प्रश्न यह है कि यह विडम्बना पैदा क्यों हुई? और इसे दूर कैसे किया जावे?
यह एक जटिल प्रश्न है। खास कर जब कभी पर्यावरणीय संरक्षण से संबंधित फैसलों को लेने की घड़ी आती है तो यह सिद्ध करना कठिन होता है कि हरितकारी गैसों के सतत उत्सर्जन से पृथ्वी पर प्रलय सी स्थिति बन रही है। यदि इसे नहीं रोका गया तो वह पल 100 साल बाद के बजाए 25 सालों में ही आ सकता है। यदि उस पल को या उस अवस्था को घटित होने से रोकने के लिए कुछ समय या साधन या धन देने की बात आती है तो फिर, कोई एक भी आदमी को उस समर्पण के लिए तत्पर होते देख पाना मुश्किल होता है। अपितु अपने त्वरित और तात्कालिक लाभ के लिए प्रकृति तथा पर्यावरण पर अमर्यादित आक्रमण के लिए किसी को भी तत्पर होते देखा जा सकता है। यह एक ऐसा दुःखद पहलू है कि समाज को लगता है कि पर्यावरण और प्रकृति की रक्षा कररने का दायित्व केवल सरकार का है। पर लोकतंत्र प्रणाली में सरकार कोई कठोर और दंडात्मक कदम न उठाने के लिए विवश होती है। चूॅंकि यदि केवल दंड के माध्यम से या सजा के द्वारा ही प्रकृति संरक्षण या प्रदूषण नियंत्रण या पर्यावरण प्रतिरक्षा करना लाचारी हो तो शायद इस देश के 90 प्रतिशत लोगों को किसी न किसी पर्यावरण कानून के उल्लंघन में दंडित करना पड़ सकता है, जो कि लगभग असंभव ही है। अस्तु, पृथ्वी पर पनप चुकी इतनी विशाल जनसंख्या के बोझ के तले पर्यावरण का इतना अधिक पतन हो चुका है कि उसकी सुरक्षा करने के लिए कोई भी एक या अनेक कानून अपर्याप्त प्रतीत होते हैं। फिर भी न कोई, और न ही कोई एनजीओ इस बात को खुलकर कहता है कि जनसंख्या विस्फोट के कारण पूरे भारत में न तो एक भी नदी, न एक तालाब का पानी शुद्ध है और न ही कोई नगर का वायुमंडल सुरक्षित बचा है। धार्मिक उद्वेग में जनसंख्या विस्फोट कर सत्ता पाने के सुहाने सपने जो लोग दिखाते हों, उन्हें कभी जाकर धारावी के उन स्लमों में कुछेक सप्ताह गुजारना चाहिए, अथवा पाकिस्तान में कराची, लाहौर की उन घनी बस्तियों में कुछ दिन बसर करना चाहिए या फिर ढाका की उन तंग गलियों में गुजारा करना चाहिए, जहां लोग कबूतरखानों जैसे दड़बों में शिफ्ट में एक-एक पलंग पर तीन-तीन शिफ्ट में क्रमशः सोकर दिन-रात गुजारते हैं। बेहद खतरनाक प्रदूषित वातावरण में जी रहे इन लोगों से प्रकृतिमय स्वस्थ पर्यावरण इतना दूर हो चुका है कि उनके हृदयों में प्राकृतिक प्रेम तथा करूणा का उदय या मानवता का मूल्य पनपना मुश्किल होता है।
चूॅंकि मेरी मान्यता है कि एक स्वस्थ शरीर में ही एक सौहार्द्रमय मन पनप सकता है, तो एक स्वस्थ शरीर भी केवल एक प्राकृतिक शुद्धता से प्रचुर पर्यावरण में ही पनप सकता है। पर गंभीर विडम्बना यह है कि न केवल भारत का समाज, अपितु विश्व के सभी देशों ने सभी धर्मों और भाषाओं पर आश्रित समाजों में आज प्रकृति को परास्त कर अधिक से अधिक धन संचय की ही होड़ लगी है। इस बात को कोई स्वीकार करने को तत्पर नहीं है कि सहारा के रेगिस्तान के मध्य में यदि कोई अरबों-खरबों रूपए भी नगद अपने पास रखे तो उसे शायद एक घूंट पानी भी उन पैसों से उपलब्ध न हो। कहने का आशय यह है कि जीवन की सुरक्षा के लिए या स्वस्थ जीवन के लिए पैसों से ज्यादा स्वस्थ एवं शुद्ध पर्यावरण एवं संरक्षित प्रकृति ही आवश्यक है। जिसकी आवश्यकता हमें जवानी में जितनी है, उतनी ही बुढ़ापे में भी है। उतनी ही बचपने में भी थी और आज भी है और आने वाली पीढ़ी को भी होगी। तदैव इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कानून के साथ संस्कारों के माध्यम से ही जागरूक समाज के द्वारा किया जा सकता है।
आज भगवान महावीर के जन्मोत्सव दिवस पर जब हम उनके आदर्शों के प्रति भाव सम्मान व्यक्त करते हैं तो ऐसा लगता है कि प्रकृति तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए उनके बताए गए मार्ग से ज्यादा उत्तम कोई मार्ग नहीं है। उनके द्वारा प्रस्तुत त्याग, तपस्या और अपरिग्रह का पथ इस विश्व को विज्ञान तथा तकनीकी मार्ग की तुलना में कहीं ज्यादा शीघ्रता से और सफलता से प्रकृति तथा पर्यावरण को बचाने का पथ प्रदर्शित कर सकता है। भगवान महावीर के प्रति सादर नमन के भाव के साथ प्रार्थना कि, पृथ्वी पर पुनः प्रकृति को शुद्ध तथा स्वच्छ बनाने का आशीष दें।
एक तरफ जहां इंटरनेशनल पैनल आन क्लाईमेट चेंज (प्च्ब्ब्) के वर्ष 2023 की रिपोर्टों में यह स्पष्ट उल्लेख है कि प्रति व्यक्ति घरेलू उत्पादकता (ळक्च्) तथा जनसंख्या वृद्धि ही पिछली दशाब्दी में फासिल फ्यूल (जीवाश्म ईंधन) के खपत में बढ़ोत्तरी के तथा कार्बन डायआॅक्साइड उत्सर्जन के सबसे बड़े कारण रहे हैं। पर विडम्बना यही है कि व्यवहार में दुनिया के सबसे बड़े देशों में से चीन को छोड़कर कोई भी देश जनसंख्या नियंत्रण करने को कोई भी व्यावहारिक असरदायक नीति पर चर्चा भी नहीं करना चाहते, इस पर कोई कायदा-कानून लाना तो दूर की बात है। यहां तक कि दुनिया के अर्थशास्त्री तो दूर, पर्यावरण शास्त्री भी समाज को और सरकार को यह समझाने को तत्पर नहीं हैं कि इतनी ज्यादा जनसंख्या को रोजगार देना तो दूर की बात है, आज की स्थिति में स्वच्छ जल तथा स्वस्थ वायु एवं सुरक्षित आवास भी उपलब्ध कराना नामुमकिन है। चूॅंकि जब कभी भी जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की बात आती है, तो भारत वर्ष में तो आपातकाल के दौरान संजय गांधी के प्रयासों के चुनावों में आये राजनैतिक दुष्परिणामों के उदाहरण किसी भी भारतीय राजनेता को उस विषय पर कानून नहीं बनाने को मजबूर कर देती है।
वर्तमान में भारत सरकार द्वारा जहाॅं मुस्लिम समाज के बेहतरी के लिए वक्फ कानून में जो संशोधन किया है, उसे एक धार्मिक मुद्दा बनाकर, जिस प्रकार से राजनीति की जा रही है, उससे तो ऐसा लगता है कि पर्यावरण एवं प्रकृति संरक्षण की सर्वोच्च आवश्यकता सम्पूर्ण जनसंख्या नियंत्रण होने के बावजूद भी ऐसा कोई कानून सरकार के लिए एक जटिल और जंजाल भरा जंग सिद्ध हो सकता है। पर यदि इसे नियंत्रित नहीं किया जाता है तो यह निश्चित है कि पृथ्वी के समाप्त होते संसाधन भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, अफ्रीका जैसे सघन आबादी वाले देशों के लिए सबसे बड़ा आत्मघाती कारण सिद्ध होगा। श्रीमान पैट्रिक हसन के अनुसार, ‘‘जनसंख्या दुष्प्रभाव त्र ‘‘जनसंख्या ग समृद्धि ग तकनीकी’’, के समीकरण से बढ़ते दुष्प्रभाव को नियंत्रित करना हो तो हमें इन तीनों को ही कम करना होगा। चूॅंकि लोग भगवान महावीर के मार्ग पर चल कर त्याग, तपस्या के द्वारा समृद्धि को त्यागना नहीं चाहते और न उपभोग को कम करना चाहते हैं। न ही नई ऊर्जा भोगी तकनीकी आधारित जीवन को त्यागकर सादगीपूर्ण प्राकृतिक जीवन ही चाहते हैं। तदैव, पृथ्वी को पूर्णतया निरापद करने हेतु जनसंख्या नियंत्रण के सिवाय कोई और मार्ग शेष नहीं बचता है? चूॅंकि वर्तमान व्यवस्था में समृद्धि के सृजन हेतु आय में वृद्धि तथा इस हेतु घरेलू उत्पादकता में वृद्धि ही एकमात्र मार्ग है। किंतु एक सीमित समृद्ध जनसंख्या के भाग द्वारा अपनी समृद्धि के सृजन के लिए पर्यावरण तथा प्रकृति का जितना शोषण किया जाता है, उसके साक्षात दुष्परिणाम संपूर्ण जीव जगत पर स्पष्ट है।
संकुचित प्राकृतिक संसाधनों की आपूर्ति की प्रतिस्पर्धा में ये सभी संसाधन दुर्लभ और मंहगे होते जाते हैं। परिणामस्वरूप बढ़ती मंहगाई के नाम पर हाहाकर उत्पन्न होता है। जन अनुतोष के लिए शासन को इन संसाधनों को जन सामान्य को सहज सुलभ कराने हेतु अनुदान देना होता है। साथ ही पर्यावरण क्षति से उत्पन्न दुष्प्रभावों के शमन हेतु भारी धन व्यय करना होता है। तदैव इन लागतों की पूर्ति के लिए करों (टैक्स) के विरूद्ध से भी हाहाकार मचता है। और इस प्रकार समाज तथा शासन के मध्य अनावश्यक द्वंद भी उत्पन्न होता है। अतः इन सभी द्वंदों को दूर करने के लिए एक सुखी, स्वस्थ और पर्यावरण समृद्ध समाज के सुव्यवस्थापन के लिए सामाजिक जागृति तथा महिला शिक्षा एवं सशक्तीकरण के द्वारा संपूर्ण जनसंख्या नियंत्रण करना अत्यंत अनिवार्य है। साथ ही धारणीय जीवनशैली के साथ धारणीय विकास ही एकमात्र विकल्प आने वाले पृथ्वी दिवस पर कुछ संकल्प लें कि, पृथ्वी को कैसे विनाश की ओर जाने से रोकने में आप योगदान कर सकते हैं। शुभकामनाओं सहित।
– संपादक