औसत तापमान में वृद्धि
पिछले कई दशकों में तापमान में काफी वृद्धि हुई है। औद्योगीकिकरण के प्रारंभ से अर्थात 1780 से लेकर अब तक पृथ्वी के तापमान में 0.7 सेल्सियस वृद्धि हो चुकी है। कुछ पौधे ऐसे होते हैं जिन्हें एक विशेष तापमान की आवश्यकता होती है। वायुमंडल का तापमान बढ़ने से उनके उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा उत्पादन में भारी कमी आती है। उदाहरण के लिए आज जहां गेहूं, जौ, सरसों और आलू की खेती हो रही है, तापमान बढ़ने से इन फसलों की खेती न हो सकेगी, क्योंकि इन फसलों को ठंडक की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन होने से स्थानीय जैव विविधता में परिवर्तन उनके क्षरण का कारण हो सकता है। अधिक तापमान बढ़ने से मक्का, धान या ज्वार आदि फसलों का क्षरण हो सकता है, क्योंकि इन फसलों में अधिक तापमान के कारण दाना नहीं बनता है अथवा कम बनता है। इससे इन फसलों की खेती करना असंभव हो सकता है। इसके अतिरिक्त तापमान वृद्धि से वर्षा में कमी होती है जिससे मिट्टी में नमी समाप्त हो जाती है। भूमि में निरंतर तापमान में कमी व वृद्धि से अपक्षय की क्रियाएं प्रारंभ हो जाती हैं। इसी के साथ तापमान वृद्धि से गम्भीर सूखे की संभावना में भी वृद्धि हुई है।
वर्षा की मात्रा व तरीकों में परिवर्तन
वर्षा की मात्रा व तरीकों में परिवर्तन से मृदाक्षरण और मिट्टी की नमी पर प्रभाव पड़ता है। वर्षा का कृषि पर महत्वपूर्ण रूप से प्रभाव पड़ता है। सभी पौधों को जीवित रहने के लिए कम से कम पानी की आवश्यकता तो रहती ही है। इसी कारण वर्षा कृषि क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण है और इसके अंतर्गत भी नियमित रूप से हुई वर्षा का महत्व अधिक है। बहुत अधिक या बहुत कम वर्षा भी फसलों के लिए हानिकारक सिद्ध होती है।
कार्बन-डाइ-आक्साइड में वृद्धि से वातावरण में नमी
कार्बन-डाइ-आक्साइड की मात्रा बढ़ने से व तापमान में वृद्धि से पेड़- पौधों तथा कृषि पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा। यह परिवर्तन कुछ क्षेत्रों के लिए लाभदायक हो सकता है तो कुछ क्षेत्रों के लिए नुकसानदायक।
ओजोन परत में कमी
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का ओजोन परत पर विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है। ग्रीनहाउस गैसों के कारण ओजोन छतरी छिपती जा रही है। ओजोन परत के मात्र 1 प्रतिशत की छीजन से पराबैगनी किरणों की मात्रा में 2 प्रतिशत की बढ़ोतरी और उसी अनुपात में इंसानी जीवन तथा खाद्य पदार्थों के उत्पादन पर भी विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।
मांग और आपूर्ति पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
जिस प्रकार जलवायु में परिवर्तन देखा जा रहा है उससे एक समस्या और हमारे समक्ष होगी और वो है खेती की आय में कमी। इसका नतीजा यह होगा कि उपभोक्ता की क्रय शक्ति कम होगी और भोजन को लोगों तक पहुंचाने में समझौता करना पड़ेगा, साथ ही, हमें पोषण में गिरावट भी देखने को मिल सकती है, क्योंकि भोजन तक पहुँच सिमित हो जाएगी।
जलवायु परिवर्तन का जल संसाधनों पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव जल संसाधनों पर पड़ेगा, जल आपूर्ति की भयंकर समस्या उत्पन्न होगी और सूखे एवं बाढ़ की स्थिति निर्मित होगी। अर्धशुष्क क्षेत्रों में शुष्क मौसम अधिक लम्बा होगा जिससे फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। वर्षा की अनिश्चिता भी फसलों के उत्पादना को प्रभावित करेगी, अधिक तापमान और वर्षा की कमी से सिवाई हेतु भू-जल संसाधनों का अधिक दोहन किया जायेगा जिससे धीरे धीरे भू जल इतना नीचे चला जायेगा कि उसका दोहन करना आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी सिद्ध होगा।
जलवायु परिवर्तन का कीट एवं रोगों पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन के कारण कीट एवं रोगों की मात्रा बढ़ेगी गर्म जलवायु होने के करण कीट-पतंगों की प्रजनन क्षमता भी बढ़ जाएगी जिससे की कीटों में वृद्धि होगी और उसके साथ ही उनके नियंत्रण हेतु अत्यधिक कीटनाशकों का प्रयोग किया जायेगा जो जानवरों तथा मनुष्यों में अनेक प्रकार की बीमारियों को जन्म देगा, वैसे भी गेहूं, मटर, मसूर और घने में तापमान बढ़ने से फफूंद जनित रोग की सम्भावना बढ़ने लगती है। हमारी खेती पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के अनेक उपाय हैं, जिनको अपना कर हम कुछ हद तक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से अपनी खेती को बचा सकते हैं। जलवायु प्रभाव को कम करने के प्रमुख उपाय निम्नानुसार हैं।
खेल में जल प्रबंधन
तापमान वृद्धि के साथ फसलों में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में जमीन का संरक्षण व वर्षा जल को एकत्रित करके सिंचाई हेतु प्रयोग में लाना एक उपयोगी एवं सहयोगी कदम हो सकता है। वाटरशेड प्रबंधन के माध्यम से हम वर्षा के पानी को संचित कर सिचाई के रूप में प्रयोग कर सकते हैं। इससे जहां एक और हमे सिचाई की सुविधा मिलेगी वही दूसरी और भू-जल पुनर्भरण में भी मदद मिलेगी।
जैविक एवं समग्रित (मिश्रित) खेती
खेतों में रासायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहां एक और मृदा की उत्पादकता घटती है। वहीं दूसरी और इनकी मात्रा भोजन श्रंखला के माध्यम से मानव शरीर में पहुंच जाती हैं। जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती है। रासायनिक खेती से हरित गैसों के उत्सर्जन में भी इजाफा होता है। अतः हमे जैविक खेती करने की तकनीकों पर अधिक से अधिक जोर देना चाहिए। एकल कृषि की बजाय समग्रित कृषि में जोखिम कम होता है। समग्रित खेती में अनेक फसलों का उत्पादन किया जाता है जिससे यदि एक फसल किसी प्रकोप से समाप्त हो जाए तो दूसरी फसल में किसान की रोजी-रोटी चल सकती है।
फसल उत्पादन में नयी तकनीकों का विकास
जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों को मध्य नजर रखते हुए ऐसे बीजों की किस्मों का विकास करना पड़ेगा जो नए मौसम के अनुकूल हो। हमे ऐसी किस्मों को विकसित करना होगा जो अधिक तापमान, सूखे व बाढ़ की विभीषिकाओं को सहन करने में सक्षम हो। हमे लवणता क्षारीयता को सहन करने वाली किस्मों को भी इजाद करना होगा।
फसल संयोजन में परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ हमे फसलों के प्रारूप एवं उनके बीज बोने के समय में भी परिवर्तन करना होगा। पारंपरिक ज्ञान एवं नए तकनीकों के समन्वयन तथा समावेश द्वारा वर्षा जल संरक्षण एवं कृषि जल का उपयोग मिश्रित खेती व इंटरक्रापिंग करके जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटा जा सकता हैं। कृषि वानिकी अपनाकर भी हम जलवायु परिवर्तन के खतरों से निजात पा सकते हैं। फसल बीमा, मौसमी बीमा के विकल्पों को मुहैया करना ताकि लघु तथा सीमांत किसान इनका लाभ उठा सके।
कलाईमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर (सीएसए)
असल में सीएसए तीन आपस में जुड़ी हुई चुनौतियों से निपटने की कोशिश करती है उत्पादकता और आय बढ़ाना, जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होना और जलवायु परिवर्तन को कम करने में योगदान देना। इसका अर्थ है कि हमें खेतों में डाली जाने वाली चीजों को लेकर ज्यादा योग्य होना होगा।
उदाहरण के तौर पर सिंचाई को ले लेते हैं जल के उचित इस्तेमाल के लिए माइक्रो इरिगेशन को लोकप्रिय बनाना होगा। जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होना यह दर्शाता है कि खेतों को जलवायु परिवर्तन को झेलने लायक बनाना होगा। जैसे की जलवायु परिवर्तन के अनुमानित प्रभावों से कृषि क्षेत्रों की पहचान करनी होगी। उतना ही महत्वपूर्ण है की नीतियों का ऐसा माहौल बनाना जाए जो स्थानीय और राष्ट्रीय संस्थानों को मजबूत करे। सीएसए के तरीकों को अपनाने के लिए किसानों को उनकी भूगोलीक परिस्थिति के अनुरूप तकनीकी और आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने की जरुरत है। इसमें प्रमुख है जीरो बजट खेती व परंपरागत कृषि विकास योजना जिनको आज भारत में तेज गति से बढ़ावा मिल रहा है। यह एक इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम (समेकित कृषि प्रणाली है जो रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक से दूर रह कर स्थानीय रूप से सस्टेनेबल प्रकृति की होने के कारण यह तरीका खेतों की जलवायु परिवर्तन को झेलने की क्षमता बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन को कम करने में काफी कारगर है।
पशु प्रबंधन, चरागाह व चारे की उपलब्धता
सभी ग्रीनहाउस गैसों में 14 प्रतिशत उत्सर्जन मिथेन गैस का होता है। कहा जाता है कि इसमें जानवरों की प्रमुख भूमिका है। कृषि में स्थायित्व के लिए पशु उसका एक आवश्यक अंग है तथा जैविक खेती के लिए एक अनिवार्य तंत्र, इसलिए खेती को जानवरों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। जानवरों में चबाने या जुगाली करने की प्रक्रिया से मिथेन उत्सर्जित होता है जबकि इसका उनके पाचन तंत्र से सीधा संबंध होता है। अतः इसमें रुकावट नहीं डाली जा सकती है। हां, कुछ तरल पोषक तत्वों को देकर इनकी अवधि में कमी लाई जा सकती है। इनके गोबर को समुचित प्रबंधन द्वारा अनेक प्रकार से उपयोग में लाया जा सकता है, जिससे इनके उत्सर्जन की प्रक्रिया कम हो जाए। बायोगैस व अनेक प्रकार की जैविक खादें खेती के लिए उपयोगी होती है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कम करने के लिए देशी नस्लों को बढ़ावा देना होगा। विदेशी नस्लों के जानवरों की कार्यक्षमता, गर्मी, सर्दी, पानी सहन करने की क्षमता कम होती है। इन सबके प्रभाव से इनकी प्रजनन क्षमता व उत्पादकता पर सीधा असर पड़ता है। रोग व बीमारियां भी इन्हें ज्यादा होती है जिनका प्रभाव इनके अल्प जीवन के रूप में परिणत होता है। देशी नस्लें विशेषकर दुधारू गायों से मिथेन का उत्सर्जन कम होता है, ऐसा कई अध्ययनों में पाया गया। जानवरों के भोजन व उसके प्रकार में जो अंतर होता है, वह मिथेन के उत्सर्जन हेतु उत्तरदायी है।
आज खेती की सबसे बड़ी मांग यही है की जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से खेतों में विविधता तथा फसलों के साथ वृक्षों व जानवरों का संयोजन बहुत मायने रखता है। अब तक अनुभवों तथा अध्ययनों में भी यह पाया गया कि जहां समग्रता थी वहां जलवायु परिवर्तन से नुकसान का प्रतिशत कम रहा जबकि जहां एकल फसलें अथवा केवल पशुओं पर निर्भरता थी, वहां नुकसान ज्यादा हुआ खेती में समग्रता अर्थात घर- पशुशाला खेत के बीच उचित सामंजस्य व इनकी एक-दूसरे पर निर्भरता खेती में समग्रता किसान को आत्मनिर्भर बनाती है, बाजार पर उसकी निर्भरता कम होती है तथा कठिन समय में भी उसकी खाद्य सुरक्षा बनी रहती है क्योंकि एक या दो गतिविधियों के नुकसान से पूरी प्रक्रिया नष्ट नहीं होती। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से भारतीय कृषि को बचाने के लिए हमे अपने संसाधनों का न्याय संगत इस्तेमाल करना होगा व भारतीय जीवन दर्शन को अपनाकर हमे अपने पारम्परिक ज्ञान को अमल में लाना पड़ेगा। अब इस बात की सख्त जरूरत है की हमे खेती में ऐसे पर्यावरण मित्र तरीकों को अहमियत देनी होगी जिनसे हम अपनी मृदा की उत्पादकता को बरकरार रख सके व अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचा सके।
स उत्तम सिंह