भारत के सांस्कृतिक धरातल पर पर्यावरण का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रहा हैं। पर्यावरण के संरक्षण में प्राचीन भारतीय परम्पराओं का विशेष योगदान हैं। हमारे मनीषियों ने प्रकृति की समग्र शक्तियों को जीवन दायिनी स्वीकार करते हुए उन्हे देवत्व का स्थान प्रदान किया हैं। आज के भौतिक युग में हमारी ये प्रचीन मान्यताएं तिरोहित हो गई हैं, जो प्रतीक रूप में हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं में सबल आधार स्तम्भ रही है।
हमारे पूर्वजों को पर्यावरण में असंतुलन होने पर जगती तल पर बढ़ने वाले खतरों की पर्याप्त जानकारी रही है। वे प्रकृति को मनुष्य मात्र के लिए सर्वाधिक फलदायी मानते थे। इसीलिए प्रकृति को जीवन का अभिन्न अंग मानते हुए उसकी पूजा अर्चना की व्यवस्था स्थापित की गई थी। संत पुरूषों ने इसी संस्कृति को अपने आश्रमों और बाहर पल्लवित पुष्पित किया। हमारे धर्मशास्त्रों ने मंत्रोचार से प्रकृति को संबद्ध कर उसे पवित्रता प्रदान की। धरती को मातृवत् मानकर जल, हवा, नदियां, पर्वत, वृक्ष और जलाशयों को पूजनीय मानकर उनकी सुरक्षा एवं संरक्षण की व्यवस्था की गई। भूमि के दान से जो लोक प्राप्त होते हैं और जो गौ के दान से बतलाएं हैं, उन्ही लोकों को वृक्ष लगाने से मनुष्य प्राप्त करता हैं।
वेदों का संदेश हैं कि मानव शुद्ध वायु में श्वास ले, शुद्ध जलपान करे, शुद्ध अन्न-फल का भोजन करे, शुद्ध मिट्टी में खेले कूदें और कृषि करे, तब ही वेद प्रतिपादित उसकी आयु ‘‘शं जीवेम् शरदः शतम्’’ हो सकती है। वृक्ष वनस्पति भगवान नीलकंठ का रूप है। क्योंकि वे विषैली गैसों को पीकर अमृतमयी गैस निकालते हैं। अतः वृक्षों को सींचना भगवान शिव को जल चढ़ाने के समान हैं।
वेदों में इस बात का संकेत हैं कि पीपल के नीचे बैठना स्वास्थ्यप्रद है तथा पलाश (ढाक) के पेड़ दिन-रात सुगन्ध और प्राणवायु छोड़ते हैं। वृक्ष हमारी संस्कृति की धरोहर हैं। इसीलिए अनेक वृक्ष पूज्य माने जाते हैं। तुलसी को विष्णुप्रिया माना गया हैं। विष्णु पुराण में सौ पुत्रों की प्राप्ति से बढ़कर एक वृक्ष लगाना माना गया हैं। भक्त व भगवान के तिलक लगवाने के लिए चन्दन सर्वमान्य हैं। मत्स्य पुराण में दस कुओं, बावड़ियो, व तालाबो से भी बढ़कर वृक्ष लगाने का विशेष मान्य किया गया हैं।
पुराकाल में यदि अपरिहार्य कारणों से किसी वृक्ष को काटना पड़ता था तो वृक्ष से क्षमा माँगने का प्रावधान था। राजस्थान में विश्नोई समाज द्वारा जोधपुर जिले में खेजड़ी के वृक्ष को बचाने हेतु लोगों ने बलिदान दिए हैं। पीपल और बरगद के पेड़ो को तो ब्राह्नण माना गया हैं। अतः उन्हें काटना ब्रह्न हत्या के समान है। तुलसी का पौधा तो इतना पवित्र माना गया हैं कि हर भारतीय उसे घर में लगाता है तथा उसके विवाह की भी परम्परा भारतीय समाज में रही है।
हमारे ऋषि महात्माओं के आश्रम वन खण्डों में स्थित रहे हैं। अनेक पेड़ों के संबंध देवी देवताओं से संलग्न किये गये हैं। पीपल में विष्णु वास, नीम को नारायण कहा गया है। बरगद को भगवान शंकर से संबद्ध माना और तुलसी को सालिगराम की पत्नी के रूप में स्वीकार किया गया है। वैशाख में पीपल पूजा, कार्तिक में आँवला व तूलसी पूजा, मिगसर मास में कदम्ब के वृक्ष को पूजने की परम्परा रही है। पेड़ों की स्थिति पर भी विचार किया जाता है। नीम का पेड़ गाँव की चौपाल पर और पीपल का पेड़ गाँव के बाहर जलाशय के किनारे शोभायमान होता है।
हमारे धार्मिक ग्रंथों में यह भी उल्लेख हैं कि पीपल, बरगद को ब्राह्नण माना जाता था और उन्हें काटना ब्रह्न हत्या के समान माना जाता है। जिस वृक्ष पर पक्षियों के घौसलें हों तथा देवालय और श्मशान भूमि पर खड़े पेड़ों को नहीं काटना चाहिए जैसे बड़, पीपल, आक, नीम आदि। भारत में आर्यों के आगमन से पूर्व सिंधु घाटी की सभ्यता में प्राप्त मुहरों पर अंकित चित्रों से स्पष्ट हैं कि सिन्धु घाटी के निवासी वृक्षों की पूजा किया करते थे। प्राचीनकाल से ही पेड़ो को सीचनें की परम्परा चली आ रही है। वैसाख महीने में भारतीय नारियाँ व बालिकाएं पीपल के पेड़ को सींचती हैं। इसके पीछे यही धारणा हैं कि ज्येष्ठ मास की भीषण गर्मी से इन पेड़ों को बचाया जा सकें। पेड़ों के बचाव व संरक्षण हेतु गोचर भूमि, डोली और ओरण आदि व्यवस्थाओं को क्रियान्वित किया गया। मंदिरों के पुजारी वन संरक्षण में अपनी भागीदारी का निर्वहन कर सके।
वन्य जीव-जन्तु भी हमारे पर्यावरण के प्रमुख अंग माने जाते हैं। इनका सही सन्तुलन होने पर पर्यावरण शुद्ध तथा स्वच्छ रहता है। इनकी सुरक्षा के लिए वन्य जीवों को पूज्य मानकर इनकी पूजा का भी प्रावधान हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं में रखा गया है। भारतीय संस्कृति में दस अवतारों में चार अवतार पशुओं व जन्तुओं से संबद्ध हैं जैसे मत्स्य अवतार, वराह अवतार, कच्छप अवतार तथा नृसिंह अवतार आदि। विशेषतः गणेश, हनुमान और नागपूजा की व्यवस्था की गई हैं ताकि लोगों में पशु-प्राणियों के लिए आस्था अक्षुण्य बनी रहे।
गायों की महत्ता को प्रकट करने हेतु गोपाष्टमी, बछबारस का त्योंहार मनाया जाता हैं। गाय किसानों की जीवन धारा है। कृषि भूमि में उत्पादन को हानि पँंहुचाने वाले चूहों पर नियन्त्रण रखने वालें सांपों के प्रति श्रद्धा सूचक नाग पंचमी व गोगानवमी का त्यौंहार मनाया जाने लगा। पशु-पक्षियों के संरक्षण हेतु अनेक परम्पराएं भारतीय समाज में प्रचलित हैं। शनिवार के दिन ‘कीड़ी नगरा’’ सींचने की परम्परा में उन चींटिंयों की सुरक्षा की व्यवस्था दी गई है जो हानिकारक उदई तथा बर नियन्त्रण करती है, जो नई मिट्टी बाहर निकालते है। मरे हुए जानवरों की गंदगी को दूर करने वाले कौओं के प्रति श्रद्धा स्वरूप श्राद्व पक्ष में उनका भोजन खिलाने की परम्परा है। विवाह के समय तोरण लगाने की परम्परा में भी पक्षियों को याद किया है। तोरण पर प्रतीकात्मक रूप से पक्षियों की आकृतियाँ बनाई जाती है। भोजन से पहले एक रोटी अथवा पाँच ग्रास चींटी, कौए, कुत्ते आदि के लिए निकालकर उन्हे जीवित रखने की व्यवस्था प्रकट की गई है।
‘‘जल ही जीवन है’’ अतः जल के शुद्धीकरण एवं पवित्रता बनाये रखने का प्रयत्न प्राचीन काल से चला आ रहा है। जल को भारतीय समाज में देवता माना गया है। जल संरक्षण की परम्परा से नदियों को ‘‘माता’’ का स्थान दिया गया है। इनकी पूजा की जाती है। गंगाजल को समस्त संस्कारों में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। कुआ, बावड़ी, तालाब तथा झीलों के निर्माण की धार्मिक प्रथाएं रही है। गाँवों में आज भी जल स्त्रोतों को गंदा करने पर सामाजिक प्रतिबन्ध रहता है। लोग शिवरात्रि पर हरिद्वार से कावड़ में गंगाजल लेकर कई मीलों तक यात्रा करते हुए, घर पहुंचने की प्रथा चली आ रही है। नदियाँ भूमिगत जल का स्तर ऊँचा उठाती हैं और प्राकृतिक सौन्दर्य में वृद्धि करती हैं। पृथ्वी पर जल का तीन चौथाई हिस्सा होते हुए भी पीने योग्य जल का हिस्सा 0.33 प्रतिशत है। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ जल संकट बढ़ता जा रहा हैं। अतः जल संरक्षण आवश्यक हो गया है।
संसार में पर्यावरण संरक्षण का कार्य सर्वप्रथम ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने किया था। प्रकृति की महत्ता को स्वीकारते हुए वन्य जीव जन्तुओं के शिकार पर प्रतिबन्ध लगाया जो आज भी अशोक के शिलालेखों में अंकित है।
जल को आदि काल से शुद्ध व पवित्र बनाए रखने का प्रयास किया जाता है। पवित्र नदियों के जल को बड़ी धूमधाम से गृह प्रवेश कराया जाता है। गंगा प्रसादी के रूप में भोज का आयोजन होता है। पुरातन जल संसाधनों के रख रखाव पर बड़ा ध्यान था। कुए, बावड़ी, झालरों का निर्माण कराना धार्मिक कृत्य माना जाता है। जल स्त्रोंतों को गंदा करने पर दण्ड का विधान था। प्राचीन काल में ऋषि आश्रमों में शिक्षा प्राप्ति के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के पेड़ लगाने तथा उन्हे सिंचित करने का पुनीत कर्म करना आवश्यक था। यदि कोई दंपति निसंतान होता तो पेड़ लगाने या कुआं या बावड़ी बनवाने से उससे मुक्ति मिलने की मान्यता थी। धर्म परायण व्यक्ति जलाशय बनाकर, वृक्षारोपण कर, देवालय बनवाकर धर्म में संवर्धन करते थे।
हमारे पुरातन साहित्य में पर्यावरण की महत्ता को विभिन्न प्रकरणों एवं तरीकों से समझाने का प्रयास हुआ है। पर्यावरण सुरक्षा व संवर्धन में विभिन्न उपायों का उल्लेख हुआ है। तत्कालीन साहित्य में पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के अनेक सुझाव प्रस्तुत हुए हैं। ज्ञान और नीतिपरक पंचतंत्र की कहानियों तथा जातक कथाओं में वन्य जीवन से संबंधित अनेकानेक प्रसंगांं को उद्घाटित किया गया है। सभी ग्रहों नक्षत्रों के साथ पंचतत्वों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि एवं आकाश तथा प्रकृति पर्वत तथा नदी, वन को देवता मानकर उनकी पूजा अर्चना का प्रावधान है। यजुर्वेद में भूमि प्रदूषण पर नियंत्रण हेतु उल्लेख है कि-‘‘पृथिवी मातर्मा मा हिंसीर्मो अहं त्वाम’’- यजुर्वेद 10/23
अर्थात् हे! माता तुम हमारा पालन पोषण उत्तम रीति से करती हो। हम कभी भी तुम्हारी हिंसा (दुरुपयोग) न करें। रासायनों व कीट नाशकों के अति प्रयोग से तुम्हारा कुपोषण न करें बल्कि फसल हेर-फेरकर बोने तथा गोबर, जल आदि से तुम्हें पोषित करें। क्षरण की रोक हेतु वृक्ष लगाये क्योंकि तुम्हारे पोषण पर ही हमारा पोषण निर्भर है। भूमि की उपजाऊ क्षमता न्यून व क्षीण हो गई है तो इस भूमि पर कुछ समय खेती-बाड़ी नहीं करें, जिससे प्रकृति, वायु, सूर्य, रश्मि वर्ष भर में उन्हे उर्वरा बना देगें, ऐसे निर्देश वेदों में प्रकट हुए हैं।
पर्यावरण संरक्षण कि दिशा में गुरू पूर्णिमा पर गायत्री परिवार द्वारा ‘‘वृक्ष गंगा महोत्सव’’ का आयोजन हमारी पारम्परिक अवधारणा को पोषित करने वाला अभियान कहा जा सकता है, जिसमें तरू मित्र और तरू पुत्र यज्ञों का आयोजन प्रस्तावित है। इस संबंध में इन सराहनीय सुझावों की क्रियान्वति से पर्यावरण संरक्षण की व्यवस्था को बल मिलेगा।
सूखी पहाड़ियों पर तरुपुत्र यज्ञों के माध्यम से वृक्षारोपण द्वारा स्मृति उपवन बनाना। मंदिरों और उद्यानों में वृक्ष वाटिकाओं का निर्माण करना। नदी किनारे खेतों की मेंड़ो आदि पर भूमि कटाव को रोकने हेतु छायादार वृक्ष लगाना। मंदिर व धार्मिक स्थलों पर त्रिवेणी- (पीपल, बरगद, नीम), पंचवटी (नीम, पीपल, बरगद, जामुन, आँवला), हरिशंकरी- ( बरगद, पीपल, पाकड़) का वृक्षारोपण करना। प्रत्येक गाँव में देवालयों व गोचर भूमि तथा बंजर भूमि में वृक्षारोपण करना। शिक्षण संस्थानों में तरुमित्र योजनान्तर्गत विद्यार्थियों से वृक्षारोपण कराना। श्मशान घाटों पर धार्मिक महत्व के छायादार पेड़ लगाना। राजमार्गों के किनारों पर छायादार वृक्ष लगाना।
गायत्री परिवार की इस विशेष योजना की क्रियान्विति से हमारी पारम्परिक पर्यावरणीय व्यवस्था को जीवन दान मिलेगा। आज हमारी पुरातन परम्पराएं और रीति रिवाज समाप्त प्रायः हो गये है। वर्तमान सभ्यता और भौतिकता विषबेल इतनी फलित हो गई हैं कि समग्र संस्कृति को पाला मार गया है। तुलनात्मक दष्टि से यह देखा जाए तो आज के इस भौतिक युग में मनुष्य अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में अंधा हो गया हैं और हमारी प्राचीन धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं की मान मर्यादाओं और भावनाओं को जीवन से तिरोहित करता जा रहा है। पूर्व की हमारी प्रकृति-उपासना की आस्थाएं समाप्त हो गई हैं। जिस श्रद्धा और आस्था के साथ हम प्रकृति की पूजा करते थे, आज वह भावना समाप्त हो गई है। प्रकृति के दोहन से अधिकाधिक अर्थलाभ की भावना में वृद्धि हो गई हैं। वृक्ष पूजा केवल प्रतीकात्मक रह गई है। आज बरगद, पीपल, नीम, आंवला आदि का महत्व कम होता जा रहा है। गोचर भूमि पर अत्यधिक अतिक्रमण हो रहे है। वहां आवासीय भवन खड़े किए जा रहे है। पशु-पक्षियों की जातियाँ लुप्त होती जा रही हैं। हमारे जल स्त्रोत अब बस्ती के कचरादान बनते जा रहे है। जिन नदियों को हम मातृवत् पूजते रहे हैं, अब उनमें कल-कारखानों का प्रदूषित जल प्रवाहित हो रहा है। आज भी हमारी पुरातन पर्यावरण संरक्षण की प्रथाओं को सामाजिक स्तर पर प्रधानता देते हुए, इन परम्पराओं का अनुगमन दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ किया जाए तो पर्यावरण संतुलन तथा संरक्षण को प्रगाढ़ता मिलेगी।
शंकर लाल माह वरी
पूर्व जिला शिक्षा अधिकारी, पोस्ट-आगचा, जिला- भीलवाड़ा (राजस्थान) – 311 022