ईआईए हेतु जन परामर्श की उपादेयता?

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ईआईए अधिसूचना 1994 एवं वर्तमान में लागू ईआईए अधिसूचना 2006 के प्रावधानों के अनुरूप उद्योगों के विशेष वर्ग को पर्यावरण स्वीकृति प्राप्त करने हेतु जन सुनवाई के प्रावधान किए गए थे। पिछले 22 वर्षों से जारी उक्त जन सुनवाई प्रक्रिया के अनुभव से यह पाया गया है कि ज्यादातर जन सुनवाई या जन परामर्श निर्धारित 45 दिनों के समय सीमा में संपादित नहीं किए जा पाते। चूॅंकि जन परामर्श संपादन करने का भार जिला प्रशासन पर होता है, और जिला प्रशासन सदैव अनेकों अन्य ऐसे अपरिहार्य कार्यों के भार से ग्रस्त होता है कि उनकी प्राथमिकता पर जन परामर्श वरीयता धारण नहीं करता।
वर्तमान में कोविड-19 के दुष्प्रभाव के फलस्वरूप 6 माह से सभी जन परामर्श कार्य लंबित हैं। जबकि यदि स्वतंत्रतापूर्वक मूल्यांकन किया जावे कि क्या जन परामर्श आवश्यक ही है या उसकी कोई व्यावहारिक उपयोगिता है या इसमें कोई जन भावनाओं को सम्मान मिलता है या इसमें पर्यावरण संरक्षण को संबल मिलता है?
तो हम पाएंगे कि बहुतायत परियोजनाओं हेतु आहूत जन परामर्श की कोई उपयोगिता नहीं है। चूॅंकि जिन सैकड़ों पृष्ठों के पर्यावरण प्रभाव आंकलन प्रतिवेदन को 4-5 माह समय एवं लाखों रूपए व्यय करके बनाया जाता है, उसे समझने का माद्दा आम आदमी में तो होता ही नहीं है। और यदि कोई समझता भी है, तो उसके पास 300-500 पृष्ठों को पढ़ने का समय मिलना ही कठिन है। यदि वह समय निकाल भी ले तो उसमें से ऐसे निष्कर्ष निकालना भी कठिन होता है कि वह परियोजना के विरूद्ध कोई सार्थक आपत्ति उठा सके।
चूॅंकि कोई भी पर्यावरण प्रभाव आंकलन प्रतिवेदन किसी सामान्य व्यक्ति द्वारा नहीं बनाया जाता, अपितु वह 4 माह के सतत अध्ययन एवं परिश्रम से विभिन्न विषयों के दीक्षित अभियंताओं एवं वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किया जाता है। अतएव इन परिस्थितियों में केवल ईआईए प्रतिवेदन को आधार बना कर जन सुनवाई कोई उपयोगिता एवं सार्थकता नहीं रखती। किसी भी ईआईए प्रतिवेदन का वास्तविक मूल्यांकन या तो एनजीओ द्वारा किया जा सकता है या वैज्ञानिकों द्वारा या ऐसे विशेषज्ञों द्वारा जो इसका वैज्ञानिक ज्ञान रखते हैं। और ऐसे समस्त लोगों की अनुक्रिया ऑनलाइन वेबसाइट से, ईमेल से ज्यादा सार्थक ढंग से मिल सकती है, बनिस्बत उन्हें मात्र जन सुनवाई के दिन उपस्थित होकर अपनी बात रखने के।
तदैव ईआईए प्रतिवेदन के अतिरिक्त जो सामान्य बिन्दु होते हैं, उन पर जन परामर्श की अनुक्रियाओं को अध्ययन करने पर यह देखा गया है कि आम नागरिक के सारे मुद्दे कानूनों की विभिन्न प्रावधानों से पहले से ही आच्छादित हैं, जैसे कि-
(1) रोजगारः- लगभग सभी राज्य शासन के नियम हैं कि 80 प्रतिशत स्थानीय लोगों को ही रोजगार दें। तदैव पर्यावरण स्वीकृति लेने या न लेने से इस पर कोई अंतर नहीं आता।
(2) स्थानीय विकासः इस हेतु पहले ही आयकर अधिनियम तथा कम्पनी अधिनियमों में सामाजिक विकास में निवेश करने हेतु पर्याप्त प्रावधान हैं। ईआईए अधिसूचना के अंतर्गत 1 प्रतिशत परियोजना लागत का कार्पोरेट एनवायरमेंट रिसपांसिबिलिटी हेतु व्यय करने का प्रावधान है। अतः पर्यावरण स्वीकृति लेने हेतु ही इसकी बाध्यता करने से कोई अतिरिक्त लाभ नहीं मिलता।
(3) वायु प्रदूषण नियंत्रणः- इस हेतु वायु प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1981 के तहत कठोर प्रावधान हैं। इन्हें लागू करने के उपरांत किसी भी उद्योग से वायु प्रदूषण की समस्या नहीं हो सकती।
(4) जल प्रदूषण नियंत्रण :- जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण अधिनियमों के अंतर्गत कठोर प्रावधान हैं। वर्तमान में शून्य निस्सारण की शर्तों पर ही अनुमति दी जा रही है।
(5) ठोस अपशिष्ठ :- 100 प्रतिशत ठोस अपशिष्ठों का वैज्ञानिक प्रबंधन अनिवार्य करने हेतु पहले ही कठोर कानूनी प्रावधान हाजार्ड्स वेस्ट एण्ड अदर मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग रूल्स 2016 के अंतर्गत हैं। तदैव इस बिन्दु के दुष्प्रभावों का सम्पूर्ण समाधान किया जा चुका है।
(6) भूमिगत जल :- बिना केन्द्रीय भूमिगत जल प्राधिकरण के उद्योग को जल आहरण की अनुमति नहीं है।
(7) कृषि क्षेत्र में कमी :- चूॅंकि कृषि में किसानों को लाभ नहीं हो रहा है, अतः किसान स्वाभाविक रूप से खेती छोड़ रहे हैं। हजारों एकड़ जमीन खाली ही रहती है।
(8) अन्य दुष्प्रभाव :- इसमें ट्राफिक की बात आती है। बाहरी लोगों के अतिक्रमण की बात आती है। पर ये सभी बातें अब तक हुए हजारों जन परामर्श के द्वारा सुस्पष्ट हो चुकी है।
अस्तु, निष्कर्ष यह निकलता है कि वर्तमान में जन परामर्श एक ऐसा वैधानिक व्यवधान बन गया है, जिससे जन सामान्य को काई लाभ नहीं है। केवल एक बौद्धिक एवं विधिक विलासिता प्रदर्शन का दृश्य रह गया है।
भारत सरकार जब विश्व के मूर्धन्य वैज्ञानिकों को अपनी विशेषज्ञों की टोली में रखती है और 70 वर्षों का औद्योगिक प्रदूषण नियंत्रण एवं पर्यावरण संरक्षण का अनुभव रखती है, तो अपेक्षा यह होना चाहिए कि यदि कोई उद्यमी अपने उद्योग से सफलतापूर्वक प्रदूषण नियंत्रण हेतु तकनीकी परामर्श मांगे, जिसमें कि सरकार की अपेक्षा के अनुरूप वातावरण निर्मल रह सके, तो सरकार को तत्काल उपलब्ध कराना चाहिए।
जन परामर्श की प्रक्रिया केवल उन विशाल परियोजनाओं हेतु ही लागू हों, जिनमें 1000 करोड़ से अधिक व्यय हो रहा हो या जिसमें 100 टन प्रतिदिन से अधिक कोयला जलता हो। या जिसमें सैकड़ों एकड़ उपजाऊ भूमि का उपयोग परिवर्तित हो रहा हो। जन भावनाओं के संकलन के नाम पर देश के आर्थिक विकास को विलंबित करना काफी घातक हो सकता है।
तदैव, भारत सरकार को ऐसा सारा जन परामर्श ऑनलाइन वेबसाइट के माध्यम से किसी परियोजना के कार्यपालक सारांश एवं आवेदन प्रस्तुति के साथ ही पर्यावरण मंत्रालय द्वारा आरंभ किया जावे। इस हेतु अधिक से अधिक 15 दिन की अवधि में जन टिप्पणियां आहूत की जावें।
प्राप्त टिप्पणियों पर अपना उत्तर प्रस्तुत करने आवेदक उद्यमी को अवसर दिया जावे। तदुपरांत विशेषज्ञ समिति पर्यावरण प्रभाव आंकलन के मूल्यांकन के समय इन बिन्दुओं के समाधान के समाहित होने को सुनिश्चित कर पर्यावरण स्वीकृति प्रदान करे। ऐसा करने पर आवेदन करने के 45 दिनों के अंदर सम्पूर्ण जन परामर्श की प्रक्रिया सम्पूर्ण हो सकती है और आमने-सामने जन परामर्श में व्याप्त दोष और विसंगतियों से औद्योगिक प्रगति को पहुॅंच रहे व्यवधान से बचाया जा सकता है। जिसे वर्तमान परिदृश्य में सुनिश्चित करना अनिवार्य है।
आज जब भारतवर्ष में लगभग सभी सरकारी फाईलें, बैंकिंग पेमेंट, शिक्षा, परामर्श ऑनलाइन हो रहा है, तो इस संचार युग में सारा जन परामर्श ऑनलाइन ही किया जावे। न्यायालय में अशासकीय संगठनों द्वारा प्रस्तुत यह तर्क औचित्यपूर्ण नहीं लगता कि परियोजना प्रभावित क्षेत्रों में बहुत से लोगों को पढ़ना-लिखना नहीं आता और बहुत सारे लोगों को ऑनलाइन प्रक्रिया मत प्रस्तुत करने की क्षमता नहीं है। जबकि आज के इस युग में सभी गांवों में 90 प्रतिशत से अधिक लोग शिक्षित हैं तथा 80 प्रतिशत से अधिक लोगों के पास मोबाइल या फोन के प्रत्यक्ष साधन उपलब्ध हैं। या फिर सभी गांवों में च्वायस केन्द्रों के द्वारा भी लोग अपनी बात भेज सकते हैं। अतः आमने-सामने का जन परामर्श इस युग में बहुत साथर्क नहीं है। अपितु, ऑनलाइन परामर्श से ज्यादा लोग अपने विचार प्रस्तुत कर सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा संचालित यूनाईटेड नेशन फ्रेमवर्क ऑन क्लाईमेट चेंज (UNFCCC) द्वारा भी क्लीन डेवलपमेंट मेकेनिज्म के लिए वैश्विक जन परामर्श ऑनलाइन ही किया जाता था। तदैव इस अनुभव को भारत में भी अंगीकृत किया जा सकता है।
जन परामर्श एक अच्छी पहल है, पर इसके नाम पर परियोजनाओं को होने वाले विलंब से जन सामान्य को कदाचित कोई लाभ नहीं पहुॅंचता। अपितु राष्ट्रीय विकास की गति मंथर होती है। पिछले 22 वर्षों में संपादित जन परामर्शों को ध्यान में रखकर एवं उनमें प्राप्त अनुक्रियाओं का अध्ययन करके तथा उसमें व्यय हुए समय, धन, साधन का संज्ञान लेकर ही सरकार को इसकी आवश्यकता एवं प्रक्रिया को पुनः निर्धारित करना चाहिए।
उत्तम सिंह गहरवार