प्रति वर्षों की भांति इस वर्ष भी 11 जुलाई 2024 को विश्व जनसंख्या दिवस का आयोजन सम्पूर्ण विश्व के अधिकांशतः देशों में किया गया। पर, यह अत्यंत गंभीर चिंता का विषय है कि पूरे विश्व के अधिकांश देशों में जब कभी भी जनसंख्या नियंत्रण पर बात की जाती है तो इसे अनेकों लोग अपने धार्मिक आस्था के विरूद्ध मान लेते हैं, तो कुछ राजनेता इसे नागरिकों के संवैधाानिक अधिकारों के विरूद्ध बतला कर राजनीति करते हैं किन्तु, सत्य तो यह है कि जनसंख्या नियंत्रण की आवश्यकता किसी भी धार्मिक आस्था के अवहेलना के लिए नहीं है और न ही किसी के संवैधानिक अधिकारों के हनन के लिए है। अपितु जनसंख्या नियंत्रण इस युग के सम्पूर्ण रूप से विज्ञान सम्मत सर्वोच्च अनिवार्यता है और सर्वोच्च प्राथमिकता हैं इसे न तो किसी राजनीति से जोड़ना चाहिए और न ही किसी धर्म से। हमें इस कड़वे सच को स्वीकार करना चाहिए कि पृथ्वी पर जब मनुष्यों का या जीवों का उद्भव हुआ था, तो न तो उनकी कोई जाति थी और न ही कोई धर्म, और न ही कोई देश या न ही कोई राष्ट्र और न ही थी कोई भाषा और न ही थी कोई किताब, न ही थे कोई धर्माचार्य और न ही कोई राजनेता।
प्रकृति पर बढ़ते हुए प्रहार तथा पर्यावरणीय दुष्कर्मों के दुष्प्रभाव से पृथ्वी पर बढ़ते तापमान के कारण या फिर अन्य किसी कारणों से जब पृथ्वी पर फिर से प्रलय की स्थिति बनेगी, तो न ही बचेगी कोई जाति और न ही बचेगा कोई धर्म और न ही बचेगा कोई देश और न ही बचेगा कोई संविधान और न ही बचेगी कोई किताब और न ही बचेगा कोई राजनेता। और न ही बचेगा कोई अर्थशास्त्री और न ही बचेगा कोई वैज्ञानिक। ये सारे भ्रम एवं विवाद केवल उस समय तक के लिए ही संभव हैं, जब तक पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति पैदा नहीं हो जाती। यदि हम आज संविधान और धर्म की किताबों से हटकर यदि पृथ्वी और प्रकृति पर मनुष्यों की संख्या से पैदा हो चुके प्रहार पर परिचर्चा कर, मूल्यांकन करें तो हम पाएंगे कि पृथ्वी रूपी इस नाव या जहाज की स्थिति उस नाव या जहाज के जैसी है, जिसमें क्षमता से दुगुना से भी अधिक सवार हो चुके यात्रियों के बोझ से डूबने की स्थिति बन गई है या फिर उस डूबते हुए टाईटेनिक जहाज के जैसी है, जिस पर सवार सभी लोगों ने अपने-अपने धार्मिक आस्थाओं के अनुरूप अपने जीवन की रक्षा के लिए भरपूर गुहार लगाया था, फिर भी उनमें से कोई भी बच न सका। चूॅंकि उस जहाज की उस विषम परिस्थितियों को झेलने की क्षमता से ज्यादा विषम परिस्थितियां बन चुकी थीं। भले ही वे परिस्थितियां भी शायद मानव निर्मित ही विषमताओं से उपजी थी या प्राकृतिक थीं।
पृथ्वी पर भी आज इस पृथ्वी रूपी जहाज पर 810 करोड़ लोग सवार हो चुके हैं। विडम्बना यह है कि आर्थिक एवं राजनैतिक प्रतिस्पर्धा में लगे हुए राजनेता और अर्थशास्त्री पूर्णतया पर्यावरणांध हो चुके हैं। अपने-अपने देश और अपनी-अपनी जाति और अपने-अपने धर्म की समृद्धि के नाम पर प्रकृति का दोहन नहीं, अपितु शोषण करने में लगे हैं, तदेव प्रकृति हिंसा जैसे कुकृत्य कर रहे हैं। ये कृत्य ठीक उसी प्रकार से मूर्खतापूर्ण हैं, जैसे कालीदास जी उसी डाल को काट रहे थे, जिसके एक छोर पर वे स्वयं बैठे हुए थे।
विडम्बना यह है कि लोग पहले से परास्त हो चुकी पृथ्वी पर न केवल जनसंख्या वृद्धि का आव्हान कर रहे हैं, अपितु उपभोग में वृद्धि की भी बात कर रहे हैं। यह समझ में नहीं आता कि केवल आर्थिक समृद्धि से सृजित पर्यावरणीय विपन्नता के साथ कैसे मनुष्य एवं अन्य जीवों का जीवन सुखमय, स्वास्थ्यमय एवं सौहार्द्रमय हो सकता है। पता नहीं इस सभ्यता के विद्वान, दार्शनिकों, साहित्यकारों, पत्रकारों, विचारकों को यह क्यों समझ में नहीं आता कि, कोई व्यक्ति अपने जीवनकाल में अपना धर्म कितनी भी बार बदल सकता है, उस पर कोई रूकावट नहीं, अपना गांव बदल सकता है, अपना शहर, राज्य और यहां तक कि देश भी बदल सकता है, नागरिकता बदल सकता है, गरीब से अमीर हो सकता है, अमीर से गरीब हो सकता है, अपना भोजन, भजन, आभूषण, वेशभूषा आदि सब कुछ बदल सकता है, यहां तक कि अपना लिंग भी परिवर्तित करके स्त्री से पुरूष या पुरूष से स्त्री भी बन सकता है, पर पृथ्वी रूपी इस एकमात्र जीवन के लिए उपयुक्त ग्रह रूपी गृह को बदलना अर्थात बदलकर किसी अन्य ग्रह पर जाना पूर्णतया असंभव है। फिर क्यों यह जरूरी नहीं कि इस पृथ्वी पर पारिस्थितिकी तंत्र और पर्यावरण की रक्षा के लिए हमें जो कुछ भी त्याग करना पड़े, उसका त्याग करें। भले ही वह आर्थिक समृद्धि का त्याग हो या धार्मिक भेदभाव या सांस्कृतिक अहंकार या जातीय वैमनस्यता या राष्ट्रीय द्वेष का त्याग हो, हमें तो उसे त्यागना ही होगा। इसकी अनिवार्यता को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम इस समस्या की जड़ को जानें। जनसंख्या रूपी प्रति पल पनप रहे इस आत्मघाती बम के विस्फोट के आयामों को समझें और इसके निराकरण के लिए मार्ग को भी समझ कर अपनाएं।
अनियंत्रित जनसंख्या विस्फोट के दुष्परिणामों से प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक राजनेता, धर्मगुरू, प्रशासन, पत्रकार, किसान, मजदूर, शिक्षक, चिकित्सक, वकील, अर्थचिंतक तथा समाज के सभी सुधी व्यक्तियों का साक्षात्कार होता है। प्रत्येक नागरिक सड़कों पर बढ़ रही गाडियों की भीड़ से परेशान है, तो ट्राफिक जाम से परेशान है, पार्किंग के लिए स्थान नहीं होने के कारण परेशान है, तो नालियों में पानी निकास की क्षमता से अधिक जल प्रवाह से उत्पन्न स्थानीय स्तर के बाढ़ से परेशान है। अस्पतालों में भीड़, तो हवाईअड्डों में भीड़, रेल्वे स्टेशन पर भीड़, रेल्वे के कोच में भीड़, बसों मेें भीड़ और बस अड्डों में भीड़, सामाजिक जलसों में भीड़, राजनैतिक रैलियों में भीड़ से सभी रूबरू हो रहे हैं।
स्कूलों, कालेजों आदि सभी जगह बेतहाशा भीड़ से लोग परेशान जरूर हो रहें हैं पर सारे देश के लोग इसके लिए कोसते हैं तो केवल सरकार को, प्रशासन को, नेताओं को, नीतियों को, पर कोई भी यह साहस नहीं करता कि इस आत्मघाती स्तर तक बढ़ चुकी जनसंख्या से उत्पन्न हो रही सभी समस्याओं के लिए खुद स्वयं को जिम्मेदार ठहराएं। जबकि, सत्य यही है कि हम सब नागरिक इसके लिए जिम्मेदार हैं। हम सरकार को प्रशासन को या नेताओं को कितनी भी गालियां देते रहें, पर इससे क्या कोई स्थायी समाधान होगा? अधिकारियों एवं नेताओं को भले ही अदालतें सजा सुना दंे, पर क्या इससे इन गंभीर समस्याओं का सार्थक हल निकलेगा? सबसे दुखद पहलू यह है कि स्वयं अदालतें भी और उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय भी प्रकृति और जनसंख्या के बीच बढ़ चुके खतरनाक असंतुलन पर कोई टिप्पणी करने या इसके नियंत्रण करने हेतु सार्थक निर्णय देने से कतराते हैं। सरकार या समाज कितना भी मजबूत हो जावें या स्वयं मनुष्य कितना ही मजबूत हो जावे, पर प्रकृति तो अपने ऊपर हो रहे प्रहार के प्रतिकार का प्रत्युत्तर देने में अपना पराक्रम दिखा ही देगी और दिखा भी रही है। प्रकृति के प्राकृतिक प्रकोप का कोपभाजन होता है वह आम इंसान, जिसे न तो किसी जाति से और न राजनीति से, और न अर्थ से न ही तकनीकी से और न ही किसी आधुनिकी ज्ञान से या विज्ञान से कोई ऐसा लाभ पहुॅंचा होगा कि, उसे इन कारणों से उत्पन्न क्षति की भरपाई हो सके।
इस लोकतांत्रिक प्रणाली का सबसे स्याह पक्ष यह है कि आम नागरिकों को अपने पर्यावरणीय दायित्वों का कोई सम्यक बोध नहीं है। हरेक समाज अपनी-अपनी राजनीतिक शक्तियों का मत-बल बढ़ाने के लालच में जनसंख्या वृद्धि के मोह से अपने समाज को मुक्त नहीं कर पा रहें है। वे इसके गंभीर दुष्परिणामों को स्वीकार करने से कतरा रहे हंै। आज बढ़ती जनसंख्या घनत्व का ही दुष्परिणाम है कि, लंदन, पेरिस जैसे खूबसूरत शहर धीरे-धीरे स्लम का स्वरूप धारण करने की ओर अग्रसित हो रहे हैं। सामाजिक एवं धार्मिक द्वेष तथा दुर्भावनाओं से उत्पन्न द्वन्द से दुर्दशा की ओर बढ़ रहे हैं। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ भी खतरनाक हो चुकी जनसंख्या स्तर पर नियंत्रण करने की बात से कतराता है।
कांफ्रेंस आफ पार्टीज में मौसम परिवर्तनों के मूल कारणों में जनसंख्या विस्फोट होने के बावजूद कभी भी इस पर चर्चा नहीं की गई है। जबकि, अनुमान है कि आगामी 30 वर्षों में ही पृथ्वी की जनसंख्या 1050 करोड़ पार कर चुकी होगी। ऐसे समय में आम आदमी को जागरूक करने, इसे जन आंदोलन के द्वारा नियंत्रित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। आज विश्व के द्वारा समृद्धि के पैमाने के रूप में अंगीकृत आर्थिक मापदण्ड यथा ळक्च् (ग्रास डामेस्टिक प्रोडक्ट) प्रति व्यक्ति आय इत्यादि पैमाने भ्रामक पैमाने हैं। जबकि, समृद्धि के सही सूचकांक के रूप में तो हमें प्रति व्यक्ति उपलब्ध वन क्षेत्र, प्रति व्यक्ति उपलब्ध भूभाग, प्रति व्यक्ति उपलब्ध स्वच्छ जल, प्रति व्यक्ति उपलब्ध स्वच्छ ऊर्जा को ही प्रगति के पैमाने के रूप में तुलना में लेना चाहिए। आर्थिक समृद्धि के विरूद्ध प्रति व्यक्ति बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को हमें आसन्न संकट के संकेतक के रूप में तौलना चाहिए। जब तक हम इन इन शास्वत सत्य सूचक सूचकांकों को आम नागरिक के जीवन में व्याप्त प्राकृतिक समृद्धि का मूल्यांकन नहीं करेंगे, तब तक हम आर्थिक प्रगति के प्रकृति विनाशकारी एवं पर्यावरणीय अहितकारी कृत्यों में ही आगे बढ़ते रहेंगे। अतः सभी जन-जन तक इन शास्वत सूचकांकों के बिन्दुओं को पहुॅंचाने की आवश्यकता है।
इसी भाव पृष्ठभूमि से हमने पत्रिका के इस अंक को विश्व जनसंख्या दिवस के उपलक्ष्य में एक जनसंख्या विशेषांक के रूप में प्रकाशित करने का संकल्प लिया है। हमारा प्रयास है कि सहज, सुभाषा में इस पारिस्थितिकी परिसंकट का परिचय हम अधिक से अधिक जन मानस तक पहुॅंचा सकें। आशा है आप सबको यह अंक उपयोगी एवं ज्ञानवर्धक प्रतीत होगा। इस अंक के प्रकाशन में तकनीकी कारणों से विलम्ब हुआ, इसके लिए पत्रिका परिवार की ओर से क्षमा प्रार्थी हैं। समस्त शुभकामनाओं के साथ, श्रावण मास में शिव भक्तों का अभिनंदन एवं आव्हान कि अधिक से अधिक वृक्ष लगायें एवं वर्षा जल संधारण हेतु श्रेष्ठतम प्रयास करें।
-संपादक