संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में ‘संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाईमेट चेंज’ द्वारा ग्लास्गो में आयोजित ‘‘कांफ्रेंस आफ पार्टीज’’ की 26वीं बैठक लगभग संपादित हो चुकी है। जिसके निष्कर्ष में जो बिन्दु समक्ष आए हैं, उसमें मुख्य रूप से इस बात की स्वीकृति को अभिव्यक्त करना है कि, वातावरण गरम होने से मौसम परिवर्तन (अर्थात ग्लोबल वार्मिंग के कारण क्लाईमेट चेंज) मानव जाति के लिए निश्चित रूप से एक निर्धारित खतरा है, अतः संबंधित सभी देशों को मानवता की रक्षा के लिए स्वयं के लिए, जनजातीय लोगों, समुदायों, प्रवासियों, बच्चों, महिलाओं इत्यादि के समान मानवीय अधिकारों को संज्ञान में रखते हुए आसन्न संकट से बचाने के लिए सार्थक उपाय करना आवश्यक है। जिसमें विज्ञान की भूमिका को स्वीकार करते हुए इसकी अनिवार्यता पर भी बल दिया गया।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ के फ्रेमवर्क ऑन क्लाईमेट चेंज के तत्वावधान पूर्व में संपादित क्योटो प्रोटोकाल से पेरिस प्रोटोकाल के बीच लिए गए निर्णयों की भी समीक्षा कर, सकारात्मक पहल हेतु प्रस्ताव किए गए। इसमें वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विकसित देशों को पहल करने तथा विकासशील देशों की क्षमता विकास एवं तकनीकी हस्तांतरण पर भी बल दिया गया। वित्तीय आवश्यकताओं को पोषित करने हेतु मल्टी लेटरल डेवलपमेंट बैंक्स के साथ अन्य वित्तीय संस्थान एवं निजी क्षेत्रों की ओर से कार्बन इमीशन उत्सर्जन को कम करने वाली परियोजनाओं को पूरा समर्थन देने पर बल दिया गया।
शमनकारी उपायों (मिटिकेशन मेजर) में यह स्वीकृत किया गया कि पेरिस समझौते के दौरान भूमंडल के औसत तापमान को औद्योगीकरण युग के पूर्व के काल से 2 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ने के स्थान पर 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ने तक ही सीमित करना सुरक्षित होगा। इस हेतु वर्ष 2030 तक 2010 की तुलना में 45 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन को कम करना आवश्यक है। इसी प्रकार के अनेकों बिन्दुओं पर जो विस्तृत चर्चा हुई है, उस पर विस्तृत टिप्पणी न करके, उन मुख्य बिन्दु और भावना पर हम अपने विचारों को यहां सीमित रख रहे हैं, जिनके कारण हमें इस समझौते के बावजूद मौसम परिवर्तन रोकना कठिन प्रतीत होता है, ताकि भूमंडल की सुरक्षा हेतु अंतर्राष्ट्रीय चिंता के अनुरूप हम भारत सरकार एवं इस दिशा में चिंतित पर्यावरणविदों का महत्वपूर्ण ध्यान आकृष्ट कर सकें।
1994 के क्योटो प्रोटोकाल से आरंभ इस पहल पर गंभीरता से समीक्षा करने पर यह स्पष्ट होता है कि इस दिशा में किए जाने वाले प्रयासों में सबसे बड़ी भूल अंतर्राष्ट्रीय समुदायों ने यह की है कि जनसंख्या विस्फोट के कारण उत्पन्न पर्यावरणीय संकट पर कोई चिंता कभी भी जाहिर नहीं की जा रही है। जबकि, 1994 में जो वैश्विक जनसंख्या 560 करोड़ थी वह 2020 में 790 करोड़ हो गई, वहीं भारतवर्ष में जो जनसंख्या 95 करोड़ थी, वह 26 वर्षों में बढ़कर 135 करोड़ हो चुकी है। जबकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह बात सभी जानते हैं कि वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन का मुख्य स्रोत मानवीय गतिविधियां ही हैं। मानवीय जनसंख्या के कारण ही वनों की कटाई भी बढ़ी है एवं जैव विविधता का भी हलास हो रहा है। समुद्रों के अंदर भी वानस्पतिक एवं जलचरों की जैव विविधता को गंभीर रूप से क्षति पहुॅंची है। पर यह अत्यंत विडम्बना का विषय है कि पूरे विश्व के राष्ट्राध्यक्ष और न ही कोई अशासकीय संगठन, मौसम परिवर्तन रोकने के लिए कभी भी शत-प्रतिशत जनसंख्या नियंत्रण पर बल नहीं देते हैं, जो कि अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों की निष्फलता एवं असफलता का सबसे बड़ा प्रमाण है। इस विषय पर जब तक गंभीर चिंतन नहीं किया जावेगा, तब तक सभी अंतर्राष्ट्रीय समझौते एवं संधियां औपचारिक खाना-पूर्ति ही सिद्ध होंगे।
दूसरी सबसे चिंता का विषय यह है कि विकसित राष्ट्र अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, उपभोग की सामग्रियों की पूर्ति के लिए, अपने राष्ट्र में कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन को कम दिखाने के लिए अनेकों कार्बन प्रदूषणकारी प्रक्रियाओं को चीन जैसे सर्व सुविधा सम्पन्न विकसित देश में (जो कि विकासशील देश के छद्म मुखौटा ओढ़ रखा है) स्थानांतरित कर रहे हैं। वहां से गंभीर रूप से प्रदूषणकारी प्रक्रियाओं को अपनाकर उत्पादित उपभोग के सस्ते सामान अपने देशों में आयात कर रहे हैं। अतः जब तक किसी भी देश के सकल कार्बन इमीशन उत्सर्जन की मात्रा का निर्धारण उस देश में उपभोग होने वाली समस्त सामग्रियों में उत्सर्जित कार्बन इमीशन की मात्रा को जोड़कर गणना नहीं किया जावेगा, तब तक ईमानदारी से उस देश के कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण का मूल्यांकन संभव नहीं होगा।
तीसरा बड़ा कारण विश्व के समक्ष विकसित और विकासशील देशों के विभाजन के मानचित्र में चीन अभी तक अपने आपको विकासशील देशों की श्रृंखला में रखे हुए है। जबकि पूरी दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषणकारी प्रक्रियाएं अपने देश में संक्रेन्द्रित कर, विकासशील देशों को विकसित करने हेतु जो स्वाभाविक कार्बन न्यूट्रल औद्योगीकरण के द्वारा अवसर मिलना चाहिए, उसे अवरूद्ध कर रहा है। अतः चीन जैसे विकसित देशों को विकासशील देशों के स्थान पर, विकसित राष्ट्र के रूप में शामिल किया जाना आवश्यक है तथा चीन को भी विकसित देशों की तरह ही कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण हेतु कठोर मानकों का पालन करना चाहिए।
ग्लोबल वार्मिंग के दुष्परिणामों में अनेकों दुष्परिणाम वर्तमान में ही पिछले कुछ वर्षों से भूमंडल के अनेकों भागों में समय-समय पर अनुभव किए जा रहे हैं। जिसमें अमेरिका के कुछ हिस्सों में भयावह हिमपात रहा है तो भारतवर्ष के अनेकों राज्यों में भारी असामयिक वर्षा रही है। मानसून के व्यवहार में परिवर्तन हो रहा है, सूखे तथा बाढ़ की स्थिति निरंतर बन रही हैं, जिसका सीधा-सीधा दुष्प्रभाव ग्रामीण अंचलों की अर्थव्यवस्था के मूल आधार किसानों एवं कृषि आधारित मजदूरों पर पड़ता है। इन समस्याओं से सामना करने के लिए भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के पास जो वैज्ञानिक नियोजन की क्षमता विकसित करनी चाहिए, उसका नितांत अभाव दिखाई पड़ता है। वहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन दुष्प्रभावों से पीड़ित लोगों के हित चिंतन पर केवल घड़ियाली आंसू बहाने की रस्म अदायगी हो रही है। इन स्थानीय समस्याओं के समाधान में कहीं विकास कुप्रबंधन है, तो कहीं आवास कुप्रबंधन, तो कहीं जल आपूर्ति अव्यस्थित है, तो कहीं सिंचाई साधनों का अभाव है, तो कहीं विद्युत की समस्या है, तो कहीं आवागमनों की। इन समस्याओं को केवल स्थानीय स्तर से जोड़कर उपेक्षित कर दिया जाता है, जबकि इन समस्याओं का स्रोत मूलतः अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर असंतुलित आर्थिक विकास एवं पर्यावरणीय असंतुलन तथा पश्चिमी देशों एवं औद्योगीकृत अर्थव्यवस्था द्वारा थोपी गई पर्यावरणीय दरिद्रता ही है। जबकि इन पिछड़े क्षेत्रों के दर्द का स्रोत आर्थिक अभाव कभी भी इतना नहीं रहा, जितना आज आर्थिक समृद्धि के बावजूद पर्यावरणीय दरिद्रता से पनप रहा है।
अंतर्राष्ट्रीय समझौतों की विफलता का एक गौड़ कारण यह भी है कि विकास के नाम पर समस्त विकसित देशों के अंतर्गत जो तकनीकी एवं विज्ञान के विकास से निर्माण प्रक्रिया पर आधारित उत्पाद हैं, उन तकनीकियों के निष्पादन के माध्यम से ही कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण को मुख्य मान देकर प्रस्तुत किया जा रहा है। जबकि उससे अधिक प्रभावशाली परिणाम वस्तुओं के उपभोग को कम करके एवं परम्परागत संस्कारों को भी तकनीकी एवं विज्ञान के साथ संयुक्त करके ज्यादा सफलतापूर्वक एवं तेजी से संभव किया जा सकता है। एक साधारण उदाहरण के तौर पर यह एक स्थापित वैज्ञानिक पद्धति पिछले लगभग 50 वर्षों से सिसक रही है। वह है- गोबर को सड़ाकर गोबर गैस बनाकर उससे घरों के चूल्हे भी जलाए जा सकते हैं एवं इंजन को भी चलाया जा सकता है। किन्तु इस अभियान को आज तक ऐसा विराट स्वरूप नहीं दिया जा सका, जिससे कि शत-प्रतिशत पशुमल एवं मानवमल का बायोगैस में परिवर्तन कर, उसे रसोई गैस के रूप में या फिर इंटरनल कंबशन इंजन के ईधन के रूप में आर्थिक लाभपूर्वक परियोजना का स्वरूप दिया जा सके।
इसकी उपेक्षा का प्रमुख कारण यह है कि पेट्रोलियम उत्पादक देशों को उनके गैस भंडार से निकलने वाली सस्ती गैस के दोहन के लिए किसी प्रकार के कार्बन उत्सर्जन के कारण उत्पन्न मानव समाज पर बढ़ रहे बोझ का भार वहन नहीं करना पड़ता। इस समझौते की अगली असफलता का स्रोत यह भी होगा कि सम्पूर्ण विश्व में जीवाश्म ईंधन (फासिल फ्यूल) उत्पादन करने वाले संस्थानों, राष्ट्रों और कम्पनियों पर कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण करने का कोई अधिभार देने का दायित्व नहीं है। पेट्रोल उत्पादक देश तथा कोयला उत्पादक देश यथावत अपने यहां उत्पादन बढ़ाते जा रहे हैं तथा पूरे विश्व में इन जीवाश्म ईंधनों के खपत में वृद्धि पर कोई अंकुश नहीं है। प्रकृति के निर्बाध शोषण से ये राष्ट्र अकूत धन-सम्पदा अर्जित करके न केवल राष्ट्रीय, अपितु अंतर्राष्ट्रीय विचार मंचों को अपने पक्ष में झुकाने में सक्षम हो चुके हैं। तदैव इन सस्ते आर्थिक संसाधनों के समक्ष जीवाश्म ईंधन मुक्त व्यवस्था को विकसित करना लगभग असंभव सा हो रहा है।
इस अर्थप्रधान युग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि विश्व के सभी तथ्यों का मौद्रिक मूल्य निर्धारित सा हो गया है। इस मूल्य निर्धारण का अधिकार जिन लोगों के हाथ में है, वो अपने उत्पादों को तो बहुमूल्य बताते हैं, पर उसके कारण उत्पन्न दर्द का कोई मूल्य नहीं होता, अपितु वह एक हादसा ही होता है। बावजूद इसके सबसे प्रसन्नता की बात यह है कि विश्व पटल पर ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने की चिंता में अमेरिका भी एक शामिल देश के रूप में अब दिख रहा है। राजनैतिक राष्ट्राध्यक्षों की सीमाएं स्पष्ट हैं कि वे अपने-अपने देश के अस्थायी प्रतिनिधि हैं, पर मौसम परिवर्तन का संकट और ग्लोबल वार्मिंग स्थायी सत्य है। समस्या का समाधान तो निकालना ही होगा। यदि मानव अपने प्रयासों से निकाले तो वह सुखद होगा, अन्यथा प्रकृति तो अपने प्रयास करेगी ही, पर वह बहुत दुखद होगा। यद्यपि ब्व्च्.26 ग्लासगो सम्मेलन को सफल सम्मेलन के रूप में स्वीकार किया जा रहा है, पर मौसम परिवर्तन को रोकने की दिशा में उक्त बिन्दुओं पर सार्थक कदम उठाए बिना व्यावहारिक सफलता धूमिल दिखाई देती है। सम्पूर्ण विश्व अभी भी कोरोना के गंभीर दुष्प्रभावों से पूरी तरह मुक्त भी नहीं हो पाया है। ऐसी स्थिति में संकटग्रस्त मानवता को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने हेतु जारी प्रयास एक सराहनीय कदम हैं। इनकी सफलता की हृदय से शुभकामनाएं हैं। पर इसे तत्काल संभव करने हेतु उपरोक्त बिन्दुओं पर विचार भी सार्थक होगा।
– संपादक