सम्पूर्ण विश्व मौसम परिवर्तन के खतरे से मानव सभ्यता एवं जीव सभ्यता के अस्तित्व को सुरक्षित करने के लिए चिंतित है। इस वैश्विक चिंतन का संस्थागत शासकीय सफर ऐतिहासिक ‘क्योटो प्रोटोकाल’ के वर्ष 1997 में आहूत समझौते के निष्पादन से आरंभ हुआ था। उस समझौते में विश्व के लगभग सभी देश शामिल थे। विकसित, विकासशील तथा पिछड़े हुए देशों ने अपनी-अपनी समस्याओं को सम्मुख रखकर एक समझाते के मसौदे को स्वीकार किया था, जो भविष्य में ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ कन्वेंशन फॉर क्लायमेंट चेंज’’ (UNFCCC) के माध्यम से संगठित प्रयास हेतु एक संगठन के रूप में उदित हुआ था। जिसके माध्यम से विकसित एवं विकासशील देशों में ‘क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म’’ क्योटो प्रोटोकाल में हस्ताक्षरकर्ता देशों के बीच क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म के अंतर्गत हरितकारी गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने एवं घटाने हेतु प्रयास आरंभ किए गए थे।
इस संगठन के मेकेनिज्म के माध्यम से निश्चित रूप से विकसित एवं विकासशील देशों में वर्ष 2000 से लेकर 2012 एवं कुछ हद तक वर्ष 2017 तक महत्वपूर्ण कार्बन शमनकारी तथा कार्बन उदासीन परियोजनाओं का निष्पादन संभव हुआ। जिसमें सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा के अतिरिक्त ऊर्जा दक्षता उन्नयन एवं गैर परम्परागत ऊर्जा के अन्य साधनों में मुख्य रूप से अपशिष्ठ ताप से विद्युत उत्पादन परियोजनाओं का सार्थक निष्पादन संभव हुआ। जिससे हजारों मेगावाट कार्बन उदासीन ऊर्जा का उत्पादन एवं संरक्षण संभव हुआ।
हम जटिल आंकड़ों को प्रस्तुत करने के स्थान पर सारांशतः यह रेखांकित कर पाठकों को बतलाना चाहेंगे कि क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म में कार्बन इमीशन रिडक्शन सर्टिफिकेट के बाजार में अच्छे मूल्यों में विक्रय के आकर्षण के कारण विश्व के तमाम विकसित देशों ने भी इन परियोजनाओं को आर्थिक एवं तकनीकी सहायता खुले मन से प्रदान की। किन्तु इस अद्भुत मैकेनिज्म के अंतर्गत चीन जैसे देश, जो कि वास्तव में तब तक भी विकासशील देशों के रूप में न होकर विकसित देश का स्वरूप धारण कर चुके थे और जिनका कार्बन इमीशन उत्सर्जन विकसित देशों में भी सर्वाधिक था, उसने ही इस मैकेनिज्म का मौलिक रूप से सर्वाधिक शोषण किया। परिणामस्वरूप जापान, कोरिया एवं यूरोप के राष्ट्र जो कार्बन इमीशन रिडक्शन करने की परियोजनाओं को सी.डी.एम. के माध्यम से समर्थन दे रहे थे, उन्होंने 2012 के उपरांत इसे और अधिक जारी रखना उचित नहीं पाया।
इस सम्पूर्ण परिदृश्य में विश्व के किसी भी राष्ट्र ने चीन के कार्बन इमीशन रिडक्शन सम्बन्धी कृत्यों का कभी भी खुलासा करने का साहस नहीं किया। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि पश्चिमी देश जो कि अपनी अर्थव्यवस्था का संचालन मौलिक रूप से पर्यावरण के भयावह रूप में दोहन के द्वारा करते हुए अग्रिम श्रेणी में बनाए हुए थे, उन्होंने यह कभी चिंतन नहीं किया कि यदि उन्होंने चीन को पर्यावरण प्रिय तकनीकियों के माध्यम से अर्थव्यवस्था का संचालन करने हेतु बाध्य नहीं किया, तो विकसित देशों में निर्मित होने वाले समस्त उत्पाद शनैः-शनैः चीन में पर्यावरण शोषण से सस्ता उत्पादन कर चीन में निर्मित होने लगेंगे।
पश्चिमी देशों के शासनाध्यक्षों ने विश्व परिप्रेक्ष्य में अपनी पीठ थपथपाने के लिए भले ही अपनी अर्थव्यवस्था को पर्याप्त रूप से कार्बन इमीशन रिडक्शन के द्वारा संचालित करने का प्रयास भी किए और ऐसा करने के प्रयासों एवं परिणामों को सिद्ध भी किए। किन्तु, विडम्बना यह है कि इन पश्चिमी देशों में उपभोग होने वाली समस्त वस्तुएं कार्बन न्यूट्रल प्रक्रिया में उनके ही देश में उत्पादित न होकर, भयंकर रूप से कार्बन प्रदूषण कारी प्रक्रियाओं के द्वारा चीन में निर्मित किए जाने लगे। चाहे वह इस्पात, धातु का उत्पादन हो, चाहे वह सीमेंट का उत्पादन हो, चाहे वह टेलीविजन, कम्प्यूटर, मोबाइल, आटोमोबाइल या निर्माण सम्बन्धी उत्पाद सामग्री का उत्पादन हो। वस्तुतः भौगोलिक दृष्टि से भले ही कुछेक राष्ट्रों ने अपने आपको कार्बन न्यूट्रल अवश्य कर लिया, लेकिन यदि उन राष्ट्रों में उपभोग होने वाले चीन से निर्मित वस्तुओं में होने वाले कार्बन उत्सर्जन को जोड़ दिया जावे, तो इन पश्चिम देशों के कार्बन न्यूट्रल अर्थव्यवस्था की विफलता समक्ष स्पष्ट दिखाई पड़ सकती है।
आज भी जब सम्पूर्ण विश्व कॉप-26 के माध्यम से ग्लासगो में पृथ्वी पर आसन्न मौसम परिवर्तन संकट को टालने समझौते हेतु बैठने जा रहा है, तो भी ऐसी किसी व्यवस्था एवं मैकेनिज्म पर चर्चा नहीं हो रही है, जो कि उस राष्ट्र विशेष में उपभोग होने वाली समस्त वस्तुओं के कारण कार्बन उत्सर्जन को भी जोड़कर उस वस्तु या राष्ट्र के समूल कार्बन उत्सर्जन को इंगित कर सके।
भारतवर्ष ने निश्चित रूप से सोलर पॉवर, पवन ऊर्जा एवं अन्य गैर परम्परागत ऊर्जा साधनों में अत्यधिक क्षमता विकसित की है, किन्तु 2030 के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु सबसे बड़े नियंत्रण की जो आवश्यकता है- वह सम्पूर्ण जनसंख्या नियंत्रण है। चूॅंकि यदि हम 1947 के कार्बन फुटप्रिंट (0.14 टन/व्यक्ति/वर्ष) को प्रति व्यक्ति के आधार पर गणना करें और 2019 में प्रति व्यक्ति कार्बन फुट प्रिंट (1.92 टन/व्यक्ति/वर्ष) से तुलना करें, तो हम पाएंगे कि यह लगभग 14 गुना से अधिक पहुॅंच चुका है। यदि हम 1947 की जनसंख्या से 2020 की जनसंख्या की तुलना करें तो भी यह स्पष्ट है कि, यह भी 4 गुना से अधिक बढ़ चुका है। फलतः 1947 में भारत से सकल कार्बन उत्सर्जन जहॉं 53.25 मिलियन टन था, वहीं अब 2019 में 2630 मिलियन टन पहुॅंच गया है। अर्थात लगभग 50 गुना वृद्धि हुई है। सारांश में कड़वा सच यह है कि पृथ्वी पर कार्बन उत्सर्जन के पीछे केवल मानव की आर्थिक गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं तथा आधुनिकता के नाम पर पर्यावरण का शोषण कर संचालित अर्थव्यवस्था है।
सबसे बड़ी चिंता का विषय यह है कि विश्व के समस्त अर्थशास्त्री अर्थव्यवस्था के प्रगति के मान में, पर्यावरणीय विपन्नता का कोई मूल्य समायोजित कर कभी भी नहीं बताते हैं। जबकि, धारणीय विकास के लिए यह सर्वप्रथम आवश्यक है कि किसी भी आर्थिक गतिविधि के संचालन से उत्पन्न प्रतिकूल पर्यावरण प्रभाव का मूल्यांकन अवश्य किया जावे। तदुपरांत दुष्प्रभाव की लागत को समायोजन करने के उपरांत यह निर्धारण किया जावे कि वास्तव में क्या आर्थिक प्रगति हुई है या पर्यावरण विपन्नता में और वृद्धि हुई है?
राजनैतिक शक्तियां अपनी-अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के कारण कठोर निर्णय लेने में सदैव अक्षम रही हैं। अतः यह ज्यादा श्रेयष्कर होगा कि विश्व के समस्त शासनाध्यक्ष एक वैश्विक वैज्ञानिक समूह को इतना वैधानिक शक्ति सम्पन्न कर देवें कि वे सम्पूर्ण विश्व के लिए एक पर्यावरणीय संविधान का निरूपण कर, एकरूपता से समस्त विश्व के देशों में लागू कर सकें। इसमें ऐसे प्रावधान होने चाहिए कि किसी भी राष्ट्र के द्वारा उत्पादित किसी भी वस्तु के उत्पादन में होने वाले कार्बन उत्सर्जन का मूल्य या मात्रा भी उस वस्तु पर इंगित हो तथा उस राष्ट्र के सम्पूर्ण उत्सर्जन के स्तर में, ऐसी सभी उत्पादित वस्तुओं के द्वारा उत्सर्जित कार्बन की मात्रा को जोड़ा जावे। कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे सीमेंट के एक बोरे में मूल्य यदि 300 रूपए प्रति 50 किलो लिखा हुआ है। उस बोरे में 50 किलो सीमेंट उत्पादन के कारण यदि 10 किलो कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन हो रहा है, तो वह भी उल्लेखित हो। साथ में इस मात्रा के कार्बन इमीशन रिडक्शन की अंतर्राष्ट्रीय लागत की दर से उत्सर्जन शमन लागत का भी उल्लेख हो। स्पष्ट करने हेतु यदि 10 किलो कार्बन उत्सर्जन का अंतर्राष्ट्रीय शमन मूल्य 100 रूपए होता है, तो उसे भी 10 किलो कार्बन उत्सर्जन के साथ कार्बन उत्सर्जन शमन लागत 100 रूपए लिखा जावे। इसी प्रकार डीजल, पेट्रोल, बिजली, स्टील एवं तमाम प्रकार के उत्पादों के लेबलों पर मूल्य के साथ कार्बन उत्सर्जन मात्रा एवं शमन मूल्य का उल्लेख हो। पेट्रोल, डीजल इत्यादि के विक्रय स्टेशनों पर भी ऐसा उल्लेख हो। बिजली बिल में भी कार्बन प्रदूषण दर का उल्लेख हो, तो उपभोक्ताओं को इस बात का अवश्य संज्ञान होगा कि, आज की स्थिति में उसके द्वारा कितना कार्बन इमीशन में योगदान किया जा रहा है।
उपरोक्त उल्लेख के अनुसार कोई भी वस्तु जो किसी अन्य देश से आयात कर किसी राष्ट्र विशेष के द्वारा उपभोग की जा रही है, तो उपभोक्ता राष्ट्र भी अपने कार्बन तलपट में इस बात का उल्लेख अवश्य करे कि आयातित वस्तुओं के उपभोग से उस राष्ट्र के नागरिकों के द्वारा कितना कार्बन उत्सर्जन किया गया। यद्यपि समय बहुत कम है, पर विडम्बना यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति एवं प्रत्येक नागरिक आज भी अपने आपको मौद्रिक धन की सम्पन्नता के कारण ही सुरक्षित समझता है। उसे कदाचित यह भी समझ नहीं आता कि धन से ज्यादा सुरक्षा उसे स्वस्थ वायु मंडल, निर्मल जल, विषमुक्त भोजन एवं साफ-सुथरी मिट्टी के कारण ही उपलब्ध है।
अंत में यह भी अत्यंत उपयुक्त होगा कि प्रत्येक राष्ट्र अपनी मुद्रा का कार्बन फुटप्रिंट भी अवश्य निर्धारित कर, उद्घोषित करे कि एक रूपए अर्जित करने हेतु कितने ग्राम कार्बन उत्सर्जन हो रहा है एवं उस उत्सर्जन का वास्तविक शमन मूल्य क्या है? ऐसे मूल्यों का प्रसारण स्टॉक एक्सचेंज की तरह कार्बन एक्सचेंज स्टॉक बनाकर प्रतिदिन किया जावे, ताकि जन सामान्य को समझ में आवे कि आर्थिक समृद्धि की दौड़ में उनकी अर्थव्यवस्था का वास्तविक रूख स्वास्थ्य हितकारी है या प्राणाघातक है?
हमारे इस अभियान पत्रिका के माध्यम से हमने हिन्दी भाषी पाठकों के समक्ष पर्यावरण जागृति हेतु यथाश्रेष्ठ संभव जानकारियों को सतत उपलब्ध कराने का प्रयास किया है। किन्तु यह भी एक अत्यंत निराशाजनक परिदृश्य है कि इस देश के शासक, प्रशासक, राजनेता एवं अर्थशास्त्री हिन्दी भाषा में उपलब्ध ज्ञान एवं साहित्य को उतनी गंभीरता से संज्ञान में नहीं लेते हैं, जैसा कि पश्चिमी देशों से परोसे गए चिंतन एवं दर्शनों को स्वीकार करते हैं। विश्व के 700 करोड़ जनसंख्या वाली इस पृथ्वी पर अंग्रेजी एवं चीनी भाषा के के बाद सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा देवनागरी हिन्दी है। जिसे न केवल भारत में बल्कि बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार, इंडोनेशिया, फिलीपींस, जावा, सुमात्रा, मलेशिया, कम्बोडिया, नेपाल, श्रीलंका, मारीशस इत्यादि राष्ट्रों में स्थित हिन्दी भाषी नागरिकों को जोड़ा जावे तो लगभग 100 करोड़ लोग हिन्दी भाषा या देवनागरी को पढ़-लिख या समझ सकते हैं। फिर भी संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा आज तक अधिकृत भाषा के रूप में हिन्दी को अंगीकृत नहीं किया गया है। जबकि समय की आवश्यकता है कि विश्व के समक्ष व्याप्त पर्यावरण संकट के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी समस्त गतिविधियां, साहित्य एवं कार्यक्रमों को हिन्दी भाषा को भी समानांतर रूप से अनुवाद कर प्रस्तुत करे। भावना यह है कि समस्त कार्बन उत्सर्जनकारी वस्तुओं के मूल्यों के साथ उनसे उत्सर्जित कार्बन की मात्रा तथा शमन मूल्य को लेबल पर लगाना अनिवार्य हो।
भारतवर्ष ने प्राकृतिक ऋतुओं पर आधारित प्राकृतिक परिस्थितियों में होने वाले परिवर्तनों को भी उत्सव के रूप में संस्कारबद्ध किया है। इसी की परिणिति है कि शरद ऋतु के प्रारंभ होने के साथ ही सभी प्रकार के अष्ट शक्तियों को धारण करने वाली मॉं दुर्गा का पूजा-पाठ का चलन नवरात्रि के माध्यम से, तदुपरांत दशहरा के माध्यम से, तदुपरांत दीपावली के माध्यम से किए जाने वाले सतत उत्सव समक्ष हैं। पर्यावरण ऊर्जा टाइम्स की ओर से समस्त पाठकों को सभी उत्सवों के लिए हार्दिक बधाईयां एवं अभिनंदन।
-संपादक