पर्यावरण प्रिय बजट से अर्थव्यवस्था की गति को अत्यंत तीव्र किया जा सकता है?

इस अर्थ प्रधान युग में सम्पूर्ण विश्व के अंतर्गत भिन्न-भिन्न राष्ट्रों के द्वारा अपने राष्ट्रों के विकास का पथ आर्थिक मार्ग के द्वारा सिद्ध करने का ही सूत्र अंगीकृत किया गया है। तदैव प्रत्येक वर्ष भारत में भी जब कभी केन्द्रीय सरकार अपने वार्षिक बजट को प्रस्तुत करता है तो सम्पूर्ण राष्ट्र में एक ऐसा कौतूहल नागरिकों के मन में पनप जाता है कि वित्त मंत्री या सरकार आर्थिक बजट के माध्यम से क्या चमत्कार करने जा रही है। प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी सम्पूर्ण बजट में वित्तीय प्रबंधन को मुख्य रूप से औद्योगिक उत्पादकता और अधोसंरचना की वृद्धि को रखकर किया गया है, जिसमें पर्यावरण संरक्षण एवं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को दूरगामी चिंतन के द्वारा, दूरदर्शितापूर्वक नियोजन का प्रयास तो किया गया, पर वर्तमान युग में व्याप्त पर्यावरण संकट के विस्तृत आयाम के समक्ष इन प्रयासों में स्पष्ट प्राथमिकता का अभाव लगता है। पूरे बजट में मौसम परिवर्तन, शमन एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए रेखांकित करने वाले कुछेक महत्वपूर्ण बिन्दु यह हैं कि अक्टूबर 2022 के उपरांत बिना एथेनाल ब्लेंडेड पेट्रोल पर 2 रूपए प्रति लीटर शुल्क रोपित करने का निर्णय लिया गया है। यह निश्चित रूप से एक सराहनीय प्रयास है। किन्तु मौसम परिवर्तन का जो गंभीर संकट राष्ट्र एवं विश्व के समक्ष है, उस दृष्टिकोण से अनब्लेंडेड पेट्रोल पर मात्र 2 रूपए की लेवी लेना अत्यंत अपर्याप्त है।

यद्यपि बजट भाषण में जलवायु परिवर्तन को एक संकट के रूप में सांकेतिक स्वीकृति अवश्य है। इससे निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जारी सौर ऊर्जा क्षमता संवर्द्धन हेतु 280 गीगावाट का लक्ष्य रखा गया है। पर इस क्षमता विकास हेतु सोलर सेल को पूरी तरह से भारत में निर्माण करने हेतु एक महत्वपूर्ण निर्णय लेने की आवश्यकता थी, ताकि सोलर सेल पर विदेशी आयात से निर्भरता कम हो सकती थी। इसी प्रकार यद्यपि कार्बन न्यूट्रल अर्थव्यवस्था हेतु थर्मल ताप संयंत्रों में 5-7% बायोमास पैलेट के उपयोग का निर्णय एक सकारात्मक कदम है। पर इनके श्रेष्ठतर विकल्प के रूप में सेल्यूलोजिक एथेनाल उत्पादन तथा सेल्यूलोजिक बायोमास के द्वारा बायोमीथेन के उत्पादन द्वारा आयातित सीएनजी, एलएनजी एवं क्रूड पेट्रोलियम आयात को कम करने के साथ स्वदेशी रोजगार सृजन की संभावना को संबल देने में चूक हुई है। कोयले के गैसीफिकेशन को प्रोत्साहित करने के संकल्प यद्यपि सराहनीय हैं, किन्तु भारत के मैदानी और रेगिस्तानी क्षेत्रों में तथा वनीय क्षेत्रों में व्याप्त सेलुलोजिक बायोमास उत्पादन की संभावनाओं को संवर्द्धित करने हेतु अनुसंधान तकनीकी विकास को संबल देने के प्रावधानों का नितांत अभाव है।

रिवर लिंकिग परियोजनाओं हेतु केन-बेतवा लिंक निष्पादन हेतु 1400 करोड़ का प्रावधान एक सराहनीय प्रयास है। तदापि ब्रह्मपुत्र, कोसी, गंडक आदि बाढ़जनक नदियों के अनियंत्रित अपार जल प्रवाह साधनों को संयमित कर, उत्पादक करने की प्राथमिकताओं की दृष्टि तथा महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र लातूर जैसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों तक सक्षम जल संसाधनों की आपूर्ति के संकल्पों का अभाव है। केन-बेतवा लिंक से यद्यपि 9.08 लाख हेक्टेयर भूभाग पर सिंचाई साधनों के विकास की महत्वपूर्ण सफलता की संभावना है, तदापि वर्तमान में उत्पादित हो रहे कृषि उत्पादों से पर्याप्त मूल्य संवर्द्धन के अभाव में किसानों की बढ़ रही आर्थिक बदहाली में सुधार लाने ठोस वैज्ञानिक एवं तकनीकी पहल पर सार्थक समाधान का सम्यक मार्ग प्रस्तुत नहीं है। जबकि हमने अनेकों बार यह सुझाव भी दिया है कि भारतवर्ष में व्याप्त कृषि क्षेत्रों से ऊर्जा फसलों के उत्पादन के द्वारा बायो एथेनाल, बायो मीथेन, बायो रिफायनरी की स्थापना करके कृषि अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना संभव है, तो देश में बेरोजगारी की समस्या को पूर्णतया समाप्त करना भी संभव है एवं क्रूड पेट्रोल आयात के बोझ को भी कम किया जा सकता है।

राष्ट्रीय राजमार्गों में 2500 किलोमीटर का विस्तार एक महत्वपूर्ण निर्णय है, पर उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड के खनिज कोयला उत्पादक एवं लौह उद्योग, सीमेंट तथा पॉवर प्लांट के क्षेत्रों में, जहॉं रेलमार्ग के अभाव में भारी मात्रा में कच्चा माल का परिवहन सड़क मार्गों से हो रहा है, वहां पर प्राथमिकता से राजमार्गों को, राष्ट्रीय मार्गों कों सुदृढ़ करने तथा एक्सप्रेस-वे बनाने का संकल्प स्पष्ट नहीं है। जबकि इन क्षेत्रों पर सड़कों पर यातायात दबाव बहुत ज्यादा होने के कारण ईंधन की दक्षता भी कम हो रही है तथा परिवहन जनित प्रदूषण भी बढ़ा हुआ है।

बजट में 60 लाख रोजगार सृजन की संभावना को व्यक्त किया गया है, पर इस बात का उल्लेख नहीं किया गया है कि देश में प्रति वर्ष 1 % की दर से 1.5 करोड़ लोगों का जन्म हो रहा है, तदैव रोजगार सृजन की सीमित संभावनाओं को ध्यान में रखकर जनसंख्या नियंत्रण सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप में अंगीकार करने का आव्हान करना चाहिए था। उद्यमिता विकास तथा ‘ईज आफ डूइंग बिजनेस’ के अंतर्गत कानूनी प्रक्रियाओं का संकुचन तथा सरलीकरण आवश्यक है।
भारत की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 9.2 % रखना एक उत्साहजनक लक्ष्य है तथा स्वागतयोग्य है। पर इस बात का अवश्य आंकलन होना चाहिए कि इस आर्थिक विकास पर पर्यावरणीय विनाश तथा प्राकृतिक संसाधनों की बलिदानी कितनी हो रही है? साथ ही यह भी निर्धारण करना जरूरी है कि देश के आर्थिक विकास में मात्र कार्पोरेट जगत तथा औद्योगिक क्षेत्र के तेज विकास या आर्थिक लाभ का बोझ जन सामान्य पर तो नहीं आ रहा है। देश के प्राकृतिक खनिज साधनों तथा प्रकृति के संसाधन एवं पर्यावरण दोहन से अर्जित लाभ का एक सामान्य वितरण देश के समस्त नागरिकों में संभव कैसे हो? साथ ही आर्थिक प्रगति में देश के समस्त नागरिकों को समानांतर लाभ प्राप्त हो, तभी एक आम नागरिक बढ़ती हुई मंहगाई तथा बढ़ रही पर्यावरणीय दरिद्रता का बोझ वहन कर सकता है।

कुल मिलाकर एक संभावना युक्त बजट के निर्धारण तथा नियोजन की पृष्ठभूमि में पर्यावरणीय सकल हलास के मूल्य निर्धारण का अभाव स्पष्ट दिखता है। वहीं पर्यावरण संरक्षण, संवर्द्धन, वन संरक्षण, जैव विविधता संरक्षण, प्रकृति संरक्षण को भी और अधिक महत्व देने की आवश्यकता थी।
इसके अतिरिक्त औद्योगिक विकास के जितने भी अन्य अधारणीय पहलू हैं, जिनके द्वारा कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा मिलता है, प्रदूषण में वृद्धि होती है, उन्हें नियंत्रित करने के लिए आर्थिक तंत्र के माध्यम से कोई आकर्षक शुल्क या दंड प्रस्तावित नहीं किया गया है। यद्यपि वर्तमान में विश्व में जो कार्बन इमीशन पहले से ही हो चुका है, उसे पुनः पृथ्वी पर भंडारित करने हेतु जो तकनीकियां विकसित की गई हैं, उनकी लागत का मूल्यांकन करने से यह देखने में आया है कि प्रति टन कार्बन डाईऑक्साइड को पृथ्वी के भूगर्भ में यदि कैद किया जावे तो लगभग 600 डालर प्रति टन से अधिक, तो कम से कम 60 यू.एस. डालर प्रति टन लागत आवेगी। यद्यपि आज पृथ्वी के समक्ष पहले से ही उत्सर्जित हो चुके कार्बन डाईऑक्साइड को पुनः वायुमंडल से खींचकर कैद करने के पर्याप्त साधन एवं तकनीकियां उपलब्ध नहीं है। इसलिए कम से कम इस संभावित लागत को एक सांकेतिक आधार मानकर जिन प्रक्रियाओं के द्वारा सामान्य से अधिक कार्बन उत्सर्जन हो रहा है, उन पर कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण कर (टैक्स) लगाना निश्चित रूप से आवश्यक प्रतीत होता है।

लोकतांत्रिक देश में सबसे बड़ा कष्ट यह है कि ऐसे किसी भी भारी कर (टैक्स) को रोपण करने से उसका बोझ जन सामान्य पर ही हस्तांतरित होता है। परिणामस्वरूप मंहगाई के बढ़ने के भय से और राजनीतिक सत्ताधारी दल की लोकप्रियता भंग होने के भय से ऐसे कठोर निर्णय लेना कठिन है। अतः इन परिस्थितियों में कम से कम ऐश्वर्यमयी कृत्यों में जो कार्बन उत्सर्जन होता है, उन क्रियाकलापों में कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण कर (टैक्स) रोपित करना ही चाहिए। ऐसे सभी संकलित कर (टैक्स) को वर्तमान में जो सबसे सुरक्षित एवं संभव कार्बन संचय के जो मार्ग हैं, उन पर निवेश करना चाहिए। वर्तमान मार्ग कृषि तथा वन्य वृक्षों का संवर्द्धन तथा धारणीय औद्योगिक विकास ही है।

वर्तमान में भारत की 60% जनसंख्या कृषि पर आश्रित है। फिर भी कृषि का सकल घरेलू उत्पादन (GDP) में योगदान मात्र 18% ही है। इसका प्रमुख कारण यह है कि कृषि उत्पाद मूल्यों को औद्योगिक उत्पादों के समकक्ष सुनिश्चित लाभ आधारित गणना से मूल्य अर्जन का अवसर नहीं मिलता है। तदैव कृषि उत्पादों की उत्पादकता भी कम बनी रहती है, जबकि वर्तमान कृषि क्षेत्रों से अन्न तथा गन्ना एवं बायोमास का उत्पादन सहजता से दुगुनो किया जा सकता है। ऐसा करने से एक तरफ 60% जनसंख्या का जीडीपी में योगदान 18% की जगह 36% हो सकता है। वहीं यदि इन कृषि उत्पादों से और खास कर अपशिष्ठ कृषि उत्पाद तथा पशुमल एवं मानव मल से बायो सीएनजी उत्पादन को राष्ट्रीय अभियान बना लिया जावे, तो इन उत्पादों के मूल्यों में 20% वृद्धि हो सकती है। परिणामतः कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 43% तक सहजतापूर्वक पहुॅंच सकता है। चूॅंकि ऐसा करने हेतु किसी नए अनुसंधान या तकनीकी की भी आवश्यकता नहीं है, बस केवल सेलुलोजिक एथेनाल या सेलुलोजिक मीथेन उत्पादन संयंत्रों के मंहगे लागत पर ब्याज के बोझ को आगामी पांच वर्षों के लिए शून्य करके, हम संपूर्ण भारत की अर्थव्यवस्था को पर्यावरण प्रिय बनाते हुए, बेरोजगारी मुक्त करते हुए कृषि क्षेत्र से किसानों की आय को दुगुना करते हुए तेज गति दे सकते हैं। पर इसके लिए आवश्यकता यह है कि वर्तमान औद्योगिक विकास के पर्यावरणीय दुष्प्रभाव के पदचिन्हों का नकारात्मक मूल्यांकन भी किया जावे तथा कृषि आधारित धारणीय अर्थव्यवस्था हेतु आवश्यक पूंजी का सृजन इसके शमन के स्वरूप में प्रदाय किया जावे। भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए अर्थशास्त्रियों द्वारा पर्यावरणीय संसाधनों के क्षय मूल्यों का मान देना भी जरूरी होना चाहिए।

वर्तमान वर्ष 2021 में यद्यपि कृषि की उत्पादकता का जीडीपी में योगदान मूल्य लगभग 42 लाख करोड़ रूपए ही है, जिसमें मूल्य संवर्द्धन मात्र 36.17 लाख करोड़ है। इस प्रकार 80 करोड़ लोगों की उत्पादकता मात्र 51000 रूपए प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति होती है, जो कि नाना प्रकार के धान्य एवं गन्ने के उत्पादन के मूल्य के द्वारा निर्धारित किया गया है। इस कृषि उत्पादकता को संवर्द्धित करने के मार्ग में सबसे सहज एवं संभव विकल्प बायो एथेनाल एवं बायो गैस उत्पादन हेतु किसानों को इन उद्योगों के साथ जोड़ना हितकारी मार्ग हो सकता है। वहीं पर्यावरण प्रिय एवं धारणीय विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। अस्तु, एक सकारात्मक बजट प्रस्तुत करने हेतु वित्तमंत्री को हृदय से बधाईयां।
-संपादक