प्रकृति का और अधिक शोषण करना तत्काल बंद किया जाव

भारत के अर्थशास्त्री आर्थिक सम द्धि के शिखर में जाने हेतु बहुधा इस बात का दंभ भरते हैं कि आज भारत सम्पूर्ण विश्व में सबसे युवा आबादी वाला देश है। तदैव इन युवाओं की युवाशक्ति के उपयोग से हम विश्व के सर्वोच्च आर्थिक शक्ति बन सकते हैं। यद्यपि यह सही भी है कि हम विश्व के सबसे युवा आबादी वाला देश हैं और इस युवा शक्ति को सार्थक उत्पादकता में निहित करके हम अपनी समृद्धि का स्तर काफी ऊॅंचा भी कर सकते हैं। किन्तु इस समय यह भी चिंता करना आवश्यक है कि सम्पूर्ण विश्व में हमारा युवा अपने नैसर्गिक दायित्वों के प्रति कितना जिम्मेदार है तथा राष्ट्र के प्रति समर्पण में कितना गंभीर है। इससे भी ज्यादा चिंता यह है कि विश्व के तथा कथित आर्थिक रूप से समृद्ध देशों की तुलना में आज का भारत का युवा स्वास्थ्य की दृष्टि से कितना सुदृढ़ है? इस बिन्दु पर तुलना करने पर हमें यह पता चलता है कि हमारे देश का युवा बहुत ही क्षीण स्वास्थ्य की ओर अग्रसित हो रहा है। अत्यंत अल्प आयु में ही डायबिटीज, आंखों के रोग, स्नायु रोग, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, श्वांस रोग, हड्डियों के रोग और मानसिक तनाव/अवसाद से ग्रस्त युवाओं की संख्या भी बहुत विशाल है। जबकि किसी राष्ट्र की प्रगति के लिए उस राष्ट्र के युवाओं की उम्र या संख्या से ज्यादा महत्वपूर्ण उनका तन से तथा मन से स्वस्थ, ज्ञान से परिपूर्ण, राष्ट्र के प्रति समर्पण के भाव के साथ उत्पादक होना जरूरी है। यदि ऐसा नहीं है तो ये युवा देश के लिए मानव संसाधन बनने के स्थान पर एक मानव त्रासदी का सृजन करेंगे। इस सत्य का सामना किसी आंकड़ों से ज्यादा हमें नित्य प्रतिदिन अस्पतालों में युवा जनों की बढ़ती भीड़ से मिलता है। प्रश्न यह है कि आज युवाओं में कम उम्र के बावजूद व्याप्त इन तमाम तरह की बीमारियों के फैलाव का मुख्य कारण क्या है? युवा पीढ़ी में बढ़ रहे तनाव एवं अवसाद का कारण क्या है?

क्या इसके पीछे पूरे देश में व्याप्त जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण तो नहीं, जो एक स्वस्थ युवा पीढ़ी के अस्तित्व को पूरी तरह से असंभव बना रहा है। और विडम्बना यह है कि इस दुर्दशा के अनेकों कारणों में सबसे बड़ा कारण वही बढ़ती जनसंख्या है, जिसे हम अपने आर्थिक समृद्धि का संसाधन मानते हैं। साथ ही बढ़ता उपभोग तथा घटते प्राकृतिक संसाधन भी इसके प्रमुख कारणों में एक हैं।

वर्तमान युग में मानव सभ्यता एक स्व-सृजित आत्मघाती दुष्चक्र में फंसी हुई नजर आती है। भले ही आज की पीढ़ी आर्थिक समृद्धियों के शिखर में उन्मत्त है, पर यह स्पष्ट है कि प्रकृति के शोषण के बढ़ते आयाम को प्रकृति ज्यादा लम्बे समय तक नहीं झेल सकती है। मानव के समक्ष स्व-सृजित इस अर्थव्यवस्था द्वारा उत्पन्न अव्यवस्था से निकलना एक जटिल प्रश्न हो गया है, क्योंकि प्रकृति और पर्यावरण के शोषण से सृजित आर्थिक समृद्धि से उत्पन्न दुष्प्रभावों से इस सभ्यता का बहुत बड़ा भाग बुरी तरह से पीड़ित है। इस पीड़ा को जो लोग साक्षात झेल रहे हैं, उन्हें समझ नहीं आता कि उनका दोष क्या है और इससे मुक्ति के मार्ग क्या हैं?

मौसम परिवर्तन की मार झेल रहे लोगों को कहीं बाढ़ त्रस्त किए है, तो कहीं सूखा। नेपाल में आई भारी बारिश से उत्पन्न बाढ़ से पूरा बिहार बुरी तरह से प्रभावित है। प्रतिवर्ष उत्पन्न हो रही इस त्रासदी के स्थायी समाधान के लिए इस सभ्यता के पास शायद कोई मार्ग नहीं है। हिमालय के पहाड़ियों में जहाॅं बिरल जनसंख्या थी, वहां आज सघन बस्तियां हैं। इन पहाड़ियों में जो सघन वन थे, वृक्ष थे, ह्यूमस युक्त मिट्टी की मोटी परत होती थी, वहां आज नंगे पर्वत हैं। परिणामस्वरूप तेज से तेज वर्षा में भी जो इन गहरी मिट्टी युक्त पर्वतों में जल धारण क्षमता थी, वह समाप्त हो चुकी है। परिणामस्वरूप वर्षा के जल का सीधा बुरा प्रभाव यह होता है कि हल्की सी भी वर्षा मिट्टी को काट देती है और इस कारण वृक्षों की जड़ों की जो पकड़ होती है, वह भी हट जाती है। अतः मिट्टी भी बह जाती है और उसके साथ पेड़ भी और पानी भी। इस कारण से नदियों में बाढ़ की स्थिति और भी बिगड़ जाती है। समस्या साक्षात है, पर समाधान क्या है, इस पर गहन चिंतन कर तत्काल दीर्घकालिक उपाय करना जरूरी है।

पर्यावरणीय क्षतियों से उत्पन्न इन सभी विभीषिकाओं में वृद्धि इसलिए भी अनवरत और निरंतर जारी रही है और रहेगी, क्योंकि जिन गतिविधियों से पर्यावरण को क्षति पहुॅंचा कर जो लोग आर्थिक समृद्धि सृजन करते हैं, उन्हें इनसे उत्पन्न पर्यावरणीय क्षति के कारण कोई भी आर्थिक या भौतिक क्षति का सामना नहीं करना पड़ता है, न ही कोई इसके दुष्परिणामों का साक्षात भोग भोगना होता है। अतः पर्यावरण को पहुॅचाई गई क्षति से उत्पन्न भौतिक या आर्थिक क्षति के प्रत्यक्ष आभास के अभाव में क्षतिकर्ताओं से पर्यावरण क्षति को रोकने की अपेक्षा करना बेमानी है। तो प्रश्न यह उठता है कि इस अव्यवस्था को दूर कैसे किया जावे? इस चिंतन पर जब भी यह कहा जाता है कि सरकारों को वह काम करना चाहिए, तो समझ में यह आता है कि कोई भी सरकार किसी दुष्कृत्य को रोकने के लिए कानून बना कर सजा के प्रावधानों का ही उपयोग करती है। तदैव इस दिशा में पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण नियंत्रण कानूनों के पहाड़ बन चुके हैं। इतने ज्यादा कानून बनाए जा चुके हैं कि बनाने वालों को भी आरंभ से अंत तक इनके निष्पादन का सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित करना बहुधा कठिन हो जाता है। वहीं कानून को जिस उद्देश्य से बनाया जा रहा है, उसकी आवश्यकता तथा उसका समाज और देश हित में उपयोगिता के ज्ञान का अभाव उन हितधारकों में स्पष्ट दिखाई देता है, जो कि इन कानूनों के अनुपालन नहीं करने पर दंड के तराजू में रखे गए हैं। प्रश्न यह है कि इन विसंगतियों को या दुविधाओं को दूर कैसे किया जावे? अतः इस दुविधा को दूर करने के लिए पर्यावरण चिंतकों, समाज सेवकों, शिक्षाविदों, शासन, प्रशासन, वैज्ञानिकों एवं सुधी नागरिकों का दायित्व बन जाता है कि मानव को उसके प्रत्येक उस व्यवहार के प्रति सजग करें, जिनके कारण प्रकृति और पर्यावरण को पहुॅंचाए जाने वाली क्षति से अन्यत्र गंभीर दुष्परिणाम पैदा होते हैं।

इस दिशा में हमारी पत्रिका द्वारा संचालित ज्ञान अभियान में जनसंख्या विस्फोट के दुष्परिणामों पर शालायी छात्रों की एक सफल कार्यशाला दिनांक 11 जुलाई 2024 को आयोजित की गई थीं छात्र-छात्राओं ने जिस प्रकार से इस संगोष्ठी में अपने विचार तथा तर्क रखे थे, उससे यह स्पष्ट होता है कि आने वाली पीढ़ी में पर्यावरण में आ चुके बिगाड़ पर तो बहुत चिंता है, पर बढ़ती जनसंख्या तथा बढ़ती आर्थिक समृद्धि से प्रकृति और पर्यावरण पर जारी गंभीर दुष्परिणामों के प्रति अभी भी सार्थक समझ नहीं है। ज्यादातर नौजवानों को ऐसा प्रतीत होता है कि आर्थिक समृद्धि के मार्ग से ही पर्यावरण संकट से मुक्ति के सारे समाधान संभव हैं। जबकि यह सत्य नहीं है। किन्तु इस सत्य का बोध भी बहुतायत जनों को नहीं है कि आर्थिक समृद्धि का धारणीय मार्ग अत्यंत जटिल तथा आर्थिक रूप से मंहगा है। तो प्रश्न यह उठता है कि धारणीय विकास के उस बढ़ी हुई लागत के लिए धन की व्यवस्था भी धारणीय मार्ग से कैसे उत्पन्न किया जावे। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रकृति तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए जो अतिरिक्त आर्थिक साधनों की आवश्यकता है, क्या उसकी आपूर्ति प्रकृति तथा पर्यावरण को क्षतिग्रस्त किए बिना की जा सकती है? यदि हाॅं! तो कैसे की जा सकती है? यदि नहीं तो फिर इस चक्रव्यूह से मुक्ति का मार्ग कैसे संभव हो?

इस प्रश्न के समाधान पर जब भी चिंता की जाती है तो यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रकृति का और अधिक शोषण करना पहले बंद किया जावे। साथ ही विकास में सर्वोच्च प्राथमिकता उन तथ्यों एवं कृत्यों को ही दिया जावे, जो प्रकृति तथा पर्यावरण को पोषित करते हैं। इस दिशा में सम्पूर्ण मानव जाति के लोगों को, बच्चों से लेकर वृद्धों तक यह समझना जरूरी है कि पृथ्वी पर प्रलय के साक्षात प्रमाण स्पष्ट रूप से समक्ष हैं। उदाहरण के लिए आप चाहें तो इसी माह में बिहार में आए बाढ़ को ले लें या फिर मरूस्थलों में आ रही बाढ़ को ले लें या फिर अमेरिका में अभी कल ही आया भयावह मिल्टन तूफान को ले लें। इतने भयावह प्रकृति के प्रकोप और तांडव के बाद अब और प्रकृति तथा पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारियों को किसी और के सिर मढ़ने का समय नहीं है। जो करना है हमें ही करना है- आज से ही और अभी से।

सांस्कृतिक पर्वों के इस देश में अभी हाल ही में गणेश पूजन उत्सव सम्पन्न हुए। इस वर्ष सबसे अच्छी बात यह रही कि उच्च न्यायालय ने कर्कश ध्वनि पैदा करने वाले डीजे पर प्रतिबंध लगाया और स्थानीय प्रशासनों ने इसे सफलतापूर्वक लागू किया। माॅं दुर्गा की आराधना का पर्व भी जारी है। इसमें अनेकों स्थानों पर पूर्णरूपेण मिट्टी से या हल्दी से या अन्य ऐसी प्राकृतिक सामग्रियों से बनी माॅं दुर्गा की मूर्तियों की स्थापना देखने को मिला, यह भी अच्छी पहल है। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि भारतीय संस्कृति में नदियों को भी हम देव स्वरूप मानते हैं, माॅं का मान देते हैं। अतः इन्हें प्रदूषण से मुक्त रख कर हम अपने स्वयं की संस्कृति का सम्मान करते हैं, तो वहीं अपने जल के स्रोतों को स्वस्थ रखने में भी सहयोग करते हैं। सभी पाठकों को दशहरा उत्सव तथा दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। सभी पर्वों को पर्यावरणप्रिय ढंग से सभी समाज के लोगों के साथ स्नेह तथा सद्भाव के साथ मनाएं तो समस्त विश्व की अपेक्षा के अनुरूप हम वसुधैव कुटुम्बकम का व्यावहारिक उदाहरण भी प्रस्तुत करते रहेंगे। आगामी सभी पर्वों के लिए बधाई तथा शुभकामनाएं।
-संपादक