चांद पर आक्सीजन बनाने की कोशिश कितनी कामयाब होगी

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एक विशाल गोल दायरे के अंदर कुछ वैज्ञानिक अपने उपकरण को लेकर जुटे हुए हैं। उनके सामने चांदी के रंग की एक धातु की मशीन है जो रंगीन तारों से लिपटी है। ये एक बाक्स है। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि ये बाक्स एक दिन चांद पर आक्सीजन बनाने में कामयाब होगा। इस गोल दायरे से इस टीम के चले जाने के बाद प्रयोग शुरू हो गया। बाक्सनुमा मशीन उस धूल भरी चीज (रिगलिथ) को अपनी ओर खींचने लगी जो चांद की मिट्टी जैसी लगती है।

दरअसल ये चीज धूल और नुकीले कंकड़ से बनी होती है और इसकी एक रासायनिक बनावट होती है। देखने में ये बिल्कुल चांद की मिट्टी जैसी लगती है। जल्द ही ये पपड़ीनुमा चीज तरल बन गई। इसकी एक परत को 16 हजार 500 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान पर गर्म किया गया। इसमें कुछ रिएक्टेंट डालते ही इसमें मौजूद आक्सीजन धारक अणुओं में बुलबुले आने लगते हैं।

इस पर काम करने वाली निजी कंपनी सिएरा स्पेस के प्रोग्राम मैनेजर ब्रैंट व्हाइट कहते हैं, ‘‘पृथ्वी पर उपलब्ध जिस भी चीज का हम परीक्षण कर सकते थे हम कर चुके हैं। अब हमारा अगला कदम चांद पर जाना है।’’ सिएरा स्पेस का प्रयोग नासा के जानसन स्पेस सेंटर में शुरू हुआ है। हालांकि इसमें वैज्ञानिक उस टेक्नोलाजी को हासिल करने से बहुत दूर है, जिसे वो निकट भविष्य में चांद पर रहने वाले अंतरिक्ष यात्रियों को दे सकें।

क्या आसान है चांद पर आक्सीजन बनाना?
अंतरिक्ष यात्रियों को सांस लेने के लिए आक्सीजन की जरूरत होती है। अंतरिक्ष यानों के लिए राकेट ईंधन भी बनाना होगा। ये अंतरिक्ष यान चांद से छोड़े जा सकते हैं और आगे ये मंगल ग्रह तक सफर कर सकते हैं। चांद पर रहने वाले लोगों को धातुओं की भी जरूरत हो सकती है। वे इन्हें चांद की सतह पर बिखरे धूल से भरे मलबे से भी बना सकते हैं। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि क्या हम इस तरह के संसाधनों को हासिल करने की क्षमता रखने वाले रिएक्टर बना सकते हैं। इससे मिशन की लागत काफी कम हो सकती है। मिशन का अरबों डालर बच सकता है।

पृथ्वी से चांद तक बहुत सारा आक्सीजन और धातुओं को ले जाना काफी मुश्किल और खर्चीला काम होगा। संयोग से चांद पर पाई जाने वाली धातुओं की पपड़ी (रिगलिथ) मेटल आक्साइड से भरी हुई है। धरती पर तो मेटल आक्साइड से आक्सीजन निकालने का विज्ञान आसान है और इसके बारे सबको पता है, लेकिन चांद पर ये काम ज्यादा कठिन होगा, क्योंकि पृथ्वी और चांद का माहौल अलग है।

पिछले साल जुलाई और अगस्त में सिएरा के स्पेस टेस्ट जिस विशाल गोलाकार चौंबर में हुए थे, उसने चांद जैसा माहौल तैयार कर दिया था। चैंबर की मदद से चांद जैसे तापमान और दबाव को बनाने में कामयाबी मिली थी। जांचकर्ताओं ने कहा, ‘एक ऐसी अहम चीज जिसकी आप पृथ्वी या अपने ग्रह की कक्षा के चारों ओर जांच नहीं कर सकते वो है चांद का गुरुत्वाकर्षण। चांद पर पाए जाने वाला गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी पर पाए जाने वाले गुरुत्वाकर्षण का छठा हिस्सा ही होता है।’ हो सकता है कि 2028 और उसके बाद तक भी सिएरा स्पेस कम गुरुत्वाकर्षण वाले माहौल में असली पपड़ी का इस्तेमाल कर चांद पर अपने सिस्टम का परीक्षण न कर पाए।

जान हापकिन्स यूनिवर्सिटी के पाल बर्क का कहना है कि जब तक इंजीनियर कोई नया माडल तैयार न करें तब तक आक्सीजन हासिल करने वाली कुछ तकनीकों की राह में चांद का गुरुत्वाकर्षण एक अड़चन पैदा कर सकता है। चांद पर गुरुत्वाकर्षण की कमी अड़चन बन सकती है

अप्रैल में उनके और उनके कुछ सहयोगियों ने एक पेपर प्रकाशित किया था। इसमें उन कंप्यूटर सिम्युलेशनों के नतीजों का ब्योरा दिया गया था जो ये दिखा रहे थे कि तुलनात्मक रूप से चांद का कम गुरुत्वाकर्षण कैसे आक्सीजन हासिल करने वाली एक अलग प्रक्रिया को बाधित कर सकता है। जिस प्रक्रिया की जांच की गई थी वो पिघली हुई पपड़ी की इलेक्ट्रोलाइसिस थी। इसके तहत चांद पर पाई जाने वाली उन धातुओं का तोड़ना शामिल था, जिनमें आक्सीजन थी ताकि वहां से सीधे आक्सीजन निकाली जा सके।

असली दिक्कत ये है कि इस तरह की टेक्नोलाजी पिघली हुई मिट्टी (रिगलिथ) के भीतर ही आक्सीजन का बुलबुला बना कर काम करती है। यह शहद की तरह गाढ़ा और काफी चिपचिपा होता है। जिससे बुलबुले उतनी तेजी से नहीं उठेंगे और हो सकता है कि वे इलेक्ट्रोड्स से अलग होने में वास्तव में देरी लगाएं। इसके इर्द-गिर्द रास्ते हो सकते हैं। एक तरीका ये हो सकता है आक्सीजन बनाने वाली मशीन में कंपन पैदा की जाए ताकि ये बुलबुलों को काफी आसानी से हिला डुला कर मुक्त कर सके। अतिरिक्त तौर पर चिकने इलेक्ट्रोड्स आक्सीजन के बुलबुले को आसान बना सकते हैं। डॉ. बर्क और उनके सहयोगी अब इस तरह के आइडिया पर काम कर रहे हैं।

कार्बाे थर्मल प्रोसेस टेक्नोलाजी
व्हाइट कहते हैं, ‘‘जब रिगलिथ में आक्सीजन की मौजूदगी वाले बुलबुले बनते हैं, तो वे इलेक्ट्रोड की सतह की बजाय स्वतंत्र रूप से काम करते हैं। इसका मतलब है कि उनके फंसने की आशंका कम होती है।’’ डॉ0 बर्क चांद पर जाने के भविष्य के अभियानों की अहमियत पर जोर देते हुए कहते हैं कि हर दिन एक अंतरिक्ष यात्री को रिगलिथ में मौजूद लगभग दो या तीन किलोग्राम आक्सीजन की मात्रा की जरूरत होगी। ये उस अंतरिक्ष यात्री की फिटनेस और गतिविधियों के स्तर पर निर्भर करेगा।

हालांकि चांद आधारित लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम अंतरिक्ष यात्रियों की ओर से छोड़ी गई सांस को भी रिसाइकिल करेगा। अगर ऐसा होता है तो चांद पर रहने वालों के लिए बहुत ज्यादा रिगलिथ को प्रोसेस करने की जरूरत नहीं होगी। वो कहते हैं, ‘‘ऑक्सीजन निकालने वाली टेक्नोलाजी का वास्तविक इस्तेमाल राकेट ईंधनों के लिए आक्सिडाइजर मुहैया कराना है। ये भविष्य की महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष परियोजनाओं में मदद कर सकती है। साफ है कि चांद पर जितने संसाधन तैयार किए जा सकते हैं उतना अच्छा।’’ हालांकि कंपनी कहती है कि हर आक्सीजन निर्माण चक्र के बाद इनमें से ज्यादातर को वह रिसाइकिल कर सकती है।

नए प्रयोगों से उम्मीदें बढ़ीं
मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी की पीएचडी स्टूडेंट पलक पटेल ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर चांद की मिट्टी से आक्सीजन और धातु निकालने के लिए प्रायोगिक तौर पर रिगलिथ इलेक्ट्रोलाइसिस सिस्टम (मोल्टेन) बनाया है। वो कहती हैं, ‘‘हम री-सप्लाई मिशन की संख्या कम करने की कोशिश कर सकते हैं।’’ अपने सिस्टम को डिजाइन करने के दौरान पटेल और उनके सहयोगियों ने उन समस्याओं को दूर करने की कोशिश की थी जिसके बारे में डॉ. बर्क ने बताया था। उन्होंने कहा था कि कम गुरुत्वाकर्षण, इलेक्ट्रोड्स पर बनने वाले आक्सीजन के बुलबुले के अलग होने में बाधा डाल सकते हैं। इसकी काट के लिए पलक और उनके सहयोगियों ने सोनिकेटर का इस्तेमाल किया। जो बुलबुले को हटाने के लिए ध्वनि तरंगों से विस्फोट करता है।

पलक पटेल कहती हैं कि चांद पर भविष्य में संसाधन निकालने वाली मशीनें रिगलिथ से लोहा, टाइटेनियम या लिथियम हासिल कर सकती हैं। ये चीजें चांद पर रहने वाले यात्रियों को वहां के बेस के लिए 3डी- प्रिंट से तैयार किए स्पेयर पार्ट्स बनाने या खराब हो गए अंतरिक्ष यानों के औजारों की जगह लेने मदद करेंगी।

चांद पर मिलने वाली रिगलिथ की उपयोगिता यहीं ख़त्म नहीं हो जाती है। पटेल ने कहा कि अलग-अलग प्रयोगों में उन्होंने इसे सिम्युलेटेड रिगलिथ से सख्त, काले और कांच जैसी चीजों में तब्दील किया है। उन्होंने और उनके सहयोगियों ने इस चीज को लेकर काम किया कि कैसे इस पदार्थ को मजबूत, खोखली ईंटों में कैसे बदला जाए, जो चंद्रमा पर संरचनाओं के निर्माण के लिए इस्तेमाल हो सकता है।

  •  भाव्या सिंह