व्याख्यान के दौरान झपकी क्यों आती है?

You are currently viewing व्याख्यान के दौरान झपकी क्यों आती है?

अध्ययन में यह भी पता चला कि झपकी-प्रेरित सिर हिलाना और वक्ता की बात से सहमति पर सिर हिलाना एकदम अलग-अलग हैं। इनमें सिर हिलाने का तरीका, समय और आवृत्ति अलग-अलग होती है।
ऐसा क्यों होता है? और किन कारणों से होता है? इसके कई कारक सामने आए और ये कारक हैं माहौल (जैसे मद्धिम रोशनी, कमरे का तापमान, आरामदायक बैठक व्यवस्था), दृश्य-श्रव्य गड़बड़ी (जैसे खराब स्लाइड, माइक्रोफोन पर ना बोलना), शरीर की दैनिक लय (सुबह-सुबह के समय, भोजन के बाद या भारी नाश्ता या लंच के बाद नींद आना) और वक्ता सम्बंधी कारण (जैसे नीरस तरीके से बोलना या उबाऊ भाषण)।
आजकल तो सेमीनार या सम्मेलनों में कई श्रोता मोबाइल, लैपटाप वगैरह साथ लेकर जाते हैं। हालांकि आयोजकों की ओर से निर्देश दिए जाते हैं कि व्याख्यान के दौरान मोबाइल फोन या तो बंद कर दिए जाएं या साइलेंट मोड पर रखे जाएं लेकिन व्याख्यान उबाऊ लगने पर श्रोता अपने मोबाइल या लैपटाप में मशगूल हो जाते हैं, जिससे व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या (एनओईएल) में कमी दिखती है। जब आयोजकों ने व्याख्यान के दौरान मोबाइल या लैपटाप का इस्तेमाल ना करने पर सख्ती दिखाई तो व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या में वृद्धि भी देखी गई।
अध्ययन में आगे अध्ययनकर्ताओं ने झपकी लेने वालों को टोका और अदब के साथ उनसे पूछा कि उन्हें झपकी क्यों आई। पहले तो जब उन्हें यह बताया गया कि इस व्याख्यान के दौरान सिर्फ उन्हें ही नहीं अन्य लोगों को भी झपकी आई तो उनमें से कई लोगों को इस बात की तसल्ली हुई कि यह उनका दोष नहीं था। जब उनसे यह पूछा गया कि इस तरह के व्याख्यान में क्या वे आगे भी शामिल होंगे तो कुछ ने लोगों ने हां में जवाब दिया और कहा कि उन्हें हमेशा एक झपकी की ज़रूरत रहती है, कुछ ने कहा कि यदि इसके लिए उन्हें भुगतान किया जाएगा तो वे शामिल होंगे और कुछ ने जवाब में दांत दिखा दिए। जब उनसे यह पूछा गया कि झपकी आने के पीछे गलती किसकी थी तो अधिकतर लोगों ने कहा कि पूरी गलती वक्ता की थी जबकि सिर्फ कुछ ही लोगों ने कहा कि गलती उनकी थी।
वक्ताओं को इस अध्ययन से क्या सीखना चाहिए? कैसे वे व्याख्यान में श्रोताओं की रुचि बनाए रखें? स्लाइड, पीपीटी या वीडियो दिखाते समय हॉल की मद्धिम रोशनी जैसे कारकों को तो हटाया नहीं जा सकता। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट इस सम्बंध में काफी उपयोगी सलाह देती है। इसके अनुसार एक आदर्श वक्तव्य में 37 प्रतिशत टेक्स्ट, 29 प्रतिशत चित्र और 33 प्रतिशत वीडियो होना चाहिए। व्याख्यान के इस तरह के बंटवारे को अमल में लाना फायदेमंद हो सकता है और देखा जा सकता है कि यह कैसे काम करता है। व्याख्यान में पीपीटी के चित्र या टेक्स्ट की ऊंचाई-चौड़ाई का अनुपात सही हो (5 × 3), बड़े अक्षर उपयोग किए जाएं ताकि आसानी से पढ़े जा सकें, टेक्स्ट और पृष्ठभूमि के रंग में साफ अंतर हो (काला या नीला पटल होने पर उस पर स्पष्ट दिखते किसी अन्य रंग से लिखा टेक्स्ट)। इसके अलावा वक्ता आहिस्ता, स्पष्ट और माइक पर बोलें।
और अब इन झपकियों के पीछे के मस्तिष्क-विज्ञान को बेहतर समझ लिया गया है। चीनी और जापानी वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार मस्तिष्क में न्यूक्लियस एक्यूम्बेंस नामक हिस्से में यह क्षमता होती है कि वह अणुओं के एक समूह (।2। रिसेप्टर) को सक्रिय कर झपकी प्रेरित कर सकता है। नेचर कम्युनिकेशन में प्रकाशित इस शोध पत्र के मुताबिक मुख्य अणु एडिनोसीन है जो ।2। रिसेप्टर को सक्रिय कर देता है और नींद आने लगती है। एडिनोसीन के अलावा अन्य नींद-प्रेरक अणु भी ।2।रिसेप्टर पर कार्य करते हैं। नींद की प्रचलित दवाइयां भी ।2। रिसेप्टर को सक्रिय करती हैं और नींद लाती हैं। इसके विपरीत काफी और चाय में मौजूद कैफीन इस रिसेप्टर को अवरुद्ध करते हैं और आपको जगाए रखते हैं।
तो अगली बार व्याख्यान सुनने जाएं तो एक प्याला काफी पीकर जाएं और जागे रहें। और यदि आप व्याख्याता हैं तो उपरोक्त लिंक पर दिए गए सुझावों का लाभ लें।
डॉ. डी बालसुब्रमण्यम

क्या शिक्षा प्रणाली भारत को महाशक्ति बना पाएगी

कई लोगों का मानना है कि भारत अपने उच्च सकल घरेलू उत्पाद के साथ एक महाशक्ति बनने की उम्मीद कर सकता है। चाहे कोई महाशक्ति बनने की इस लालसा में साझेदार न हो, लेकिन इतना लगभग निश्चित है कि देश को निश्चित रूप से एक ज्ञान-संपन्न अर्थव्यवस्था होना चाहिए, भले ही वह ज्ञान-संचालित न हो। और ज्ञान उत्पन्न करने और इस ज्ञान का सृजन करने व उपयोग करने वाली प्रतिभा का पोषण करने का नजदीकी सम्बंध शिक्षा प्रणाली से है। इसलिए चलिए हम अपनी शिक्षा प्रणाली पर विचार करें और अन्यत्र विचारकों द्वारा सामान्य रूप से शिक्षा पर की गई टिप्पणियों पर नजर डालें।
जाने माने जीव विज्ञानी ग्रेगरी पेट्सको ने कुछ वर्ष पहले स्टेट युनिवर्सिटी आफ न्यूयार्क (एसयूएनवाय) के अध्यक्ष को एक व्यंग्यात्मक खुला पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने एसयूएनवाय में क्लासिक्स, फ्रेंच, इतालवी, रूसी और थिएटर के विभागों को बंद करने के फैसले पर अपने विचार रखे थे। (क्लासिक्स से आशय प्राचीन ग्रीक व लैटिन साहित्य, दर्शन और इतिहास के अध्ययन से है।) पेट्सको ने बताया कि जीव विज्ञान में आने से पहले किस प्रकार उन्होंने क्लासिक्स में शिक्षा प्राप्त की थी और फिर अपना ध्यान जीव विज्ञान की ओर मोड़ा था और आगे चलकर वे जैव रसायन और रसायन विज्ञान के प्रोफेसर बने थे। उन्होंने कहा कि क्लासिक्स में प्रशिक्षण उनकी शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण घटकों में से एक था। उस प्रशिक्षण ने उन्हें सोचने, विश्लेषण करने और लिखने की समझ प्रदान की जो उन्हें विज्ञान शिक्षा से प्राप्त नहीं हुई थी। इन्हीं की मदद से वे एक बेहतर वैज्ञानिक बन सके। जीनोम बायोलॉजी में पेट्सको के वैचारिक आलेख काफी जाने-माने हैं, और क्लासिक्स में उनके प्रशिक्षण और रुचि के चलते उन्हें विज्ञान और समाज के बारे में लिखने में मदद मिलती रही है। कई सारे वैज्ञानिक यह नहीं कर पाते हैं। यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के सदस्य होने के अलावा उन्हें दी अमेरिकन फिलासाफिकल सोसाइटी का सदस्य भी चुना गया जो किसी वैज्ञानिक के लिए एक दुर्लभ सम्मान है।
कुछ मुख्य बिंदु जो पेट्सको ने अपने पत्र में उठाए थे, वे इस प्रकार हैं- (क) विश्वविद्यालय के किसी विभाग को केवल इसलिए बंद नहीं कर देना चाहिए क्योंकि वह प्रासंगिक नहीं दिखता। यही सोचकर अमेरिका में कई वायरोलाजी (वायरस विज्ञान) विभाग बंद कर दिए गए थे, और जब एचआईवी/एड्स संकट आया तो इस बीमारी से निपटने के लिए अमेरिका को देश में बचे-खुचे वायरोलाजिस्ट खोजने में काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। (ख) किसी विभाग को केवल इसलिए भी बंद नहीं कर देना चाहिए क्योंकि वह आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं हो सकता। किसी विश्वविद्यालय का उद्देश्य केवल ज्ञान उत्पन्न करना नहीं होता है बल्कि ज्ञान संरक्षण भी होता है। अमेरिका के अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों में अरबी और फारसी भाषा के पाठ्यक्रम या सामान्यतः मध्य-पूर्व में कोई रुचि नहीं ली जाती थी, लेकिन 11 सितम्बर 2011 के बाद अचानक सबको लगा कि काश उनके पास इस मामले में ज्यादा जानकारी होती तो वे समझ पाते कि हो क्या रहा है। (ग) यदि एसयूएनवाय केवल व्यावहारिक उपयोगिता के पाठ्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करे, तो उसे खुद को एक हुनर शाला या व्यावसायिक स्कूल कहना चाहिए, विश्वविद्यालय तो कदापि नहीं।
अब मैं एक बेहतरीन दार्शनिक और तर्कशास्त्री बरट्रैंड रसेल की बात करना चाहूंगी। अपने शोध कार्यों से हटकर, उनकी रुचि सामाजिक मुद्दों पर भी रही और उन्होंने काफी विवादास्पद दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किए। प्रथम विश्व युद्ध का विरोध करने के कारण उनको एक गद्दार के रूप में देखा गया और उन्हें कुछ समय के लिए जेल भी जाना पड़ा। लेकिन कुछ ही वर्षों बाद, उनकी गिनती 20वीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में हुई और 1950 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। दिलचस्प बात यह है कि यह पुरस्कार उनके अपने विषयगत शोध कार्य के लिए नहीं बल्कि विचारों की स्वतंत्रता की हिमायत के लिए मिला था। 1950 में रसेल ने निबंधों का एक संग्रह (रसेल, बी., अनपापुलर एसेस, रूटलेज क्लासिक्स, भारतीय पुनर्मुद्रण, 2010) प्रकाशित किया था, जिसमें एक लेख का शीर्षक ‘दी फंक्शन्स आफ ए टीचर’ था। उसके कुछ बिंदु इस प्रकार हैंरू आधुनिक समय का शिक्षक एक लोक सेवक बन गया है जो सरकार का प्रचारक है। उन्होंने कहा कि हालांकि शिक्षण के दौरान बच्चों को आवर्त सारणी जैसी निर्विवाद जानकारी पढ़ाना जरूरी है लेकिन इससे केवल तकनीकी रूप से कुशल छात्र ही तैयार होंगे। और इस तरह का शिक्षण तो शिक्षा का वह बुनियादी पहलू है जिसे शिक्षकों को पूरा करना चाहिए। सरकारें यह जानती हैं कि शिक्षक कितने शक्तिशाली होते हैं, आखिर वे युवाओं को सिखाते हैं कि कैसे सोचें। अब इसमें या तो विवादास्पद विषयों पर खुली सोच प्रदान की जा सकती है, जैसा कि अपेक्षाकृत खुली सोच वाले समाजों में होता है, या फिर एक विशेष दृष्टिकोण की घुट्टी पिलाई जा सकती है जैसा नाजी जर्मनी में हुआ करता था। शिक्षक को खोजबीन की भावना को बढ़ावा देना चाहिए, और यदि ऐसा करते हुए एक ऐसी समझ उभरती है जो राज्य से भिन्न है तो इसके लिए कोई दंड नहीं होना चाहिए।
हमारे अपने विश्वविद्यालयों में क्या स्थिति है? प्रसिद्ध शिक्षाविद और टिप्पणीकार, दिल्ली विश्वविद्यालय के कृष्ण कुमार ने दी हिन्दू (2 अगस्त, 2012) में प्रकाशित एक लेख ‘युनिवर्सिटीज, अवर्स एंड देयर्स’ में पश्चिमी और भारतीय विश्वविद्यालयों के परिदृश्य की तुलना की थी। उन्होंने दोनों को अलग करने वाले कई अंतरों की पहचान करते हुए हर एक पर टिप्पणी की थी। उन्होंने सबसे पहले उत्कृष्टता पर जोर की बात को लिया। पश्चिमी प्रणाली में यह सुनिश्चित करने की विस्तृत प्रक्रियाएं हैं जिससे विश्वविद्यालय में फैकल्टी के तौर पर सबसे बढ़िया उपलब्ध प्रतिभा को भर्ती किया जाए। यह भर्ती प्रक्रिया बाहरी दबाव से परे है जो इसको कमजोर कर सकता है। यह प्रक्रिया उम्मीदवार में बहु-विषयी या विषय-पार रुचि पर जोर देती है। भारतीय विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को नियम-कानूनों और बाहरी प्रभावों में इतना उलझा दिया जाता है कि इसका असर चयन की उत्कृष्टता पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बहु-विषयी योग्यता वाला उम्मीदवार एक आयु सीमा पार कर चुका होता है तो चयन प्रक्रिया उसके लिए बाधक बन जाती है। दूसरा अंतर यह है कि भारत में इस बात पर काफी जोर दिया जाता है कि कोई शिक्षक कक्षा में प्रति सप्ताह कितने घंटे बिताता है। इसी तरह छात्रों की उपस्थिति पर काफी जोर दिया जाता है। ऐसे नियम दोनों के ही लिए हैं और हर कोई इन नियमों का पालन करता है, यह जाने बिना कि वास्तव में कक्षा के अंदर होता क्या है। कृष्ण कुमार ब्रिटेन में एक शिक्षण संस्थान द्वारा संचालित पाठ्यक्रम की मूल्यांकन समिति के सदस्य रहे थे। अपने उस अनुभव के आधार पर उन्होंने अपने यहां की उक्त प्रणाली पर टिप्पणी की है। समिति ने पाठ्यक्रम से संबंधित दस्तावेजों – उस वर्ष प्रत्येक कक्षा सत्र का विवरण और छात्रों की लिखित प्रतिक्रिया – के अध्ययन के अलावा पाठ्यक्रम के विभिन्न पहलुओं पर अलग-अलग छात्रों और प्राध्यापकों से व्यापक चर्चा की। उन्होंने पाया कि कक्षा को उत्साहवर्धक और संभवतरू मनोरंजक होना चाहिए। यह तो संभव ही नहीं है कि यदि कोई शिक्षक अपने अध्यापन में पर्याप्त ज्ञान,उत्साह और नवीनता न लाए, तो उसे छात्रों से अच्छी प्रतिक्रिया मिलेगी। तीसरा अंतर पश्चिमी देशों के लगभग सभी महाविद्यालयों में अनुसंधान पर जोर देने से सम्बंधित है। कृष्ण कुमार ने देखा कि विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित एक निश्चित पाठ्यक्रम का सवाल ही नहीं उठता जो कई दशकों तक जस का तस चलता रहे, जैसा कि अक्सर भारत में देखने को मिलता है। इसके अलावा, हमारे यहां प्रचलित रटंत आधारित परीक्षाएं ब्रिटेन में नहीं हैं। नितिन पाई ने बिजनेस स्टैण्डर्ड में 13 जुलाई 2018 के एक आलेख में एक दिलचस्प बात बताई है कि चीन में महाविद्यालय में प्रवेश का आवेदन देने से पहले छात्रों को एक विचार आधारित परीक्षा, गाओकाओ, देनी होती है। प्राध्यापक जिस क्षेत्र में अनुसंधान करते हैं वे उसी क्षेत्र से जुड़े विषय पढ़ाते हैं ताकि छात्रों को ऐसे सवाल पूछने को प्रेरित कर सकें जिनके जवाब अनुसंधान से दिए जा सकें।

यह केवल पूर्व ज्ञान अर्जित करने की शिक्षा नहीं है बल्कि उस ज्ञान को बनाने में मदद करने या उस ज्ञान को उत्पन्न करने की प्रक्रिया में भाग लेने की बात है जो शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।
एक अन्य लेख (दी ब्लेक न्यू एकेडमिक सिनारियो, दी हिन्दू, 26 मई 2017) में कृष्ण कुमार ने उदारीकरण की प्रक्रिया के बाद से भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति पर ध्यान केंद्रित किया है। हालांकि, तब तक केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन जब 1991 में भारत को कर्ज देने वालों को लगा कि भारत की अर्थव्यवस्था में ढांचागत समायोजन की जरूरत है, तब जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि उच्च शिक्षा को बड़े पैमाने पर खुद को संभालना होगा।
इस शर्त ने स्वाभाविक रूप से उन पाठ्यक्रमों की पेशकश करने को प्रेरित किया जो बिक्री योग्य कौशल प्रदान करते हैं। जैसे-जैसे विश्वविद्यालयों ने वित्तीय संकट महसूस किया, उन्होंने अपनी आय बढ़ाने के लिए ऐसे पाठ्यक्रमों की ओर रुख किया। इसके अलावा, ‘स्थायी’ प्राध्यापकों की सिकुड़ती संख्या की वजह से शिक्षकों की जो कमी हुई उसे भरने के लिए तदर्थ शिक्षकों को जोड़ा गया। (यह स्थिति फिनलैंड से कितनी अलग है, जहां शिक्षक होना सबसे प्रतिष्ठित काम है। और हो भी क्यों न, आखिर वे अगली पीढ़ी को शिक्षित कर रहे हैं जो देश कि संपदा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है)।
कोई विश्वविद्यालय जिस हद तक अपने छात्रों में सोचने, विश्लेषण करने, और अपने मतों के लिए जानकारी एकत्र करने की कुशलता को तराशने के लिए विचार-विमर्श और असहमति को बढ़ावा देता है, उसी हद तक वह स्वतंत्र आवाजों वाले युवा तैयार करता है।
ये आवाजें अक्सर उनके आसपास की दुनिया के लिए महत्वपूर्ण होती हैं। ये आवाज एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकती हैं लेकिन भारत के राजनेता आम तौर पर ऐसे विश्वविद्यालयों को लेकर बिदकते रहे हैं जो दुनिया के व्यापक परिप्रेक्ष्य के साथ इस तरह की उदार शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं। यह बात तो स्पष्ट है कि उच्च शिक्षा जितनी अधिक स्व-वित्तपोषण के भरोसे होती जाएगी उतने ही कम युवा इस तरह से प्रशिक्षित हो पाएंगे क्योंकि ऐसे में शिक्षा केवल उपयोगितावादी होकर रह जाएगी। अलबत्ता, पिछले कुछ दशकों से विश्वविद्यालयों को ऐसी बिगड़ती स्थिति से बचाने के लिए किसी भी सरकार या राजनैतिक दल द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया है।
अपनी बात खत्म करने से पहले मैं एक मानव विज्ञानी के एक लेख के बारे में बताना चाहूंगी जो किसी सर्वथा भिन्न विषय पर लिखा गया था। “… काला आदमी समझ गया कि… गोरों के बीच उसे अपने ऊपर आरोपित स्थान के अनुरूप ही व्यवहार करना पड़ेगा और उसे बार-बार ‘उसकी हैसियत याद दिलाई जाती थी’।
उसने सीखा कि गोरे लोगों के बीच आक्रोश, निराशा, असंतोष, गर्व, महत्वाकांक्षा या हसरतों की भावनाएं दिखाना अस्वीकार्य है और उन वास्तविक भावनाओं को मासूमियत, अज्ञानता, बचकानेपन, आज्ञाकारिता, विनम्रता और सम्मान के मुखौटे के पीछे छिपाना पड़ेगा। ( थामस कोचमैन, ‘रैपिंग इन दी ब्लैक घेटो’, दी प्लेजर्स आफ एन्थ्रोपोलाजी, 1983 में)। हमारी कक्षाओं और प्रयोगशालाओं में यह घटना कितनी आम है और ज्ञान उत्पन्न करने के संदर्भ में इसकी क्या कीमत है?
यदि भारत गंभीरता से महाशक्ति बनने की इच्छा रखता है, तो इसकी संभावना केवल एक शीर्ष ज्ञान उत्पादक देश बनकर ही हो सकती है। ऐसा देश बनने के लिए उसे अपने लोगों में बचपन से ही स्वतंत्र खोजबीन की आदतें विकसित करनी होंगी, इस बात की परवाह किए बगैर कि यह खोजबीन उन्हें कहां ले जाएगी। अगर ऐसी खोजबीन के बाद छात्र इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारत को निकट भविष्य में महाशक्ति बनने का लक्ष्य नहीं रखना चाहिए और उससे पहले हासिल करने को कई सारे महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं, तो यह बड़ी विडंबना होगी, हालांकि मेरे लिए कोई अचंभे की बात नहीं होगी।
डॉ. गायत्री सबरवाल

समस्याओं का समाधान विज्ञान के रास्ते

आदिम मनुष्य बादल, आसमान, सागर, तूफान नदी, पहाड़, तरह-तरह के पेड़ पौधों, जीव-जंतुओं के बीच अपने आपको असुरक्षित, असहाय और असमर्थ महसूस करता था। वह भय, कौतुहल और जिज्ञासा से व्याकुल हो जाता था।
उसका जीवित रह पाना उसके अपने परिवेश की जानकारी और अवलोकन पर निर्भर था, इसलिए अपने देखे-अनदेखे दृश्यों से उसने अनेकों पौराणिक कथाओं की रचना की। इन कथाओं के जरिए मनुष्य, विभिन्न जानवरों और पेड़-पौधों की उत्पत्ति की कल्पना तथा व्याख्या की गई। इन कथाओं में जानवर और पौधे मनुष्य की भाषा समझते और बोलते थे। वे एक-दूसरे का रूप धारण किया करते थे। इन कथाओं में ईश्वररूपी सृष्टा की बात कही गई। मनुष्य की चेतना ने सृष्टि के संचालक, नियन्ता, करुणामय ईश्वर का आविष्कार किया। आत्मा तथा परमात्मा की अनुभूति की उसने। वह प्रकृति के साथ एकात्मकता महसूस करने लगा। उसे सुरक्षा का आश्वासन मिला।
समय के साथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में जानकारियां इकठ्ठी होती रहीं। समाज, संस्कृतियों का विकास होता गया। हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कनफ्यूशियसवाद, इस्लाम इत्यादि ज्ञान की परंपराएं विकसित और स्थापित हुइंर्। इन सभी परंपराओं की स्थापना है कि इस संसार में जो भी जानने लायक महत्वपूर्ण बातें हैं उन्हें जाना जा चुका है। ईश्वर ने ब्राहृंड की सृष्टि की, मनुष्य और अन्य जीवों का निर्माण किया। माना गया कि प्राचीन ऋषिगण, पैगंबर और धर्मप्रवर्तक व्यापक ज्ञान से युक्त थे और यह ज्ञान धर्मग्रंथों तथा मौखिक परंपराओं में हमें उपलब्ध है। हम इन ग्रंथों तथा परंपराओं के सम्यक अध्ययन से ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मनीषियों के उपदेशों और वाणियों से हमें इस गूढ़ ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। इस स्थापना में यह अकल्पनीय है कि वेद, बाइबल या कुरान में ब्राहृंड के किसी महत्वपूर्ण रहस्य की जानकारी न हो जिसे कोई हाड़-मांस का जीव उद्घाटित कर सके।
सोलहवीं सदी से ज्ञान की एक अनोखी परंपरा का विकास हुआ। यह परंपरा विज्ञान की परंपरा है। इसकी बुनियाद में यह स्वीकृति है कि ब्राहृंड के सारे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब हमें नहीं मालूम, उनकी तलाश करनी है।
वह महान आविष्कार जिसने वैज्ञानिक क्रांति का आगाज किया, वह इसी बात का आविष्कार था कि मनुष्य अपने सबसे अधिक महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं जानता। वैसे तो हर काल में, सर्वाधिक धार्मिक और कट्टर समय में भी, ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने कहा कि ऐसी कई महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनकी जानकारी पूरी परंपरा को नहीं है। ये लोग हाशिए पर कर दिए गए या सजा के भागी हुए अथवा ऐसा हुआ कि उन्होंने अपना नया मत प्रतिपादित किया और कालांतर में यह मत कहने लगा कि उसके पास सारे सवालों के जवाब हैं।
सन 1543 में निकोलस कापर्निकस की पुस्तक क्म तमअवसनजपवदपइने वतइपनउ का प्रकाशन हुआ। यह मानव सभ्यता के विकास में एक क्रांति की सूचना थी। इस क्रांति का नाम वैज्ञानिक क्रांति है। इस पुस्तक ने स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि आकाशीय पिंडों का केंद्र धरती नहीं, सूरज है। यह घोषणा उस समय के स्वीकृत ज्ञान को नकारती थी, जिसके अनुसार धरती ब्राहृंड का केंद्र है। यह बात आज साधारण लगती है, पर कापर्निकस के समय (1473 -1543) यह कहना धर्मविरोधी माना जाता था। उस समय चर्च समाजपति की भूमिका में था। चर्च की मान्यता थी कि धरती ईश्वर के आकाश का केंद्र है। कापर्निकस को विश्वास था कि धर्म-न्यायाधिकरण उसे और उसके सिद्धांत दोनों को ही नष्ट कर डालेगा। इसलिए उसने इसके प्रकाशन के लिए मृत्युशय्या पर जाने की प्रतीक्षा की। अपनी सुरक्षा के लिए कापर्निकस की चिंता पूरी तरह सही थी। सत्तावन साल बाद जियार्डेनो ब्रूनो ने खुले तौर पर कापर्निकस के सिद्धांत के पक्ष में वक्तव्य देने की ‘धृष्टता’ की तो उन्हें इस ‘कुकर्म’ के लिए जिंदा जला दिया गया था।
गैलीलियो(1564-1642) ने प्रतिपादित किया कि प्रकृति की किताब गणित की भाषा में लिखी गई है। इस कथन ने प्राकृतिक दर्शन को मौखिक गुणात्मक विवरण से गणितीय विवरण में बदल दिया।
इसमें प्राकृतिक तथ्यों की खोज के लिए प्रयोग आयोजित करना स्वीकृत एवं मान्य पद्धति हो गई। अंत में उनके टेलीस्कोप ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी प्रभाव डाला और कापर्निकस की सूर्य केंद्रित ब्राहृंड की अवधारणा के मान्य होने का रास्ता साफ किया। लेकिन इस सिस्टम की वकालत करने के कारण उन्हें धर्म-न्यायाधिकरण का सामना करना पड़ा था।
एक सदी बाद, फ्रांसीसी गणितज्ञ और दार्शनिक रेने देकार्ते ने सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने के लिए एक सर्वथा नई पद्धति की वकालत की। आध्यात्मिक संसार के अदृश्य सत्य का इस पद्धति से विश्लेषण नहीं किया जा सकता था। आधुनिक काल में वैज्ञानिक प्राकृतिक संसार के अध्ययन के लिए प्रवृत्त हुए। आध्यात्मिक सत्य का अध्ययन सम्मानित नहीं रहा। क्योंकि उसके सत्य की समीक्षा विज्ञान के विश्लेषणात्मक तरीकों से नहीं की जा सकती। जीवन और ब्राहृंड के महत्वपूर्ण तथ्य तर्क-संगत वैज्ञानिकों की गवेषणा के क्षेत्र हो गए। देकार्ते ने ईश्वर की जगह मनुष्य को सत्य का अंतिम दायित्व दिया, जबकि पारंपरिक अवधारणा में एक बाहरी शक्ति सत्य को परिभाषित करती है। देकार्ते के मुताबिक सत्य व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है। विज्ञान मौलिकता को महान उपलब्धि का निशान मानता है। मौलिकता स्वाधीनता का परिणाम होती है, प्रदत्त ज्ञान से असहमति है।
सन 1859 में चार्ल्स डार्विन के जैव विकासवाद के सिद्धान्त के प्रकाशन के साथ विज्ञान और आत्मा के रिश्ते के तार-तार होने की बुनियाद एकदम पक्की हो गई।
आधुनिक विज्ञान इस मायने में अनोखा है कि यह खुले तौर पर सामूहिक अज्ञान की घोषणा करता है। डार्विन ने नहीं कहा कि उन्होंने जीवन की पहेली का अंतिम समाधान कर दिया है और इसके आगे कोई और बात नहीं हो सकती। सदियों के व्यापक वैज्ञानिक शोध के बाद भी जीव वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि वे नहीं जानते कि मस्तिष्क में चेतना कैसे उत्पन्न होती है। पदार्थ वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि बिग बैंग कैसे हुआ या सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत और क्वांटम मेकेनिक्स के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए।
वैज्ञानिक क्रांति के पहले अधिकतर संस्कृतियों में विकास और प्रगति की अवधारणा नहीं थी। समझ यह थी कि सृष्टि का स्वर्णिम काल अतीत में था। मानवीय बुद्धि से रोजमर्रा जिंदगी के कुछ पहलुओं में यदा-कदा कुछ उन्नति हो सकती है लेकिन संसार का संचालन ईश्वरीय विधान करता है। प्राचीन काल की प्रज्ञा का अनुपालन करने से हम सृष्टि और समाज को संकटग्रस्त होने से रोक सकते हैं। लेकिन मानव समाज की मौलिक समस्याओं से उबरना नामुमकिन माना जाता था। जब सर्वज्ञाता ऋषि, ईसा, मोहम्मद और कन्फ्यूशियस अकाल, रोग, गरीबी, युद्ध का नाश नहीं कर पाए तो हम साधारण मनुष्य किस खेत की मूली हैं?
वैज्ञानिक क्रांति के फलस्वरूप एक नई संस्कृति की शुरुआत हुई। उसके केंद्र में यह विचार है कि वैज्ञानिक आविष्कार हमें नई क्षमताओं से लैस कर सकते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान एक के बाद एक जटिल समस्याओं का समाधान देने लगा, लोगों को विश्वास होने लगा कि नई जानकारियां हासिल करके और इनका उपयोग कर हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। दरिद्रता, रोग, युद्ध, अकाल, बुढ़ापा, मृत्यु विधि का विधान नहीं है। ये बस हमारे अज्ञान का नतीजा हैं।
विज्ञान का कोई पूर्व-निर्धारित मत/सिद्धांत नहीं है, अलबत्ता, इसकी गवेषणा की कुछ सामान्य विधियां हैं। सभी अवलोकनों पर आधारित हैं। हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के जरिए ये अवलोकन करते हैं और गणितीय औजारों की मदद से इनका विश्लेषण करते हैं।
गंगानंद झा