विज्ञान षिक्षा का प्रमुख उद्देष्य विद्यार्थी का व्यक्तित्व विकास उनकी योजना का अनिवार्य अंग नहीं बन पाता है। चाहे आई.टी. का क्षेत्र हो अथवा मैनेजमेंट या मेडिकल का, सभी में सन्तोषजनक प्रगति हुई है, परन्तु युवाओं के व्यक्तित्व निर्माण की समस्या जस की तस दिखाई दे रही है। विज्ञान षिक्षा शास्त्रियों के अनुसार षिक्षा को त्रिमुखी प्रक्रिया माना गया है। षिक्षक, षिक्षार्थी एवं पाठ्यक्रम तीन आधार इस प्रक्रिया में हैं।
षिक्षक का पुनीत कार्य षिक्षार्थी को पढ़ाना है, पाठ्यक्रम इसका माध्यम है। स्पष्ट है कि षिक्षक के लिए साध्य षिक्षार्थी है न कि पाठ्यक्रम। पाठ्यक्रम तो षिक्षक के लिए साधन के रूप में उपयोग में लाया जाता है। समय परिवर्तन के साथ साधन, साध्य के रूप में परिवर्तित हो गया है। षिक्षक का केन्द्रीकरण पाठ्यक्रम तक सीमित रह गया है, षिक्षार्थी द्वितीय वरीयता क्रम में आ गया है।
अस्तु! विज्ञान षिक्षा का सर्वांगीण विकास अथवा षिक्षार्थी के व्यक्तित्व विकास की अवधारणा उलट गयी है। लक्ष्य परिवर्तित हो गये हैं, व्यक्तित्व के विकास का स्थान अंक-अर्जन ने प्राप्त कर लिया है। लक्ष्य उपाधि अथवा परिणाम हासिल करने तक सिमट गया है। समस्त षिक्षा-तन्त्र का भी एकमात्र उद्देष्य विद्यालय के उत्तम परीक्षाफल तक ही सीमित हो गया है। विज्ञान षिक्षा का उद्देष्य नवाचार षिक्षा हो।
नव़ आचार का अर्थ किसी उत्पाद, प्रक्रिया में बड्ा परिवर्तन लाने से है। नवाचार षिक्षा के अन्तर्गत कुछ नया और उपयोगी तरीका अपनाया जाता है। व्यक्ति एवं समाज में हो रहे परिवर्तनों का प्रभाव षिक्षा पर भी पड़ा है। षिक्षा को समयानुकुल बनाने के लिए शैक्षिक क्रियाकलापों में नूतन प्रवृत्तियों ने अपनी उपयोगिता स्वंयसिद्ध कर दी है, जो कई अर्थों में प्रकट होती है। बालक की भिन्नताओं के होते हुए भी प्रकृति तथा स्वभाव संबंधी सामान्य विषेषताए होती हैं। बालक के द्वारा अनुभव किये जाने योग्य अमूर्त वस्तुओं के अध्ययन के लिए कक्षा में नवाचार क्यों, विषय प्रवेष एवं कक्षा/कक्ष के बातावरण को अच्छा बनाने में प्रयोग करते है।
विष्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत के उच्च कोटि के साहित्यकार हैं। विद्यालयों में सीखने का माहौल बनाने और बच्चों को प्रेरित करने में षिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर सरल शब्दों में कहें तो स्कूल एक ऐसी जगह है जहाँ छात्र-षिक्षक आपस में विभिन्न शैक्षणिक सामग्री का उपयोग करके संवाद और बातचीत के माध्यम से सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं।
अध्यापक अपने अनुभवों को समृद्ध करता है। बच्चे पुराने अनुभवों के जमीन पर नए अनुभवों को जोड़ते हुए ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया से अवगत होता है। कक्षा मे पढ़ाने वाला अध्यापक, प्रयोगषाला मे प्रयोग करने वाला वैज्ञानिक, इमारतों के नक्षे बनाने वाला इंजीनियर, खेतों मे काम करने वाले किसान और मजदूर आदि-आदि सबके काम अपना-अपना महत्व रखते है। उनमें न कोई हेय है, न कोइ श्रेष्ठ है।
सब छात्र के लिए जरूरी है ओर एक-दूसरे के पूरक है। यहाँ वह पढ़ना-लिखना, खुद को अभिव्यक्त करना, बाकी बच्चों के साथ समायोजन करना, खेल और अन्य सामूहिक गतिविधियों में शामिल होने का कौषल विकसित करता है। अगर किसी स्कूल में छात्र-षिक्षक अनुपात संतुलित नहीं है तो बच्चों के सीखने की प्रक्रिया बाधित होती है।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ समय के लिए अकारण ही मानसिक उदासी और उत्फुल्लता का दौर आता रहता है। उदासी के दौर में निराषा को घर करने न देना चाहिए तथा समझ लेना चाहिए कि वह दौर स्वयमेव निकल जायगा। उत्फुल्लता के दौर में किसी उत्तम कर्म में जुट जाना चाहिए।
काम उठाया, थोड़ा-सा किया, मन मे दुविधा पैदा हो गयी-यदि यह काम पार न पड़ा तो? नही, इसे यों करें तो ठीक रहेगा। उस तरह सोच लो, फिर उसे करना शुरू करो। एक बार शुरू कर दिया तो उसे अपनी पूरी शक्ति से करों। जिसकी निगाह इधर-उधर भटकती रहती है, वह अपने लक्ष्य को नही देख सकता। जीवन एक सुनहला वरदान है।
छात्र को स्वस्थ एवं सुखी रहने के लिए ही वह स्वर्णिम अवसर मिला है। जीवन से बढ़कर अधिक मूल्यवान् कुछ भी नहीं है। बहुत-से कामों मे सफलता नहीं मिलती तो इसकी वजह यह है कि हम उन कामों को पूरे मन से नही करते। काम करने की लगन के साथ विश्राम भी आवष्यक है।
एकाग्रता से छात्र का अपने काम को अच्छी तरह करने का मौका मिलता है। साथ ही उसका संकल्प भी पक्का बनता है। काम मे छात्र को रस मिलने से उसका उत्साह बढ़ता है। उत्साह बढ़ने से छात्र के हाथ दूना काम करते है। उत्साह वह ज्योति है, जिसके आगे निराषा का अंधकार एक क्षण नही ठहरता। उत्साह से भरा व्यक्ति कभी खाली नही बैठ सकता। उसे नित नये-नये काम सूझते रहते है। बड़ी उम्र मे भी जवान बना रहता है।
हमारे धर्म-ग्रन्थ मे एक बड़ा सुन्दर मंत्र इन शब्दों मे मिलता है-‘उठो, जागों और जब तक ध्येय की प्राप्ति न हो, प्रयत्न करते रहों। जीवन मे सफलता की यही कुंजी है। वैसी ही निगाह और भावना हमें हर काम मे रखनी चाहिए। जिसे काम मे रस आता है, वही काम की महिमा को जानता है, वही काम को कर्तव्य मानकर करता है। जीवन में सबके सामने बड़े-बड़े अवसर आते रहते है। जो उन्हे पहचानकर पकड़ लेते है, वे महान काम कर डालते है।
विद्यार्थियों को उनकी उपलब्धियों को बढ़ाने के लिये सीखने के लिए संबद्ध करने के महत्व को समझना, सीखने-सिखाने के नवाचारी तरीकों,पर केन्द्रित लर्निंग में – विज्ञान पाठ्यपुस्तकों से लिए गए तरीके नहीं बल्कि ऐसी तकनीकें, तरकीबें जो समयसिद्ध और कारगर रही हैं। ये एकदम व्यावहारिक हैं और भारत की अधिकांष कक्षाओं में पाई जाने वाली साधारण से साधारण परिस्थितियों में भी इन्हें किया जा सकता है।
अध्यापन की इन विधियों को आजमाने के लिए किसी विषेष उपकरण की जरूरत नहीं। विज्ञान विषय चाहे एक-दूसरे से कितने ही अलग क्यों न हों, पर इन सबको जोड़ने वाला सूत्र एक ही है – कुछ अलग करना, कुछ नया करना – जिसके चलते बच्चे सीखने की प्रक्रिया में इस कदर रम जाते हैं कि वे उम्मीद से ज्यादा करने की ठान लेते हैं। बच्चे ठोस वस्तुओं के साथ खेलने में मजा लेते हैं इसलिये कक्षा में पहले इनसे ही शुरूआत करनी चाहिये।
चीजें एकत्र करके उनसे खेलने, उन्हें तरह-तरह से परखने का बच्चों को मौका दिया जाना चाहिये। इनकी मदद से छांटने’, रंग पहचानने, जोडियाँ बनाने, क्रम को समझने जैसे काम करवाये जा सकते हैं। बच्चों के साथ मिलकर मिट्टी के खिलौने, रेत और मिट्टी पर आकृतियाँ बनाई जा सकती हैं। ठोस वस्तुओं के साथ खेलते या काम करते हुए बच्चों के साथ बातचीत करना या उनके अनुभव सुनना बहुत जरूरी है।
अक्सर जब हम कक्षा में ठोस वस्तुओं का प्रयोग करते हैं तो एक ही तरह की ठोस वस्तु का उपयोग करते हैं, जबकि तरह-तरह की ठोस वस्तुओं के साथ काम करने से बच्चों की समझ अधिक पक्की होती है।
गणित सीखने/सिखाने का क्रम बच्चे गणित को निम्नांकित क्रम में आसानी से सीखते हैं, जो मूर्त से अमूर्त की ओर पर आधारित होंगी। कई बच्चे बचपन से गणित से खौफजदा रहते हैं। कालेज- विष्वविद्यालय पहुंचने तक गणित का भूत उनका पीछा नहीं छोड़ता। यद्यपि गणित पठन-पाठन को रोचक बनाने के लिए कई नवाचार हुए, पर बच्चों में भय बना हुआ है।
कक्षा के सारे बच्चों को एक गोले में बिठाकर किसी भी बच्चे से गिनती शुरू करवाकर क्रमवार आगे बोलना है। जो बच्चा गलत बोलता है वह इस खेल से बाहर हो जाएगा। अगला बच्चा फिर 1 से शुरू करेगा। यह क्रम चलता रहेगा। जो बच्चा ध्यान पूर्वक गिनती बोलेगा और आउट नहीं होगा, वह विजेता होगा। यही खेल पहाड़े बोलकर भी खेला जा सकता है। इस खेल में एकाग्रता का बहुत महत्व है। सब बच्चों को ध्यानपूर्वक सुनना है कि उसका पड़ोसी क्या बोल रहा है।
यह सत्य है इन सभी सुविधाओं से विद्यालयों में छात्र नामांकन संख्या में अति वृद्धि हुई है। परन्तु गुणवत्तापरक षिक्षा में अभी भी आषानुरूप सफलता नहीं मिली है। जहॉं संख्यात्मक वृद्धि होती है, वहां गुणात्मक वृद्धि में कमी आ जाती है। इस कमी को दूर करने के लिए आवष्यक है कि कक्षा में रूचिपूर्ण षिक्षण पद्धति अपनाई जाये। जैसे- भ्रमण विधि, खेल विधि, कहानी विधि, प्रदर्षन विधि, करके सीखना, प्रोजेक्ट विधि, केस स्टडी विधि तथा विभिन्न प्रकार की अन्य शैक्षिक गतिविधियां आदि।
सीखने की प्रक्रिया मनुष्यों के मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक विकासक्रम का एक निर्धारक तत्त्व है। षिक्षा के ध्येय को मूलतः ज्ञात के प्रसार एवं अज्ञात के प्रति अनुसंधानात्मक अभिरुचि के विकास में समाहित किया जा सकता है।
बीसवीं सदी तक के सामाजिक एवं वैज्ञानिक विकास की गति इतनी तीव्र नहीं थी कि पारम्परिक षिक्षण की प्रणालियाँ और व्यवस्थाएँ उसे संभाल न सकें। परन्तु इक्कीसवीं सदी ने कुछ युगांतरकारी परिवर्तनों से अपनी यात्रा आरम्भ की है। प्रत्येक वस्तु या क्रिया में परिवर्तन, प्रकृति का नियम है। परिवर्तन से ही विकास के चरण आगे बढ़ते हैं।
परिवर्तन एक जीवन्त, गतिषील और आवष्यक क्रिया है, जो समाज को वर्तमान व्यवस्था के अनुकूल बनाती है। परिवर्तन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होते हैं। इन्ही परिवर्तनों से व्यक्ति और समाज को स्फूर्ति, चेतना, ऊर्जा एवं नवीनता की उपलब्धि होती है।
विद्यालयों में विज्ञान सीखने का माहौल बनाने और बच्चों को प्रेरित करने में षिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर सरल शब्दों में कहें तो स्कूल एक ऐसी जगह है जहाँ छात्र-षिक्षक आपस में विभिन्न विज्ञानध् शैक्षणिक सामग्री का उपयोग करके संवाद और बातचीत के माध्यम से सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं।
अध्यापक अपने अनुभवों को समृद्ध करता है। बच्चे पुराने अनुभवों के ज़मीन पर नए अनुभवों को जोड़ते हुए ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया से अवगत होता है। कक्षा मे पढ़ाने वाला अध्यापक, प्रयोगषाला मे प्रयोग करने वाला वैज्ञानिक, इमारतों के नक्षे बनाने वाला इंजीनियर, खेतों मे काम करने वाले किसान और मज़दूर आदि-आदि सबके काम अपना-अपना महत्व रखते है। उनमें न कोई हेय है, न कोइ श्रेष्ठ है। विद्यार्थियों को कक्षा/कक्ष की गतिविधियों से जोड़ने के महत्व की समझ व उनकी उपलब्धि स्तर को बढ़ाने के लिए विद्यार्थियों में विज्ञान के प्रति संवेदना और रख-रखाव को प्रोत्साहित करना है।
संजय गोस्वामी
यमुना जी/13, भा. प. अ. केंद्र मुॅंबई