सितारों की आतिशबाजी का अंदेशा

हमारी आकाशगंगा में तारों का एक तंत्र शायद निकट भविष्य में आतिशबाजी दिखाएगा। वैसे तो सितारों के ऐसे खेल पृथ्वी और उसके जीवन के लिए संकट का सबब बन सकते हैं किंतु वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस बार किसी संकट की आशंका नहीं है। तारों का यह तंत्र हमसे करीब 8000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है, जिसका अर्थ है कि वहां जो कुछ होता है उसकी सूचना हमें 8000 वर्षों बाद मिलती है। इस तारा-तंत्र का नाम मिस्र के एक सर्प देवता के नाम पर एपेप है। इस तंत्र में दो तारे हैं और उनके आस-पास सर्पिलाकार धूल का बादल है। इनमें से एक तारा असामान्य रूप से भारी-भरकम सूर्य है जिसका नाम है वुल्फ-रेयत तारा। जब ऐसे भारी-भरकम तारों का इंर्धन चुक जाता है तो वे पिचकते हैं, जिसकी वजह अत्यंत तेज रोशनी पैदा होती है, जिसे सुपरनोवा विस्फोट कहते हैं। सिद्धांतकारों का मत है कि यदि कोई तारा काफी तेजी से घूर्णन कर रहा हो, तो ऐसे सुपरनोवा विस्फोट के समय इसके दोनों ध्रुवों से गामा किरणों का जबरदस्त उत्सर्जन होगा।
लगता है एपेप की स्थिति यही है। इस तंत्र के दोनों तारे सौर पवन फेंक रहे हैं। इस पवन और साथ में उत्पन्न रोशनी का अध्ययन करने पर पता चला है कि पवन की रफ्तार 3400 कि.मी. प्रति सेकंड है जबकि धूल के फव्वारे मात्र 570 कि.मी. प्रति सेकंड की रफ्तार से छूट रहे हैं। नेचर एस्ट्रानामी नामक शोध पत्रिका में बताया गया है कि ऐसा तभी हो सकता है जब यह तारा तेजी से घूर्णन कर रहा हो। तभी ध्रुवों से तेज पवन निकलेगी और विषुवत रेखा के आसपास गति धीमी होगी। यदि यह बात सही है कि वुल्फ रेयत तेजी से लट्टू की तरह घूम रहा है तो इसमें से गामा किरणों के पुंज निकलेंगे, और यदि पृथ्वी इनके रास्ते में रही तो काफी खतरा हो सकता है। अलबत्ता, गणनाओं से पता चला है कि पृथ्वी इनके रास्ते में नहीं है। वैसे भी खगोल शास्त्री जिसे निकट भविष्य कह रहे हैं, वह चंद हजार साल दूर है।

मस्तिष्क स्वयं की मौत को नहीं समझता
एक स्तर पर हर कोई जानता है कि वह मरने वाला है। इस्राइल के बार इलान विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ताओं की परिकल्पना थी कि जब बात खुद की मृत्यु की आती है तब हमारे मस्तिष्क में ऐसा कुछ है जो ‘‘पूर्ण समाप्ति, अंत, शून्यता’’ जैसे विचारों को समझने से इन्कार करता है। इस्राइल के एक शोधकर्ता याइर डोर-जिडरमन का यह अध्ययन एक ओर मृत्यु के शाश्वत सत्य और मस्तिष्क के सीखने के तरीके के बीच तालमेल बैठाने का एक प्रयास है। उनका मानना है कि हमारा मस्तिष्क ‘पूर्वानुमान करने वाली मशीन’ है जो पुरानी जानकारी का उपयोग करके भविष्य में वैसी ही परिस्थिति में होने वाली घटनाओं का अनुमान लगाता है। यह जीवित रहने के लिए महत्वपूर्ण है। एक सत्य यह है कि एक न एक दिन हम सबको मरना है। तो हमारे मस्तिष्क के पास कोई तरीका होना चाहिए कि वह स्वयं हमारी मृत्यु का अनुमान लगा सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है।
इस विषय पर अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने 24 लोगों को चुना और यह समझने की कोशिश की कि स्वयं उनकी मृत्यु के मामले में उनके मस्तिष्क का पूर्वानुमान तंत्र कैसे काम करता है। जिडरमैन और उनकी टीम ने मस्तिष्क के एक विशेष संकेत पर ध्यान दिया जो ‘अचंभे’ का द्योतक होता है। यह संकेत दर्शाता है कि मस्तिष्क पैटर्न को देख रहा है और उनके आधार पर भविष्यवाणी कर रहा है। उदाहरण के लिए, यदि आप किसी व्यक्ति को संतरे के तीन चित्र दिखाते हैं और फिर उसके बाद एक सेब का चित्र दिखाते हैं तब मस्तिष्क में ‘अचंभे’ का संकेत पैदा होता है क्योंकि पूर्व पैटर्न के आधार पर भविष्यवाणी संतरा देखने की थी।
टीम ने वालंटियर्स को चेहरों की तस्वीरें दिखाइंर् – या तो उनका अपना या किसी अजनबी का। इन सभी तस्वीरों के साथ कुछ नकारात्मक शब्द या मृत्यु से जुड़े शब्द, जैसे ‘कब्र’ जोड़े गए थे। इसी दौरान मैग्नेटोएनसेफेलोग्राफी की मदद से इन वालंटियर्स की मस्तिष्क की गतिविधियों को मापा गया। किसी चेहरे को मृत्यु सम्बंधी शब्दों से जोड़ना सीखने के बाद, वालंटियर्स को एक अलग चेहरा दिखाया गया। ऐसा करने पर उनके मस्तिष्क में ‘अचंभा’ संकेत देखा गया। क्योंकि उन्होंने एक विशिष्ट अजनबी चेहरे के साथ मृत्यु की अवधारणा को जोड़ना सीख लिया था, एक नया चेहरा दिखाई देने पर वह आश्चर्यचकित थे। लेकिन एक दूसरे परीक्षण में वालंटियर्स को मृत्यु शब्द के साथ उनकी अपनी तस्वीर दिखाई गई। इसके बाद जब उनको एक अलग चेहरे की तस्वीर दिखाई गई तब मस्तिष्क ने ‘अचंभा’ संकेत नहीं दिया। यानी जब एक व्यक्ति को खुद की मौत से जोड़ने की बात आई तब उसके भविष्यवाणी तंत्र ने काम करना बंद कर दिया। दिक्कत यह है कि जैव विकास की प्रक्रिया में चेतना का जन्म हुआ और इसके साथ ही हम समझने लगे कि मृत्यु अवश्यंभावी है। कुछ सिद्धांतकारों के अनुसार, मृत्यु के बारे में जागरूकता से प्रजनन की संभावना कम हो सकती है क्योंकि आप मौत से डरकर जीवन साथी चुनने के लिए आवश्यक जोखिम नहीं उठाएंगे। एक परिकल्पना है कि दिमाग के विकास के साथ मौत जैसी वास्तविकता से इन्कार करने की क्षमता विकसित होना अनिवार्य था।

वन्यजीव कारिडोर
वन्यजीव या एनिमल कारिडोर का अभिप्राय पशुओं हेतु दो पृथक निवास स्थानों के बीच सुरक्षित मार्ग सुनिश्चित करना। वन्य जीवन के संदर्भ में, गलियारे या कारिडोर मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं-कार्यात्मक और संरचनात्मक। कार्यात्मक गलियारे पशुओं के दृष्टिकोण से कार्यक्षमता के संदर्भ में परिभाषित किये जाते हैं (मूल रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ वन्यजीवों की आवाजाही दर्ज की गई है)। संरचनात्मक गलियारे, वनाच्छादित क्षेत्रों में निर्मित संरेखित पट्टियों को कहते हैं और ये संरचनात्मक परिदृश्य रूप से अन्य खंडित भागों को जोड़ते हैं। जब संरचनात्मक गलियारे मानवजनित गतिविधियों से प्रभावित होते हैं, तो कार्यात्मक गलियारे पशुओं की आवाजाही के कारण स्वचालित रूप से विस्तृत हो जाते हैं। काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान और टाइगर रिजर्व के पारिस्थितिक-संवेदनशील क्षेत्र के भीतर कम से कम तीन एनिमल कारिडोर पर वन भूमि, खुदाई और निर्माण गतिविधियों की मंजूरी से संबंधित मुद्दे सामने आए हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2019 के एक आदेश में कहा था कि ‘‘नौ संसूचित एनिमल कारिडोर के क्षेत्रों में निजी भूमि पर किसी भी नए निर्माण की अनुमति नहीं दी जाएगी।’’ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक विशेष समिति ने अपनी रिपोर्ट में काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में नौ पशु गलियारों के परिसीमन की सिफारिश की थी।
नौ संसूचित पशु गलियारे हैंरूअसम के नागाँव जिले में अमगुरी, बागोरी, चिरांग, देवसूर, हरमाती, हाटीडंडी एवं कंचनजुरी तथा गोलाघाट जिलों में हल्दीबाड़ी और पनबारी गलियारे स्थित है।पहले से स्थित नौ गलियारे कार्यात्मक गलियारों के रूप में व्यवहार करते हैं, लेकिन नई सिफारिश के अनुसार, अब ये गलियारे आवश्यकता के आधार पर संरचनात्मक और कार्यात्मक दोनों के रूप में कार्य करेंगे। रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि संरचनात्मक गलियारों को वानिकी और वन्यजीव प्रबंधन प्रयासों को छोड़कर सभी मानव-जनित गतिविधियों (गड़बड़ियों) से मुक्त किया जाना चाहिये। दूसरी ओर, कार्यात्मक गलियारे ( जब संरचनात्मक गलियारों में विसंगति उत्पन्न होती है तो वह महत्वपूर्ण हो सकते हैं), भूमि उपयोग में परिवर्तन पर रोक लगाने के साथ-साथ बहु-उपयोग को विनियमित कर सकते हैं। ये गलियारे विभिन्न पशुओं जैसे–गैंडा, हाथी, बाघ, हिरण और अन्य जानवरों के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, जो मानसून अवधि के दौरान काजीरंगा के बाढ़ वाले क्षेत्रों से निकलकर कार्बी आंगलोंग जिले की पहाड़ियों के सुरक्षित मार्गो से होते हुए राजमार्ग क्षेत्रों से दूर स्थित टाइगर रिजर्व की दक्षिणी सीमा क्षेत्रों में निवास करते हैं। मानसून अवधि समाप्त होने के बाद, ये सभी जानवर घास के मैदानों में वापस आ जाते हैं। काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान एवं टाइगर रिजर्वय असम राज्य में स्थित है और 42,996 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यह ब्रह्मपुत्र घाटी के बाढ़ मैदानों में सबसे बड़ा अविभाजित और प्रतिनिधि क्षेत्र है। इस उद्यान को वर्ष 1974 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था। इसे वर्ष 2007 में बाघ आरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया। इसे वर्ष 1985 में यूनेस्को की विश्व धरोहर घोषित किया गया था। इसे बर्डलाइफ इंटरनेशनल द्वारा एक महत्त्वपूर्ण पक्षी क्षेत्र के रूप में मान्यता दी गई है। विश्व में सर्वाधिक एक सींग वाले गैंडे काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में ही पाए जाते हैं । गैंडो की संख्या में असम के काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के बाद पोबितोरा वन्यजीव अभयारण्य का दूसरा स्थान है जबकि पोबितोरा अभयारण्य विश्व में गैंडों की उच्चतम जनसंख्या घनत्व वाला अभयारण्य है।

डॉ.दीपक कोहली

हवा से बनती है जीवन रक्षक ‘आक्सीजन’
देशभर में कोरोना वायरस बड़ी ही तेजी के साथ लोगों को संक्रमित कर रहा है, लेकिन इस बार देश सिर्फ इस वायरस की वजह से परेशान नहीं है। बल्कि इस बार आक्सीजन की कमी भी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। हमारे वातावरण में काफी आक्सीजन है। गैस क्रायोजेनिक डिस्टिलेशन प्रोसेस के जरिए आक्सीजन बनाते हैं। इस प्रक्रिया में हवा को फिल्टर किया जाता है, ऐसा करने से धूल-मिट्टी इससे अलग हो जाती है। इसके बाद कई चरणों में हवा को कंप्रेस यानी उस पर भारी दबाव डाला जाता है अब जरा सोचिए जिस आक्सीजन को बनाने में हवा की जरूरत लेनी पडे वो हवा भी तो शुद्ध चाहिए। उसके लिए जरूरी है कि हम हवा प्रदूषण पर रोक लगाए वरना आज जिस हवा से हम आक्सीजन बनाते जा रहे है कल वो हवा आक्सीजन बनाने के लायक नही रहेगी । वहीं अगर पेड़ो की बात करे तो एक स्वस्थ पेड़ हर दिन लगभग 230 लीटर आक्सीजन छोड़ता है, जिससे सात लोगों को प्राण वायु मिल पाती है। यदि हम इसके आसपास कचरा जलाते हैं तो इसकी आक्सीजन उत्सर्जित करने की क्षमता आधी हो जाती है। इस तरह हम तीन लोगों से उसकी जिंदगी छीन लेते हैं। आज पेड़ों की कटाई पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुकी है। इसलिए पौधे लगाने के साथ-साथ हमें पेड़ों को बचाने की जरूरत है। इसके लिए हमें जागरूक होने की जरूरत है।
अपने आसपास पेड़ों को न कटने दें, उसके आसपास आग न लगाएं। किसी भी स्थान पर 50 मीटर की दूरी पर एक पेड़ जरूर होना चाहिए। इससे वहां पर्याप्त मात्रा में शुद्ध हवा मिलेगी। और लोग स्वस्थ रहेंगे।पेड़ लगाने से 5 फायदे होते हैं। पहला यह आक्सीजन के जरिए मानव जीवन को बचाती है। दूसरे यह मिट्टी के क्षरण यानी उसे धूल बनने से रोकता है। जमीन से उसे बांध रखता है। भू जल स्तर को बढ़ाने में सबसे ज्यादा मदद करता है। इसके अलावा यह वायु मंडल के तापक्रम को कम करता है। पेड़ों से ढकी हुई जगह पर दूसरी जगहों की अपेक्षा 3 से 4 डिग्री तक तापमान कम होता है। इसलिए अपने आसपास ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाएं। एक पेड़ औसतन दिनभर में करीब 227 लीटर आक्सीजन छोड़ता है। वही एक इंसान दिनभर में करीब 550 लीटर आक्सीजन लेता है। तो आप समझ सकते है कि पेड़ो का महत्व इंसान और जानवरों के जीवन में कितना है। कुछ लोग ऐसे भी है जो मुनाफे के लिए जंगलो का अवैध कटान करने से भी बाज नही आते और अच्छे खासे हजारों स्वस्थ पेड़ो को काट डालते है।

100 करोड़ हाथियों के बराबर प्लास्टिक कचरा
अमरीकी वैज्ञानिकों ने अब तक बनाए गए प्लास्टिक की कुल मात्रा 8.3 अरब टन बताई है। यह ऐसा मटीरियल है जो बीते 65 सालों में बड़ी तेजी से बनाया गया। यह आंकड़ा करीब 100 करोड़ हाथियों के वजन के बराबर है। गौर करने वाली बात ये है कि प्लास्टिक को कचरे के तौर पर फेंकने से पहले उसका इस्तेमाल बेहद कम समय के लिए ही किया जाता है। कुल प्लास्टिक उत्पादन का 70 फीसदी से ज्यादा कचरे के रूप में है, जो अधिकतर जमीनों में भरा जा रहा है या नालों में बहाया जा रहा है। इससे वातावरण को भी बहुत नुकसान हो रहा है। डाक्टर रोलैंड गेयेर ने बताया, ‘हम बहुत तेजी से ‘‘प्लास्टिक प्लानेट’’ बनने की ओर अग्रसर हैं। अगर हम उस तरह की दुनिया में रहना चाहते हैं तो हमें चीजों के इस्तेमाल को लेकर सोचना होगा। खासकर प्लास्टिक।’ कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के इकोलाजिस्ट सैंटा बारबरा और उनके साथियों ने इस संबंध में एक पेपर लिखा है। इसमें उन्होंने अब तक बने कुल प्लास्टिक और उसके इस्तेमाल के साथ ही उसके प्रभावों का भी अध्ययन किया है।

करीबी प्रजातियों पर
जलवायु परिवर्तन का उल्टा असर
मानव बसाहट से दूर होने के बावजूद अंटार्कटिका की पारिस्थितिकी और जीवन मानव गतिविधियों से प्रभावित रहा है। जैसे व्हेल और सील के अंधाधुंध शिकार के चलते वे लगभग विलुप्त हो र्गइं थीं। व्हेल और सील की संख्या में कमी आने की वजह से क्रिल नामक एक क्रस्टेशियन जंतु की संख्या काफी बढ़ गई थी, जो उनका भोजन है। और अब, मानव गतिविधियों चलते तेज़ी से हो रहा जलवायु परिवर्तन सीधे-सीधे अंटार्कटिका के जीवन को प्रभावित कर रहा है। इस संदर्भ में प्रोसीडिंग्स आफ दी नेशनल एकेडमी आफ साइंसेस में प्रकाशित अध्ययन कहता है कि जलवायु परिवर्तन से पेंगुइन की दो प्रजातियां विपरीत तरह से प्रभावित हुई हैंः पेंगुइन की एक प्रजाति की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी प्रजाति विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी है।
दरअसल, लुइसिआना स्टेट युनिवर्सिटी के माइकल पोलिटो और उनके साथी अपने अध्ययन में यह देखना चाहते थे कि पिछली एक सदी में अंटार्कटिका की पारिस्थितिकी में हुए मानव हस्तक्षेप के कारण पेंगुइन के मुख्य भोजन, अंटार्कटिका क्रिल, की संख्या किस तरह प्रभावित हुई है। चूंकि मानवों ने कभी पेंगुइन का व्यावसायिक स्तर पर आखेट नहीं किया और क्रिल पेंगुइन का मुख्य भोजन हैं इसलिए उन्होंने पेंगुइन के आहार में बदलाव से क्रिल की आबादी का हिसाब लगाने का सोचा। और, चूंकि अंटार्कटिका में पिछले 50 सालों में गेन्टू पेंगुइन (पाएगोसेलिस पेपुआ) की आबादी में लगभग 6 गुना वृद्धि दिखी है और चिनस्ट्रेप पेंगुइन (पाएगोसेलिस अंटार्कटिका) की आबादी में काफी कमी दिखी है इसलिए अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने इन दोनों प्रजातियों को चुना। पिछली एक सदी के दौरान इन पेंगुइन का आहार कैसा था यह जानने के लिए अध्ययनकर्ताओं ने म्यूज़ियम में रखे पेंगुइन के पंखों में अमीनो अम्लों में नाइट्रोजन के स्थिर समस्थानिकों की मात्रा पता लगाई।
उन्होंने पाया कि शुरुआत में, 1900 के दशक में, जब क्रिल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे तो दोनों ही प्रजाति का मुख्य आहार क्रिल थे। लेकिन लगभग पिछले 50 सालों में, तेज़ी से बदलती जलवायु के चलते समुद्र जल के बढ़ते तापमान और बर्फ-आच्छादन में कमी से क्रिल की संख्या में काफी कमी हुई। तब गेन्टू पेंगुइन ने अपना आहार सिर्फ क्रिल तक सीमित ना रखकर मछली और श्रिम्प को भी आहार में शामिल कर लिया।
लिहाज़ा वे फलती-फूलती रहीं। दूसरी ओर, चिनस्ट्रेप पेंगुइन ने अपने आहार में कोई परिवर्तन नहीं किया और विलुप्ति की कगार पर पहुंच गईं। शोधकर्ताओं का कहना है कि पेंगुइन का यह व्यवहार दर्शाता है कि विशिष्ट आहार पर निर्भर प्रजातियां जैसे चिनस्ट्रेप पेंगुइन पर्यावरणीय बदलाव के प्रभाव की चपेट में अधिक हैं और अतीत में हुए आखेट और हालिया जलवायु परिवर्तन ने अंटार्कटिक समुद्री खाद्य शृंखला को प्रभावित किया है। पिछले कुछ सालों में व्हेल और सील की आबादी में सुधार देखा गया है और यह देखना रोचक होगा कि इसका पेंगुइन की उक्त दो प्रजातियों पर कैसा असर होता है।

शरीर के अंदर शराब कारखाना
हाल में बीएमजे ओपन गैस्ट्रोएंटरोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार एक 46 वर्षीय व्यक्ति आत्म-शराब उत्पादन सिंड्रोम (एबीएस) से ग्रस्त पाया गया। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें आंत में उपस्थित सूक्ष्मजीव कार्बोहाइड्रेट्स को नशीली शराब में बदल देते हैं। गेहूं, चावल, शकर, आलू वगैरह के रूप में कार्बोहाइड्रेट हमारे भोजन का प्रमुख हिस्सा होते हैं। ऐसे में जब इस विकार से ग्रस्त व्यक्ति शकर या अधिक कार्बोहाइड्रेट्स युक्त भोजन या पेय पदार्थों का सेवन करता है, तब उसकी हालत किसी नशेड़ी के समान हो जाती है। इस रिपोर्ट के सह-लेखक डॉ. फहाद मलिक के अनुसार उक्त व्यक्ति कार्य करने में काफी असमर्थ होता था, खासकर भोजन करने के बाद। इन लक्षणों की शुरुआत वर्ष 2011 में हुई थी जब उसे अंगूठे की चोट के कारण एंटीबायोटिक दवाइयां दी गई थीं। डाक्टरों ने ऐसी संभावना जताई है कि एंटीबायोटिक्स के सेवन से आंत के सूक्ष्मजीवों की आबादी (माइक्रोबायोम) को क्षति पहुंची होगी। उसमें निरंतर अस्वाभाविक रूप से आक्रामक व्यवहार देखा गया और यहां तक कि उसे नशे में गाड़ी चलाने के मामले में गिरफ्तारी भी झेलनी पड़ी जबकि उसने बूंद भर भी शराब का सेवन नहीं किया था।
इसी दौरान उसके किसी रिश्तेदार को ओहायो में इसी तरह के एक मामले के बारे में पता चला और उसने ओहायो के डाक्टरों से परामर्श किया। डाक्टरों ने उस व्यक्ति के मल का परीक्षण शराब उत्पादक सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति देखने के लिए किया। इसमें सेकरोमायसेस बूलार्डी और सेकरोमायसेस सेरेविसी पाए गए। दोनों शराब बनाने वाले खमीर हैं। पुष्टि के लिए डाक्टरों ने उसे कार्बोहाइड्रेट्स का सेवन करने को कहा। आठ घंटे बाद,उसके रक्त में अल्कोहल की सांद्रता बढ़कर 0.05 प्रतिशत हो गई जिससे इस विचित्र निदान की पुष्टि हुई। आखिरकार स्टेटन आइलैंड स्थित रिचमंड युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर, न्यू यार्क में उपचार के दौरान डाक्टरों ने उसे एंटीबायोटिक दवाइयां देकर दो महीने तक निगरानी में रखा। इस उपचार के बाद शराब उत्पादक सूक्ष्मजीवों की संख्या कम तो हुई लेकिन कार्बोहाइड्रेट युक्त खुराक लेने पर समस्या फिर बिगड़ गई। इसके बाद उसकी आंत में बैक्टीरिया को बढ़ावा देने के लिए प्रोबायोटिक्स दिए गए जो काफी सहायक सिद्ध हुआ और धीरे-धीरे वह आहार में कार्बोहाइड्रेट्स शामिल कर सका – नशे और लीवर क्षति से डरे बिना।

वैज्ञानिकों ने किया छछूंदर की चाल का अध्ययन
वैसे तो छछूंदर जमीन में तेजी से बिल बनाने के लिए जानी जाती हैं, लेकिन अब पता चला है कि उनके चलने का तरीका भी अन्य चौपाया जानवरों से अलग है। कुत्ता या बिल्ली जैसे अन्य रीढ़धारी चौपाया जानवरों के पैर चलते वक्त उनके शरीर के नीचे रहते हैं। लेकिन बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि छंछूदर चलते वक्त अपने आगे के दो पैर सामने की ओर फैलाए रखती है, जिससे चलते वक्त बिल की दीवारों से टकराने की संभावना कम रहती है। छछूंदर कैसे चलती हैं यह देखने के लिए शोधकर्ताओं ने एक्स-रे मशीन के साथ एक हाई स्पीड कैमरा जोड़ा और उसकी मदद से प्लास्टिक सुरंग में चलती एक ईस्टर्न छछूंदर की चाल को रिकार्ड किया। वीडियो का अध्ययन करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि चलते समय छछूंदर के पैर हमेशा सामने की ओर फैले रहते हैं और उनका बाकी का शरीर इनके पीछे रहता है। दरअसल आगे बढ़ने के लिए छछूंदर अपनी छठी उंगली या फाल्स थंब (हथेली के पास उभरी उंगली समान रचना) को जमीन पर टेकती हैं और इसकी मदद से अपने शरीर को आगे बढ़ाती हैं, बिलकुल उसी तरह जिस तरह लाठी टेककर चलने वाला व्यक्ति आगे बढ़ता है। इस तरीके से चलने में जमीन के साथ कम-से-कम संपर्क बनता है, वैसे ही जैसे तेज दौड़ते व्यक्ति के पैर पलभर के लिए ही जमीन पर पड़ते हैं। इस तरह की चाल पैर सामने फैलाए रखने में मदद करती है। चूंकि संकरे बिल में चलते वक्त मुड़े हुए अंगों के साथ बिल की दीवारों से टकराने की संभावना रहती है, जिससे बिल नष्ट हो सकता है इसलिए सामने की ओर पैर फैले होने से दीवारों से टकराने से की संभावना कम हो जाती है और बिल सलामत रहता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि बिल में रहने वाले छछूंदर जैसे जीवों के चलने के तरीकों को समझ कर, बेहतर बचाव और राहत रोबोट डिजाइन करने में मदद मिल सकती है।