जल संरक्षित करें : आपकी छोटी-छोटी चीजें बड़ा बदलाव ला सकती हैं। हर बार जब आप पानी को बर्बाद होने से बचाते है, तो आप कुछ अच्छा कर रहे होते हैं। आप छोटी-छोटी चीजें जैसे- दांत ब्रश करते समय नल बंद करना आदि करके कइयों लीटर पानी बर्बाद होने से बचा सकते हैं। इसके अलावा बोतलबंद पानी पीना बंद कर दें और फिल्टर्ड नल के पानी पर स्विच करें। इसे आप एक टन प्लास्टिक कचरे को कम करने में मदद करेंगे।
पैदल चलें, साइकिल चलाएं या सार्वजनिक परिवहन करें
पैदल चलना और साइकिल चलाना ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के अच्छे तरीके हैं। साथ ही आपको कुछ अच्छा कार्डियो वर्कआइउट भी मिलेगा और आप इसे करते समय कुछ कैलोरी बर्न करेंगे। यदि आप ऐसे क्षेत्र में रहते हैं जो चलने योग्य नहीं है, तो आप पर्सनल गाड़ी की जगह सार्वजनिक परिवहन का उपयोग कर सकते हैं। इससे प्रदूषण स्तर कम करने में आप मदद करेंगे।
रीसायकल करें : एक रिसर्च के अनुसार यदि 7,000 श्रमिकों की एक कार्यालय की इमारत एक साल के लिए अपने सभी कार्यालय कागज के कचरे का पुनर्नवीनीकरण करती है, तो यह सड़क से लगभग 400 कारों को ले जाने के बराबर होगी। इसके अलावा डिस्पोजेबल प्लेट, चम्मच, कांच, कप और नैपकिन का उपयोग करने से बच सकते हैं। वे भारी मात्रा में कचरा पैदा करते हैं और ऐसे उत्पाद खरीदें जो रीसायकल हो सकते हो।
कंपोस्टिंग करें : घर के कचरे का सही उपयोग करें और कंपोस्टिंग करें। इसके लिए नम जैव पदार्थों (जैसे पत्तियां, बचा-खुचा खाना आदि) का ढेर बनाकर विघटन हो जाने के बाद इसका इस्तेमाल पेड़-पौधों में खाद्य के रूप में करें।
एलईडी पर स्विच करें : सीएफएल बल्बों का निपटान करना मुश्किल है क्योंकि उनमें पारा होता है। ऐसे में अपने पुराने बल्बों को एलईडी बल्बों से बदलना शुरू करें। वे सीएफएल की तुलना में कम से कम 30,000 घंटे तक चल सकते हैं, जबकि सीएफएल 8,000 से 10,000 घंटे तक ही चल सकते हैं।
पोषण कार्यक्रमों की कितनी पहुंच है ज़रूरतमंदों तक
कुपोषण व अल्प-पोषण की समस्या को देखते हुए भारत में पोषण योजनाओं व अभियानों का विशेष महत्व है। इस संदर्भ में भारत सरकार का हाल का बहुचर्चित कार्यक्रम ‘पोषण अभियान’ है। इस अभियान के अंतर्गत वित्तीय संसाधनों का आवंटन तो काफी हद तक उम्मीद के अनुरूप हुआ है, पर वास्तविक उपयोग में काफी कमी के कारण इसका समुचित लाभ प्राप्त नहीं हो पा रहा है। इस अभियान के बारे में यह भी समझना ज़रूरी है कि इसमें सूचना तकनीक, स्मार्टफोन खरीदने, साफ्टवेयर, मानीटरिंग, व्यवहार में बदलाव सम्बंधी आयोजनों आदि पर अधिक खर्च होता है और एकाउंटिबिलिटी इनिशिएटिव के अनुसार 72 प्रतिशत खर्च ऐसे मदों पर है। यह बताना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि पोषण अभियान से लोग यही समझते हैं कि इसके अंतर्गत अधिकतर धन का उपयोग भूख व कुपोषण से पीड़ित लोगों व बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन की व्यवस्था करने में खर्च होता है। इस कार्यक्रम के लिए धन भारत सरकार के अतिरिक्त राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों से आता है और विश्व बैंक व बहुपक्षीय बैंक अंतर्राष्ट्रीय सहायता भी उपलब्ध करवाते हैं। बच्चों के लिए पोषण का सबसे बड़ा कार्यक्रम आई.सी.डी.एस. (आंगनवाड़ी) है। इस कार्यक्रम पर वर्ष 2014-15 में 16,664 करोड़ रुपए खर्च हुए थे व 2019-20 का संशोधित अनुमान 17,705 करोड़ रुपए है। अर्थात महंगाई का असर कवर करने लायक भी वृद्धि नहीं हुई है जबकि 5 वर्षों में इसके कवरेज में आने वाले बच्चों की संख्या तो निश्चय ही काफी बढ़ी है।
वर्ष 2019-20 में इसके लिए बजट अनुमान 19,834 करोड़ रुपए था व वर्ष 2020-21 का बजट अनुमान 20,532 करोड़ रुपए है, जिससे पता चलता है कि बहुत मामूली वृद्धि है जो महंगाई के असर की मुश्किल से पूर्ति करेगी। इतना ही नहीं, वर्ष 2019-20 में इस स्कीम के लिए मूल आवंटन तो 19,834 करोड़ रुपए का था, पर संशोधित अनुमान तैयार करते समय ही इसे 17,705 करोड़ रुपए पर समेट दिया गया था यानि 2129 करोड़ रुपए की कटौती इस पोषण के कार्यक्रम में की गई जो बहुत चिंताजनक है। इसी तरह किशोरी बालिकाओं के स्वास्थ्य व पोषण की स्कीम ‘सबला’ के लिए 2019-20 के मूल बजट में 300 करोड़ रुपए का प्रावधान था जिसे संशोधित बजट में मात्र 150 करोड़ रुपए कर दिया गया यानी इसे आधा कर दिया गया। वर्ष 2020-21 के बजट में 250 करोड़ रुपए का प्रावधान था। प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना को सरकार ने स्वयं विशेष महत्व की योजना माना है। किंतु वर्ष 2018-19 के बजट में इसके लिए जो मूल प्रावधान था, वास्तव में उसका मात्र 44 प्रतिशत ही खर्च किया गया। ज़्यां ड्रेज़ और रीतिका खेरा के एक अध्ययन में बताया गया है कि इस योजना के लिए योग्य मानी जाने वाली मात्र 51 प्रतिशत माताओं तक ही इसका लाभ पहुंच सका। जिनको लाभ मिला उनमें से मात्र 61 प्रतिशत को तयशुदा तीनों किश्तें प्राप्त हो सकीं (कुल 5000 रुपए)।
वर्ष 2019-20 में इस योजना के लिए 2500 करोड़ रुपए का मूल प्रावधान था। इसे संशोधित अनुमान में 2300 करोड़ रुपए कर दिया गया।
स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मील का कार्यक्रम महत्वपूर्ण है। इस पर वर्ष 2014-15 में वास्तविक खर्च 10,523 करोड़ रुपए था। वर्ष 2019-20 का इस कार्यक्रम का संशोधित अनुमान 9,912 करोड़ रुपए है यानि 5 वर्ष पहले के बजट से भी कम, जबकि महंगाई कितनी बढ़ गई है। वर्ष 2019-20 के बजट में इस कार्यक्रम का मूल प्रावधान 11,000 करोड़ रुपए का था, पर संशोधित अनुमान में इसे 9,912 करोड़ रुपए कर दिया गया। वर्ष 2020-21 के बजट में फिर 11,000 करोड़ रुपए का प्रावधान है। इस तरह पोषण कार्यक्रमों पर कम आवंटन, बड़ी कटौतियों, समय पर फंड जारी न होने आदि का प्रतिकूल असर पड़ता रहा है। इस स्थिति को सुधारना आवश्यक है।
भारत डोगरा
नींद को समझने में छिपकली की मदद
नींद की उत्पत्ति को समझते हुए वैज्ञानिकों ने आस्ट्रेलिया की एक छिपकली में कुछ महत्वपूर्ण सुराग हासिल किए हैं। आस्ट्रेलियन दढ़ियल ड्रेगन (Pogonavitticeps) में नींद से जुड़े तंत्रिका संकेतों को देखकर शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि जटिल नींद का विकास शायद पक्षियों और स्तनधारियों से बहुत पहले हो चुका था। और उनका मानना है कि यह अनुसंधान मनुष्यों को चैन की नींद सुलाने में मददगार साबित होगा। गौरतलब है कि पक्षियों और स्तनधारियों में नींद दो प्रकार की होती है। एक है रैपिड आई मूवमेंट नींद जिसके दौरान आंखें फड़फड़ाती हैं, विद्युत गतिविधि मस्तिष्क में गति करती है और मनुष्यों में सपने आते हैं। ङकग् नींद के बीच-बीच में ‘धीमी तरंग’ नींद होती है। इस दौरान मस्तिष्क की क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं और विद्युत सक्रियता एक लय में चलती हैं। कुछ अध्ययनों से पता चला है कि इस हल्की-फुल्की नींद के दौरान स्मृतियों का निर्माण होता है और उन्हें सहेजा जाता है।
2016 में मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फार ब्रेन रिसर्च के गिल्स लारेन्ट ने खोज की थी कि सरिसृपों में भी दो तरह की नींद पाई जाती है। हर 40 सेकंड में दढ़ियल ड्रेगन इन दो नींद के बीच डोलता है। लेकिन यह पता नहीं लग पाया था कि मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा इन दो तरह की नींदों का संचालन करता है। लारेन्ट की टीम ने दढ़ियल ड्रेगन के मस्तिष्क की पतली कटानों में इलेक्ट्रोड्स की मदद से देखने की कोशिश की कि कौन-सी विद्युतीय गतिविधि धीमी तरंग नींद से सम्बंधित है। गौरतलब है कि ऐसी विद्युतीय सक्रियता मृत्यु के बाद भी जारी रह सकती है। पता चला कि ड्रेगन के मस्तिष्क के अगले भाग में विद्युत क्रिया होती है। यह एक हिस्सा है जिसका कार्य अज्ञात था। और इसके बाद एक अनपेक्षित मददगार बात सामने आई। लारेन्ट के कुछ शोध छात्र छिपकली के मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों में जीन्स की सक्रियता की तुलना चूहों के मस्तिष्क में जीन अभिव्यक्ति से करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने पाया कि छिपकली के मस्तिष्क का जो हिस्सा धीमी तरंग नींद पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार है उसमें जीन्स की सक्रियता चूहों के दिमाग के उस हिस्से से मेल खाती है जिसे क्लास्ट्रम कहते हैं। जीन अभिव्यक्ति में इस समानता से संकेत मिला कि संभवतः सरिसृपों में भी क्लास्ट्रम पाया जाता है। लारेन्ट का कहना है कि क्लास्ट्रम नींद को शुरू या खत्म नहीं करता बल्कि मस्तिष्क में नींद के केंद्र से संकेत ग्रहण करता है और फिर पूरे दिमाग में धीमी तरंगें प्रसारित करता है। चूंकि सरिसृपों में भी क्लास्ट्रम पाया गया है, इसलिए ये जंतु नींद के अध्ययन के लिए अच्छे माडल का काम कर सकते हैं।
कौन-कौन सी प्रजातियां हैं विलुप्त की ओर
कीनिया में दुर्लभ नस्ल के आखिरी सफ़ेद गैंडे की मौत के बाद गैंडे की इस प्रजाति को विलुप्त घोषित कर दिया गया है। वैज्ञानिकों को एक आखिरी उम्मीद आईवीएफ़ (टेस्ट ट्यूब) तकनीक से है जिसकी मदद से आने वाले वक़्त में ‘सूडान’ नाम के इस गैंडे के बच्चों को जन्म दिया जा सकता है। वर्ल्ड वाइल्ड फंड फार नेचर(WWF) में संरक्षण अभियानों के प्रमुख कालिन बटफ़ील्ड के अनुसार ये एक बुरी स्थिति है। साल 1958 में वैक्विटा नाम की एक बड़ी समुद्री मछली की खोज हुई थी और उसके बाद जावन नस्ल के गैंडों की, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि वो भी अब विलुप्त होने की कगार पर हैं। ऐसे ही सुमात्रा में पाए जाने वाले गैंडे, काले गैंडे, अमूर तेंदुए, जंगली हाथी और बोर्नियो के आरंगुटैन कुछ ऐसी प्रजातियों में शामिल हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे विलुप्तप्राय हैं या उनकी संख्या 100 से भी कम रह गई है। प्रकृति के संरक्षण के लिए बनाए गए अंतरराष्ट्रीय संघ(IUCN) ने ऐसे जानवरों की सूची जारी की है जिन पर विलुप्त होने का ख़तरा मंडरा रहा है।
ख़तरे में शामिल नई प्रजातियां : इस लिस्ट के मुताबिक़, 5,583 ऐसी प्रजातियां हैं जिन्हें बचाए के लिए गंभीर रूप के काम किए जाने की ज़रूरत है। कम से कम 26 ऐसी नई प्रजातियां हैं जिन्हें साल 2017 में इस लिस्ट में शामिल किया गया। ये प्रजातियां एक साल पहले तक ख़तरे के निशान से ऊपर थीं। साल 2016 में (IUCN) ने एक अनुमान के तहत बताया था कि अब सिर्फ़ 30 वैक्विटा मछलियां बची हैं और हो सकता है कि अगले एक दशक में ये प्रजाति विलुप्त हो जाए। ज़मीन पर पाए जाने वाले स्तनधारियों की गिनती करना आसान होता है। इसके लिए संस्थाएं जीपीएस ट्रैकर, कई किस्म के कैमरे, कंकालों की गिनती, पंजों के निशान और पेड़ों पर लगी खरोंचों का इस्तेमाल करती हैं। फिर भी पशुओं की गिनती को लेकर हमेशा विवाद रहता है। हर साल नई प्रजातियों की भी खोज होती है। भले ही ये नई प्रजातियां दुनिया भर में जानवरों की गिनती में जुड़ जाती हैं। लेकिन ये सच है कि जानवर बेहद तेज़ी से ख़त्म हो रहे हैं। साथ ही ये एक बड़ी समस्या है कि विलुप्त होते जानवरों के बारे में एकदम सही आंकड़े जुटा पाना मुश्किल है।
नंबर कितने भरोसेमंदः पशु सरक्षंण के लिए अभियान चलाने वाले कहते हैं कि ऐसी भी कई प्रजातियां हैं जिनके बारे में कहा गया कि वे विलुप्त हो चुकी हैं, लेकिन बाद में उनकी मौजूदगी दर्ज की गई। जैसे ब्राज़ील में होने वाला ख़ास किस्म का नीला तोता जिसके विलुप्त होने की घोषणा कर दी गई थी। लेकिन साल 2016 में उस नस्ल के एक तोते को देखा गया। इसीलिए कई वैज्ञानिकों का कहना है कि जब किसी जीव के विलुप्त होने के ख़तरे की बात हो तो सिर्फ़ नंबरों को देखना ठीक नहीं।
प्रजाति विलुप्त होने के ख़तरे का मानक : एक नस्ल के सभी जीव जब एक जगह रहने लगें। ऐसे में माना जाता है कि किसी एक बीमारी या आपदा के कारण सभी की मौत हो सकती है। देखा जाता है कि भौगोलिक रूप से कोई प्रजाति कितने बड़े इलाक़े में फैली है। उनका प्रजनन चक्र कितना लंबा है? और क्या वो जोड़े में बच्चों को जन्म देते हैं या एक बार में एक ही बच्चा देने की क्षमता है। वो किस तरह के ख़तरों का सामना कर रहे हैं? क्या उस नस्ल की जनसंख्या में आनुवंशिक रूप से विविधता है? उनका आवास किस तरह के ख़तरे में है और कितने ख़तरे में है? आप सरल शब्दों में इसे ऐसे समझ सकते हैं कि किसी एक नस्ल के सिर्फ़ पांच सौ जानवर बचे हैं और वहीं दूसरी किसी नस्ल के सिर्फ़ तीन सौ। लेकिन तीन सौ जानवर अगर बड़े भौगोलिक इलाक़े में फैले हैं और पांच सौ किसी एक छोटी जगह तक सीमित हैं, तो पांच सौ जानवरों वाली नस्ल को पहले विलुप्तप्राय घोषित किया जाएगा। उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों में रहने वाली नस्लों और तेज़ गर्मी वाले जंगलों में रहने वाली नस्लों के बीच तुलना की जाती है।
वैकल्पिक ईंधन की ओर भारत के बढ़ते कदम
बरसों से दुनिया जिन ऊर्जा स्रोतों को ईंधन के रूप में उपयोग करती आ रही है, वे सीमित हैं। जहां एक ओर उनको बनने में लाखों साल लग जाते हैं, वहीं उनके अत्यधिक दोहन से समय के साथ-साथ वे चुक जाएंगे। ऐसे में आशा की एक नई किरण वैकल्पिक र्इंधन के रूप में सामने आई है। वैकल्पिक ईंधन देश के कच्चे तेल के आयात बिल को कम करने में मदद कर सकते हैं। वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था के मुख्य चालक डीज़ल और पेट्रोल हैं अर्थात भारत की अधिकतम ऊर्जा ज़रूरतें डीज़ल और पेट्रोल से पूरी होती हैं। अब स्थिति को बदलने की दिशा में काम हो रहा है। वैश्विक स्तर पर वैकल्पिक ईंधन के रूप में मेथेनाल का उत्पादन और उपयोग बढ़ रहा है। इसके मुख्य कारण हैं कोयले और प्राकृतिक गैस जैसे सस्ते माल की कमी, तेल की कीमतों में वृद्धि, तेल आयात बिल में कमी करने की ख्वाहिश और प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय मुद्दे। ईंधन के रूप में और रासायनिक उद्योग में मध्यवर्ती पदार्थ रूप में मेथेनाल का उपयोग आटोमोबाइल और उपभोक्ता क्षेत्रों में तेज़ी से बढ़ रहा है। मेथेनाल अपने उच्च आक्टेन नंबर के कारण एक कुशल ईंधन माना जाता है और यह गैसोलीन की तुलना में सल्फर आक्साइड्स (एसओएक्स), नाइट्रोजन आक्साइड्स (एनओक्स) और कणीय पदार्थ व गैसीय प्रदूषक तत्व कम उत्सर्जित करता है।
‘मेथेनाल अर्थव्यवस्था’ का शाब्दिक अर्थ ऐसी अर्थव्यवस्था से है जो डीज़ल और पेट्रोल की बजाय मेथेनाल के बढ़ते प्रयोग पर आधारित हो। मेथेनाल अर्थव्यवस्था की अवधारणा को सक्रिय रूप से चीन, इटली, स्वीडन, इस्राइल, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान और कई अन्य युरोपीय देशों द्वारा लागू किया गया है। वर्तमान में चीन में लगभग 9 प्रतिशत परिवहन ईंधन के रूप में मेथेनाल का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके अलावा इस्राइल, इटली ने पेट्रोल के साथ मेथेनाल के 15 प्रतिशत मिश्रण की योजना बनाई है। भारतीय ईंधन में मेथेनाल की शुरुआत अप्रत्यक्ष रूप से हुई थी, जब बायोडीज़ल, मेथेनाल और गैर खाद्य पौधों से बने तेल जैसे रतनजोत तेल को 2009 में जैव ईंधन हेतु राष्ट्रीय नीति में शामिल किया गया था। मेथेनाल अर्थव्यवस्था बनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य देश की अर्थव्यवस्था के विकास को टिकाऊ बनाना है ताकि वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भावी पीढ़ियों की ज़रूरतों के साथ कोई समझौता न हो। गैसोलीन में 15 प्रतिशत तक सम्मिश्रण के लिए मेथेनाल अपेक्षाकृत एक आसान विकल्प है। यह वाहनों, स्वचालित यंत्रों या कृषि उपकरणों में कोई बदलाव किए बिना वायु गुणवत्ता सम्बंधी तत्काल लाभ प्रदान करता है। हालांकि दो अन्य अनिवार्यताओं, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी और ईंधन आयात से विदेशी मुद्रा के बहिर्वाह में कमी के संदर्भ में भारत में अधिक मेथेनाल क्षमता स्थापित करना आवश्यक होगा।
मोटे तौर पर देखा जाए तो मेथेनाल ईंधन हो या आजकल का मूल स्रोत हाइड्रोकार्बन हो इनमें वनस्पति जगत का मुख्य योगदान है। स्पष्ट है कि तमाम कार्बनिक पदार्थों के विश्लेषण से मेथेनाल प्राप्त करना संभव है। जैव पदार्थ का बेहतरीन उपयोग कर 75 प्रतिशत तक मेथेनाल प्राप्त किया जा सकता है। धरती की हरियाली से प्राप्त मेथेनाल की उपयोगिता को भारतीय वैज्ञानिकों ने समझा और उसका उपयोग वाहनों को गति देने के लिए कर दिखाया। परीक्षणों में पाया गया है कि मेथेनाल को 12 प्रतिशत की दर से मूल ईंधन में मिलाकर वाहन चलाना संभव है। वर्ष 1989 में नई दिल्ली स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालाजी में वैज्ञानिकों ने पेट्रोल में मेथेनाल मिलाकर एक स्कूटर पहले आईआईटी कैम्पस में बतौर परीक्षण और फिर दिल्ली की सड़कों पर चलाया। इस सफलता से प्रेरित होकर भारतीय पेट्रोलियम संस्थान के वैज्ञानिकों ने मेथेनाल-पेट्रोल के मिश्रण से पहली खेप में 15 स्कूटर और बाद में कई स्कूटर चलाए। इससे प्रभावित होकर कई निजी कंपनियां सामने आईं। वड़ोदरा में तो इनकी प्रायोगिक तौर पर बिक्री भी की गई। पेट्रोल के अलावा मेथेनाल को डीज़ल में मिलाकर भी कुछ सफलता प्राप्त हुई है। डीज़ल-मेथेनाल के इस रूप को ’डीज़ोहाल’ नाम दिया गया है। भारतीय पेट्रोलियम संस्थान द्वारा डीज़ल में 15 से 20 प्रतिशत तक मेथेनाल मिलाकर बसें भी चलाई जा चुकी हैं। भारत सहित कई अन्य देशों में डीज़ोहाल को लेकर व्यावसायिक परीक्षण भी किए जा रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि डीज़ोहाल अधिक ऊर्जा क्षमता वाला ईंधन होने के अलावा प्रदूषण भी कम पैदा करता है। कहना न होगा कि यह आर्थिक रूप से बेहतर और पर्यावरण हितैषी भी है।
ईंधन आयात कम करने मेथेनाल की ओर कदम
वर्तमान में भारत को प्रति वर्ष 2900 करोड़ लीटर पेट्रोल और 9000 करोड़ लीटर डीज़ल की ज़रूरत होती है। भारत दुनिया में छठवां सबसे ज़्यादा तेल उपभोक्ता देश है। 2030 तक यह खपत दुगनी हो जाएगी और भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश बन जाएगा।
इसके अलावा भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जक देश है। दिल्ली जैसे शहरों में लगभग 30 प्रतिशत प्रदूषण वाहनों से होता है और सड़क पर कारों और अन्य वाहनों की बढ़ती संख्या प्रदूषण की इस स्थिति को आने वाले दिनों में और भी विकट बनाएगी। इसलिए बढ़ते आयात बिल और प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए भारत का नीति आयोग देश की अर्थव्यवस्था को मेथेनाल अर्थव्यवस्था में बदलने पर विचार कर रहा है।
हमारे देश में मेथेनाल अर्थव्यवस्था एक व्यावहारिक, आवश्यक और किफायती रूप लिए उभर रही है। गर्व की बात है कि हमने प्रति वर्ष दो मीट्रिक टन मेथेनाल पैदा करने की क्षमता हासिल कर ली है। उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2030 तक भारत के ईंधन बिल में 30 प्रतिशत तक की कटौती हो जाएगी, जो मेथेनाल के दम पर ही संभव होगी। भारत द्वारा मूल ईंधन में 15 प्रतिशत मेथेनाल मिलाए जाने का कार्यक्रम बनाया जा रहा है। इसके लिए इस्राइल जैसे देशों से मदद लेने की भी संभावना है। नीति आयोग द्वारा मेथेनाल अर्थव्यवस्था फंड भी निर्धारित करने की योजना है जिसमें मेथेनाल आधारित परियोजनाओं के लिए चार-पांच हज़ार करोड़ रुपए का प्रावधान है।
देश में बढ़ते प्रदूषण और कच्चे तेल के बढ़ते आयात बिल को देखते हुए भारत के लिए मेथेनाल का उपयोग न सिर्फ ज़रूरी है बल्कि पर्यावरण की मांग भी है। यदि मेथेनाल का उपयोग भारत में व्यापक पैमाने पर शुरू कर दिया जाता है तो भारत में होने वाला विकास टिकाऊ विकास हो जाएगा।