वश्व भर में तबाही मचाने वाले कोरोना वायरस के स्रोत की पहचान करने के लिए वैज्ञानिकों को काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। आनुवंशिक विश्लेषण के आधार पर चीनी वैज्ञानिकों ने चींटी खाने वाले पैंगोलिन को इसका प्रमुख संदिग्ध बताया था। अन्य तीन पैंगोलिन कोरोना वायरस के जीनोम के अध्ययन के बाद वैज्ञानिक इसे अभी भी एक दावेदार के रूप में देखते हैं, लेकिन गुत्थी अभी पूरी तरह सुलझी नहीं है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस तरह 2002 में सिवेट (मुश्कबिलाव) से कोरोना वायरस मनुष्यों में आया था उसी तरह इस रोगजनक ने किसी जीव से ही मनुष्यों में प्रवेश किया होगा। फिलहाल चाइनीज सेंटर फार डिसीस कंट्रोल एंड प्रिवेंशन सहित चीन की तीन प्रमुख टीमें इसकी उत्पत्ति का पता लगाने की कोशिश कर रही हैं।
पैंगोलिन पर संदेह करने के कुछ खास कारण हैं। चीन में पैंगोलिन के मांस की काफी मांग है और शल्क का उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में किया जाता है। हालांकि चीन में इसकी बिक्री पर प्रतिबंध है फिर भी इसकी तस्करी आम बात है। शोधकर्ताओं के अनुसार तस्करी किए गए पैंगोलिन से प्राप्त कोरोना वायरस, आनुवंशिक रूप से लोगों में मिले कोरोना वायरस के नमूनों से 99 प्रतिशत मेल खाता है। लेकिन यह परिणाम पूरे जीनोम पर आधारित नहीं है। यह जीनोम के एक विशिष्ट हिस्से से सम्बंधित है जिसे रिसेप्टर-बाइंडिंग डोमेन (आरबीडी) कहा जाता है। पूरे जीनोम के स्तर पर मनुष्यों और पैंगोलिन से प्राप्त वायरस का डीएनए 90.3 प्रतिशत ही मेल खाता है।
आरबीडी कोरोना वायरस का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह वायरस को कोशिका में प्रवेश करने की क्षमता देता है। अन्य शोधकर्ताओं के अनुसार दो वायरसों के आरबीडी में 99 प्रतिशत समानता होने के बाद भी उन्हें एक-दूसरे से सम्बंधित नहीं माना जा सकता है। विभिन्न अध्ययनों में 85.5 प्रतिशत से 92.4 प्रतिशत समानता पाई गई है। मैकमास्टर युनिवर्सिटी, कनाडा में अध्ययनरत अरिंजय बैनर्जी के अनुसार पूर्व में सार्स वायरस का 99.8 प्रतिशत जीनोम सिवेट बिल्ली के जीनोम से मेल खाता पाया गया था, जिसके चलते सिवेट को इसका स्रोत माना गया था। अभी तक मनुष्यों से प्राप्त कोरोना वायरस सर्वाधिक (96 प्रतिशत) चमगादड़ों से प्राप्त कोरोना वायरस से मेल खाता है। लेकिन इन दो वायरसों में आरबीडी साइट्स का अंतर पाया गया है। इससे यह पता चलता है कि चमगादड़ों से यह कोरोना वायरस सीधा मनुष्यों में नहीं बल्कि किसी मध्यवर्ती जीव से मनुष्यों में प्रवेश किया है।
कुछ अन्य अध्ययन मामले को और अधिक रहस्यमयी बना रहे हैं। यदि यह वायरस पैंगोलिन से आया है तो फिर जिस देश से इसको तस्करी करके लाया गया है वहां इसके संक्रमण की कोई रिपोर्ट क्यों नहीं है? लेकिन एक चिंता यह व्यक्त की गई है कि पैंगोलिन को वायरस का स्रोत मानकर लोग इसे मारने न लगें जैसा सार्स प्रकोप के समय सिवेट के साथ हुआ था।
स्वाद और गंध महसूस न होना भी कोरोना का लक्षण?
लंदन के किंग्स कालेज की एक टीम ने कोरोना वायरस के संदिग्ध लक्षण एक ऐप में रिपोर्ट करने वाले करीब चार लाख लोगों के डेटा का अध्ययन किया है। आम सर्दी के साथ ही सांस लेने में तकलीफ जैसे कई लक्षणों के अलावा स्वाद और गंध का महसूस न होना भी कोरोना वायरस का लक्षण हो सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि बुखार और खांसी अब भी वायरस के वो संभावित महत्वपूर्ण लक्षण हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। अगर आपके साथ या आसपास रहने वाले किसी भी शख्स को तेज बुखार और खांसी की समस्या है तो उन्हें घर में ही रहना चाहिए ताकि दूसरों को वायरस का संक्रमण न हो। किंग्स कालेज के शोधकर्ता कोरोना वायरस के संभावित लक्षणों के बारे में जानकारी जुटाना चाहते थे ताकि वो विशेषज्ञों की इसे समझने और इससे लड़ने में मदद कर सकें।
कोविड सिम्पटम ट्रैकर ऐप पर इसके लक्षणों के बारे में रिपोर्ट करने वालों में से 53% ने थकान की शिकायत की। 29% ने लगातार खांसी आने की बात की। 28% ने सांस लेने में तकलीफ बताई। 18% ने कोई गंध सूंघने या किसी तरह का स्वाद चखने में असमर्थता जताई। 10.5% ने बुखार की शिकायत की।
इन चार लाख लोगों में 1,702 का कोविड-19 का टेस्ट हुआ जिनमें से 579 लोग पाजिटिव पाए गए और 1,123 निगेटिव। जिनका कोरोना वायरस का टेस्ट रिजल्ट पाजिटिव आया था उनमें से 59% लोगों ने सूंघने और स्वाद चखने में असमर्थता की शिकायत की। ईएनटी यूके (ब्रिटेन में आंख,नाक, गला विशेषज्ञ डाक्टरों का प्रतिनिध समूह) का मानना है कि अगर कोरोना वायरस से संक्रमति लोग गंध और स्वाद खत्म होने की शिकायत कर रहे हैं तो इसमें हैरानी वाली कोई बात नहीं है लेकिन ऐसा सिर्फ कोरोना संक्रमण में ही हो, ये जरूरी नहीं। किंग्स कालेज के शोधकर्ताओं का कहना है कि स्वाद और गंध खत्म होने को कोविड-19 के कुछ अतिरिक्त लक्षण माना जा सकता है। लेकिन कोविड-19 की पुष्टि होने के लिए अन्य प्रमुख लक्षणों का होना जरूरी है जैसे खांसी, बुखार और सांस लेने में तकलीफ। टीम के प्रमखु शोधकर्ता प्रोफेसर टिम स्पेक्टर कहते हैं, ‘अगर कोविड-19 के बाकी लक्षणों के साथ-साथ स्वाद और गंध पहचानने की क्षमता खत्म हो जाए तो आपको खुद को आइसोलेट कर लेना चाहिए ताकि संक्रमण को फैलने से रोका जा सके।’
आस्ट्रेलिया का संभावित वैक्सीन का परीक्षण
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और अमरीकी कंपनी इनोविओ फार्मास्युटिकल्स के बनाए वैक्सीन का जानवरों पर सफल परीक्षण किया जा चुका है। अगर ये वैक्सीन इंसानों पर परीक्षण में सफल पाए जाते हैं तो आस्ट्रेलिया की साइंस एजेंसी इसका आगे मूल्यांकन करेगी। पिछले महीने अमरीका में पहली बार इंसानों पर वैक्सीन का परीक्षण किया जा चुका है लेकिन उस वक्त जानवरों पर परीक्षण करने वाला चरण छोड़ दिया गया था। पूरी दुनिया में कोरोना वायरस के वैक्सीन पर तेजी से काम चल रहा है। लेकिन आस्ट्रेलिया के कामनवेल्थ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च आर्गेनाइजेशन (सीएसआईआरओ) का कहना है कि यह परीक्षण पहला पूरी तरह से जानवरों पर आजमाया गया प्री-क्लिनिकल ट्रायल होगा। शोधकर्ताओं ने कहा है कि पूरी दुनिया से मिलने वाला सहयोग शानदार है जिसकी वजह से इस चरण तक हम इतनी तेजी से पहुँच पाए हैं। सीएसआईआरओ के डाक्टर राब ग्रेनफेल का कहना है, ‘आमतौर पर इस स्टेज तक पहुँचने में एक से दो साल तक का वक्त लगता है। लेकिन हम सिर्फ दो महीने में यहां तक पहुँच गए हैं।’
कैसे काम करता है ये वैक्सीन : पिछले कुछ दिनों में सीएसआईआरओ की टीम ने इस वैक्सीन को गंधबिलाव (नेवले की जाति का एक जानवर) पर टेस्ट किया है। यह साबित हो चुका है कि गंधबिलाव में इंसानों की तरह ही कोरोना वायरस का संक्रमण होता है। वास्तव में सार्स कोवि-2 वायरस कोरोना संक्रमण के लिए जिम्मेवार होता है। पूरी दुनिया में कम से कम 20 वैक्सीन पर अभी काम चल रहा है। सीएसआईआरओ की टीम दो वैक्सीन पर काम कर रही है। पहला वेक्टर वैक्सीन आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की ओर से विकसित किया गया है। इसमें कोरोना वायरस के प्रोटीन को इम्युन सिस्टम में डालने के लिए ‘डिफेक्टिव’ वायरस का इस्तेमाल किया जाता है और फिर इससे होने वाले प्रभावों परीक्षण किया जाता है।
विक्टोरिया में आस्ट्रेलियन एनीमल हेल्थ लैबोरेट्री के प्रोफेसर ट्रेवर ड्रु बताते हैं कि इम्युन सिस्टम में डाला गया वायरस अपनी प्रतिलिपि नहीं तैयार करता। इसलिए इस वैक्सीन से बीमार पड़ने की संभावना नहीं है। वो दूसरे वैक्सीन के बारे में भी बताते हैं जो अमरीकी कंपनी इनोविओ फर्मास्युटिकल्स ने तैयार किया है। यह वैक्सीन थोड़ा अलग तरीके से काम करता है। यह इस तरह से तैयार किया गया है कि यह इम्युन सिस्टम में कोरोना वायरस के कुछ प्रोटीन को इनकोड करता है और फिर शरीर की कोशिकाओं को उन प्रोटीन को पैदा करने के लिए उत्प्रेरित करता है। यह कई पहलुओं से बहुत अहम हैं और इसके सफल होने की बहुत हद तक गुंजाइश बनती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जानवरों पर होने वाले परीक्षण के नतीजे जून की शुरुआत में आ सकते हैं। अगर नतीजे सही आते हैं तो वैक्सीन को क्लीनिकल परीक्षण के लिए भेजा जा सकता है। इसके बाद से मार्केट में इसके आने की प्रक्रिया तेज हो सकती है। लेकिन विशेषज्ञ चेताते हैं कि कम से कम 18 महीने का वक्त इसके बाद भी दूसरी प्रक्रियाओं में लग सकते हैं।
कितना जीवित रह सकता है कोराना वायरस
स्मार्टफोन को हमारे द्वारा सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला गैजेट है। स्मार्टफोन दिनभर में कई सतहों और शरीर के हिस्सों को टच करता है जिसके चलते स्मार्टफोन में कीटाणु (जर्म्स) और विषाणु (वायरस) स्मार्टफोन पर रहते है। नावल कोरोनावायरस या Covid-19 का संक्रमण तेजी से फैल रहा है, ऐसे में स्मार्टफोन पर वायरस होने को लेकर सवाल उठ रहे हैं। ऐसा ही एक सवाल है कि क्या एक स्मार्टफोन से वायरस किसी यूजर में जा सकता है या किसी स्मार्टफोन में कोरोना वायरस कितनी देर तक रह सकता है। स्मार्टफोन से कोरोना का खतरा जानने के लिए हम पता करेंगे कि नावल कोरोना वायरस स्मार्टफोन की सतह पर कितनी देर तक जिंदा रह सकता है।
वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन (WHO) की एक स्टडी के मुताबिक, ओरिजिनल SARS&CoV एक ग्लास सर्फेस पर 96 घंटे यानी 4 दिन तक रह सकता था। बता दें कि सार्स वायरस 2003 में फैला था। ग्लास के अलावा यह वायरस ठोस प्लास्टिक और स्टेनलेस स्टील पर करीब 72 घंटे (तीन दिन) तक रह सकता था। अब यूनाइटेड स्टेट्स के नैशनल इंस्टीट्यूट आफ हेल्थ की एक स्टडी में पता चलता है कि मौजूद नावल कोरोना वायस स्टील और ठोस प्लास्टिक जैसी सतह पर 72 घंटे यानी 3 दिन तक जीवित रह सकता है। इस स्टडी में यह भी पता चला है कि नावल कोरोना वायरस एक कार्डबोर्ड पर 24 घंटे और कापर पर 4 घंटे तक रह सकता है। अब, इसी संस्थान की एक नई स्टडी में यह नहीं बताया गया है कि यह वायरस ग्लास पर कितने वक्त तक जिंदा रह सकता है। लेकिन दूसरे फैक्टर देखें तो संकेत मिलते हैं कि कोरोना भी सार्स की तरह ही ग्लास सर्फेस पर 4 दिन तक रह सकता है।
2003 में WHO और इसी महीने आई NH की स्टडी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि नावल कोरोना वायरस ग्लास सर्फेस पर 96 घंटे यानी 4 दिन तक जीवित रह सकता है। अब अधिकतर स्मार्टफोन्स फ्रंट ग्लास पैनल के साथ आते हैं तो यह कहा जा सकता है कि कोरोना वायरस एक स्मार्टफोन पर 4 दिन तक रह सकता है। ना सिर्फ स्मार्टफोन यानी कोई भी गैजेट जो ग्लास सर्फेस वाला है, चाहें वह स्मार्टफोन, स्मार्टवाच, टैबलेट या लैपटाप हो।
इन सभी गैजेट्स में स्मार्टफोन सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला गैजेट है। इसलिए जरूरी है कि आप अपने फोन को साफ रखें ताकि फोन पर कोरोना वायरस रहने का खतरा ना रहे। अपने स्मार्टफोन को साफ करने के लिए यूजर्स क्लीनिंग लिक्विड या माइक्रोफाइबर कपड़े का इस्तेमाल कर सकते हैं। गैजेट को सैनिटाइज करने के लिए सबसे बेहतर है कि आइसोप्रापिल अल्कोहल साल्यूशन का इस्तेमाल करें। ध्यान रहे कि ऐसे साल्यूशन का इस्तेमाल ना करें जिसमें 70 प्रतिशत से ज्यादा आसोप्रापिल हो। ऐसे साल्यूशन से फोन की डिस्प्ले खराब हो सकती है। आप स्क्रीन प्रोटेक्टर का भी इस्तेमाल कर सकते हैं और उसे साफ करने पर डिस्प्ले कोटिंग भी खराब नहीं होगी।
सदियों से होता आया है भारत में क्वारेंटाइन
‘क्वारेंटाइन’ और ‘आइसोलेशन’ से आम आदमी ज्यादा भयभीत है। जबकि जानलेवा कोविड-19 से बचने का एकमात्र तरीका है। क्वारेंटाइन का मतलब है कुछ समय के लिए अपने आपको अलग-थलग रखना। इटली में इस शब्द का इस्तेमाल 600 साल पहले हुआ। इटली का शब्द क्वारंटा जिओनी शब्द से बना क्वारेंटाइन, जिसका अर्थ है 40 दिन का। लेकिन अभी क्वारेंटाइन 14 दिन का है।
भगवान जगन्नाथ : भारतीय संस्कृति के रीति-रिवाजों सहित परम्पराओं को इसका व्यवहार आज भी होता है। सबसे पहले देखें पुरी में हर वर्ष रथ यात्रा उत्सव मनाया जाता है। यात्रा के पहले भगवान जगन्नाथ स्वामी बीमार पड़ते हैं। इस स्थिति में वे 14 दिन पूरी तरह अलग रहते हैं। इस स्थिति को मंदिर में ‘अनासार’ कहा जाता है। भगवान 14 दिन एकांवास में रहकर जड़ी-बूटियों का पानी आहार लेते हैं। यानी लिक्विड डाइट, ताकि शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़े। यह धार्मिक रीति-रिवाज सदियों से चली आ रही है।
अब क्वारेंटाइन और आइसोलेशन की अवधि वैज्ञानिकों ने 14 दिनों की बताई। सेल्फ क्वारेंटाइन में रहकर लिक्विड डाइट के इस्तेमाल पर डॉक्टरों ने जोर दिया है। धार्मिक परम्परा का विज्ञान हमें समझ नहीं आया था।
जन्म, मृत्यु संस्कार : सनातन परम्परा में भी ‘क्वारेंटाइन’ को अपनाया जाता है। प्रसव के बाद नवजात और मॉं को 6 दिन तक अलग रखा जाता है। मृत्यु संस्कार करने वाला 10 दिनों तक अलग-थलग रहता है। इन दोनों स्थितियों में भोजन भी विशेष होता है। 8वीं सदी में बोधायन और गौतम सूत्र में नवजात माता और मृतक संस्कार करने वालों को 10 दिन अलग रहने की बात कही गई है, ताकि उनके परिवार, रिश्तेदारों में कोई संक्रमण नहीं फैले।
गांव बनाना : भारत के अनेक ग्रामीण क्षेत्र में अपने-अपने तौर-तरीकों से परम्परागत रूप से आज भी यह तरीका अपनाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ के गांवों में वर्षाकाल के दौरान एक दिन का इतवारी मनाने की परम्परा है। इस दिन गांव से किसी को बाहर जाने की इजाजत नहीं रहती। गांव का बैगा गांव को बनाता है, ताकि बाहर से कोई संक्रामक बीमारी प्रवेश न कर सके।
क्या फैल सकता है बिल्लियों से कोराना संक्रमण!
वेटनरी साइंटिस्ट्स ने सलाह दी है कि बिल्लियों के मालिकों को अपने पालतू जानवरों को घरों के अंदर ही रखना चाहिए ताकि जानवरों में कोरोना न फैले। लेकिन, ब्रिटिश वेटनरी एसोसिएशन ने जोर दिया है कि पालतू जानवरों के मालिकों को जानवरों से उनमें संक्रमण होने के खतरे को लेकर चिंतित नहीं होना चाहिए।
जानवरों से इंसानों में संक्रमण नहीं : हांगकांग की सिटी यूनिवर्सिटी के डॉ. एंजेल एलमेंड्रोस के मुताबिक, ‘ऐसा एक भी मामला सामने नहीं आया है जिससे पता चला हो कि किसी पेट डाग या कैट से किसी इंसान में कोविड-19 का संक्रमण हुआ हो।’ रिसर्च से पता चलता है कि बिल्लियों में दूसरी बिल्ली से यह वायरस फैल सकता है। डाक्टर एलमेंड्रोस कहते हैं कि अच्छा यही होगा कि बिल्लियों को घर के अंदर ही रखें।
ब्रिटिश वेटनरी एसोसिएशन (बीवीए) की प्रेसिडेंट डैनिएला डास सैंटोस ने बताया कि वह इस सलाह से सहमत हैं। लेकिन, एसोसिएशन ने उसके बाद स्पष्ट किया कि बिल्लियों को घर के अंदर रखने की उनकी सलाह केवल उन लोगों के लिए है जिनके घर में किसी को कोरोना के लक्षण दिखाई दिए हैं।
इंसानों से जानवरों में संक्रमण : उन्होंने कहा, ‘किसी भी जानवर के फर में वायरस तब आ सकता है जब वह इस वायरस से संक्रमित किसी शख्स के संपर्क में आ जाए।’ इस विषय पर एक रिसर्च पेपर में डाक्टर एंजेल एलमेंड्रोस ने एक मामले का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि हांगकांग में एक 17 साल का पेट डाग कोविड-19 से संक्रमित पाया गया। लेकिन, यह पता चला कि उसे उसके मालिक से यह संक्रमण हुआ था। उन्होंने कहा, ‘लेकिन, इस तरह के मामलों के सामने आने के बावजूद जानवर बीमार नहीं हो रहे हैं।’ वह कहते हैं, ‘2003 में हांगकांग में फैले सार्स-कोव में भी कई पालतू जानवर इसकी चपेट में आ गए थे, लेकिन वे बीमार नहीं हुए। इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि कुत्ते या बिल्लियां बीमार हो सकते हैं या लोगों को संक्रमित कर सकते हैं।’
इंसानों से जानवरों में कैसे फैली : ऐसा जान पड़ता है कि बिल्लियां रेस्पिरेटरी बूंदों से संक्रमित होने को लेकर संवेदनशील होती हैं। वायरस वाली ये बूंदे लोगों के खांसने, छींकने, उबकाई लेने और सांस बाहर छोड़ने से हवा में फैलती हैं। बेल्जियम में एक ऐसा मामला सामने आया जिसमें अपने मालिक में लक्षण दिखाई देने के बाद एक बिल्ली कोरोना टेस्ट में पाजिटिव पाई गई। इस मामले के सामने आने के बाद चीन के वैज्ञानिकों ने लैब टेस्ट किए जिनसे पता चला कि संक्रमित बिल्लियों से दूसरी बिल्लियों में भी यह वायरस फैल सकता है।
लैब से मार्केट तक कैसे पहुंचती है वैक्सीन
सेंटल फार डिजीज कंट्रोल के अनुसार, वैक्सीन तैयार करने में एक लंबा वक्त लगता है। कोरोना की वैक्सीन 6 स्टेज में तैयार होगी। इसें पहला स्टेज है वायरस को समझना। चीनी वैज्ञानिकों ने 11 जनवरी को नए कोरोना वायरस का जेनेटिक सीक्वेंस सामने रखा था। इसी के बाद, दुनियाभर में रिसर्च शुरू हुई। इसका जेनेटिक मैटीरियल SARS और MERS जैसा है, इसलिए रिसर्च में थोड़ी मदद मिली। वैक्सीन डेवलपमेंट का दूसरा स्टेज है प्री-क्लिनिकल। इस स्टेज में जानवरों पर टेस्टिंग की जाती है।
थर्ड स्टेज सबसे अहम है और यहीं पर तय होता है कि वैक्सीन की अलग-अलग डोज कितनी सुरक्षित या खतरनाक है। थर्ड स्टेज के भी तीन पार्ट होते हैं। पहले पार्ट में लोगों के एक छोटे ग्रुप पर वैक्सीन का ट्रायल होता है। 16 मार्च, 2020 को अमेरिका में जेनिफर हालर पर पोटेंशियल वैक्सीन का पहला टेस्ट किया गया। दूसरे पार्ट में वैक्सीन ज्यादा लोगों को उम्र, सेहत वगैरह के हिसाब से दी जाती है। अभी हांगकांग और बीजिंग की दो कंपनियां इस स्टेज पर हैं। तीसरे पार्ट में वैक्सीन का हजारों लोगों पर टेस्ट किया जाता है और रेस्पांस देखे जाते हैं। कुछ वैक्सीन चौथे पार्ट से भी गुजरती हैं जहां अप्रूवल के बावजूद स्टडीज की जाती हैं। वैक्सीन बनाने की स्टेज 4 में रेगुलेटरी रिव्यू होता है और अप्रूवल लिया जाता है। पांचवीं स्टेज से मैनुफैक्चरिंग शुरू हो जाती है। स्टेज 6 में वैक्सीन को क्वालिटी कंट्रोल से गुजरना होता है और इसके बाद वैक्सीन मार्केट में उतार दी जाती है। वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन 3 वैक्सीन का ह्यूमन ट्रायल कर रहा है। इनमें से एक फेज 2 में है जबकि बाकी दो फेज 1 में। भारत बायोटेक लिमिटेड ने एक अमेरिकी कंपनी को साथ लेकर वैक्सीन डेवलप करने का बीड़ा उठाया है। इसके अलावा Zydus Cadila और सीरम इंस्टीट्यूट भी वैक्सीन तैयार करने में लगे हैं।
पेशेंट 31
दक्षिण कोरिया में कोविड-19 को फैलाने वाली महिला को ‘पेशंट 31’ कहा गया। आखिर क्या है पेशेंट 31? जानिए!
20 जनवरी को पहली बार वायरस का पता चला। उससे संक्रमित 30 पेशेंट निकले। इन सभी 30 पेशोंटों ने अपना ध्यान रखा और लोगों से मिले-जुले नहीं। इस तरह इन्होंने वायरस फैलने से बचा लिया। 31वीं पेशेंट थी एक 61 वर्षीय महिला। 6 फरवरी को उसकी जांच हुई, तब उसे हल्का बुखार था। महिला लोगों से मिलती रही। डॉक्टरों ने उसे खुद को आइसोललेटेड करने की सलाह दी, मगर 9 फरवरी को वह चर्च के एक समारोह में गई। 16 फरवरी को फिर एक दूसरे चर्च में गई। 19 फरवरी को उसे दिक्कत होने लगी और जांच करने पर उसे कोराना पाजिटिव पाया गया।
कोरिया सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के अनुसार पेशेंट 31 लगभग 1160 लोगों के सम्पर्क में आई। फरवरी माह में दक्षिण कोरिया में कोविड-19 ने तेजी से पांव फैलाए। दक्षिण कोरिया में कोविड-19 लाने की दोषी पशेंट 31 को करार दिया गया। एक व्यक्ति से पूरे देश में संक्रमण कैसे फैला, इसके पीछे पेशेंट 31 जिम्मेदार मानी गई।
विशेषज्ञों का मानना है कि हम बिग डैटा, क्लाउड कंप्यूटिंग, सुपर कम्प्यूटर, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, रोबोटिक्स, 3-डी प्रिंटिंग, थर्मल इमेजिंग और 5-जी जैसी टेक्नोलाजी का इस्तेमाल करते हुए बेहद प्रभावी ढंग से कोरोनावायरस से मुकाबला कर सकते हैं। इस महामारी से निपटने के लिए यह बेहद जरूरी है कि सरकार लोगों की निगरानी रखे। आज टेक्नोलाजी की बदौलत सभी लोगों पर एक साथ हर समय निगरानी रखना मुमकिन है।
इंसान जिन जानवरों को पालतू बनाया, उन जानवरों की प्राकृतिक जीवनशैली में हस्तक्षेप किया, जिसका खामियाजा जब तब इंसान भुगतता रहा है। घरेलू और जंगली जानवर से इंसान में आये वायरस से दुनिया में हर साल दो अरब लोग संक्रमित होते हैं, जिनमें से दो करोड़ लोग मौत का शिकार बन जाते हैं।
पानी की कमी ने अब दो बातों पर ऊंगली रखी है-एक, क्या पानी का टोटा सचमुच ऐसा है जिससे निपटने के लिए ‘तीसरा विष्वयुद्ध’ छेड़ना पडे़? और दूसरे, क्या उस ‘अपराधी’ को पहचानना आसान होगा जिसकी कथित जरूरतों, असीमित उपयोग और बर्बादी के चलते पानी ‘गायब’ हुआ है? आंकडें़ और अनुभव बताते हैं कि पानी की कमी उतनी नहीं है जितनी उसे उपयोग की किफायत और समझदारी की। इसी तरह पानी के ‘गायब’ होने में उन किसानों, ग्रामीणों का उतना हाथ नहीं है जितना पानी के धंधे को फैलाने-बढ़ाने में लगे व्यापारियों का। प्रस्तुत है, इस विषय की गहराई से पड़ताल करता यह लेख।
जलसंकट और रेगिस्तानों के लिए प्रसिद्ध हमारे राजस्थान में एक गांव ऐसा भी है जहां सिर्फ पक्षियों की पूछ-परख होती है। उदयपुर के पास मेनार गांव में विकास की हर योजना पक्षियों की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाई और अमल में लाई जाती हैं। इस कमाल के गांव के बारे में बता रहे हैं।